Book Title: Jinsutra Lecture 39 Prem hai Dwar
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रवचन प्रेम है द्वार For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार महावीर ने आत्मा को समय क्यों कहा? समय और आत्मा में क्या संबंध है? पत्नी मूर्तिपूजक। पति का ध्यान के लिए आग्रह तथा मूर्तिपूजा को व्यर्थ बताना। उदाहरण में पत्नी द्वारा मीरा जैसी मूर्तिपूजक का प्रमाण। __पति का निरुत्तर होना। यथार्थता पर प्रकाश डालने के लिए भगवान से निवेदन। किसी का सहारा पकड़ने, किसी के प्रेम के साये में बैठने का खयाल; लेकिन वैसा न होने पर भी संतोष ही कि कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ है। ऐसा क्यों? Ang 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः महावीर ने आत्मा को समय क्यों है समय का। मनुष्य को बहुत बोध है समय का। तुम कहीं हो कहा? कृपाकर बतायें कि समय और आत्मा में स्थान में, और कहीं हो समय में। इन दोनों रेखाओं का जहां क्या संबंध है? कटने का बिंदु है, वहीं तुम्हारा अस्तित्व है। तो हम पदार्थ को कह सकते हैं स्पेस। क्योंकि वह सिर्फ क्षेत्र अलबर्ट आइंस्टीन ने अस्तित्व के संघटक तत्व दो माने हैं। घेरता है। और चेतना को कह सकते हैं समय। चेतना और टाइम और स्पेस। समय और क्षेत्र। और फिर बाद में जैसे-जैसे पदार्थ से मिलकर जगत बना। वस्तुएं हैं, उन्हें अपने होने का आइंस्टीन की खोज गहरी होती गयी, उसे यह भी प्रतीत होने कोई पता नहीं। और जैसे ही हमें अपने होने का पता चलता है, लगा कि इन दो तत्वों को दो कहना ठीक नहीं है। इसलिए फिर वैसे ही समय का भी पता चलता है। हमारा होना अंतर्तम में उसने दोनों के लिए एक ही शब्द चुन लिया : स्पेसियोटाइम। समय की घटना है। समय-क्षेत्र। तो एक तो हम इस तरह समझ सकते हैं आधुनिक भौतिकी के क्षेत्र बाहर है, समय भीतर है। आधार पर कि आइंस्टीन ने जिस भांति अंतर-आकाश को समय जीवन को अगर हम ठीक से समझें, तो हमें होने के लिए दो | कहा, वैसे ही महावीर ने भी आत्मा को समय कहा है। और जब जीजें चाहिए। कोई जगह चाहिए होने के लिए। हम कुछ जगह | मैं अलबर्ट आइंस्टीन का नाम लेता हूं महावीर के साथ, तो और घेरेंगे। तुम यहां बैठे हो, तो तुमने थोड़ी जगह घेरी। वही है क्षेत्र, | भी कारण है। दोनों की चिंतनधारा एक-जैसी है। महावीर ने आकाश. स्पेस। लेकिन उतना काफी नहीं है। अगर उतना ही अध्यात्म में सापेक्षवाद, रिलेटीविटी को जन्म दिया और हो, तो तुम वस्तु हो जाओगे। फिर तुममें और टेबल और कुर्सी | आइंस्टीन ने भौतिक विज्ञान में रिलेटीविटी को, सापेक्षवाद को में कोई फर्क न रहेगा। टेबल और कुर्सी ने भी जगह घेरी है। जन्म दिया। दोनों का चिंतन-ढंग, दोनों के सोचने की पद्धति, जैसी तुमने जगह घेरी। तुम जिस फर्श पर बैठे हो, उसने भी दोनों का तर्क एक-जैसा है। अगर इस दुनिया में दो आदमियों जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी है। का मेल खाता हो बहुत निकट से, तो महावीर और आइंस्टीन का फिर तुममें और पत्थर में फर्क क्या है? खाता है। महावीर का फिर से अध्ययन होना चाहिए, आइंस्टीन तुमने कुछ और भी भीतर घेरा है, वही समय है। पत्थर के के आधार पर। तो महावीर में बड़े-बड़े नये लिए कोई समय नहीं है, कुर्सी के लिए कोई समय नहीं है। उद्भावों का जन्म होगा। जो हमें महावीर में नहीं दिखायी पड़ा मनुष्य के लिए समय है। पशु-पक्षियों के लिए थोड़ा-सा बोध है | था, वह आइंस्टीन के सहारे दिखायी पड़ सकता है। महावीर समय का, बहुत ज्यादा बोध नहीं है। वृक्षों को और भी कम बोध और आइंस्टीन में जैसे धर्म और विज्ञान मिलते हैं। जैसे महावीर 143 2010_03 www.jainelibrar.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं, और आइंस्टीन विज्ञान के जगत विपरीत के चक्के से छूटना हो जाता है। का महावीर है। एक। और इसीलिए महावीर ने ध्यान को सामायिक कहा। दूसरी बात, समय शब्द टाइम शब्द से ज्यादा बहुमूल्य है। सामायिक है समय तक पहुंचने का उपाय। सामायिक है टाइम का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है, जितना काल का होता सम्यकत्व तक पहुंचने की विधि। धीरे-धीरे डूबो और शांत है। टाइम का ठीक अनवाद करना हो तो समय नहीं करना बनो। जैसे-जैसे शांत बनोगे, जैसे-जैसे तरंगें कम होंगी. चाहिए, काल। काल का अर्थ होता है, जो बीत रहा है। काल वैसे-वैसे भीतर का स्वाद आना शुरू होगा। का अर्थ होता है, जो जा रहा है। समय का अर्थ होता है, जो थिर | महावीर ने बहुत सोचकर ही समय नाम दिया आत्मा को। है। समता से बना है, सम्यकत्व से बना है समय। संतुलन से उसका वैज्ञानिक अर्थ भी है, उसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। बना है। संबोधि से बना है। जो मूल धातु संबोधि में है, वैज्ञानिक अर्थ तो मैंने कहा, जो आइंस्टीन का अर्थ है, वही सम्यकत्व में है, समता में है, समाधि में है, वही मूल धातु समय महावीर का है। और आध्यात्मिक अर्थ मैंने कहा, जो कृष्ण का म' का ठीक-ठीक अनुवाद समय नहीं है। अर्थ है-योग को सम्यकत्व कहने का, समत्व कहने और समय का ठीक अनुवाद 'टाइम' नहीं है। का-वही महावीर का अर्थ है। समय बड़ा बहुमूल्य शब्द है। काल तो केवल इसकी एक भाव-भंगिमा है। काल से ज्यादा छिपा है समय में। अगर समय दूसरा प्रश्न : मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे को जानना हो, तो सम्यकत्व को उपलब्ध होना पड़ेगा। इतने | ध्यान करने को कहता हूं और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है। शांत हो जाना पड़ेगा कि जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए। पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी। मेरे पास तब तुम्हें पहली दफे पता चलेगा, तुम किस धातु से बने हो। तब इसका जवाब नहीं है। कृपया बतायें कि यह बात कहां तक तुम्हें पता चलेगा तुम कौन हो। समता की आखिरी घड़ी में ही ठीक है, और यह कि पत्नी को कैसे समझाऊं? तुम्हें अपने समय का बोध होगा। इसलिए महावीर ने आत्मा को समय कहा। समता की अनुभूति। मनुष्य को सदा एक पागलपन सवार रहता है। जो मैं मानता कृष्ण ने कहा है, समत्व योग है। समत्व को ही योग कहा है। हूं, वह दूसरा भी माने। जो मैं मानता हूं, वही ठीक है। जो दूसरा इतने सम हो जाओ तुम कि द्वंद्व के जगत के पार हो जाओ। मानता है, वह गलत है। यह अहंकार की ही घोषणा है। साधारणतः हम बंटे हैं। साधारणतः हमारा चुनाव है। कोई स्त्री महावीर ने कहा है, दूसरा भी ठीक है। है, कोई पुरुष है। आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। इसलिए समय है। मैं ही ठीक हूं, ऐसी धारणा निर्बुद्धिपूर्ण है। फिर अगर तुम्हारी आत्मा का जो अनुभव है, वहां न तो तुम स्त्री रह जाओगे, न | पत्नी को मूर्तिपूजा में आनंद मिल रहा है, तो तुम बाधा पुरुष। दोनों द्वंद्व गये। तुम दोनों द्वैत के पार हुए-अद्वैत हुए। डालनेवाले कौन? तुम्हें प्रयोजन क्या? सिर्फ पति होने के जिस क्षण तुम्हें पता चलेगा तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का, उस | कारण? तुम्हें अड़चन मालूम हो रही है कि पत्नी पर पूरा कब्जा क्षण न तुम स्त्री होओगे, न पुरुष। उस क्षण तुम न जवान नहीं है। मैं ध्यान करता हूं, पत्नी मूर्तिपूजा करती है! तुम्हें ध्यान | होओगे, न वृद्ध। उस समय तुम न गोरे होओगे, न काले। उस में रस आ रहा है, ध्यान करो। पत्नी को मूर्तिपूजा में रस आ रहा क्षण तुम न स्वस्थ होओगे, न अस्वस्थ। सब द्वंद्व गया, समता है, मूर्तिपूजा करने दो।। आयी। उस क्षण न तुम सुखी होओगे, न दुखी। उस क्षण न रात रस असली बात है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव होगी, न दिन। उस क्षण न जन्म होगा, न मृत्यु। उस क्षण गये | रस है। कैसे रस मिलता है, यह बात गौण है। आम खाने हैं या सारे द्वंद्व। उस क्षण बस निर्द्वद्व-भाव शेष रहा। इसलिए महावीर गुठलियां गिननी हैं? ने आत्मा को समय कहा। समता, सम्यकत्व। | लेकिन लोग गठलियों का ढेर लगाये बैठे हैं। उसी को वे ऐसा गहरा सम्यकत्व कि जहां अतिक्रमण हो जाता है। दर्शनशास्त्र कहते हैं। आम खाना तो भूल ही गये। तुम्हारी पत्नी 144 Jair Education International 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है द्वार तुमसे बेहतर है। कम से कम यह तो नहीं कहती कि तुम ध्यान सामान्य जीवन में भी आत्मा प्रविष्ट होती है और देह धरकर छोड़ो। तुमसे ज्यादा समतावान है। पत्नियां अकसर ऐसी होती | बाहर आती है। जब प्रविष्ट होती है आत्मा स्त्री के गर्भ में, तब