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________________ जीवन ही है गुरु 2010_03
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________________ R ABSE सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि / / 10 / / थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।।९१।। णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।।९२।। दि जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहिं।।९३।। HABAR MDM अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे।।९४ / / जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं।।९५।। HT 2010_03
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________________ हला सूत्र क्योंकि उसका मूल्य तो लाभ का था। ईमानदारी से मिलता था 1 'चारित्रहीन पुरुष का विपुल शास्त्र-अध्ययन भी | तो ईमानदारी ठीक थी, बेईमानी से मिलता है तो बेईमानी ठीक व्यर्थ ही है. जैसे कि अंधे के आगे लाखों-करोडों है। ऐसे आदमी के बेईमान होने में जरा-भी अडचन न / दीपक जलाना व्यर्थ है।' ऐसे आदमी की ईमानदारी उपकरण है, साधन है, साध्य नहीं। सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। ऐसे आदमी के चरित्र का कोई भरोसा नहीं। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि / / अगर एक आदमी इसलिए शुभ कार्य करता है कि इससे स्वर्ग महावीर ने चरित्र और चारित्र में बड़ा भेद किया है। एक चरित्र मिलेगा, तो ऐसे आदमी के चरित्र का कोई भरोसा नहीं। क्योंकि है, जो हम ऊपर से आरोपित करते हैं। एक चरित्र है, जो भीतर कल अगर इसे पता चल जाए कि बेईमान भी रिश्वत देकर और से आविर्भूत होता है। एक चरित्र है, जिसका हम अभ्यास करते स्वर्ग पहुंच रहे हैं, कल इसे पता चल जाए कि ईमानदार नर्क में हैं। और एक चरित्र है, जो सहज खिलता है। सहज खिलनेवाले पड़े हैं और सड़ रहे हैं, तो यह ईमानदारी छोड़ देगा। यह बेईमानी को ही उन्होंने चारित्र कहा है। वही धार्मिक है। जो आरोपित है, पर उतर जाएगा। स्वाभाविक है। क्योंकि साध्य तो ईमानदारी | अभ्यासजन्य है. चेष्टा से बांधा गया है. वह चरित्र नैतिक है। नहीं थी। , महावीर की भाषा में, वास्तविक चरित्र को उन्होंने | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा था, निश्चय-चरित्र कहा है। अवास्तविक चरित्र को व्यवहार-चरित्र दुकान पर। सभी बातें समझा रहा था धीरे-धीरे, बेटा बड़ा हो कहा है। एक तो चेहरा है दूसरों को दिखाने के लिए। और एक गया, दुकान संभाले। एक दिन उसने कहा कि सुन, देख, यहां स्वयं का मौलिक चेहरा है। एक तो व्यवहार है। सच बोलते हो, व्यवसाय की नैतिकता का प्रश्न है। यह जो आदमी अभी-अभी ईमानदारी से जीते हो, लेकिन वह भी व्यवहार है। सारी दुनिया गया, दस रुपये का नोट इसे देना था, लेकिन भूल से यह के दुकानदार कहते हैं, 'आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी।' दस-दस के दो नोट दे गया है, एक-दूसरे में जुड़े थे। अब यह ईमानदारी श्रेष्ठतम नीति है। लेकिन पालिसी' होशियारी है सवाल उठता है व्यावसायिक नीति का कि मैं अपने साझीदार को उसमें। नीति, धर्म नहीं। ईमानदार इसलिए होना उचित है कि यह दस रुपये का दूसरा नोट बताऊं कि न बताऊं? वह यह नहीं ईमानदारी में लाभ है। ईमानदारी स्वयं बहुमूल्य नहीं है, लाभ के | कह रहा है कि नीति का सवाल उठता है कि मैं इस आदमी को कारण बहुमूल्य है। बुलाऊं जो बीस रुपये दे गया है। यह तो बात खतम हुई। इससे अगर ईमानदारी लाभ के कारण बहुमूल्य है, और किसी दिन | तो कुछ लेना-देना नहीं। अब मैं अपने पार्टनर' को बताऊं या बेईमानी से लाभ मिलता हो, तो ऐसा आदमी बेईमानी करेगा। न बताऊ? 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 SERI व्यवसायी की बुद्धि तो नीति में से भी व्यवसाय ही खोजेगी। दूर पड़ गया, उसकी भूख-प्यास की भी याद नहीं आती। और जो इस ग्राहक को बुलाने को, देने को राजी नहीं है, वह महावीर ने ऐसे उपवास किये थे। तुम भी उपवास कर लेते साझीदार को भी बताने को राजी नहीं हो सकता। हो। लेकिन तुम्हारे उपवास में भोजन का इतना चिंतन चलता है नैतिक व्यक्ति बेशर्त नैतिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति बेशर्त कि करीब-करीब भोजन पर ही ध्यान अटक जाता है। भोजन नैतिक होता है। उसकी कोई शर्त नहीं है। नीति कोई साधन नहीं करते हए तम भोजन के संबंध में इस भांति कभी नहीं सोचते. है, जिससे कहीं पहुंचना है। नीति ही उसका साध्य है। जैसा उपवास करके सोचते हो। भोजन कर लिया दो बार, तो शुभाचरण उसका आनंद है। भूल गये। लेकिन जिस दिन उपवास थोप लिया अपने ऊपर, इसे खयाल में लेना, क्योंकि यह सारे सूत्र इसी संबंध में हैं। चौबीस घंटे भोजन की ही याद आती-जाती है। यह तो उपवास कोई व्यक्ति नर्क के डर से नैतिक आचरण कर रहा है। कोई | न हुआ। यह तो उपवास के प्रतिकूल हो गया, विपरीत हो गया। व्यक्ति चौराहे पर खड़े पुलिसवाले के डर से नैतिक आचरण कर एक ब्रह्मचर्य है, जो कामवासना की व्यर्थता के बोध से जन्मता रहा है। कोई व्यक्ति अदालत के भय से नैतिक आचरण कर रहा है। उसे बांध-बांधकर लाना नहीं पड़ता। तुम्हारी समझ ही, है। भय से नीति का कैसे जन्म होगा! भय से थोथे आचरण का तुम्हारे जीवन का अनुभव ही तुम्हें उस जगह ले आता है कि ऊर्जा, जन्म हो सकता है। भय के कारण तुम ऊपर-ऊपर अपने को | का तुम व्यर्थ उपयोग बंद कर देते हो। बंद करने की चेष्टा नहीं संभालकर रख सकते हो। लेकिन भीतर की अग्नि का क्या करते, बंद हो जाता है। तुम्हारी समझ ने तुम्हें शरीर की व्यर्थता होगा? और इसलिए अकसर तुम पाओगे, जिनको हम समझा दी। तुम्हारी समझ ने तुम्हें शरीर के क्षणभंगुर-रस का साधारणतः नैतिक पुरुष कहते हैं, वे सभी पाखंडी होंगे। बोध करा दिया। तुम्हारी समझ ने, जागरूकता ने, तुम्हारे पाखंड का इतना ही अर्थ है, ऊपर नैतिक होंगे, भीतर अनीति अनभव ने तम्हारे भीतर एक नयी दिशा खोज ली। उसी दिशा में के सागर में लहरें उठ रही होंगी। जो उन्होंने बाहर से रोक लिया | ऊर्जा बहने लगी। ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन हुआ। तुम ऊर्ध्वरेतस है अपने को, न करने से, वही उनके भीतर चित्त में घाव की तरह बने। तब तो एक ब्रह्मचर्य है, जिसमें फूल-जैसी सरलता होगी, गहरा होता जाएगा। जिससे उन्होंने अपने को किसी तरह वंचित | सहजता होगी, कोमलता होगी। कर दिया है, वह उनके मन में बार-बार सपने उठायेगा। और एक ब्रह्मचर्य है, जो तुमने वासना की अदम्य पुकार से आकर्षित करेगा। अगर उपवास घटा हो, तो तुम्हें भोजन की घबड़ाकर, वासना के अदम्य प्रभाव से घबड़ाकर अपने ऊपर द न आयेगी। कभी-कभी घटता है उपवास। कभी तम आरोपित कर लिया। जबर्दस्ती थोप लिया। प्राण तो भागे जाते संगीत सुनने में ऐसे लीन हो गये कि याद ही न रही शरीर की। थे वासना की तरफ, तुमने लगाम खींच ली। लेकिन इससे तुम संगीत में ऐसे डूब गये कि शरीर और शरीर की भूख का विस्मरण | कामक हो जाएगा। इससे तुम्हारे चित्त में कामवासना ही हो गया। तो उपवास सहज घटित हुआ। ध्यान में डूब गये और | कामवासना भर जाएगी। इससे तुम मवाद ही मवाद से भर शरीर भूल गया, तो उपवास सहज घटित हुआ। लेकिन अगर जाओगे। इससे तुम्हारा उठना, बैठना, सोना, जागना, ध्यान, तुमने चेष्टा से उपवास किया–पर्युषण आया, व्रत के दिन पूजा, प्रार्थना, सभी पर कामवासना की छाप पड़ जाएगी। यह आये, तुमने उपवास किया तो तुम दिन-रात भोजन के संबंध तो रोग हो गया। स्वास्थ्य न हुआ। में ही विचार करोगे। यह उपवास अंतर्तम से नहीं आया। यह महावीर जिस ब्रह्मचर्य की बात करते हैं, वह जीवन के अनुभव उपवास नहीं है, अनशन है। उपवास शब्द का ही अर्थ होता है, से आये। जीवन के कडुवे-मीठे अनुभव तुम्हें कहीं पहुंचा दें; आत्मा के निकट आ जाना, आत्मा के पास आ जाना। आत्मा के हाथ जल जाए, फिर कौन डालता है आग में हाथ! वास में आ जाना। पास...और पास...और पास...। आत्मा मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर छोटा बच्चा आग की तरफ जा के इतने पास हो गये कि शरीर बहुत दूर पड़ गया, हजारों मील | रहा हो, तो बजाय उसे जबर्दस्ती रोकने के, उसे आग के पास 84 | JainEducation International 2010_03
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________________ Marauwarenewmomemagwwwomemamawesomeownewww जावन ही है गरु धीरे-धीरे ले जाओ। उसे अनुभव होने दो कि जैसे-जैसे आग के चाहेगा, हो सकेगा। लेकिन एक बात खयाल रखना कि जब मंत्र पास जाता है, वैसे-वैसे शरीर झुलसता है। और इसमें भी कोई को पढ़े तो बंदर की याद न आये। उस आदमी ने कहा, फिकिर हर्ज नहीं है अगर वह एक बार जलती हुई आग में अंगुली भी छोड़ो, बंदर की कभी याद आयी ही नहीं जिंदगी में, अब क्यों डाल ले और थोड़ा जल जाए और फफोला उठ आये, कोई हर्ज आयेगी। लेकिन बस वहीं झंझट हो गयी! नहीं। लेकिन यह जीवनभर के लिए सिखावन हो जाएगी। तुम | वह मंदिर से नीचे भी नहीं उतर पाया कि बंदर ही बंदर! उसने तो आकर्षण बढ़ेगा। जहां-जहां हम मन | बहत झिडका। उसने बार-बार मंत्र को याद करने की कोशिश को जाने से रोकते हैं, मन वहीं-वहीं उतावला होता है जाने को। की, लेकिन जैसे ही मंत्र आये कि उसके पहले बंदर मौजूद हो मन का नियम समझो। नियंत्रण निमंत्रण बन जाता है। निषेध जाए। रातभर उसने चेष्टा की कि पांच बार तो बिना बंदर के एक पुकार बन जाती है। रोको जाने से कहीं मन को और सब तरफ दफा कह लूं, लेकिन न कह पाया। आधी पागल हालत में सुबह भूलकर मन वहीं-वहीं जाने लगता है। कभी देखा है, दांत टूट आया। उसने उस गुरु को कहा कि तुम भी हद्द के आदमी हो! जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। रोको उसे। फिर तुम भूले एक तो वर्षों की सेवा के बाद मंत्र दिया, यह बंदर क्यों साथ दे कि फिर जीभ वहीं गयी। कहां चौबीस घंटे याद रखोगे! तुम दिया! अगर बंदर ही शर्त थी, तो चुप रहते। मुझे बंदर कभी याद जानते हो दांत टूट गया, अब वहां कुछ जीभ को ले जाने जैसा भी आते ही न थे, जिंदगी बीत गयी। और आज रात, मंत्र को पांच नहीं है। लेकिन खाली जगह में जीभ जाती है। तुम रोकते हो तो | बार कहना तो मुश्किल, एक बार कहना मुश्किल है। गुरु ने और-और जाती है। कहा, मैं भी क्या कर सकता हूं! शर्त वही है। वह पूरी हो तो ही मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक बहुत गहरा नियम है-विपरीत मंत्र सार्थक होता है। परिणाम का नियम। तुम जो नहीं करना चाहते, वही होता है। तुम पक्का मान लो, वह मंत्र कभी सार्थक हुआ न होगा। नये सिक्खड़ को देखा है साइकिल सीखते हुए? साठ फीट चौड़े | जितनी चेष्टा होगी, उतना ही बंदर प्रगाढ़ होता जाएगा। रास्ते पर, रास्ते के किनारे लगे मील के पत्थर से उसकी साइकिल मन का एक नियम है। तुम जिस चीज को दबाओगे, उभरेगी। जाकर टकरा जाती है। साठ फीट चौड़ा रास्ता था, कोई रास्ते पर दबाने से कभी कोई मुक्त नहीं होता। मुक्ति दमन से नहीं आती। न था। सुनसान पड़ा था। लेकिन इसको हुआ क्या? यह लाल मुक्ति बोध से आती है। समझ से आती है। और एक बार समझ मील के पत्थर की तरफ क्यों आकर्षित हो गया? जैसे ही नया आ जाए, तो जीवनभर के लिए एक दीया जल जाता है भीतर। सिक्खड़ पत्थर देखता है, वह घबड़ाता है। वह घबड़ाता है कि मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की एक रात अपनी पत्नी से कुछ कहीं इस पत्थर से टकरा न जाऊं! साठ फीट चौड़ा रास्ता भूल | कहा-सुनी हो गयी। पत्नी बहुत चिल्लाने लगी, चीखने लगी। जाता है। इस पत्थर से टकरा न जाऊं, नजर पत्थर पर अटक | मुल्ला थरथर कांपने लगा। आखिर पत्नी ने कहा, कायर कहीं जाती है। और जैसे वह पत्थर से बचने लगता है, वैसे रास्ता तो | के, क्यों थरथर कांप रहे हो? तुम आदमी हो कि चूहे! मुल्ला ने बिलकुल ही भूल जाता है, पत्थर और वह, बस दो ही रह जाते कहा, देवी! आदमी ही होना चाहिए, क्योंकि अगर मैं चूहा हैं। फिर एक अदम्य आकर्षण घबड़ाहट में पैदा हुआ। उसे होता, तो तू थरथर कांपती। इस उपद्रव और झगड़े में पत्थर की तरफ खींचने लगता है। कोई पत्थर खींच रहा है, ऐसा मोहल्ले-पड़ोस के लोग भी आ गये। संयोग की बात एक चोर नहीं। खुद के ही निषेध से खिंचा जा रहा है। घर में घुसा था। वह पकड़ा गया। बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि एक युवा एक साधु के पीछे पड़ा था। अदालत में मुकदमा चला। उस चोर से मजिस्ट्रेट ने पूछा, उसके पैर दबाता, सेवा करता, कहता कि कुछ चमत्कारी शक्ति तुम्हें कुछ कहना है? उसने कहा सिर्फ इतना ही कहना है हुजूर, दे दो। साधु उससे घबड़ा गया था, उसने कहा, अच्छा भई! यह कि मैं कभी शादी न करूंगा। और इतनी मेरी प्रार्थना है, और मंत्र है। छोटा-सा मंत्र है, इसे पांच बार पढ़ना है। बस पांच बार कोई भी सजा दे दो, शादी करने भर की आज्ञा मत देना। बस, पढ़ने से तुझे सिद्धि उपलब्ध हो जाएगी। तू जो भी करेगा, करना | बहुत देख लिया। रात जो मुझे दर्शन हुआ है! मैं भी आदमी हूं, 85 2010_03
