________________ Homwwcommonloonlowa adeomammeenieswwwwwwwwwwwwwwwwwwein जिन सूत्र भाग : 2 BARBARIMARHI तो बात अलग। उस दिन मूर्ति टूट जाएगी। लेकिन स्त्री को वहां तुम देखोगे, अरे! प्रार्थना भी वहीं ले आयी, पूजा भी वहीं तोड़कर तुम भी न बचोगे। ले आयी, ध्यान भी वहीं ले आया। सभी मार्ग वहीं ले आते हैं। पुरुष के धर्म मूर्ति-विरोधी हैं। स्त्री का धर्म रूप का, रंग का, अंतर यात्रा-पथों का है, मंजिल का नहीं है। रस का, उत्साह का, उत्सव का। पुरुष का धर्म त्याग का, दूसरे को समझने की, दूसरे की स्थिति को समझने की करुणा तपश्चर्या का, संकल्प का, संघर्ष का। स्त्री का धर्म समर्पण का, दिखानी चाहिए। तर्क बड़ा कठोर है। प्रेम बड़ा करुणापूर्ण है। शरणागति का। स्त्री ने चाहा नहीं निराकार को कभी, स्त्री को तो अगर तुम अपनी पत्नी को चाहते हो, तो तुम यही चाहोगे कि वह समझ में भी नहीं आता कि निराकार को चाह कर करोगे क्या? सुख को पाये, आनंद को पाये, महासुख की यात्रा पर जाए। प्रभु जिससे छाती न लग सको, जिसे भर-आंख देख न सको, उसे मिलें। फिर जिस ढंग से उसने चाहा हो, वैसे मिलें। और जिसके हाथ में हाथ न दे सको, जिसे सुन न सको, जिससे बोल परमात्मा उसी ढंग से मिल जाता है, जिस ढंग से तुम उसे खोजते न सको, ऐसे निराकार के होने में और न होने में क्या फर्क है? हो। वह तुम्हारे ढंग से तुम्हारे पास आ जाता है। हजार रूप हैं निर्गुण को क्या करोगे? खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे, उसके। अरूप भी वही है। संकल्प से भी मिल जाता है। बिछाओगे-क्या करोगे? | समर्पण से भी मिल जाता है। सत्य बेशर्त है। उसकी कोई शर्व नहीं, स्त्री की तो प्रार्थना है कि तुम स ग होकर आना। तुम नहीं कि एस आआग, नहीं कि ऐसे आओगे, तो ही मिलंगा। आओ, बस आओ। रूप धरकर आना, ताकि तुम्हें देख तो सकें। आंखें जन्मों-जन्मों किस रास्ते से आते हो, पूरब कि पश्चिम, कि उत्तर कि दक्षिण, की प्यासी हैं। तुम बोलना, ताकि तुम्हारा संगीतपूर्ण स्वर मेरे नहीं कोई भेद पड़ता। नाचते आते, गीत गाते आते, कि मौन सोये प्राणों को जगा सके। तुम आना, मुझे सहलाना; तुम आते, नहीं फर्क पड़ता। आना, मेरे साथ नाचना।। मीरा वहीं पहुंच गयी, जहां महावीर पहुंचे। और अगर चुनना तुम स्त्री को बाधा मत दो। बाधा देना अधार्मिक है। अगर उसे ही हो, तो मीरा का मार्ग ज्यादा रसपूर्ण है। वहां बहुत फूल खिले रस मिल रहा है, ठीक। अगर तुम्हारी समझ में नहीं पड़ता, तो | हैं। महावीर का मार्ग तो मरुस्थल जैसा है। सूखा। मरुस्थल का तुम्हें समझने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें जिसमें रस मिल रहा है, भी सौंदर्य है। मरुस्थल की भी विराटता है। मरुस्थल का भी ठीक! रस ही असली बात है। रस है मापदंड। रस न मिल रहा | विस्तार है। सन्नाटा है। मरुस्थल की शांति है। लेकिन फूलों से हो, तो सोचने की जरूरत है। और मुझे लगता है, तुम्हारी स्त्री | लदे वृक्षों के नीचे से गुजरने का भी अपना सौंदर्य और अपना को तुमसे ज्यादा रस मिल रहा है। तुम्हें पूरा रस नहीं मिल रहा। आनंद है। मीरा नाचती हुई पहुंची। महावीर ठहरकर पहुंचे, तुम्हारा ध्यान ठीक नहीं उतर रहा। क्योंकि जब खुद का ध्यान मीरा नाचकर पहुंची। महावीर रुककर पहुंचे, मीरा दौड़कर ठीक उतरता है, कौन फिकिर करता है? तुम्हें अड़चन है। तुम पहुंची। लेकिन जो घटा वह बिलकुल एक है। सिद्ध करना चाहते हो कि मेरा ध्यान बडा तम्हें जो उचित लगता हो, चलो। न तो दसरे को मौका दो कि बहुमूल्य है। तुम तर्क और प्रमाण, विवाद खड़ा करना चाहते तुम्हारे मार्ग पर बाधा दे और न तुम ऐसी कुछ कोशिश करो कि हो। इस तरह दूसरे को तुम राजी करके अपनी आंखों के सामने किसी के मार्ग पर बाधा पड़े। तुम्हें कैसे पता चला कि मूर्तिपूजा यह भाव बनाना चाहते हो कि नहीं, तुम्हारी बात ठीक होनी ही ठीक नहीं है? तुमने मूर्तिपूजा की? अगर की होती, तो पता चाहिए। देखो पत्नी ने भी मान लिया। चलता। की ही नहीं, तर्कजाल बिठाये बैठे हो। मूर्तिपूजा का लेकिन यह मनवाना खतरनाक है। उसे चलने दो उसकी राह तर्कजाल से कुछ लेना-देना नहीं है। मूर्तिपूजा तो रस का अनुबंध पर। दूसरे की सहमति आवश्यक कहां है? तुम अपने ध्यान में है। प्रेम का अनुबंध है। स्त्री तो सपनों में जीती है। मगर उसकी डूबो, उसे अपनी प्रार्थना में डूबने दो। डूब-डूबकर तुम एक दिन शक्ति इतनी है कि सपनों को साकार कर लेती है। जाने दो, उसे पाओगे कि तुम एक-ही गहराई में पहुंच गये हो। वहां तुम्हारा विदा दो खुशी के साथ कि तू अपने मार्ग पर जा। मिलन होगा, वहां तुम अपनी पत्नी को फिर नये रूप में पाओगे। 'मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे ध्यान करने को 146 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org