नहीं, तुम सौभाग्यशाली हो। पत्नियां इतनी आसानी से कब्जा | अरूप होती है। निराकार होती है। स्त्री उसे रूप देती है। नहीं छोडतीं। मेरे पास जो मामले आते हैं. दस मामलों में नौ | आकार देती है. रेखाएं देती है। देह देती है। पत्नियों के होते हैं कि वे पतियों पर जबर्दस्ती करती हैं। एक पति | तो स्त्री के अस्तित्व में ही देह देने का ढंग छिपा हुआ है। अगर का होता है कि वह पत्नी पर जबर्दस्ती करता है। | वह ध्यान भी करेगी, तो उसके गर्भ में भगवान रूप ले लेंगे। वह इस दृष्टि को छोड़ो। स्वतंत्रता प्रेम का अनिवार्य लक्षण है। | उसके देखने का ढंग है। पुरुष को समझ में नहीं आता कि क्या अगर तुम पत्नी को प्रेम करते हो, चाहते हो, उसका शुभ चाहते | पत्थर की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा कर रही हो! पत्थर की मूर्ति हो, मंगल चाहते हो, तो उसे स्वतंत्रता दो। हालांकि तुम्हारा मन | तुम्हें है। जिसकी आंखें प्रेम से गीली हैं, उसके लिए पत्थर की यही कहेगा, मंगल चाहते हैं इसीलिए तो ध्यान करवा रहे हैं। | मूर्ति मुस्कुराती है, गाती है, गुनगुनाती है। बातचीत चलती है। तम्हारा मन कहेगा. मंगल चाहते हैं इसीलिए तो मर्तिपजा से | ऐसा ही नहीं कि स्त्री ही बोलती है, परमात्मा भी उससे उसी ढंग छुटकारा दिला रहे हैं, नहीं तो कौन फिजूल मेहनत करता! उसके | | से बोलता है। सच तो यह है कि अगर स्त्री ठीक प्रार्थना में हो तो ही हित में! लेकिन उसका हित वही निर्णय कर सकेगी, तुम न | कम ही बोलती है। रूठ-रूठ जाती है, परमात्मा मनाता है। निर्णय कर सकोगे। तुम उसे न समझ पाओगे। जरूरत भी तुम्हें समझने की नहीं बड़ा कठिन है दूसरे के स्थान पर खड़े होकर दूसरे की स्थिति है। तुम्हारा मार्ग ध्यान है। पुरुष का मार्ग ध्यान है। तुम अगर को देखना। वह सबसे बड़ी कला है। तुम स्त्री होकर देखो। तब प्रार्थना भी करोगे, तो भी तुम्हारा आकर्षण ध्यान की तरफ लगा तुम्हें समझ में आयेगा कि ध्यान और मूर्तिपूजा का फर्क क्या है? रहेगा। तुम प्रार्थना भी ध्यान के लिए ही करोगे। तुम मूर्तिपूजा-पूजा का भाव ही स्त्रैण-ध्यान है। वह स्त्री का ढंग है किसी तरह विचार से छुटकारा हो जाए, किसी तरह यह सब ध्यान करने का। स्त्री ध्यान भी करे, तो वह प्रार्थना से भिन्न नहीं तरंगें समाप्त हों—निस्तरंग हो जाऊं! स्त्री कहती है, कैसे यह हो सकता। प्रेम उसका स्वभाव है। पुरुष के लिए प्रेम और सब तरंगें रसपूर्ण हो जाएं। निस्तरंग होने की कोई आकांक्षा नहीं बहुत-सी चीजों में एक घटना है। स्त्री के लिए प्रेम उसका है। तुम्हारी आकांक्षाएं अलग हैं। होनी ही चाहिए। पुरुष और सब-कुछ है। पुरुष चौबीस घंटे में कुछ क्षण प्रेमपूर्ण होता है, स्त्री बड़े विपरीत हैं। इसीलिए तो उनमें आकर्षण है। विपरीत में लेकिन प्रेम सब कुछ नहीं है। और भी बहुत कुछ है पुरुष को आकर्षण होता है, खिंचाव होता है। इसीलिए तो पुरुष स्त्री पर करने को। स्त्री के लिए प्रेम सब-कुछ है, उसका सर्वस्व है। आसक्त है, स्त्री पुरुष पर आसक्त है। अगर बिलकुल एक जैसे ध्यान की बात तो स्त्री को जमेगी ही नहीं। वह ध्यान भी करेगी | होते तो आकर्षण टूट जाता। विपरीत खींचता है। लेकिन इस तो नाम ही ध्यान रहेगा, होगी प्रार्थना। ध्यान में भी आंसू बहेंगे। विपरीतता को समझना चाहिए। ध्यान में भी रस उमगेगा। ध्यान में भी मूर्ति प्रविष्ट हो जाएगी। स्त्री तोड़ने की कोशिश करती है पति को कि वह भी उसी के ध्यान में भी परमात्मा रूप धर लेगा। स्त्री के पास रूप देने की | ढंग से चले, पति तोड़ने की कोशिश करता है स्त्री को कि वह भी कला है। उसके ढंग से चले। यहीं भ्रांति हो जाती है, यहीं गलती हो जाती इसलिए तो गर्भ है उसके पास। है। यहीं महावीर को समझना बड़ा उपयोगी है। महावीर ने जो निराकार आत्मा उतरती है और स्त्री के गर्भ में रूप ले लेती है। दृष्टि दी है, वह है स्यातवाद। वे कहते हैं, दूसरा भी ठीक होगा। मूर्ति का जन्म हो जाता है। पुरुष के पास वैसी क्षमता नहीं है। होना चाहिए। नहीं तो दूसरा टिका क्यों रहेगा उस पर? मूर्ति वह निराकार को आकार बनाने में कुशल नहीं है। वह निराकार इतने दिन से मिटायी जाती रही है, फिर भी बनी है। कितनी को आकार देने में समर्थ नहीं है। स्त्री की बड़ी सामर्थ्य है। मूर्तियां तोड़ी गयीं, फिर-फिर बन जाती हैं। जब तक स्त्री है, उसके पास कुछ है, जिससे निराकार आकार बन जाता है। मूर्ति टूट नहीं सकती। कोई उपाय नहीं। स्त्री को ही तोड़ डालो, 145 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Homwwcommonloonlowa adeomammeenieswwwwwwwwwwwwwwwwwwein जिन सूत्र भाग : 2 BARBARIMARHI तो बात अलग। उस दिन मूर्ति टूट जाएगी। लेकिन स्त्री को वहां तुम देखोगे, अरे! प्रार्थना भी वहीं ले आयी, पूजा भी वहीं तोड़कर तुम भी न बचोगे। ले आयी, ध्यान भी वहीं ले आया। सभी मार्ग वहीं ले आते हैं। पुरुष के धर्म मूर्ति-विरोधी हैं। स्त्री का धर्म रूप का, रंग का, अंतर यात्रा-पथों का है, मंजिल का नहीं है। रस का, उत्साह का, उत्सव का। पुरुष का धर्म त्याग का, दूसरे को समझने की, दूसरे की स्थिति को समझने की करुणा तपश्चर्या का, संकल्प का, संघर्ष का। स्त्री का धर्म समर्पण का, दिखानी चाहिए। तर्क बड़ा कठोर है। प्रेम बड़ा करुणापूर्ण है। शरणागति का। स्त्री ने चाहा नहीं निराकार को कभी, स्त्री को तो अगर तुम अपनी पत्नी को चाहते हो, तो तुम यही चाहोगे कि वह समझ में भी नहीं आता कि निराकार को चाह कर करोगे क्या? सुख को पाये, आनंद को पाये, महासुख की यात्रा पर जाए। प्रभु जिससे छाती न लग सको, जिसे भर-आंख देख न सको, उसे मिलें। फिर जिस ढंग से उसने चाहा हो, वैसे मिलें। और जिसके हाथ में हाथ न दे सको, जिसे सुन न सको, जिससे बोल परमात्मा उसी ढंग से मिल जाता है, जिस ढंग से तुम उसे खोजते न सको, ऐसे निराकार के होने में और न होने में क्या फर्क है? हो। वह तुम्हारे ढंग से तुम्हारे पास आ जाता है। हजार रूप हैं निर्गुण को क्या करोगे? खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे, उसके। अरूप भी वही है। संकल्प से भी मिल जाता है। बिछाओगे-क्या करोगे? | समर्पण से भी मिल जाता है। सत्य बेशर्त है। उसकी कोई शर्व नहीं, स्त्री की तो प्रार्थना है कि तुम स ग होकर आना। तुम नहीं कि एस आआग, नहीं कि ऐसे आओगे, तो ही मिलंगा। आओ, बस आओ। रूप धरकर आना, ताकि तुम्हें देख तो सकें। आंखें जन्मों-जन्मों किस रास्ते से आते हो, पूरब कि पश्चिम, कि उत्तर कि दक्षिण, की प्यासी हैं। तुम बोलना, ताकि तुम्हारा संगीतपूर्ण स्वर मेरे नहीं कोई भेद पड़ता। नाचते आते, गीत गाते आते, कि मौन सोये प्राणों को जगा सके। तुम आना, मुझे सहलाना; तुम आते, नहीं फर्क पड़ता। आना, मेरे साथ नाचना।। मीरा वहीं पहुंच गयी, जहां महावीर पहुंचे। और अगर चुनना तुम स्त्री को बाधा मत दो। बाधा देना अधार्मिक है। अगर उसे ही हो, तो मीरा का मार्ग ज्यादा रसपूर्ण है। वहां बहुत फूल खिले रस मिल रहा है, ठीक। अगर तुम्हारी समझ में नहीं पड़ता, तो | हैं। महावीर का मार्ग तो मरुस्थल जैसा है। सूखा। मरुस्थल का तुम्हें समझने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें जिसमें रस मिल रहा है, भी सौंदर्य है। मरुस्थल की भी विराटता है। मरुस्थल का भी ठीक! रस ही असली बात है। रस है मापदंड। रस न मिल रहा | विस्तार है। सन्नाटा है। मरुस्थल की शांति है। लेकिन फूलों से हो, तो सोचने की जरूरत है। और मुझे लगता है, तुम्हारी स्त्री | लदे वृक्षों के नीचे से गुजरने का भी अपना सौंदर्य और अपना को तुमसे ज्यादा रस मिल रहा है। तुम्हें पूरा रस नहीं मिल रहा। आनंद है। मीरा नाचती हुई पहुंची। महावीर ठहरकर पहुंचे, तुम्हारा ध्यान ठीक नहीं उतर रहा। क्योंकि जब खुद का ध्यान मीरा नाचकर पहुंची। महावीर रुककर पहुंचे, मीरा दौड़कर ठीक उतरता है, कौन फिकिर करता है? तुम्हें अड़चन है। तुम पहुंची। लेकिन जो घटा वह बिलकुल एक है। सिद्ध करना चाहते हो कि मेरा ध्यान बडा तम्हें जो उचित लगता हो, चलो। न तो दसरे को मौका दो कि बहुमूल्य है। तुम तर्क और प्रमाण, विवाद खड़ा करना चाहते तुम्हारे मार्ग पर बाधा दे और न तुम ऐसी कुछ कोशिश करो कि हो। इस तरह दूसरे को तुम राजी करके अपनी आंखों के सामने किसी के मार्ग पर बाधा पड़े। तुम्हें कैसे पता चला कि मूर्तिपूजा यह भाव बनाना चाहते हो कि नहीं, तुम्हारी बात ठीक होनी ही ठीक नहीं है? तुमने मूर्तिपूजा की? अगर की होती, तो पता चाहिए। देखो पत्नी ने भी मान लिया। चलता। की ही नहीं, तर्कजाल बिठाये बैठे हो। मूर्तिपूजा का लेकिन यह मनवाना खतरनाक है। उसे चलने दो उसकी राह तर्कजाल से कुछ लेना-देना नहीं है। मूर्तिपूजा तो रस का अनुबंध पर। दूसरे की सहमति आवश्यक कहां है? तुम अपने ध्यान में है। प्रेम का अनुबंध है। स्त्री तो सपनों में जीती है। मगर उसकी डूबो, उसे अपनी प्रार्थना में डूबने दो। डूब-डूबकर तुम एक दिन शक्ति इतनी है कि सपनों को साकार कर लेती है। जाने दो, उसे पाओगे कि तुम एक-ही गहराई में पहुंच गये हो। वहां तुम्हारा विदा दो खुशी के साथ कि तू अपने मार्ग पर जा। मिलन होगा, वहां तुम अपनी पत्नी को फिर नये रूप में पाओगे। 'मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे ध्यान करने को 146 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREFER RIER Mosities कहता हूं।' बंद करो ऐसा कहना! तुम कौन हो? पति होने से न सभी सागरों की गहराई ही छुई है। और तुम सभी घाटों से तम उसकी आत्मा के मालिक नहीं हो। यह जो सात फेरे पड़े उतरे नहीं, और तुमने सभी नावों से यात्रा नहीं की है। तुम इतना होंगे, इनसे एक सांसारिक रिश्ता बन गया है, लेकिन उसकी ही कह सकते हो कि मेरी नाव ने पहुंचा दिया। दूसरी नावें आत्मा को तुमने खरीद नहीं लिया। मुक्त करो उसे। उसे जाने दो पहुंचाती हैं, नहीं पहुंचाती हैं, मैं कैसे कहूं? जो चले हों उन नावों अपने मार्ग पर। उसे चुनने दो अपनी विधि, अपना विधान। से, पूछो उनसे। उसके हृदय को बहने दो। महावीर कहते हैं खुद, कि मैं एक तीर्थ बनाता हूं। तीर्थ का 'और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है।' भूलकर ऐसी बात मत | अर्थ होता है, घाट। नदी बड़ी है। बड़ी गंगा है। गंगोत्री से कहना। किसी को उसके रास्ते से व्यर्थ ही भटकाना मत। अगर | सागर तक फैली है। हजारों-लाखों घाट हैं। महावीर कहते हैं, व्यर्थ होगी, तो एक दिन उसे समझ में आयेगी बात, तब वह | मैं एक घाट बनाता हूं। एक तीर्थ बनाता हूं। इसीलिए तीर्थंकर रूपांतरित होगी। कोई किसी दूसरे के समझाये कहीं समझा है? | शब्द। वह यह नहीं कहते कि दूसरे घाट गलत हैं। वह कहते हैं, अपने अनुभव से ही लोग जागते हैं। अगर सार्थक होगी, तो | इतना ही में कहता हूँ कि मेरे घाट से में पहुंच जाएगी। अगर व्यर्थ होगी, तो आज नहीं कल, भटककर | सकते हो। अगर मेरा घाट तुम्हें आकर्षित करता हो, अगर मेरे लौट आयेगी। जब तुमसे पूछे कि समझाओ मुझे ध्यान, क्योंकि घाट में तुम्हें कोई लुभावना निमंत्रण मिलता हो, आ जाओ, मेरी मूर्तिपूजा तो मेरी व्यर्थ हुई, तब निवेदन कर देना। लेकिन तब | नाव तैयार है। महावीर तो एक माझी हैं। नाव लिए तैयार खड़े तक प्रतीक्षा करना, धैर्य रखना। जिस दिन पूछे तुमसे, जिस दिन | हैं, जिनको उतरना हो इस घाट से, इससे उतर जाएं। लेकिन तुम्हारा आनंद उसे छुए और उसे लगे कि तुम तो कुछ पा लिये | महावीर कहते हैं, नदी बड़ी है, घाट और भी हैं। और औरों से और मैं कुछ चूक गयी हूं, उस दिन समझा देना। | भी लोग उतरे ही होंगे, अन्यथा घाट टूट गये होते, बंद हो गये गरु बनने की चेष्टा मत करो। जिस दिन कोई शिष्य बनकर | होते. समाप्त हो गये होते। अगर कोई कभी न उतरा होता. अगर आ जाए, उस दिन अपना सत्य निवेदन कर देना। तब भी तुम | उन घाटों से चलकर लोग डूबते ही रहे होते और दूसरा किनारा यह मत कहना कि मूर्तिपूजा गलत है। तब तुम इतना ही कहना | मिलता ही न होता, तो घाट समाप्त हो गये होते। कि ध्यान सही है। इनमें फर्क है। क्योंकि तुम इतना ही कह इतने धर्म हैं जगत में, क्योंकि सभी धर्मों में सत्य का कोई अंश सकते हो कि मैंने ध्यान किया और पाया कि सही है। मूर्तिपूजा है। सभी किसी न किसी तरह किसी न किसी को पहुंचाते रहे, मैंने कभी की नहीं, तो मैं कौन ? मैं कैसे कहूं, गलत या सही? अन्यथा उनके होने का अर्थ खो जाए। असत्य जी नहीं सकता। कुछ भी कह सकता नहीं। ध्यान मेंने किया है और पाया है कि थोड़ी-बहुत देर शोरगुल मचा सकता है, मर जाएगा। सत्य ही सही है। अगर तेरी मूर्तिपूजा का रास्ता तुझे न पहुंचाता हो, तो जीता है। सत्य ही जीतता है। सत्यमेव जयते। यह मेरे ध्यान के सूत्र हैं, यह निवेदन है। लगे तुझे ठीक, चल मूर्तिपूजा व्यर्थ है, ऐसा तो कहना ही मत। इससे तुम्हारा क्रोध पड़। न लगे ठीक, तेरी मर्जी। फिर भी थोपना मत। सत्य थोपे | तो मालूम पड़ता है, प्रेम नहीं मालूम पड़ता। इससे तुम्हारी हिंसा नहीं जाते। तो मालूम पड़ती है, तुम्हारी करुणा नहीं मालूम पड़ती। इससे सत्याग्रह शब्द बिलकुल गलत है। सत्य का कोई आग्रह होता | ऐसा तो लगता है कि तुम पत्नी को दबाने को उत्सुक हो, अपने ही नहीं। सत्य का सिर्फ निवेदन होता है। सत्य की तो आग्रह के | पीछे चलाने को उत्सुक हो, छाया बनाने को उत्सुक हो, उसको साथ अगर तुमने गांठ बांध दी, तो आग्रह जीत जाएगा, सत्य मर तुम आत्मा की स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं। और प्रेम, कैसा जाएगा। सत्य की फांसी लग जाती है सत्याग्रह में। आग्रह ? प्रेम, जो इतनी भी स्वतंत्रता न दे! पूजा, प्रार्थना, ध्यान तो बड़ी महावीर ने कहा है, निराग्रह। जो निराग्रह-भाव को उपलब्ध आत्यंतिक बातें हैं। इससे पति-पत्नी का कुछ लेना-देना नहीं। होता है, वही सत्य को उपलब्ध होता है। सब आग्रह छोडो। दनिया जब अच्छी होगी. तो स्वतंत्रता और गहन होगी-पत्नी। जगत बड़ा है, विराट है। तुमने सब रास्ते नहीं नाप लिये हैं और हो सकता है मस्जिद जाए, पति हो सकता है मंदिर जाए। बेटे हो 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 सकता है कहीं भी न जाएं, ध्यान करें और कोई किसी को बाधा न | जाता है। दे। जिसको जहां ठीक लगे। किसी को करान से रस मिल जाता | परमात्मा कहीं कोई बैठा थोडे ही है? तम अपना जीवन-दान है, रसधार बहती है, बहे। रसधार ही असली बात है। कोई | देकर उसे सृजन करते हो। परमात्मा मनुष्य का सृजन है। वह गीता में डूब जाता है, डूबे। डूबना ही असली बात है। कोई | तुम्हारी सृष्टि है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम गये और मिल गया। महावीर के साथ चल पड़ता है; कोई मीरा के साथ नाचता है, | कि कहीं किसी पहाड़ की कंदरा में छिपा बैठा है, कि आसमान में नाचे, चले। एक ही बात ध्यान में रहे, रूपांतरण हो रहा? तुम चांद-तारों पर बैठा है, कि तुम्हें खोजना है जरा। खोजना नहीं है. रससिक्त हो रहे? तुम्हारे प्राण मधु से भर रहे? तुम्हारे प्राण निर्मित करना है। परमात्मा तो नृत्य-जैसा है। इसलिए मुझे मधुमय हो रहे? तुम डूब रहे? तुम नाच रहे? तुम शांत, प्रीतिकर लगता है हिंदुओं का यह खयाल कि उन्होंने शिव को आनंदित हो रहे? बस। और ऐसा भी जब हो, तब भी दूसरे पर नटराज कहा। थोपना मत। | परमात्मा नर्तक जैसा है। अगर तुम्हें नृत्य खोजना हो, तो तुम एक बात स्मरण रखना, स्वतंत्रता थोपी नहीं जा सकती। तो जंगल में खोजोगे? नृत्य खोजना हो तो नाचना सीखो। नृत्य मोक्ष तो कैसे थोपा जा सकता है! अगर कोई व्यक्ति अपनी ही कहीं रखा हुआ थोड़े ही मिलेगा। किसी तिजोरी में बंद थोड़े ही मर्जी से नर्क भी जाए, तो भी प्रसन्न होगा। और अगर जबर्दस्ती | है। नृत्य तो तुम नाचोगे तो होगा। और जब तक तुम नाचते स्वर्ग में भी धका दिया जाए, तो भी अप्रसन्न होगा। जबर्दस्ती में रहोगे, तब तक रहेगा। नाच बंद हुआ कि नृत्य बंद हुआ। नृत्य अप्रसन्नता है। नर्क भी अपनी ही मर्जी से चुना हो, तो स्वतंत्रता गया। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि आज नाच लिये, यह देखो है। स्वर्ग भी जबर्दस्ती मिल जाए कि पुलिसवाले हथकड़ी हमारी मुट्ठी में नाच रखा है। नाचोगे, बस उतनी ही देर रहता है। डालकर तुम्हें स्वर्ग ले जाएं, तब तो तुम्हें स्वर्ग भी नर्क हो जितनी देर नाचे, नृत्य। जितनी देर नहीं नाचे, नाच खो गया। जाएगा। स्वर्ग वहीं है जहां स्वतंत्रता है। जहां परतंत्रता है, वहीं परमात्मा नृत्य जैसा है। नटराज! तुम जब ध्यान में हो, तब नर्क है। किसी के लिए नर्क खड़ा मत करना। पत्नी तुम पर | होता है। जब तुम ध्यान के बाहर हो गये, खो गया। जब तुम निर्भर है, आर्थिक रूप से निर्भर है। पत्नी तो ऐसे है जैसे वृक्ष पर प्रार्थना में होते हो, तब होता है। जब तुम प्रार्थना के बाहर हो छायी हुई लता हो, वृक्ष पर निर्भर है। वृक्ष हट जाए तो लता | गये, खो गया। इसीलिए तो मैं कहता हूं, प्रार्थना हो या ध्यान, जमीन पर गिर जाए। उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है। इस सहारे तुम्हारी सहज चर्या बने। चौबीस घंटे तुम्हारा वातावरण बने। तो को शोषण मत बनाना। इस सहारे के आधार पर उसको चूसने ही परमात्मा को तुम पा सकोगे, नहीं तो न पा सकोगे। मत लगना, उसकी आत्मा को नष्ट मत करने लगना। ___ प्रतिपल उसे जन्म देना पड़ता है, तो ही परमात्मा तुम्हारे हाथ में 'पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी।' होता है। परमात्मा सृजनात्मकता है। तुम सृजन करो, तो मिलता ठीक ही उत्तर देती है। और बेचारी कहे भी क्या? तुम ज्यादा | है। औरों ने कहा है, परमात्मा स्रष्टा है, मैं तुमसे कहता है कि तर्क-कुशल होओगे, तुम ज्यादा सिद्धांत की बकवास कर सकते तुम स्रष्टा हो। और तुम परमात्मा को जन्म दोगे, तो होगा। होओगे, वह इतना ही निवेदन कर सकती है कि मुझे कुछ और तो परमात्मा प्रथम नहीं है; तुम्हारे जीवन की श्रेष्ठतम ऊंचाई और पता नहीं, लेकिन क्या तुम कहते हो कि मीरा को परमात्मा नहीं गहराई में है; परमात्मा अंतिम है। परमात्मा कारण नहीं है जगत मिला? और अगर मीरा को मूर्तिपूजा से मिल गया, तो मुझे क्यों | का, जगत की नियति है। जहां पहुंचना चाहिए सभी को। जैसा न मिलेगा? वह एक छोटा-सा निवेदन कर रही है कि बख्शो | होना चाहिए सभी को। वह फूल है, आखिरी खिला हुआ फूल। मुझे, छोड़ो मुझे! निश्चित ही मीरा को भी परमात्मा मिला। उससे ऊपर फिर कुछ भी नहीं। मूर्तिपूजा से ही मिला। मूर्तिपूजा और न पूजा का थोड़े ही सवाल तो अगर कोई प्रार्थना से खुल रहा है, खिल रहा है, सुगंधित हो है, जहां तुम अपने हृदय को उंडेल देते हो, वहीं से मिल जाता रहा है, खुश होओ। ठीक कहती है पत्नी, कि मीरा भी तो है। तुम पत्थर पर उंडेल दो हृदय को, वही पत्थर परमात्मा हो | मूर्तिपूजा करती थी। मीरा के पति को भी ऐसी ही अड़चन थी, 148 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी तुमको है। पुरुष को प्रार्थना जमती नहीं। पुरुष को थोड़ी करते हो? तुम मुझे बुढ़ापे में भी प्रेम करोगे? तुम मुझे सदा ही गड़बड़ मालूम होती है, वह तर्क उसकी पकड़ में नहीं आता। आ| प्रेम करते रहोगे? मुल्ला अपना अखबार पढ़ रहा है। भन्ना रहा नहीं सकता। उसको दो और दो चार होते हैं, यह तो समझ में है भीतर कि वह पढ़ने नहीं दे रही। वह कहता है कि हां देवी, आता है, गणित उसके लिए सीधी भाषा है, काव्य उसको समझ | सदा-सदा प्रेम करूंगा। तमसे ज्यादा संदर कोई स्त्री नहीं है। में नहीं आता। इसलिए स्त्री और पुरुष एक दूसरे को समझ नहीं तुम परम सुंदरी हो। और तुम सदा सुंदर रहोगी। मैं सोच ही नहीं पाते। तुम अभी तक अपनी पत्नी को समझ पाये? इतने वर्ष सकता कि कभी तुम बूढ़ी हो सकती हो। और फिर बोला कि साथ रह लिये। कह सकते हो हिम्मत से कि समझ गये? अब बकवास बंद करो, मुझे अपना अखबार पढ़ने दो। मुश्किल है। न पत्नी तुम्हें समझ पाती है। | मगर वह जो भीतर का भाव है, वह तो चेहरा कहे दे रहा है। जब पति और पत्नी बात करते हैं, तो तुम समझो कि बात होती | तुम क्या कहते हो, यह स्त्री नहीं सुनती; तुम क्या हो, इसे सुनती एक कुछ कहता है, दूसरा कुछ सुनता है। एक-दूसरे | है। इसलिए तुम सब उपाय करते हो, फिर भी तुम पाते हो कि के तर्क समानांतर चलते हैं, कहीं मिलते नहीं। क्योंकि दोनों के कुछ बात पहंची नहीं। देखने के ढंग बड़े भिन्न हैं। पत्नी तार्किक है ही नहीं। वह | ___ जब तक तुम ठीक-ठीक सच्चे न होओ, जब तक तुम जो कहो एक-एक सीढ़ी कदम-कदम रखकर तर्क को नहीं फैलाती, और तुम जो हो उसमें कोई भेद ही न हो, तब तक तुम स्त्री के सीधी छलांग लेती है। एक बात से दूसरी बात पर उछल जाती साथ कोई संवाद नहीं कर सकते। असंभव है। है। पति चौकन्ना खड़ा रह जाता है कि अभी यह तो कोई बात ही स्त्री द्वंद्व को कम जानती है। ज्यादा भोली-भाली है। न थी! लेकिन पत्नी के चलने के ढंग बड़े अदृश्य हैं। अचेतन सीधी-साफ है। पुरुष ज्यादा कुशल हो गया है। और उसकी हैं। तुम क्या कहते हो, यह वह कम सुनती है; तुम क्या कहना कुशलता चल जाती है बाजार में, क्योंकि वहां दूसरे भी पुरुष हैं। चाहते हो, यह वह पहले सुन लेती है। तुम शब्दों से क्या कह रहे तो वहां तर्क एक ही है। इसलिए बड़े से बड़ा योद्धा भी पत्नी के हो, इसकी वह बहुत फिकर नहीं करती, तुम्हारी आंखें क्या कह सामने कंपने लगता है। बड़े से बड़ा संघर्षशील व्यक्ति भी, जो रही हैं, तुम्हारे हाथ क्या कह रहे, तुम्हारे पैर क्या कह रहे, उसे बाहर विजय-पताका फहरा आता है, घर आते ही डरने लगता है वह पहले सुन लेती है। वह तुम्हारे शब्दों के धोखे में नहीं आती। कि चले घर ! क्या हो जाता है? एक स्त्री को तुम नहीं हरा पाते! मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था। देखकर वह | स्त्री कुछ और ढंग से बनी है। उसकी कीमिया अलग है। एकदम घबड़ा गया! जूरी बारह स्त्रियां बैठी हैं। उसने कहा, मैं | तुम्हारी पत्नी ठीक ही कहती है कि मीरा भी तो पहुंच गयी। अपना अपराध इसी वक्त स्वीकार करता हूं। मजिस्ट्रेट ने कहा, | अगर एक पहुंच गया उस मार्ग से, तो हम भी पहुंच जाएंगे। तुम अभी तो अदालत शुरू भी नहीं हुई। उसने कहा, अब कोई | उस पर कृपा करो! तुम उसे कहो कि तू चल, अपनी राह से जरूरत ही नहीं। एक स्त्री को धोखा नहीं दे पाता, बारह! यह चल। अगर तुम ध्यान पर वस्तुतः चल रहे हो, तो तुम उसे संभव नहीं है। जो सजा हो आप मुझे दे दें, इस झंझट में मैं पड़ने | प्रार्थना पर चलने दोगे। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतना बल तो को ही राजी नहीं। | तुम्हें देगा। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतनी समझ तो तुम्हें देगा, स्त्री के देखने, पकड़ने के ढंग परोक्ष हैं। इसलिए तुम इतनी प्रज्ञा तो तुम्हें देगा। भी होते हो कि मैंने इतनी अच्छी बात कही. पछा है. मेरे पास इसका जवाब नहीं है। मेरे पास भी नहीं है। फिर भी पत्नी को प्रसन्नता न हुई? तुमने कही तो अच्छी बात, | इसका जवाब ही नहीं है, करोगे क्या? इसमें तुम्हारा कोई कसूर लेकिन बात के पीछे-पीछे तुम कुछ और भी कह रहे थे। बात के | नहीं है। मीरा पहुंची है, अब जवाब हो भी कहां से? तो तुम किनारे-किनारे कोई और बात भी दबी-दबी चल रही थी। | ऐसी जगह जवाब खोजने में लगे हो, जहां जवाब नहीं है। तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा उसे प्रगट कर रहे थे। - महावीर भी पहुंचे हैं, मीरा भी पहुंची है। कृष्ण भी पहुंचे, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है कि तुम मुझे प्रेम क्राइस्ट भी पहुंचे। मुहम्मद भी पहुंचे, बुद्ध भी पहुंचे। 149 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ swww जिन सूत्र भाग: 2 R ellinal अलग-अलग रास्तों से पहुंचे। सभी पहुंच जाते हैं। चलते भर और सब बन जाऊंगा, पति कभी नहीं बनूंगा। रहो, चलना भर न रुके। भटको तो भी पहुंच जाओगे, लेकिन एक गहन संघर्ष है। इसे समझने की कोशिश करो। पुरुष रुको भर मत, चलते रहो। आज भटकोगे, कल भटकोगे, कब पाशविक-दृष्टि से स्त्री से ज्यादा बलशाली है। उसके पास तक भटकोगे? आखिर भटकन भी पहचान में आने लगेगी। ज्यादा ‘मस्कुलर' शक्ति है। शरीर से थोड़ा बड़ा भी है, रोज-रोज भटकोगे, समझ में आने लगेगा। गलत समझ में आ | शक्तिशाली भी है। स्त्री को सब तरह से दबा लेता है। तो फिर जाए, तो ठीक की तरफ पैर पड़ने लगते हैं। असार समझ में आ स्त्री भी उसे दबाने के सूक्ष्म रास्ते निकालती है। यह बिलकुल जाए, तो सार की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। और तो कोई स्वाभाविक है। कमजोर की भी तरकीबें होती हैं सताने की। रास्ता भी नहीं है। अनुभव ही रास्ता है। उसकी फिर सूक्ष्म तरकीबें होती हैं। तुम उसे मार सकते हो, पीट 'और यह समझाएं कि मैं पत्नी को कैसे समझाऊं?' सकते हो, ठीक। लेकिन वह कुछ ऐसे छोटे-छोटे उपद्रव कर समझाओ ही नहीं। तुम समझो। लौटकर घर पत्नी से क्षमा सकती है, जिनकी इकट्ठी मात्रा तुम्हें पागल कर दे। छोटे-छोटे मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है दिखायी पड़ते हैं, सीधे तुमसे संबंध भी नहीं, तुम तर्क भी नहीं इत्यादि, वह मेरी भूल थी। तू अपनी राह पर जा। शायद तुम्हारा कर सकते। यह क्षमा मांग लेना ही रास्ता बनेगा कि वह भी तुम्हें समझ सके जैसे जिस दिन तुम्हारी पत्नी से झंझट हो गयी हो और तुम | और तम भी उसे समझ सको। जरूरी नहीं है कि तम्हारी पत्नी उसको अकड बताये, परेशान किये. उस दिन घर में बर्तन. को प्रार्थना में आनंद मिल ही रहा हो। जरूरी नहीं है कि मूर्तिपूजा प्याली ज्यादा टूटेंगे। क्या करोगे? तुम यह तो कह ही नहीं में उसे रस आ ही रहा हो। लेकिन पति की बात तोड़ने में भी रस सकते कि यह मेरे कारण टूट रहे हैं। वह सीधा तुम पर हमला आता है। गुलामी तोड़ने में सभी