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________________ 223 जिन सूत्र भाग: 2 चूहा नहीं हूं। और जो इस गरीब मुल्ला पर गुजरते देखा है, वह जाओ। उस अंधे ने कहा, तुम पागल हुए हो! मुझे क्या फर्क अब अपने पर गुजरते नहीं देखना चाहता। पड़ता है, कंदील हाथ में हो, या न हो! अंधेरा अंधेरा है। मैं जीवन को खली आंख से देखते चलें। जो चारों तरफ गजर अंधा हूं, क्या तुम भूल गये? कंदील क्या करेगी! रहा है, वही शास्त्र है। जो सब पर गुजर रहा है, वही शास्त्र है। लेकिन उस मित्र ने तर्क किया कि माना कि तुम अंधे हो और तुम पर गुजर रहा है, उसे भी गौर से देखो। कोई भी जीवन का कंदील तुम्हारे लिए कुछ न कर सकेगी, लेकिन इतना तो करेगी अनभव बिना सार निचोड़े मत जाने दो। तो ही धीरे-धीरे कि दसरा कोई तमसे न टकरा सकेगा। रोशनी हाथ में रहेगी, तो परिपक्वता आती है। तो ही धीरे-धीरे ऐसी घड़ी आती है, जहां | दूसरा तुमसे न टकरा सकेगा। यह तर्क अंधे को भी जंचा, वह तुम्हारे भीतर से चरित्र का आविर्भाव होता है। लेकिन उस चरित्र कंदील लेकर गया। कोई दस-पांच कदम ही गया था कि कोई की न तो कोई मांग होती, न कोई आकांक्षा होती, न उस चरित्र उससे आ टकराया। उसने कहा, क्या मामला है? क्या तुम भी का कोई लक्ष्य होता। वह चरित्र स्वयं में सुंदर। स्वांतः सुखाय। अंधे हो? हाथ में कंदील है मेरे, दिखायी नहीं पड़ती? उस दूसरे भीतर ही भीतर उसका रस है। आदमी ने कहा कि महानुभाव, आपकी कंदील बुझी हुई है। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि मैं चरित्रवान है, इसलिए अंधे को पता कैसे चले कि कंदील बुझ गयी। अंधे को कंदील मुझे सम्मान मिले। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता—यह भी का जलना ही पता नहीं चलता, तो बुझना कैसे पता चलेगा? शिकायत नहीं करता-कि दूसरे चरित्रहीन सम्मानित हो रहे हैं, और कहते हैं, उसे अंधे ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि मैं यह क्या अन्याय हो रहा है! वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि वर्षों से चल रहा हूं, कभी मुझसे कोई भी न टकराया था। क्योंकि चरित्रहीन सफल हो रहे हैं और चरित्रवान असफल हो रहे हैं, हे | मैं खुद ही संभलकर चलता हूं, लकड़ी चोट करके चलता हूं, प्रभु, यह कैसा अन्याय है! नहीं, उसकी कोई शिकायत नहीं। खबर करके चलता हूं कि भई, में अंधा हूं। तुम्हारी कंदील ने मुझे वह जानता है कि चरित्रहीन कितना ही सफल हो जाए, उसकी आश्वासन दे दिया कि आज तो कोई खबर रखने की जरूरत सब सफलता अंततः जोड़ में असफलता बन जाती है। वह | नहीं। आज तो लापरवाह चल सकता हूं। कंदील तो हाथ में है, जानता है कि चरित्रवान सफल हो कि असफल, उसके आनंद में | कोई टकरायेगा नहीं। यह पहली दफे मेरी जिंदगी में कोई मझसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी विफलता भी सफलता है। टकराया है, तुम्हारी कंदील के कारण टकराया है। कंदील ने सफलता तो सफलता है ही। वह सड़क पर भिखारी की तरह भी भरोसा दे दिया, आत्मविश्वास दे दिया। अन्यथा अंधा अपने खड़ा हो, तो उसके भीतर सम्राट का भाव होता है। चरित्रहीन, अंधेपन के हिसाब से व्यवस्था करके चलता है। लकड़ी सम्राट की तरह सिंहासन पर भी बैठा हो, तो भी अपराधी के भाव | टटोलकर, आवाज करके। आज उसने अपनी सहज सावधानी से भरा होता है। को भी छोड़ दिया। असली निर्णय भीतर है। चरित्र का एक सहज सुख है। एक अगर तुम्हें पता हो कि तुम अज्ञानी हो, तो तुम टटोलकर शीतलता है। लेकिन, उस चरित्र का जो अपने से आता है। चलोगे, आवाज करके चलोगे, लकड़ी बजाकर चलोगे; महावीर कहते हैं, 'चरित्रविहीन पुरुष का विपुल अकड़कर न चलोगे। लेकिन, अगर तुम्हारा अज्ञान शास्त्र-अध्ययन भी व्यर्थ ही है; जैसे कि अंधे के आगे शास्त्र अध्ययन में ढंक गया, तो तुम्हें लगता है, तुम्हारे हाथ में लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।' अंधे के सामने एक दीपक जलाओ, कि करोड़ दीपक उधार ज्ञान हो जाता है, तो ज्ञान तो नहीं आता, सिर्फ अकड़ आती जलाओ, कोई अंतर नहीं पड़ता। है। ज्ञान तो नहीं जलता, सिर्फ अहंकार प्रगाढ़ होता है। सुना है मैंने, एक अंधा अपने मित्र के घर से विदा हो रहा था। इस अहंकार से चरित्र तो कैसे पैदा होगा! अहंकार तो सबसे तो मित्र ने कहा, रात में अंधेरा ज्यादा है, अमावस की रात है। बड़ी बाधा है चरित्र में। क्योंकि चरित्र की अगर कोई बुनियाद है, रास्ते पर कोई दुर्घटना हो जाए, तुम यह हाथ में कंदील लिये तो निर-अहंकारिता है। अपने को बदलने को वही तैयार होता 86 2010_03
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________________ जीवन ही है गुरु है, जो अपने दोष देखने को तैयार है। अहंकार तो अपने दोष | से स्वयं के अध्ययन से यात्रा शुरू होगी। देखने को तैयार ही नहीं होता। इसलिए बदलने का तो कोई 'चारित्र्यसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है।' सवाल ही नहीं है। __ थोड़ा भी जानो, लेकिन जानो। अपने अनुभव से जानो। थोड़ा / अज्ञानी व्यक्ति, जिसके ऊपर पांडित्य का कोई बोझ नहीं है, भी जानो, लेकिन तम्हारे ही जीवन का निचोड़ हो। रत्तीभर काफी अपने अज्ञान को देखता है और सदा तत्पर होता है बदलने को। है, लेकिन तुमने प्राणों को डालकर उसे सीखा हो। उधार न हो। अज्ञानी सीखने को राजी होता है, पंडित सीखने को राजी नहीं ऊपर-ऊपर न हो। सुना-सुनाया न हो। तुम्हारे भीतर प्राणों ने होता। उसे तो पहले से ही खयाल है कि मैं जानता हूं। गुनगुनाया हो। तुमने अपनी आंख से जाना हो। तुमने अपने इसीलिए सदियां बीत गयीं, शास्त्र बढ़ते चले गये; आदमी का हाथ से छुआ हो। तो अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। ज्ञान भी खूब बढ़ा; मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भी खूब बने, लेकिन | '...