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________________ जिन सूत्र भाग : 2 हम जीये चले जाते हैं। और हाथ से रोज-रोज जीवन चुकता | हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जाता है। इधर जीवन राख हुआ जा रहा है, उधर आशा सुलगती आशा-निराशा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रहती है, सुलगाए रखती है। हम दौड़े रहते हैं। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वासना से भी ज्यादा खतरनाक पकड़ है आशा की। क्योंकि स्वर्ग-नर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा तो दिखाई पड़ता है कि बहुत से लोग वासना से ऊब जाते तुम दुख से बचना चाहते हो, सुख पाना चाहते हो; मिलता तो हैं, मगर आशा से नहीं ऊबते। इधर वासना से ऊबते हैं, तो दुख ही है। तुम निराशा से बचना चाहते हो, आशा को उकसाए भागते हैं संसार छोड़कर; लेकिन संन्यास में भी आशा को तो रखते हो; मिलती तो निराशा ही है। जलाए ही रखते हैं कि जो संसार में नहीं मिला, वह संन्यास में महावीर कहते हैं, आशारहित हो जाओ; आशा से शुद्ध हो मिल जाएगा। | जाओ। आशा को छोड़ दो। आशा के छोड़ते ही एक क्रांति महावीर की दृष्टि में संन्यास घटता है, जब तुम आशारहित हो | घटती है। वह क्रांति है, भविष्य का विसर्जित हो जाना। वह गए। जब तुमने यह स्वीकार कर लिया कि कुछ होता ही नहीं, क्रांति है, भविष्य का समाप्त हो जाना। निराशा नहीं आती, होनेवाला नहीं है। सब आशाएं व्यर्थ हैं, धोखा हैं, प्रवंचना हैं, भविष्य विदा हो जाता है। और भविष्य के विदा होते ही तुम्हारी मृग-मरीचिका हैं। ऊर्जा यहीं और अभी ठहर जाती है। तुम तो घबड़ाओगे। तुम कहोगे, अगर ऐसा आदमी | वही ध्यान का पहला चरण है-ऊर्जा यहां, अभी ठहर जाए। आशारहित हो जाए, हताश हो जाए, निराश हो जाए तो जीयेगा कल में न भटकती फिरे, कल में तलाश न करे। आज और यहीं कैसे? चलेगा कैसे? उठेगा कैसे? सुबह बिस्तर से बाहर कैसे और इसी क्षण तुम्हारा सारा अस्तित्व संगठित हो जाए। निकलेगा? अगर कुछ भी नहीं होना है तो बिस्तर से बाहर अभी तुम बिखरे-बिखरे हो। कुछ अतीत में पड़ा है, जो अब निकलने का भी क्या प्रयोजन? रहा नहीं; कुछ वहां उलझा है...कुछ क्या, काफी उलझा है। हम डरते हैं। हम डरते हैं कि ऐसा आदमी अगर निराश हो नब्बे प्रतिशत आदमी अतीत में उलझा है। किसी ने गाली दी थी गया तो फिर जीना असंभव है; श्वास लेना असंभव है। लेकिन बीस साल पहले, अभी भी वहां उलझाव बना है। तीस साल हमें पता नहीं है। निराश भी हम तभी तक होते हैं, जब तक पहले कोई मित्र चल बसा था दुनिया से, अभी भी एक घाव बना | आशा है। जब आशा बिलकुल विदा हो जाती है तो निराश भी है। पंद्रह साल पहले कोई हार हो गई थी, अभी तक उसकी होने को कुछ नहीं बचता। इसे समझना। तिक्तता जीभ पर बनी है। अभी तक छटती नहीं है। अभी तक निराशा आशा की असफलता है। बार-बार याद आ जाती है। निराशा आशा का अभाव नहीं है, निराशा आशा की नब्बे प्रतिशत आदमी वहां उलझा है, जो है नहीं; और जो दस असफलता है। जिस आदमी ने आशा छोड़ दी, उसी के साथ प्रतिशत है वह वहां उलझा है, जो अभी आया नहीं। ऐसे हम निराशा भी छूट गई। अब निराश होने को भी कुछ न बचा। जब | शून्य में जीते हैं। आशा ही न बची तो निराश होने का क्या बचा? जब जीत का यही ठीक अर्थ है माया में जीने का। माया का अर्थ है, उसमें कोई खयाल ही न रहा तो हारोगे कैसे? | जीना, जो नहीं है-अतीत; और उसमें जीना, जो अभी आया इसलिए लाओत्से कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता। नहीं है- भविष्य। क्योंकि मैं जानता है, जीत होती ही नहीं। और मैं जीत की कोई और ब्रह्म में जीने का अर्थ है अभी जीना. यहीं जीना, सौ आकांक्षा नहीं करता हूँ। मझे कोई हरा नहीं सकता। प्रतिशत इसी क्षण में इकट्ठे हो जाना। सारी प्राण-ऊर्जा इसी क्षण कैसे हराओगे उस आदमी को, जो जीतने के लिए आतुर ही में आकर इकट्ठी हो जाए, केंद्रित हो जाए, संगठित हो जाए, नहीं है? जिसने जीतने की व्यर्थता को समझ लिया, उसे तुम | एकाग्र हो जाए। तो उस ऊर्जा की एकाग्रता में ही हमारा पहला कैसे हराओगे? संबंध, पहला साक्षात्कार सत्य से होता है। 332 Jal Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340148
Book TitleJinsutra Lecture 48 Dhyan hai Aatmraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size32 MB
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