को रस आता है। जबर्दस्ती कर ही नहीं रही। वह तुम्हें नहीं मार रही है, प्यालियों को मार रही तोड़ने में सभी को रस आता है। हो सकता है मूर्तिपूजा इसीलिए है। बर्तन जोर से बजेंगे। लेकिन अगर दिनभर यह चलता रहा चल रही हो कि तुम विरोध में हो। है, तो तम्हारे मस्तिष्क पर धीरे-धीरे चोट पड रही है। तम जानते कभी-कभी कोई पति मेरे पास आ जाता है, वह कहता है मैं तो हो कि बर्तन किसके सिर पर टूट रहे हैं। क्यों टूट रहे हैं। दरवाजे संन्यास ले रहा है, अब मेरी पत्नी! मैंने कहा, अब जरा मुश्किल जोर से लगेंगे। घर में एक तफान-सा मालुम पड़ेगा। सीधे वह है। पहले पत्नी आ जाए और संन्यास ले ले, तो संभावना है कि तुम पर हमला भी नहीं करेगी। उसका हमला बड़ा सूक्ष्म होगा, पति को आज नहीं कल ले आयेगी। लेकिन पति पहले आ जाए बड़ा अहिंसक होगा, लेकिन वह तुम्हें तोड़ लेगी। किसी को एक तो बहुत मुश्किल हो जाती है। फिर तो पत्नी आती ही नहीं। फिर चांटा मार देना उतना नहीं तोड़ता, जितना दिनभर उसको सताये तो वह इस तरफ कान ही नहीं देती। पति और पत्नी के बीच ऐसी चले जाओ। तो स्त्रियां उस कला में पारंगत हो गयी हैं। क्योंकि दुश्मनी कि सारी दुनिया से पत्नी हारने को तैयार है, लेकिन पति पुरुष ने उनको ऊपर से तो दबा लिया, लेकिन अब वे क्या करें? से कभी नहीं। यह तो परमात्मा हैं, इनसे हारना ! कभी नहीं। सीधा उत्तर देने का उनके पास कोई उपाय नहीं। तो उन्होंने परोक्ष पश्चिम में बड़ा विचारक हुआ, हेनरी थारो। किसी ने उससे उत्तर देने शुरू कर दिये। वे बूंद-बूंद सताती हैं। लेकिन बूंद-बूंद पूछा कि तुमने विवाह क्यों न किया? उसने कहा कि एक होटल की इकट्ठी मात्रा बड़ी हो जाती है, गागर भर जाती है। और फिर से भोजन करके निकल रहा था, धक्कम-धुक्का थी, भीड़-भाड़ | वे छोटी-छोटी चीज में प्रतिरोध करती हैं। थी। एक स्त्री के पैर पर मेरा जरा पैर पड़ गया, वह एकदम रोज...मैं अनेकों घरों में ठहरता था—यात्रा के दिनों में...तो आगबबूला होकर चिल्लायी कि शैतान कहीं के! हरामजादे !! बैठे हैं, मैं पति के साथ बैठा हूं कार में, वह हार्न बजा रहे हैं, तो मैं एकदम घबड़ा गया कि अब यह फजीहत होगी। उसने पत्नी कहती है, आते हैं। मगर आ ही नहीं रही। अब उसे पता है लौटकर मुझे देखा, अरे! उसने कहा कि क्षमा करना ! मैं समझी कि ठीक वक्त पर कहीं जाना है। लेकिन यह मौका है, जब वह कि मेरे पति हो। तो उसी दिन मैंने तय कर लिया, कभी नहीं। दिखा देगी कि मालिक कौन है। यह मौका वह नहीं छोड़ 1500 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती। वह अभी सज ही रही है। अभी वह साड़ी ही चुन रही आ भी जाए सुख देने, तो भी तुम द्वार बंद कर लोगे। तुम है। पति भन्नाये जा रहे हैं। लेकिन अब करोगे भी क्या? अब | कहोगे, दुख से अब पुराना नाता बन गया। अब छोड़े नहीं इस वक्त झगडा-झांसा खडा करना और देर करवा देगा। इस बनता। अब संग-साथ छोड़ना संभव नहीं है। इसी तरह मनष्य वक्त शांति से पी जाना ही ठीक है। यह परोक्ष आक्रमण है। के भीतर दुखवाद पैदा होता है। तो अगर हो सकता है, तुम्हारी पत्नी को प्रार्थना-पूजा से कोई जो लोग दुखवादी हैं, वे प्रथम सभी सुखवादी थे। सुख की रस भी न आ रहा हो, लेकिन चूंकि तुम जिद्द किये जा रहे हो कि खोज में गये थे, लेकिन सुख तक पहुंच न पाये। न पहुंचने से ध्यान करो, तो एक बात तो पक्की है कि वह ध्यान न करेगी। यह सिद्ध नहीं होता कि सुख नहीं है। इससे इतना ही सिद्ध होता और ध्यान न करने के लिए ही हो सकता है पूजा-प्रार्थना में है कि तुम्हारे पहुंचने में कहीं भूल-चूक रही। तुमने कुछ गलत उलझी हो। तुम हटा लो अपना विरोध। तुम उससे जाकर क्षमा दिशा में खोजा। तुमने ठीक से नहीं खोजा। या पूरी त्वरा और मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, सब भूल थी, गलत था, | शक्ति से नहीं खोजा। तुमने पूरा अपने को दांव पर नहीं मुझे माफ कर दे; अब मेरा कोई आग्रह नहीं कि तू ध्यान कर, | लगाया। इतना ही सिद्ध होता है। सुख तो है। लेकिन सुख अब तो तू जो कर, वही ठीक है। प्रार्थना कर, पूजा कर, मीरा भी मिलता है बड़ी गहन खोज से। लेकिन रास्ते में धीरे-धीरे कष्ट पहुंची, तू भी पहुंच सकती है। तब तुमने उसे छुट्टी दे दी। अब और कष्ट और कष्ट झेलते-झेलते तुम्हारा कष्ट के साथ वह सोचेगी कि वस्तुतः उसे मिल रहा है रस, या सिर्फ तुम्हारा संग-साथ बन गया। तुम्हारी दोस्ती कष्ट से हो गयी। अब तो विरोध करने का रस था? अब पुराने रस का तो कोई कारण न तम्हें ऐसा डर लगेगा कि कहीं कष्ट छट न जाए। नहीं तो अकेले रहा। अगर विरोध का ही रस था, तो वह तो खतम हो गया। हो जाएंगे। इस तरह दुखवाद पैदा होता है। विरोध ही खतम हो गया। तो रस मिल रहा होगा, तो ठीक। न स्त्रियों में यह दुखवाद पुरुष से ज्यादा जल्दी पैदा हो जाता है। मिल रहा होगा, तो वह ध्यान की तरफ अपने-आप आ जाएगी। फिर दुख में एक रस-रुग्ण रस! उसे तुम बहुत मूल्य मत लेकिन तुम लाने की चेष्टा छोड़ दो। कोई किसी को जबर्दस्ती देना। फिर वह दुख के गीत गाने लगती हैं। परमात्मा की तरफ कभी नहीं ला पाया है। विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास तीसरा प्रश्नः सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात... सहारा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैलूं, लेकिन उसके न लेकिन फिर दुख को ही गीत बना लिया जाता है। फिर आंसू मिलने पर भी संतोष ही होता है कि कम से कम अपना दुख गिनने में ही समय व्यतीत होने लगता है। फिर आदमी अपने और किसी की उपेक्षा तो साथ में है। कृपया बतायें कि ऐसा घाव के साथ ही खेलने लगता है। फिर पीड़ा होती है तो अच्छा क्यों होता है? | लगता है। कछ तो हो रहा है। ऐसा तो नहीं कि खाली हैं। इसको खयाल रखना, आदमी खाली होने के बजाय दुखी होना मनुष्य बहुत जटिल है। सुख की खोज करता है। सुख न पसंद करता है। कम से कम दुख में कुछ भराव तो है। बिलकुल मिले, तो दुख से राजी हो जाता है। क्योंकि खोज की भी एक | खाली होना कठिन मालूम होता है। या तो सुख, या दुख; खाली सीमा है। फिर खोजते ही चले जाना व्यर्थ श्रम मालूम होता है। होने को कोई भी राजी नहीं। और यहां जीवन का एक बड़ा परम तो दुख से राजी हो जाता है। राजी ही नहीं होता, एक तरह का सत्य स्मरण में रखने योग्य है—जो खाली होने को राजी है, वही दुख में रस लेने लगता है। यह बड़ी खतरनाक चित्त की दशा है। सुख को उपलब्ध होता है। अगर दुख में तम रस लेने लगे, तब तो तमने सुख के सब द्वार तो जितने लोग सुख की खोज करते हैं, वे धीरे-धीरे दुख से बंद कर दिये। दुखी रहते-रहते, बहुत दिन तक दुखी रहते-रहते राजी हो जाते हैं। फिर दुख को पकड़कर बैठ जाते हैं। दुख ही दुख के साथ संग बन गया, संबंध बन गये। फिर तो अगर कोई उनका शृंगार हो जाता है। फिर वे दुख के गीत गाते हैं। फिर दुख 151 ___ 2010_03 www.jainelibrary org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 की कविताओं को जन्म देते हैं। नहीं कि मनुष्य के प्रेम पर अंत है, लेकिन शुरुआत है। मनुष्य विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात के प्रेम से हम पहला अ, ब, स...क, ख, ग सीखते हैं। मनुष्य वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास पर प्रेम का अंत नहीं है। मनुष्य पर प्रेम की समाप्ति नहीं, क्योंकि अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात... प्रेम तो विराट के साथ ही तप्त हो सकता है। मनुष्य के साथ कैसे ऐसे लोग दख का संग्रह करने लगते हैं: दख की तलाश करने तप्त होगा। लेकिन प्रेम के पहले चरण उथले में ही उठते हैं। लगते हैं। कहां-कहां दुख मिलेगा वहां-वहां जाते हैं। ऊपर से | जैसे कोई तैरना सीखने जाता है तो पहले उथले में सीखता है। कहते हैं हम सुख चाहते हैं, लेकिन दुख की खोज करते हैं। और एकदम से सागर में नहीं उतर जाता। किनारे पर सीखता है। | जब सुख आये तो द्वार बंद कर लेते हैं, दुख आये तो द्वार पर खड़े जहां कोई भय नहीं है वहां सीखता है। फिर किसी का संहारा | मिलते हैं। ऐसा बहुतों के साथ हो गया है। इसीलिए तो संसार लेकर सीखता है। फिर जब तैरना आ जाता है, तो किसी के में इतना दुख है। यह दुख होना नहीं चाहिए। मैं कल एक पंक्ति सहारे की जरूरत नहीं रह जाती। फिर अकेला दूर गहरे में चला पढ़ रहा था। किसी ने कहा है जाता है। रोग पैदा कर कोई तू जिंदगी के वास्ते मनुष्य का प्रेम परमात्मा के लिए किनारा है। मनुष्य का सहारा सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं तो सीखने भर के लिए है। फिर तो नाव छोड़ देनी है अनंत के खूब बात कही है! सागर में। लेकिन जो किनारे पर ही नहीं आया, वह सागर में सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं। कैसे उतरेगा? सिर्फ स्वस्थ रहने से कहीं जिंदगी कटी है! 