और चरित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान-बहुत कुछ सुना चरित्र के मंदिर का जन्म न हुआ। हुआ, बहुत स्मृति से इकट्ठा किया हुआ, वैसा ज्ञान-भी मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे निष्फल है।' मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे हम जानते बहुत हैं बिना जाने। गुरजिएफ के पास जब पहली आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा दफा आस्पेंस्की आया-उसका प्रमख शिष्य-तो गुरजिएफ ने दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा। कहा, तू एक काम कर। एक कागज पर दो खंड कर ले। एक चलते रहे। मौलवी कुरान समझाते रहे। मंदिरों में उपदेश देते तरफ लिख, जो तू जानता है। और एक तरफ लिख, जो तू नहीं रहे ब्राह्मण। जानता है। और ईमानदारी बरत। क्योंकि अगर मेरे पास कुछ मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे सीखना है, तो ईमानदारी से शुरुआत करनी होगी। फिर मेरा मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे कुछ खोता नहीं, अगर तू बेईमान भी रहे। जो तू लिख देगा कि तू आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा जानता है, उस संबंध में मैं फिर कभी तुझसे बात न करूंगा। बात लेकिन आदमी सदा देवताओं के सामने हाथ जोड़े भिखारी ही | खतम हो गयी, तू जानता है। और जो तू लिख देगा कि नहीं बना रहा। वह देवताओं की कृपा का आकांक्षी ही रहा। आदमी | जानता है, उस संबंध में मैं तेरी पूरी सहायता करूंगा जानने के कभी अपने पैर पर खड़ा न हो पाया। आदमी कभी स्वावलंबी न लिए। अब तू सोच ले। यह कागज ले, भीतर के कमरे में जाकर | बन पाया। आदमी देवताओं के सामने भिखमंगा बना रहा. | लिख ले। आदमी खुद देवता न बन पाया। आस्पेंस्की प्रसिद्ध आदमी था। बड़ा गणितज्ञ था। जब दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा गुरजिएफ के पास आया तो गुरजिएफ को तो कोई भी नहीं जानता और आदमी की जो बुनियादी बीमारी है, वह उपचार से वंचित था, आस्पेंस्की का नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का नाम था। उसने रही। आदमी का अहंकार उसकी बनियादी बीमारी है। एक बड़ी अदभुत किताब 'टर्सियम आर्गनम' लिखी थी। ऐसी दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा किताबें सदियों में एकाध बार लिखी जाती हैं। कहते हैं, दुनिया वह जो मूल पीड़ा है, अकड़ की, वह अपनी जगह खड़ी रही। में केवल तीन किताबें हैं उस मूल्य की, पूरे मनुष्य जाति के खड़ी ही न रही, बल्कि बहुत बढ़ गयी। मंदिरों, मस्जिदों ने इतिहास में। पहली किताब अरिस्टाटल ने लिखी थी। उसका सहारा दिया। आदमी गहन अहंकार से भर गया। इस अहंकार नाम है-'आर्गनम।' पहला सिद्धांत। दूसरी किताब बेकन ने के कारण सीखना ही असंभव। इस अहंकार के कारण झकना लिखी, उसका नाम है—'नोवम आर्गनम।' नया सिद्धांत। असंभव। इस अहंकार के कारण विनम्र होना असंभव। और तीसरी किताब आस्पेंस्की ने लिखी। उसका नाम 'चरित्रहीन पुरुष का विपुल शास्त्र-अध्ययन व्यर्थ है।' है-'टर्सियम आर्गनम।' तीसरा सिद्धांत। कहते हैं, इन तीन महावीर कह रहे हैं, शब्दों से नहीं, अध्ययन से नहीं, स्वाध्याय किताबों का कोई मुकाबला नहीं है। 87 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 और आस्पेंस्की ने जब ऐसी बहुमूल्य किताब लिखी थी, तो कहते हो, बड़े हो जाओ, तब तुम्हें दिखायी पड़ेगा। तुम्हें दिखायी स्वभावतः अकड़ थी। अकड़ तो उसकी किताब के पहले पन्ने से पड़ा बड़े होकर? क्यों झूठ बोल रहे हो! कम से कम ईश्वर के ही पता चलती है। पहले पन्ने पर ही वह लिखता है कि अरस्तू ने | संबंध में तो झूठ मत बोलो। क्या तुम बच्चे को दे रहे हो? तम पहला सिद्धांत लिखा, बेकन ने दूसरा लिखा, मैं तीसरा लिखता | सोचते हो, ईश्वर दे रहे हो। तुम एक बड़े से बड़ा झूठ दे रहे हो। हूं, लेकिन तीसरा पहले से भी पहले मौजूद था। यह मेरा तीसरा इसमें ईश्वर तो मिलेगा ही नहीं तुम भी खो जाओगे। सिद्धांत पहले से भी पहले है! और किताब तो मूल्यवान है, सभी बच्चे बड़े होकर अपने मां-बाप का तिरस्कार करने लगते इसमें कोई भी शक नहीं है। हैं। क्योंकि एक न एक दिन यह पता चल जाता है कि धोखा गुरजिएफ को कोई भी नहीं जानता था। गुरजिएफ को लोगों ने दिया गया। छोटे बच्चे तो बड़ी श्रद्धा से भरे होते हैं। तुम जो भी जाना आस्पेंस्की के कारण। क्योंकि आस्पेंस्की उसका शिष्य हो | कहते हो, मान लेते हैं। अश्रद्धा जानते ही नहीं अभी। लेकिन | गया। तो जरूर इस फकीर में कुछ होगा। और गुरजिएफ ने कब तक ऐसा रहेगा! जल्दी ही सोच-विचार उठेगा, संदेह कहा, तू लिख ले। क्योंकि मैंने तेरी किताब देखी है। तू बड़े जगेंगे, प्रश्न उठेगे और तब वे देखेंगे, कि तुम भी उसी नाव में खतरे में है। तुझे पता नहीं है और तुझे खयाल है कि तुझे पता है। सवार हो जिस पर वे सवार हैं। न तुम्हें परमात्मा का पता है, ने यह साफ हो जाए पहले ही दिन, फिर बात चल पड़ेगी। तुम्हें आत्मा का पता है, तुम बकवास कर रहे हो। जिस दिन यह आस्पेंस्की आदमी निश्चित ईमानदार रहा होगा। सब दांव पर दिखायी पड़ता है, उसी दिन श्रद्धा गिर जाती है। और जिस बच्चे लगा दिया उसने। घंटेभर वह बैठा रहा उस कमरे में। सर्द रात की श्रद्धा मां-बाप से गिर जाती हो, उसकी श्रद्धा स थी, पसीना-पसीना हो गया। हाथ में लिए कलम, कागज | जाती है। सामने रखे, चेष्टा करता है, लेकिन कुछ भी याद नहीं आता जो जो इतने करीब थे, जो इतने अपने थे, वे भी धोखा दे गये। वे जानता हो, जो वस्ततः जानता हो, जिसको स्वयं जाना हो। | भी झठ बोलते रहे। वे भी दावे करते रहे, जिनका उन्हें कछ भी जिसका साक्षात्कार हुआ हो। न ईश्वर को जानता है, न आत्मा पता न था! तो अब दूसरों का क्या भरोसा? अगर इस संसार में को जानता है। कुछ भी तो नहीं जानता। अभी ध्यान भी तो नहीं तुम्हें इतने अश्रद्धालु दिखायी पड़ते हैं, उसका बुनियादी कारण जाना। अभी प्रेम भी तो नहीं जाना। परमात्मा तो बहुत दूर है, | यही है, बच्चों की श्रद्धा के साथ खिलवाड़ किया गया है। उतना अभी प्रेम भी नहीं जाना। रोता है, पसीने से तरबतर है। ही कहना, जितना तुम जानते हो। कुछ हर्ज नहीं है कह देने में कि घंटेभर बाद वापिस आता है। गुरजिएफ के चरणों में गिर मुझे पता नहीं है, खोज रहा हूं, मिल जाएगा तो तुम्हें बता दूंगा। पड़ता है। खाली कागज हाथ में दे देता है। कहता है, मैं कछ भी अगर तम्हें मिल जाए, तो मझे खबर करना। मझे पता नहीं है। नहीं जानता। मैं शिष्य होने को तैयार हूं। और वह आखिरी क्षण यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। है, उसके बाद उसने कभी गुरजिएफ के सामने किसी भी बात को यह झूठी अकड़ कि मुझे पता है, सबसे महंगा सौदा है। इसके जानने का दावा नहीं किया। | कारण ही चरित्र का जन्म नहीं हो पाता। क्योंकि झूठ से तो चरित्र गुरजिएफ ने खूब भरा उसे। खूब उंडेला उसमें। इतना खाली का जन्म नहीं हो सकता। पात्र मिल जाए, तो गुरु भी नाच उठता है। और इतना खाली हूं, अब यह थोड़ा सोचना। ऐसा मानने को तैयार हो जाए; खाली तो सभी हैं। मानने में | इसे तुम धर्म की शिक्षा कहते हो। सारे धर्म यह चेष्टा करते अड़चन है। खाली हैं तो और ढक्कन को बंद किये बैठे हैं, कि हैं-ईसाई, हिंदू, जैन, मुसलमान-सब यह चेष्टा करते हैं कि कोई ढक्कन न खोल ले, कोई भीतर देख न ले! धर्म की शिक्षा रहे। क्या शिक्षा तुम दोगे? शिक्षक को पता है ? तुमने कभी विचार किया कि क्या तुम जानते हो? तुमने कभी शिक्षक को भी पता नहीं है। ऐसे तुम झूठ को पैर लगा रहे हो। ईमानदारी से उत्तर दिये? तुम्हारा छोटा बच्चा तुमसे पूछता है, ऐसे तुम झूठ को चलायमान कर रहे हो। सब धर्म शिक्षा ईश्वर है? तुम कहते हो हां है। वह कहता है, दिखाओ। तो तुम खतरनाक है। क्योंकि ज्ञान से भर देगी। और चरित्र से सदा के 88 2010_03
