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________________ . हला सूत्रः कि मन बनता कैसे है! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता। 7 'समाधि की भावना वाला तपस्वी इंद्रियों के हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। अनुकूल विषयों में कभी राग-भाव न करे और लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों प्रतिकूल विषयों में भी मन में द्वेष न लाए।' | को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की नहीं होता। बुनियाद चुनने में है। चुना, कि मन आया। न चुनो, मन नहीं महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भावदशा के लिए है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस | पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो अवेयरनेस-चुनावरहित सजगता। ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। न रहेगा | पेंडुलम की तरह। कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता। बांस, न बजेगी बांसुरी। कभी कहता अपना, कभी कहता पराया। मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना | जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक संभव नहीं। शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल 'मेरा है', संयोग-मिलन को पकड़ा-बिछोह के बीज बो दिए। कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है-सुख। भीतर खोजने जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं वहीं-वहीं नर्क की उपलब्धि होती है। पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी और विरागियों की पूरी कथा है। मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। चाह | धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख मिला, तो अब धन को नहीं मात्र मन की निर्मात्री है। पकड़ते। लेकिन 'नहीं पकड़ने' पर उतना ही आग्रह है। पहले तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है? यह धन के लिए दीवाने थे, अब धन पास आ जाए तो घबड़ा जाते हैं, | पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है जैसे सांप-बिच्छू आया हो; जैसे जहर आया हो। 325 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340148
Book TitleJinsutra Lecture 48 Dhyan hai Aatmraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size32 MB
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