'किसी के प्रेम के साये मैं बैलूं।' सोचना नहीं है, बैठो! रोग पैदा कर कोई त जिंदगी के वास्ते सोचना प्रेम के बिलकुल विपरीत है। सोचनेवाले सोचते ही रह तो लोग रोग पैदा कर लेते हैं। उन्होंने अनेक-अनेक नाम रखे जाते हैं। प्रेम करनेवाले और सोचनेवालों में बडा भेद है। हैं। महत्वाकांक्षा, राजनीति रोगों के नाम हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा मैंने सुना है इमेनुअल कांट एक बड़ा विचारक हुआ, एक स्त्री रोगों के नाम हैं। सेहत तो प्रेम की है। प्रेम के अतिरिक्त सब रोग ने उससे प्रेम निवेदन किया। दो-तीन वर्ष तो उसके प्रेम में रही, है। प्रेम चूक जाता है, तो आदमी और रोग खोजने लगता है। राह देखी कि वह निवेदन करे। क्योंकि स्त्रियां प्रतीक्षा करती हैं। क्या करें! कुछ तो करना होगा, व्यस्त तो रहना होगा। जिंदगी निवेदन भी आक्रमण है। वह स्त्रैण-मन को ठीक नहीं लगता। है, तो खाली तो न बैठे रहेंगे। वह राह देखती है कि प्रेमी निवेदन करे। लेकिन कांट कुछ बोला जिस महिला ने पूछा है उसे जागना चाहिए। उसने बड़ा ही नहीं। तीन साल बीत गये। मजबूरी में उस स्त्री ने कहा कि खतरनाक चुनाव कर लिया है : 'सोचती हूं दुख से छूटने के क्या कहते हो, कुछ कहो। ऐसे जिंदगी बीत जाएगी। मैं तुम्हारी लिए किसी का सहारा पकडूं।' सोचना क्या है? पकड़ो! होना चाहती हूं सदा के लिए। कांट ने कहा, मुझे डर था कि कभी साचते-सोचते तो दिन निकल जाएंगे। सोचते-सोचते तो जीवन न कभी यह सवाल उठेगा। मैं इस पर सोचूंगा। निकल जाएगा। इसमें सोचना क्या है? इसमें इतने वह बड़ा दार्शनिक था। बड़ी अदभत कथा है। और कथा ही सोच-विचार की बात ही कहां है? क्रोध करते वक्त नहीं होती तो भी ठीक था, सही है। वह सोचता रहा, सोचता रहा। सोचते, प्रेम करते वक्त बड़ा सोच-विचार करते हो! | कहते हैं तीन साल बाद उसने जाकर उस यवती के घर पर दस्तक 'सोचती हूं दुख से छटने के लिए किसी का सहारा पकडूं, दी। युवती के पिता ने द्वार खोला। उसने पूछा कि कैसे आये, किसी के प्रेम के साये में बैठं।' बहुत दिन से दिखायी नहीं पड़े। उसने कहा कि मैं यह कहने बैठो! क्योंकि प्रेम की सुगंध में ही परमात्मा की पहली खबर | आया हूं कि मैंने निर्णय कर लिया कि विवाह करूंगा। पिता ने | मिलती है। और जिसका प्रेम का फल अनखिला रह गया. कहा. तम बडी देर से आये। उसका तो उसकी प्रार्थना का फूल कैसे खिलेगा? बच्चा भी पैदा हो गया। तम इतनी देर कहां रहे? कांट ने कहा, 1520 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है द्वारा मैं सोचता रहा। जेब से उसने अपनी किताब निकाल कर किसी परुष को तम अपने पास लेते हो. तो पास लेने बतायी। विवाह के पक्ष में और विपक्ष में जितनी भी बातें हो है। दो दुनियाएं पास आ रही हैं। संघर्ष होगा। लेकिन संघर्ष सकती थीं, सब उसने लिख रखी थीं। हिसाब लगाया था, पक्ष प्रीतिकर है। समझ बढ़ेगी। प्रौढ़ता आयेगी। में कितनी हैं, विपक्ष में कितनी हैं; फायदा क्या होगा, हानि क्या पूछा है, 'सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा होगी? और तब उसने यही तय किया था कि फायदा थोड़ा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैलूं।' ज्यादा है। बहुत रत्तीभर का फर्क है। कोई ज्यादा फर्क नहीं है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि दुख से छूट जाओगी प्रेम का हानि भी बहुत है, लेकिन फायदा थोड़ा ज्यादा है। और फायदा साया मिल जाए तो, इतना कह सकता हूं-दुख आंख खोलने में यह है कि उससे अनुभव होगा। | सहयोगी होगा। प्रेम भी दुख देगा, लेकिन प्रेम का दुख बड़ी सोचते-सोचते तो जिंदगी बीत जाएगी। सोचना किसलिए मधुर पीड़ा जैसा है। बिना प्रेम के जो दुख है, वह तो बस कांटे ही है? मौत तुमसे न पूछेगी कि सोच लिया, चलना है कि नहीं? कांटे हैं। प्रेम के दुख में कांटे तो हैं, लेकिन फूल भी हैं। और प्रेम | मौत आ जाएगी। जैसे मौत आती है वैसे ही प्रेम को भी आने तुम्हें तृप्त कर देगा, यह भी मैं नहीं कहता। प्रेम सच तो तुम्हें और | दो। द्वार-दरवाजे खोलो, भय क्या है? भी अतृप्त करेगा, और बड़े प्रेमी की तलाश पर भेजेगा। क्योंकि प्रेम से लोग बहुत डरते हैं। लोग कहते तो हैं कि प्रेम चाहिए कोई आदमी, या कोई स्त्री प्रेम को पूरा नहीं कर सकते। प्रेम की लेकिन डरते बहुत हैं। क्योंकि प्रेम एक तरह की मृत्यु है। आखिरी तलाश तो परमात्मा के लिए है। उससे कम पर तृप्ति अहंकार को विसर्जित करना होता है। होनेवाली नहीं है। लेकिन, सहारा मिलेगा। उस बड़ी यात्रा पर जैसा मैं देख पाता हूं, इस महिला के मन में बड़ा अहंकार जाने की हिम्मत आयेगी। जब आदमी के प्रेम में ऐसे फूल खिल होगा। अहंकार प्रेम का दुश्मन है। अहंकार किसी के साथ जाते हैं-छोटे सही, जल्दी कुम्हला जानेवाले सही; सुबह झकने नहीं देता। प्रेम में तो झकना पडेगा। प्रेम में तो दसरे के खिलते हैं. सांझ मा जाते हैं. सही-लेकिन जब आदमी के लिए जगह बनानी पड़ेगी। अहंकार को थोड़ी-सी जगह खाली | प्रेम में इतने फूल खिल जाते हैं, तो आदमी और परमात्मा के प्रेम करनी पड़ेगी। जैसे तुम अकेले एक कमरे में रहते आये थे, तो में कैसे फूल न खिलेंगे! कसी प्रेमी को लिवा लाये. मित्र को लिवा तम्हें पहली भनक परमात्मा की प्रेम के द्वार से ही मिलेगी। तो लाये. पत्नी को लिवा लाये. पति को लिवा लाये उसी कमरे में, मैं यह तो नहीं कहता कि तुम्हारा दुख मिट जाएगा, इतना कह तो अब सब नया इंतजाम करना होगा। अब बहुत-से समझौते सकता हूं कि तुम्हारा दुख सृजनात्मक हो जाएगा। सुख की थोड़ी करने होंगे। दो जहां रहेंगे वहां बहुत-से समझौते होंगे। संघर्ष झलकें मिलेंगी। उन्हीं झलकों का सहारा पकड़कर, निचोड़ भी होगा। कभी अशांति के क्षण भी होंगे। कभी कलह भी | निकालकर तुम महासुख की यात्रा पर जा सकोगे।। होगी। कभी सौंदर्य के, सत्य के, संगीत के फूल भी खिलेंगे। फिर कहा है, 'लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता कभी कांटे भी चुभेंगे। हर गुलाब की झाड़ी पर कांटे हैं। प्रेम तो है।' यह खतरनाक संतोष है। यह संतोष नहीं है, सांत्वना है। गुलाब का फूल है। बहुत कांटे हैं उसके आसपास। कांटों से संतोष बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका ऐसा उपयोग कभी मत आदमी डरते हैं। फूल तो चाहते हैं, कांटों से डरते हैं। करना। यह सांत्वना है। यह अपने को समझा लेना है। और लेकिन जिसको फूल चाहिए, उसे कांटों को भी स्वीकार करना आदमी बड़ा कुशल है अपने को समझा लेने में। अंगूर खट्टे हैं। होगा। कांटों में ही फल का मजा है। कांटों में ही फल का रस जो नहीं मिलता, वह पाने योग्य ही नहीं। जिसको हम नहीं खोज है। नहीं तो प्लास्टिक के फूल खरीद लाओ। इसीलिए तो पाते, हमारा अहंकार कहने लगता है हम खोजना ही कहां चाहते वेश्याएं दुनिया में पैदा हुईं। वे प्रेम के डर के कारण पैदा हुईं। हैं! गरीब कहने लगता है धन में क्या रखा है। गरीब कहने वेश्या का मतलब है, प्लास्टिक का फूल। कोई नाता-रिश्ता लगता है, धन में क्या रखा है! अमीर कहे तो समझ में आता है। नहीं। कोई काटे चुभने का कारण नहीं। जब किसी स्त्री को या गरीब कहे तो कुछ समझ में आता नहीं। गरीब कहने लगता है, 153 2010_03 www.jainelibrar org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 क्या रखा है इस संसार को जीत लेने में। सिकंदर, नेपोलियन स्वास्थ्य नहीं है, कोई संगी-साथी नहीं है! अगर इससे संतोष हो कहें; ठीक। अभी संसार को जीता नहीं, | रहा है, तो यह संतोष तो बीमारी है। इसे तोड़ो। असंतुष्ट बनो, किससे कह रहे हो, क्या रखा है संसार को जीत लेने में? कहीं | अगर यह संतोष है तो। खोजो।। मन को समझा तो नहीं रहे। कहीं मन चाहता तो नहीं है कि जीत हां, मैं भी कहता हूं एक दिन प्रेमी के भी पार जाता है प्रेम, लें संसार को, लेकिन देखते हैं अपनी असामर्थ्य, जीतना तो लेकिन पहले प्रेमी तो हो। प्रेमी से कुछ भी न मिलेगा। प्रेम की कठिन है, तो अहंकार अपने को बचा लेता है। अहंकार कहता और बड़ी प्यास मिलेगी, और बड़ा असंतोष मिलेगा, परमात्मा है, जीतना ही कौन चाहता है! को पाने की जलती हुई प्यास मिलेगी। प्रेमी की मौजूदगी से तुम्हें तुमने कभी खयाल किया, तुमने अपने जीवन में कितनी पर्ते पता चलेगा कि नहीं, इस दिशा से कुछ मिलनेवाला नहीं। मगर