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________________ R ECE जीवन ही है ग लिए वंचित कर जाएगी। हूं, तब प्रार्थना सुगम होती है। इसलिए दुख की प्रार्थना करता हूं, वास्तविक धर्म की शिक्षा तो एक ही हो सकती है कि तुम्हें क्योंकि दुख की छाया में ही मैं प्रार्थना कर पाता हूं। अभी मैं जीवन से निचोड़ने की कला सिखायी जाए। तुम्हें कहा जाए कि इतना योग्य नहीं कि सुख में प्रार्थना कर सकूँ। सुख में भूल जाता जीवन के अनुभवों से सीखना। अगर क्रोध करते हो, तो खूब हूं। दुख में याद बनी रहती है। तो थोड़ा दुख देते रहता। ऐसा न जागकर क्रोध करना। ताकि क्रोध में क्या होता है, यह तुम्हें पता हो कि सुख ज्यादा दे दो, और मैं तुम्हें ही भूल जाऊं। क्योंकि चल जाए। फिर तुम्हारी मर्जी! फिर जो श्रेयस्कर हो, करना। तुम्हें ही भूल गया, तो सुख का क्या करूंगा? तुम याद रहे, अगर तुम्हें लगे, क्रोध ही उचित है, वही तुम्हारा आनंद है, तो थोड़ा दुख भी रहा तो ठीक है। तुम्हारी याद के साथ दुख झेलना वही करना। लेकिन ऐसा तो कभी हुआ नहीं कि क्रोध में किसी ने बेहतर। तुम्हारी याद के बिना सुख में उतरना खतरनाक। आनंद पाया हो। कामवासना में तुम्हारा आनंद है, तो ठीक है, स्वर्ग भी नर्क हो जाता है, अगर परमात्मा का स्मरण न रहे। उसी तरफ जाना। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं कि किसी ने नर्क भी स्वर्ग हो सकता है, अगर उसकी याद बनी रहे। वस्तुतः आनंद पाया हो। आनंद तो मनुष्य के भीतर है—न क्रोध में है, न तो उसी की याद में स्वर्ग है। स्मरण में, बोध में, ध्यान में। काम में है, न लोभ में है। चरित्र रुक गया है, अवरुद्ध हो गया है। झूठे ज्ञान के कचरे ने, रत्न तो लाख मिले, एक हृदय-धन न मिला कंकड़-पत्थरों ने झरने को अवरुद्ध कर दिया है। तो पहली बात दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला जो धार्मिक व्यक्ति को करने की है, वह यह है-तथाकथित खोजते-खोजते ढल धूप गयी जीवन की ज्ञान को हटा दो। इस कूड़े-कर्कट को अलग करो। इसको दूसरी बार मगर लौटकर बचपन न मिला अलग करते ही तुम बड़े निर्भार हो जाओगे। बोझ उतर जाएगा। और धर्म का अर्थ है, दूसरी बार बचपन का मिल जाना। द्विज | न हिंदू रहोगे, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई। क्योंकि यह सब हो जाना। धर्म ऐसे रत्न की तलाश है जो तुम्हारे भीतर छिपा पड़ा | तो उधार ज्ञान के कारण तुम बने हो। तब तुम सिर्फ शुद्ध है, जो तुम्हारी अंदर की पर्तों में दबा पड़ा है। | खालिस आदमी रह जाओगे। शुद्ध, सहज आदमी। और यह धर्म किसी से मिल नहीं सकता। यह धर्म किसी के हाथ से तुम्हारी आंखें निर्मल बच्चे की भांति हो जाएंगी। क्योंकि ज्ञान ने हस्तांतरित नहीं हो सकता। यह धर्म तो तुम्हें अपने भीतर ही तुम्हें बूढ़ा किया है। अगर ज्ञान तुम हटा दो, तो दूसरा बचपन उतरकर ही खोजना होगा। | आने लगा। जीवन के हर अनुभव को सीढ़ी बनाना। और जीवन के किसी रत्न तो लाख मिले, एक हृदय-धन न मिला अनुभव से घबड़ाना मत। यहां कुछ भी बुरा नहीं है। अगर सीख मिलेगा भी कैसे! हृदय-धन तो भीतर है। बाहर जो भी मिल लो, तो सभी शुभ है। और न सीखो, तो सभी अशुभ है। यहां जाएगा, वह और कुछ भी हो, हृदय-धन तो नहीं हो सकता। कांटे भी शिक्षा के लिए हैं। यहां अपमान में भी राज है। यहां और जो हृदय-धन नहीं है, वह धन कैसा! वह आज नहीं कल दुख और दर्द में भी प्रार्थना के बीज ही छिपे हैं। छिनेगा। सूफी फकीर हसन परमात्मा से प्रार्थना किया करता था कि हे दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला परमात्मा! और कुछ भी करना, लेकिन थोड़ा दर्द बनाये रखना, चैन तो भीतर मिलता है। चैन तो उसे मिलता है, जो अपनी ही थोड़ा दुख देते रहना। एक दिन किसी ने सुन लिया। यह कैसी छाया में आ गया। जो अपने भीतर इतना उतर गया कि संसार प्रार्थना कर रहा है! पूछा कि हसन, प्रार्थनाएं हमने बहुत सुनी, की तरंगें वहां तक पहुंच नहीं पातीं। चैन तो बस उसे मिलता है। लोग करते हैं प्रार्थना सुख की, सुख के लिए, यह कैसी प्रार्थना! | दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला तुम्हारा दिमाग ठीक है? या मैंने गलत सुना? मुझे लगा कि तुम खोजते-खोजते ढल धूप गयी जीवन की कह रहे हो, हे परमात्मा! रोज मुझे थोड़ा दुख जरूर देते रहना। दूसरी बार मगर लौट के बचपन न मिला हसन ने कहा, गलत नहीं सुना। लेकिन दुख में जब मैं होता | और जब तक दूसरी बार बचपन न मिले, समझना कि जीवन 89 2010_03 |
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________________ जिन सूत्र भागः2 व्यर्थ गया। दूसरी बार बचपन मिल जाए, कि जीवन सार्थक करने से आता है। हुआ। उस दूसरे बचपन को ही तो संतत्व कहते हैं। पहला | यह ज्ञान चरित्र का ही निचोड़ है, सार है। जैसे हजारों फूलों बचपन मूल्यवान है, लेकिन खोयेगा। क्योंकि पहला बचपन को निचोड़कर इत्र बनता है, ऐसे हजारों अनुभवों को निचोड़कर अबोध है। उसे खोना ही पड़ेगा। उसे बचाने का कोई उपाय नहीं | ज्ञान बनता है। एक बार क्रोध किया, दो बार क्रोध किया, हजार है। वह खोने को ही है। बच्चा सरल है, साधु है, लेकिन उसकी बार क्रोध किया, लाख बार क्रोध किया, इन सारे क्रोधों से तुमने साधुता इतनी सरल है कि संघर्ष में टिक न सकेगी। उसकी जब अनुभव को निचोड़ा, और पाया कि सब व्यर्थ था, कुछ भी साधुता इतनी स्वाभाविक है कि जीवन के उपद्रव में दब जाएगी। करने-जैसा न था, नाहक ही परेशान हुए। उसकी साधता जानेवाली है। कोई उपाय नहीं बचाने का। खयाल रखना, इसमें जल्दी नहीं की जा सकती। सब चीजें एक और बचपन आता है, जब तुम अपने हाथ से बचपन लाते समय पर पकती हैं। और फूल अपने-आप खिलते हैं, उन्हें हो। हटा देते हो सब कूड़ा-कर्कट जानकारी का। फिर अनजान जबर्दस्ती नहीं खोलना होता, प्रतीक्षा जरूरी है। हो जाते हो, जैसे छोटा बच्चा। तुम्हारी आंखें विचारों से भरी नहीं अगर तुमने सुन लिया कि क्रोध बुरा है और पहले से ही मान हैं। निर्मल हो जाती हैं। तुम्हारी खोपड़ी में कोई बोझ नहीं। तुम लिया कि क्रोध बुरा है, और फिर तुम सोचने लगे कि अब फिर से आंख खोलकर जगत को देखते हो, जैसा तुमने पहली अनुभव से निचोड़ लें, तुम न निचोड़ पाओगे। क्योंकि तुम्हारी बार आंख खोलकर गर्भ के बाद देखा था। जन्मे थे और आंख