सांत्वना की बना ली हैं। उन सांत्वनाओं के कारण ही तो तम | प्रेमी की मौजदगी के बिना यह पता नहीं चल सकता है। आबद्ध हो गये हो, बंध गये हो, जकड़ गये हो। तोड़ो | एक आदमी रास्ते पर खड़ा है भिखारी की तरह। और फिर सांत्वनाएं! यह संतोष नहीं है। | महावीर भी रास्ते पर आकर खड़े हो गये भिखारी की तरह। तुमने कहावत सुनी है—'संतोषी सदा सुखी।' गलत है। समझ लो कि दोनों भिखारी साथ-साथ चल रहे हैं। क्या ये दोनों, 'सुखी सदा संतोषी।' संतोष से कभी सुख नहीं आता, सुख से एक ही जैसे हैं? एक महावीर हैं जिन्होंने महल देखे, महलों का जरूर संतोष आता है। संतोष तो सिर्फ अपने को समझा लेने सुख देखा, सुख की व्यर्थता देखी, महलों की असारता देखी। जैसा है। नहीं है हालत आगे बढ़ने की, क्या करें, तो तुम समझा राज्य देखा, साम्राज्य देखा, राख देखी सब। और एक दूसरा. लेते हो। तुम कहते हो, हम जाना नहीं चाहते, पाने योग्य कुछ है भिखारी चल रहा है। उसने कुछ भी नहीं देखा। उसके मन में ही नहीं, हमें तो पहले से पता है वहां कुछ भी नहीं रखा है। | अभी भी सपने हैं। अभी भी कोई उसे राजा बना दे तो वह तत्क्षण लेकिन जरा गौर से अपने मन का निरीक्षण करना। और अगर | तैयार हो जाएगा। हालांकि वह भी कहता है, कुछ सार नहीं। यह संतोष हो, तब तो ठीक है। फिर तो प्रश्न पूछने की जरूरत महावीर भी कहते हैं, कुछ सार नहीं। दोनों एक ही तरह के शब्दों ही नहीं। अगर यह संतोष होता तो प्रश्न उठता ही नहीं। संतोष का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या दोनों के अर्थ एक ही हो सकते से कभी प्रश्न उठा है? संतोष तो ऐसा परितृप्त है, ऐसा परितृप्त हैं? दोनों के अर्थों में जमीन-आसमान का फर्क है। है, कि कहां प्रश्न की गुंजाइश! यह सांत्वना है। और स्त्रियां | महावीर कहते हैं जानकर। वह दूसरा आदमी कह रहा है सांत्वना में बड़ी कुशल हैं। क्योंकि संघर्ष में बड़ी कमजोर हैं। मानकर। अगर धन पड़ा मिल जाए तो महावीर उसके पास से 'लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता है।' यह | ऐसे ही गुजर जाएंगे जैसे मिट्टी पड़ी है। वह दूसरा आदमी न संतोष मुर्दा है। इस लाश को हटाओ! अन्यथा तुम भी इस लाश | गुजर सकेगा। वह कहेगा छोड़ो बकवास, हो गयी ज्ञान की बहुत के साथ मर जाओगे। मुर्दो की दोस्ती ठीक नहीं। मुर्दो के साथ बातचीत! अब मिल ही गया, तो अब इसका उपभोग कर लें। ज्यादा देर रहना भी ठीक नहीं। क्योंकि जिनके साथ हम रहते हैं, | ‘कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ में वैसे ही हो जाते हैं। है। यह भी खूब धन! इसको धन कहते हो? इस धन को, इस 'संतोष होता है कि कम से कम अपना दुख और किसी की | धन के भ्रम को तोड़ो। उपेक्षा तो साथ में है।' यह भी कोई बात हुई! यह तो ऐसा हुआ बिना प्यार के चले न कोई आंधी हो या पानी हो कि सोये हैं जमीन पर और सोच रहे हैं कि कम से कम बिस्तर नयी उमर की चुनरी हो या कमरी फटी-पुरानी हो नहीं है यह भी तो संतोष है। बैठे हैं जमीन पर और सोच रहे हैं तपे प्रेम के लिए धरित्री जले प्रेम के लिए दीया उस कुर्सी की बात, जो नहीं है कमरे में। इससे संतोष होता है कि कौन हृदय है नहीं प्रेम की जिसने की दरबानी हो कुर्सी नहीं है! इससे संतोष होता है, कि बिस्तर नहीं है! इससे तट-तट रास रचाता चल संतोष होता है कि भोजन नहीं है। इससे संतोष होता है कि पनघट-पनघट गाता चल 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / प्रेम है द्वारा Marwanama प्यासी है हर गागर दृग की हो। यही संघर्ष है। जहां भी दूसरा परमात्मा से थोड़ा नीचे पड़ता गंगाजल ढलकाता चल है, कलह शुरू हो जाती है। पति भी यही चेष्टा कर रहा है कि कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है पत्नी परमात्मरूप हो, दिव्य हो। जैसे ही उससे नीचे पड़ती है, इसकी सीमा पश्चिम में तो मन का परब डेरा है अड़चन होती है। पत्नी भी यही सोच रही है कि पति परमात्मा श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुंदर या कि असुंदर हो जैसा हो। दोनों की खोज सही है। और इसीलिए संघर्ष है। सभी मछलियां एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है धीरे-धीरे यह अनुभव में आता है कि आदमी की सीमा है। तब गलियां-गांव गुंजाता चल नाराजगी चली जाती है। तब यह खयाल उठता है कि हम खोज पथ-पथ फूल बिछाता चल ही गलत जगह रहे हैं। हमें थोड़े और ऊंचाई पर आंख उठानी हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल होगी। आदमी के पार देखना होगा। या आदमी के गहरे में हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल–अगर | देखना होगा। | प्रेम किसी से किया तो राम-दुवारा खुला। जहां प्रेम ने दस्तक तुमने यह भी कभी खयाल किया कि जैसे ही तुम किसी के प्रेम दी, वहीं राम-दुवारा खुला। | में पड़ते हो, तुम वही नहीं रह जाते जो तुम अब तक थे। तुम्हारे | प्रेम से कभी बचना मत। प्रेम में उतरना। प्रेम से डरना मत। भीतर कुछ नया उठने लगता है, कोई पंख खोलने लगता है। प्रेम बड़ी पीड़ा देगा, प्रेम जलायेगा, प्रेम अग्नि बन जाएगा, कोई आकाश की तरफ उड़ने के लिए तत्पर हो जाता है। तुमने लेकिन अग्नि से ही गुजरकर कोई कुंदन बनता है, कोई शुद्ध कभी खयाल किया कि प्रेम के साथ, जो भी श्रेष्ठ भावनाएं हैं स्वर्ण बनता है। प्रेम की अग्नि से घबड़ाना मत, भागना मत, | अचानक तुममें जगने लगती हैं। घृणा के साथ जो-जो अशुभ है, अन्यथा अधकचरे, अधूरे, मिट्टी से भरे रह जाओगे। | तुम्हारे भीतर घना होने लगता है। घणा उठी कि हिंसा उठी। तो मैं यह नहीं कहता कि प्रेम तुम्हें सुख ही सुख देगा। प्रेम घृणा उठी कि क्रोध उठा। घृणा उठी कि तुम मरने-मारने को, कोई फूलों-बिछी सेज है, ऐसा मैं नहीं कहता। प्रेम बड़ी पीड़ा मिटाने को तत्पर हुए। प्रेम उठा कि सृजन उठा। प्रेम उठा कि तुम की डगर है। लेकिन उससे गुजरना जरूरी है। और उससे बनाने को, संवारने को, शृंगार करने को राजी हुए। इधर प्रेम उठा गुजरकर ही तुम प्रार्थना के योग्य बनोगे, प्रार्थना के लिए परिपक्व कि शुभ भावनाओं का जन्म उसके साथ-साथ होने लगता है। बनोगे। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में डूबा, स्वाद मिलना प्रेम जितना ऊंचा उड़ता है, उतनी ही शुभता भी तुम्हारे भीतर शुरू होता है। बहुत पर्दो के पार से परमात्मा की पहली झलक ऊंची उठती है। जितने तुम प्रेम में जाते हो, उतने ही तुम दिव्य मिलनी शरू होती है। इस पृथ्वी पर प्रेम से ज्यादा परमात्मा की होने लगते हो। झलक देनेवाली कोई अनुभूति नहीं है। नया-नया प्रेम तुम्हारे चेहरे पर एक ऐसी गरिमा दे जाता है, जो प्रेम इस जगत में उस जगत की किरण है। प्रेम इस अंधेरी रात | तुमने पहले कभी न जानी थी। एक आभामंडल, एक ऊर्जा, एक में दूर परमात्मा का चमकता हुआ सितारा है। बहुत दूर है, | नया प्रकाश तुम्हारे चेहरे को घेर लेता है। तुम्हारी चाल बदल लेकिन इस अंधेरे को पार करके एक किरण आ रही है। तुम उस जाती है। तुम्हारी चाल में मीरा का थोड़ा नाच आ जाता है। माना किरण का सहारा पकड़ लो। ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा कि कि वह परम प्रेमी की खोज पर थी, इसलिए पूरा नाच तो नहीं हो प्रेम से कोई तृप्त हुआ हो। इसलिए डर कुछ भी नहीं है। प्रेम सकता, लेकिन थोड़ी घुघर तो बजती है। रुक-रुककर बजती तुम्हें और अतृप्त करेगा। नये शिखरों की चुनौती मिलेगी। नयी है। थोड़ी बूंघर तो बजती है। पायल की वैसी धुन नहीं होती कि ऊंचाइयां खोजने के भाव मिलेंगे। आकाश को गुंजा दे, लेकिन आंगन को तो गुंजाती है। छोटा-सा प्रेमियों में जो संघर्ष है, उसका कारण तुमने कभी सोचा? कोने में दीया तो जलता है। महासूरज नहीं निकलता, जैसा प्रेमियों में सदा संघर्ष बना रहता है, उसका कुल कारण इतना है कबीर कहते हैं कि हजार-हजार सूरज पैदा हो रहे हैं, लेकिन एक कि हर प्रेमी यह कोशिश कर रहा है कि दूसरा परमात्मा की तरह छोटा-सा दीया तो जलता है। दीया भी तो सूरज का ही प्रतिनिधि 155 2010_03 www.jainelibrar.