धारणा तो पहले से ही तैयार है। खोली थी। उतनी ही निष्कपटता से फिर से तुम जगत को देखते कोई धारणा नहीं चाहिए। क्रोध को निर्धारणा से देखो। जैसे हो। इसी को तो हम संतत्व कहते हैं। कहो केवल ज्ञान।' तुम्हें किसी ने कभी कुछ नहीं कहा क्रोध के संबंध में अच्छा यह दसरा बचपन बड़ा बहुमूल्य है। यह कभी खोयेगा नहीं। है, बुरा है; पाप है, पुण्य है। कामवासना को निर्धारणा से क्योंकि इसे तुमने अर्जित किया है। पहला बचपन मिला था, देखो। जैसे कोई तुम्हें सिखानेवाला नहीं आया। तुम पृथ्वी पर दूसरा तुमने कमाया है। जो कमाया है, वह कभी खोयेगा नहीं। पहली दफा आये हो, और तुम्हें किसी ने कोई शिक्षा नहीं दी; तुम जो मिला था, वह वापिस लिया जा सकता है। पहला बचपन कामवासना को ऐसी खुली नजर से देखो, तो जल्दी ही निचोड़ मुफ्त था। दूसरा बचपन अर्जित है। पहला बचपन अबोध था। | आ जाएगा हाथ में। वही-वही हम दोहराये चले जाते हैं। दूसरा बचपन बड़ा बोधपूर्ण है, बुद्धत्वपूर्ण है। पहला बचपन लेकिन, अड़चन क्या है? अड़चन यह है, कि अनुभव के पहले कठिनाइयों को नहीं जानता था। कठिनाइयों में गया, भटक हमारी धारणा निर्मित हो जाती है। गया। दूसरा बचपन सारी कठिनाइयों को पार करके आया है, अभी बच्चे को पता भी नहीं है कि झूठ बोलना क्या है, और जानकर आया है। देख लिये जीवन के सब अनुभव। फांक ली हम उसे सिखाने लगते हैं-सच बोलना, झूठ मत बोलना। धूल सभी रास्तों की। और सभी घाटों का पानी पी लिया। सब हमारी बात सुनकर ही उसे पहली दफा पता चलता है कि झूठ भी पाप-पुण्य पहचान लिये। बुरे-भले अनुभव, मीठे-कडुवे | कुछ है। अनुभव, सबसे गुजरकर आया है। जीवन की परीक्षा पर मैंने सुना है, गांव में एक नया मौलवी आया। वह उत्सुक था कसकर उतरा है। कसौटी से गुजरा है। यह जो दूसरा बचपन है, जानने को कि उसके प्रवचन गांव के लोगों को कैसे लग रहे हैं। इसे फिर कोई छीन नहीं सकता। यह फिर तुम्हारी निधि है। यही उसने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा-वह रोज-रोज सुनने आता है, है हृदय-धन। सामने ही बैठता है--पूछा उससे कि कैसा लग रहा है मेरा 'चरित्र-संपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है।' बोलना तुम्हें, जो मैं समझा रहा हूँ? नसरुद्दीन ने कहा कि यह अल्पतम ज्ञान आता ही चरित्र से है। जीवन को जीने से धन्यभाग कि आप आये। आप जब तक न आये थे, हमें पता ही आता है। जीवन के साथ जूझने से आता है। जीवन की चुनौती न था कि पाप क्या है। स्वीकार करने से आता है। जीवन जो अड़गे देता है, उनको पार धर्मगुरु से पता चलता है कि पाप क्या है। यह पाप सिर्फ शब्द 2010_03
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________________ जीवन ही है गुरु है, कोरा शब्द है। धर्मगुरु से पता चलता है, पुण्य क्या है। यह दी, और कमजोर बनाया। बल न दिया, और नपुंसकता दी। पुण्य भी कोरा शब्द है। जीवन ही तुम्हारा गुरु है। और जीवन से नहीं, अगर तुम्हारे अनुभव से कुछ आया है, अगर तुमने देखा ही सीखे बिना कोई और दूसरा उपाय नहीं। कोई सस्ता उपाय है गौरीशंकर के शिखर को, सूरज की किरणों में जगमगाते, फिर नहीं। कोई करीब का मार्ग नहीं। जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष से ही | सारी दुनिया कहे कि नहीं है, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। तुम गुजरे बिना कोई कभी पहुंचता नहीं। कहोगे तम्हारी मर्जी, मानो न मानो, मैंने देखा है। मैंने खद जाना परमात्मा जीवन की यात्रा का अंतिम पड़ाव है। सस्ते में किसी | है। ने कभी परमात्मा पाया नहीं। जिसने पाने की कोशिश की, महावीर कहते हैं, थोड़ा-सा ज्ञान हो, लेकिन अपने जानने से नकली सिक्के हाथ लगे। झूठे सिक्के हाथ लगे। जिसने सस्ते आया हो, तो चरित्रविहीन के बहुत सुने हुए, इकट्ठे किये हुए ज्ञान में पाने की कोशिश की, उसे परमात्मा के नाम पर केवल सिद्धांत से बेहतर है। चरित्रहीन का ज्ञान बड़ा धोखा है। उधार है। हाथ लगे, सत्य हाथ न लगा। | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके धर्मगुरु ने बहुत 'चरित्रसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। क्योंकि उसका समझाया और कहा कि तू शराब छोड़ दे। एक दिन उसने कसम अल्पतम ज्ञान उसके ही जीवन का निचोड़ है। सारा संसार भी | भी ले ली। फिर जब लौटने लगा सांझ अपने घर की तरफ और कहे कि तुम गलत हो, तो भी उसे अंतर नहीं पड़ता। शराबघर आया, तो हाथ-पैर कंपने लगे उसके। खींचने लगा विवेकानंद ने रामकृष्ण को पूछा, ईश्वर है? आपके पास कोई | शराबघर उसे। इतनी प्रगाढ़ता से, जैसा पहले भी कभी न खींचा प्रमाण है? रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं प्रमाण हूं। मेरे था। क्योंकि पहले तो सिर्फ शराबघर था, आज भीतर एक पास कोई प्रमाण नहीं, मेरा अनुभव प्रमाण है। सारी दुनिया कहे कसम भी ले ली थी, वह भी दूसरे के कहने से ले ली थी। मन कि नहीं है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने जाना है। बड़ा आतुर होने लगा। मन हजार बहाने खोजने लगा। कि छोड़ो तुम्हें तो कोई जरा-सा संदिग्ध कर दे, तो तुम डांवाडोल हो भी, कौन देख रहा है! किसको पता है स्वर्ग-नर्क का! और क्या जाते हो, नास्तिक से लोग बात करने में डरते हैं। क्योंकि कहीं जरूरत किसी की बातों में पड़ने की! किस प्रभाव में आकर वह तुम्हारे संदेह को जगा न दे। कहीं श्रद्धा को डगमगा न दे। तुमने हां भर दी? लेकिन, गांव के लोग हैं, देख लेंगे, धर्मगुरु ऐसी श्रद्धा दो कौड़ी की है, जिसे कोई डगमगा दे। यह उधार है। | तक खबर पहुंच जाएगी। फिर प्रतिष्ठा भी दांव पर है। फिर उसे यह श्रद्धा उधार है, इसलिए डरती है कि बाहर से आयी श्रद्धा है, यह भी लगने लगा कि यह भी बड़ी मेरी कमजोरी है कि मैं बाहर से संदेह भी आ सकता है और उसे तोड़ सकता है। इतनी-सी बात पर विजय नहीं पा सकता! तो अहंकार ने बल शास्त्रों में लिखा है-हिंदू-शास्त्रों में लिखा है, जैन-मंदिर में पकड़ा। किसी तरह उसने पचास कदम अपने को घसीट लिया मत जाना चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर भी मर जाने घर की तरफ। पचास कदम के बाद, उसने जोर से अपनी पीठ की नौबत क्यों न आ जाए। पागल हाथी पीछे लगा हो, और | थपथपायी, उसने कहा कि नसरुद्दीन, गजब कर दिया! अब जैन-मंदिर आ जाए, तो उसमें शरण मत लेना, पागल हाथी के आ, तुझे दिल खोलकर पिलाता हूं। इस खुशी में कि तू शराबघर पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है। ऐसा ही जैन-शास्त्रों में के सामने से निकल आया, पचास कदम। वाह रे तेरा संकल्प! भी लिखा है कि हिंदू मंदिर में शरण मत लेना। जैन हो कि हिंदू, चल, अब इस खुशी में तुझे पिलाता हूं। और उसने खूब मुसलमान हो कि ईसाई, पागलपन एक-जैसा है। पिलायी। दुगुनी पिलायी। क्यों, इतनी क्या घबड़ाहट है? ___ अगर हमने उधार लिया है चरित्र, तो ऐसा ही होगा। हम कोई कहीं जैन-सिद्धांत कान में न पड़ जाएं—मंदिर में कहीं कोई न कोई बहाना खोज लेंगे। कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। प्रवचन चलता हो। हिंद-शास्त्र कान में न पड़ जाएं-कहीं इसी से पाखंड पैदा होता है। तुम्हारा संदेह जग न जाए, कहीं श्रद्धा डगमगा न जाए। इन एक चेहरा हम ऊपर बना लेते हैं, एक चेहरा हमारा भीतर होता घबड़ाये हुए लोगों ने लोगों को जगाया नहीं, सुलाया। हिम्मत न है। जो भीतर का चेहरा है, वही परमात्मा के सामने है। जो बाहर 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 का चेहरा है, वह संसार के सामने भला हो। तुम दूसरों को धोखा चुपचाप निकल जाते हैं। तुमने खयाल किया, तुम सोचते हो कि दे लेना, तुम अस्तित्व को धोखा न दे पाओगे। अस्तित्व के यह दरवाजा है, इससे निकलूं? यह दीवाल है, इससे न सामने तो नग्न ही खड़ा होना होगा। निकलूं? इतने विचार की भी कहां जरूरत पड़ती है? जिसके थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। पास आंख है, निर्विचार में दरवाजे से निकल जाता है। जो चरित्रसंपन्न है, थोड़ा-सा भी जानता है तो पर्याप्त है। एक निश्चयनय के अनुसार, आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए कण भी अपना, तो बहुत। अपना होना चाहिए। प्रामाणिक रूप तन्मय होना...।' से अपना होना चाहिए। 'आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना।' न कुछ जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।। और पाने को है, न कहीं जाने को है। आत्मा ही गंतव्य है। और बहत सना हआ. बहत पढा हआ-बहश्रत-किस आत्मा ही साधन, आत्मा ही साध्य। आत्मा ही यात्री. आत्मा ही काम का जो अपने चरित्र से निचड़कर हाथ में न आया हो। मंजिल, आत्मा ही यात्रापथ है। स्वयं के स्वभाव में डब जाना ही 'निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए सब कुछ है, धर्म है। तन्मय होना ही सम्यक-चारित्र्य है।' णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। यह सूत्र बहुमूल्य है। यह सूत्र इन सारे सूत्रों में कोहिनूर है। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।। आत्मा में आत्मा का आत्मा के लिए ही तन्मय होना चरित्र है। ...और ऐसे चरित्रशील योगी को ही निर्वाण की उपलब्धि यह महावीर की परिभाषा है। अपने में पूरी तरह डूब जाना चरित्र होती है।' है। उस डुबकी को लगाकर जो बाहर आता है, वह बाहर भी तो सार की बात सिर्फ एक है, सूत्र की बात सिर्फ एक है कि ताजा होता है लेकिन वह ताजगी गौण है, असली बात तो बाहर न जाओ, भीतर आओ। बाहर दौड़ती ऊर्जा के भीतर डुबकी लगाना है। जो भीतर डुबकी लगाकर आता है, द्वार-दरवाजे बंद कर दो, ताकि ऊर्जा भीतर गिरने लगे। ताकि उसके बाहर के जीवन में भी सब रूपांतरित हो जाता है। वह वही तम अपने में डब सको। बाहर तो जाओ ही न. बाहर के विचारों नहीं हो सकता जो कल तक था। और यह रूपांतरण चेष्टित नहीं में भी मत जाओ। क्योंकि वे भी बाहर ही होता। यह रूपांतरण आरोपित नहीं होता। यह रूपांतरण | निर्विचार के क्षण में, जब कोई विचार नहीं, कोई क्रिया अभ्यासजन्य नहीं होता। यह रूपांतरण सहज होता है, बोध से नहीं-निर्विचार, निष्क्रिय-जब तुम थिर बैठे हो, न तो कोई होता है। | क्रिया कर रहे हो और न कोई विचार कर रहे हो, सिर्फ होश मात्र जैसे अंधे को आंख मिल गयी। तो अब दरवाजे से निकल शेष है, उस होश में जो घटता है, वही चारित्र्य है। जाता है। अब दीवाल से नहीं टकराता। ऐसा थोड़े ही है कि तो चरित्र का कोई संबंध नहीं है कि किसी से झूठ बोलो, कि रोकता है अपने को दीवाल से न टकराऊं। रोकने की भी कोई सच बोलो; कि ईमानदारी रखो, कि बेईमानी करो। खयाल जरूरत नहीं, आंख मिल गयी। या अंधेरे में दीया जल गया। करो, जो चरित्र ईमानदारी, बेईमानी, झूठ, सच, इन पर निर्भर है, अभी तुम टटोल-टटोलकर जा रहे थे। दीया जलते ही टटोलना वह चरित्र तो सामाजिक है, आत्मिक नहीं। अगर तुम जंगल में बंद कर देते हो। बंद करने के लिए कोई कसम थोड़े ही खानी चले जाओ, तो फिर तुम कैसे सच बोलोगे? किससे बोलोगे? पड़ती है कि अब कभी भी टटोलूंगा नहीं। अब कसम खाता हूं अगर तुम जंगल में चले जाओ, तो तुम कैसे ईमानदार बनोगे? कि टटोलने का त्याग करता हूं। कुछ कसम नहीं खानी पड़ती! | बोलो। बेईमानी ही करने का उपाय नहीं, तो ईमानदार कैसे दीये के जलते ही टटोलना समाप्त हो गया। अंधेरा गया, बनोगे। तो यह तो इसका अर्थ यह हुआ कि चरित्रवान केवल टटोलेगा कोई किसलिए। समाज में ही चरित्रवान हो सकता है। समाज के बाहर होते ही आंख मिल गयी, तो हम यह भी नहीं सोचते कि दरवाजा कहां चरित्रशून्य हो जाएगा। चरित्रहीन भी नहीं कह सकते हम है। आंख मिलते ही दरवाजा दिखायी पड़ने लगता है। हम उसको, क्योंकि चरित्रहीन होने के लिए भी समाज जरूरी है। 192 2010_03
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________________ जीवन ही है गुरु - चरित्रवान के लिए भी समाज जरूरी, चरित्रहीन के लिए भी | है। तरकीब क्या है, मशीन काम कैसे करती है? मशीन का समाज जरूरी; जो समाज को छोड़कर गया, वह चरित्रशून्य हो काम बड़ा सीधा-सरल है। जब तुम सच बोलते हो, तब तुम जाएगा। लेकिन महावीर चरित्र की दूसरी ही व्याख्या करते हैं। एकस्वर होते हो। किसी ने पूछा, कितना बजा है घड़ी में? तुमने महावीर की व्याख्या के हिसाब से हिमालय की गुफा में बैठा कहा, नौ बजे हैं। तो तुम्हारे भीतर एकस्वरता होती है। कहीं कोई हुआ योगी भी चरित्रवान होगा, अगर वह अपनी आत्मा में रम खंड नहीं होता। कहीं कोई विपरीतता नहीं होती। तुम्हारा हृदय रहा है। अगर आत्मा से इधर-उधर हट गया है, स्वप्न जग गये, एक धुन में रहता है, एक लय में रहता है। विचार उठ गये, तो चरित्रहीन हो गया। - फिर किसी ने तुमसे पूछा, तुमने चोरी की? तो तुम जानते तो बना रहे हैं। क्योंकि जो चरित्र समाज से बंधा हो, उसको क्या | और बाहर कहते हो, नहीं की। द्वंद्व पैदा हुआ। तो हृदय की चरित्र कहना! जो बाहर पर निर्भर है, उस पर अपनी क्या धड़कन चूक जाती है। एक धड़कन भी चूक जाती है हृदय की, मालकियत! महावीर कहते हैं, अपने पूरे मालिक हो जाना है। वह नीचे मशीन पकड़ लेती है। बस उसका काम इतना ही है कि इसलिए चरित्र की उन्होंने एक बड़ी अनूठी व्याख्या की। तुम वह पकड़ ले कि