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _जिन सूत्र भाग : 2 है। छोटा प्रतिनिधि सही। बहुत क्षुद्र सही। लेकिन सूरज की | पहुंचे, परमात्मा तक पहुंचे। किरण में जो है, वही तो दीये की किरण में भी है। स्वभाव तो रोज नया असंतोष जगाओ। धर्म संतोष नहीं है, परम असंतोष एक है। है। परम के लिए असंतोष है। क्षुद्र से राजी मत हो जाओ। जब नहीं कोई सागर नहीं उमड़ने लगता, लेकिन बूंद तो बरसती | तक विराट ही न मिल जाए, तब तक ठहरना मत। तब तक है। बूंद में वही है, जो सागर में है। जिसने बूंद को पहचाना, वह | | पड़ाव बहत जगह बनाने होंगे-मील के कई पत्थर कभी सागर को भी खोज ही लेगा। जिसने बूंद को चखा, वह | मिलेंगे-रुक जाना, रात ठहर जाना, लेकिन सुबह चल पड़ने कितने दर, कितने दिन तक सागर से वंचित रहेगा? जैसे-जैसे की तैयारी रखना। घर मत बनाना कहीं। विश्राम कर लेना, प्रेम की झलक मिलनी शुरू होती है, तुम्हारी प्रेम की आशा विराम कर लेना, लेकिन ध्यान रखना, विश्राम सुबह चलने की बढ़नी शुरू होती है। तैयारी है। अभाव से राजी मत होना। अनुपस्थिति से राजी मत होना। प्रेम के मैं पक्ष में हूं। क्योंकि मेरे देखे प्रेम ही सेतु है दृश्य और अभाव नर्क है। भावात्मक बनो। विधायक बनो। प्रेम नहीं है, अदृश्य के बीच, शरीर और अशरीरी के बीच, पदार्थ और इससे राजी मत हो जाना। तोड़ो चट्टानें हृदय की! बहने दो झरना परमात्मा के बीच। प्रेम का! सांसारिक, तो सांसारिक सही। शरीर का, तो शरीर का गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे सही। शुरू तो करो। कोई पहले कदम पर ही तो स्वर्ग नहीं पहुंच | हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे जाता है। लेकिन पहला कदम तो उठाओ। लाओत्सू ने कहा है, | फूल की गंध से तलवार को सर करना है एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। | और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे एक कदम तो उठाओ। जब तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं, तुम पहाड़ हो। चट्टान...और प्रेम से थोड़े से लोग राजी हो जाते हैं। बहुत लोग प्रेम के चट्टान...और चट्टान...। झरने को रोके बैठे हो। जैसे ही अभाव में राजी हो जाते हैं। जो प्रेम के अभाव में राजी हो गये. वे तम्हारे भीतर प्रेम उमगा. किरण उतरी. टटी चट्टानें, निर्झर बहा। तो अंधेरी रात में भटक गये। जो प्रेम से राजी हो गये, वे दीये को गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे ही लेकर बैठे रह गये, जबकि सरज उनका हो सकता था। ये वृक्ष क्या करते हैं जब खिल जाते हैं? ये गीत धरती का है कताअ एक जलवे पर। आकाश को सुना देते हैं। ये धरती की खबर आकाश को दे देते शौक अभी तंगदस्त है शायद हैं कि धरती ही मत समझ लेना, फूल भी हैं। आकाश को भी जो एक ही जलवे से राजी हो गया और सोचा कि काफी है, मात कर देनेवाले फूल हैं धरती में छिपे। मिट्टी में सुगंध भी है, उसकी प्यास, उसका प्रेम, उसकी अभीप्सा तंगदस्त है। बड़ी रंग भी है। इंद्रधनुषी रंग भी है। कृपण है। कंजूस है। झोली भी फैलायी तो पूरी न खोलकर फूल धरती की भेंट है आकाश को। जब कोई मनुष्य खिलता फैलायी। | है तो सीमा असीम से बातें करती है। क्षुद्र विराट से बातें करता है कताअएक जलवे पर | है। तब बूंद सागर से बात करती है, संवाद करती है। धरती का एक जलवे को काफी मान लिया! प्रेम की एक छोटी-सी गीत, सीमा का गीत, बूंद का गीत! ज्योति को काफी मान लिया! गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे शौक अभी तंगदस्त है शायद। हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे लेकिन मेरे देखे सबसे अभागे वे हैं जिन्होंने प्रेम के अभाव में | और जब तक तम प्रेम को दाबे पडे हो. तब तक तम अंधेरे में संतोष कर लिया। उसके बाद उनका नंबर है, जिन्होंने प्रेम से पड़े हो। जागो! जलाओ दीया प्रेम का। मेरे मन में प्रेम का संतोष कर लिया। सौभाग्यशाली तो वे हैं, जिन्होंने अभाव को परिपूर्ण स्वीकार है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें तो टिकने न दिया, प्रेम को भी न टिकने दिया। प्रार्थना तक विषाक्त कर दिया है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें प्रेम 1156 Jair Education International 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है द्वार से भयभीत कर दिया है। उस भय के कारण तुम अकेले पड़े रह लेना कि प्रेम से बचना मत। पुरुष तो प्रेम से बचकर भी कभी गये हो। तुम भटकते हो, लेकिन परमात्मा से कोई साथ नहीं बन पहुंच सकता है। ध्यानी तो प्रेम को छोड़कर भी पहुंच सकता है। पाता। तुम्हारे पास हाथ नहीं, जो परमात्मा का हाथ पकड़ लें। कठिन होगी डगर, बड़ी कठिन होगी–सरल हो सकती थी, प्रेम वही हाथ तुम्हें देगा। गीत, रस भरी हो सकती थी-रूखी-सूखी होगी डगर, धूल हर अंधेरे को उजाले में बलाना है मझे धवांस भरी होगी, कंकड़, पत्थर, कंटकाकीर्ण होगा मार्ग, फूल की गंध से तलवार को सर करना है लेकिन पहुंच सकता है। लहूलुहान पहुंचेगा, लेकिन पहुंच जीवन कठिन है, तलवार-जैसा है। सकता है। लेकिन स्त्री तो बिना प्रेम के पहंच ही नहीं सकती। फूल की गंध से तलवार को सर करना है वह खो ही जाएगी इस डगर में।। और जीतना है प्रेम से। यही तो चुनौती है। यही तो अभियान दुनिया में दो ही धर्म वस्तुतः होने चाहिए। दो ही धर्म वस्तुतः है मनुष्य का। यही तो मनुष्य की उत्क्रांति है। विकास! या जो हैं। एक स्त्री का धर्म, एक पुरुष का धर्म। और दुनिया के सारे भी कहो। यही तो मनुष्य के रूपांतरण की कीमिया है। धर्म दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं। पुरुष का धर्म कहता है, फूल की गंध से तलवार को सर करना है | छोडो प्रेम। स्त्री का धर्म कहता है. बनाओ प्रेम को पजा। लेकिन जीतना है प्रेम से इस संसार को। जीतना है प्रेम से इस देह प्रेम होगा, तो ही तो पूजा बनेगी! को। जीतना है प्रेम से इन इंद्रियों को। जीतना है प्रेम से इस मन जिसने पूछा है, उसे मैं कहूंगा, घबड़ाओ मत। जीवन अनुभव को। जीतना है प्रेम से पर को, स्व को। के लिए है। इसे बंद कोठरी मत बनाओ। गुफा में मत छिपो। फूल की गंध से तलवार को सर करना है खुलो, आने दो हवाएं, आने दो नयी सूरज की किरणें। जीओ। और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे खतरनाक है जीना। लेकिन खतरा जीवन का लक्षण है। सुरक्षा और गीत गाकर ही जगाना है। झकझोर कर नहीं। कोई | में मौत है, सुरक्षा में कब्र है। उतरो। तूफान आयेंगे प्रेम के, | बिजली के धक्के देकर नहीं; गीत गा-गा के! जैसे मां सुबह झेलना। उन्हीं तूफानों में तुम्हारे भीतर कुछ सोया हुआ जगेगा, किसी को उठाती है। एक गीत गाती है। या रात अपने बेटे को कोई चट्टान टूटेगी, निर्झर बहेगा। और घबड़ाना मतसुलाती है, एक लोरी गाती है। जो मैं तुमसे बोले चला जाता हूं, रात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है वह कुछ और नहीं है। तुम्हारे भीतर के पहाड़ को जगाना है। कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है गीत गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे एक द्वार बंद हुआ नहीं कि दूसरा खुल ही जाता है। - और सारे जागरण का सूत्र है—प्रेम। दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है डरो मत। प्रेम मिटाता है। निश्चय ही मिटाता है। लेकिन प्रेम | एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है जन्माता भी है। प्रेम सूली है, सच। प्रेम सिंहासन भी है। और पतंगे बन सको तो पतंगे बनो। दीया बन सको तो दीया बनो। जो सूली चढ़ता है, वही सिंहासन पर पहुंचता है। लेकिन दीया भी जलता है और पतंगा भी जलता है। दीया रात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है जलकर बुझता है, पतंगा बुझकर जलता है। कोई भी बनो। दीये कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है बनो या पतंगे बनो। पतंगों की प्रशंसा में तो बहुत गीत लिखे गये दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है हैं कि पतंगा जलता है, दीवाना है। दीये की प्रशंसा की किसी ने एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है फिकिर नहीं की कि दीया भी पतंगे के लिए ही जल रहा है, कि प्रेम जलाता है। लेकिन जगाता भी है। प्रेम मिटाता है। आओ, कि प्रतीक्षा कर रहा है। जहां पतंगे और दीये का मिलना लेकिन जन्माता भी है। प्रेम मृत्यु है और महाजीवन की शुरुआत होता है, जहां दोनों अलग-अलग मिट जाते हैं और एकरूप हो भी। व्यर्थ की निंदा छोड़ो। चलो प्रेम की डगर पर। और प्रश्न जाते हैं, वहीं प्रेम का जन्म है। पूछा है किसी स्त्री ने। इसलिए तो और भी जरूरी है यह समझ | परमात्मा से जब जुड़ोगे जुड़ोगे, अभी किसी छोटे परमात्मा से 157 2010_03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 जुड़ो। सूरज जब पाओगे, पाओगे; अभी किरण पास आती है उसे तो पकड़ो। लेकिन जीवन विधायक हो, प्रेम का स्वीकार, सम्मान करने से भरा हो, तो मनुष्य ज्यादा देर तक मंदिर से दूर नहीं रह सकता। प्रेम द्वार है। आज इतना ही। 1581 2010_03