तुम्हारा हृदय लयबद्ध चलता रहा, कि उसकी अकेले भी चरित्रवान हो सकते हो। तुम अपने कमरे में बैठे हो, लय छूटी-टूटी। जैसे ही लय छूटी-टूटी, घंटी बजती है। कोई भी नहीं है, तो भी तुम चरित्रवान हो सकते हो, चरित्रहीन हो | तत्क्षण तुम पकड़े गये। तुम झूठ बोल ही नहीं सकते, बिना लय सकते हो। चरित्रवान, अगर तुम शांत हो, निर्मल हो; कोई तरंग को तोड़े। क्योंकि तुम्हें तो पता है सत्य का कि चोरी तुमने की है। नहीं उठती, मन की झील पर कोई लहर नहीं है; सब मौन, / इसको तुम कैसे झुठलाओगे? निस्तब्ध, तो तुम चरित्रवान हो। तुम दूसरों से कह दो मैंने नहीं की है चोरी, और तुम कितने ही इसलिए महावीर ने ध्यान को एक नया शब्द दिया H जोर से कहो कि मैंने चोरी नहीं की है, तुम्हारा हृदय तो कहे ही सामायिक। यह शब्द बड़ा प्यारा है। ध्यान से भी ज्यादा प्यारा चला जाएगा भीतर कि की है, की है। जितना हृदय कहेगा की है। महावीर ने आत्मा को कहा है, समय। वह उनका आत्मा का है, उतने ही जोर से तुम कहोगे नहीं की है। तुम्हारे ऊपर का जोर नाम है। और समय में डूब जाना, सामायिक। वह ध्यान का इतना ही बतायेगा कि भीतर तुमने की है। और हृदय में खंड हो उनका नाम है। शुद्ध समय में डूब जाना, सामायिक। 'अप्पा | जाएंगे। हृदय दो आवाजों से भर जाएगा। उन्हीं दो आवाजों को अप्पमि अप्पणे सुरदो।' आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए | यंत्र पकड़ लेता है। हृदय की धड़कन की लयबद्धता टूट जाती वन्मय हो जाना। बस तुम ही बचो। कुछ और न बचे। शुद्धतम | है। तुम्हारा तार डगमगा जाता है। तुम, तुम ही बचो। कोई विजातीय तत्व न रह जाए। तुम्हारा | झूठ तुम शांत रहकर नहीं बोल सकते। अशांत हो जाओगे। स्वभाव ही स्वभाव शेष रहे। बस वहीं से चारित्र्य शुरू होता है। झूठ बोलते ही बेचैनी पैदा होगी। चैन से झूठ नहीं बोल सकते। फिर ऐसा व्यक्ति बाहर तो चरित्रवान होता ही है, क्योंकि | और जो आदमी निरंतर झूठ बोल रहा है, उसकी बेचैनी का तो जिसने स्वयं का आनंद ले लिया, वह अब ऐसा कुछ भी न कर | | तुम हिसाब लगाओ! उसको कितनी याद रखनी पड़ती है, सकेगा जिससे स्वयं से दूरी बढ़े। जब भी तुम झुठ बोलते हो, | किससे क्या बोला, किससे क्या नहीं बोला। आज क्या बोला, स्वयं से दूरी बढ़ जाती है। कल क्या बोला। हजार झूठों का हिसाब रखना पड़ता है। झूठ इसे समझो। बोलनेवाले के पास अच्छी स्मृति होनी चाहिए। अगर स्मृति अभी तो पश्चिम में उन्होंने अदालतों में यंत्र लगा रखे हैं। ठीक न हो, तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है। 'लाई-डिटेक्टर्स।' झठ को पकडनेवाले यंत्र। आदमी अब एक बहत बडा वैज्ञानिक जीवन झूठ भी नहीं बोल सकता। मशीन पर आदमी को खड़ाकर देते भुलक्कड़ था। किसी ने उससे पूछा कि तुमने विवाह क्यों न हैं, और जैसे ही वह झूठ बोलता है, मशीन घंटी बजाने लगती | किया? उसने कहा मैं एक लड़की के प्रेम में था। और मैंने उससे 93 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 विवाह का निवेदन भी किया था और उसने स्वीकार भी कर बेटे को सुख दे रहा है। बेटा कहता है, बाप को सुख दे रहा है। लिया था। तो मित्र ने पूछा कि फिर क्या हुआ? फिर हुआ क्यों पति कहता है,पत्नी को सुख दे रहा है। पत्नी कहती है, पति के नहीं विवाह? उसने कहा, गड़बड़ हो गयी। तीसरे दिन मैंने | सुख के लिए चेष्टा कर रही है। सब एक-दूसरे को सुख देने की दोबारा उससे निवेदन कर दी। स्वीकार भी कर लिया था, चेष्टा में लगे हैं लेकिन जीवन में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं है। निवेदन भी कर दिया था और तीसरे दिन मैंने उससे दुबारा | मामला क्या है? जहां इतने लोग सुख दे रहे हैं, सुख ही सुख निवेदन कर दिया, मैं भूल ही गया। उसी से वह नाराज हो गयी। भर जाना था। सुख कहीं दिखायी नहीं पड़ता। स्मृति अच्छी चाहिए। झूठ जितना बोलता है आदमी, उतनी ही | महावीर कहते हैं, सुख कोई दे नहीं सकता। सुख आंतरिक अच्छी स्मृति चाहिए। दशा है। इसलिए वह कहते हैं, एक ऐसी घड़ी आती है जब और सत्य बोलनेवाले को स्मृति की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य | भीतर की गहराइयों का पता चलता है, तो आदमी दुख देने की तो बोलनेवाला तो वही बोलता है, जो है। सीधा-साफ होता है। बात दूर, दूसरे को सुख देने की चेष्टा भी नहीं करता। हां, कोई | सत्य बोलनेवाले के भीतर खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े नहीं होते। लेले सुख, उसकी मर्जी। कोई लेले दुख, उसकी मर्जी। कोई विभाजन नहीं होता। अखंड होता है। __ आत्मस्थित हुआ व्यक्ति अपने स्वभाव में जीता है। फिर. तो जिसने एक दंफा भीतर डुबकी लगायी, उस अखंड का | तुम्हारी मर्जी। महावीर से बहुत लोगों ने दुख भी ले लिया। आनंद ले लिया, वह झूठ न बोल सकेगा। क्योंकि जब भी वह महावीर ने दिया नहीं। किसी को इसीलिए दुख हो गया कि वह झूठ बोलेगा, तभी पायेगा कि बहुत दूर फेंक दिया गया भीतर की नग्न खड़े थे। कोई इसीलिए दुखी हो गया। तुम्हारा क्या शांति से। बेचैनी आ गयी। बेईमानी न कर पायेगा। क्योंकि जब लेना-देना था? महावीर नग्न खड़े थे, तुम्हें क्या अड़चन थी? भी बेईमानी करेगा, तभी पायेगा कि अपने से बहुत फासला हो तुम्हें तकलीफ थी, आंख बंद करके गुजर जाते। यह तुम्हारा गया। किसी को चोट न पहुंचा पायेगा। क्योंकि जब भी किसी प्रश्न था। महावीर को इससे क्या लेना-देना था? लेकिन कोई को चोट पहंचायेगा, तभी पायेगा अपने घर का रास्ता भूल गया। इसी से दुखी हो गया। किसी स्वर्ग के लिए नहीं बोलता है सच। और न किसी पुण्य कोई दुखी हो जाता है, कोई सुखी हो जाता है, यह उसकी के लिए बोलता है। न किसी भय से, न किसी प्रलोभन से। मर्जी। यह उसकी समस्या है। महावीर कहते हैं, जो अपने में लेकिन जो भीतर आनंद घटा है, उस आनंद के कारण अब गलत डूबा वह अपने में डूबकर रह जाता है। तब वह न तो सुख देता होना मुश्किल हो जाता है। | है, न दुख देता है। न वह पाप करता है, न वह पुण्य करता है। "जिसे जानकर योगी पाप और पुण्य दोनों का परिहार कर देता अगर ठीक से समझो, तो वह कुछ करता ही नहीं। वह सिर्फ है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र्य कहा गया है।' होता है। वह शुद्ध अस्तित्व होता है। करने की बात ही महावीर कहते हैं कि न केवल परमयोग की अवस्था में पाप का धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। परिहार हो जाता है, पुण्य का भी परिहार हो जाता है। बुरा तो 'जिसे जानकर योगी पाप-पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, करता ही नहीं वैसा व्यक्ति, अच्छा भी नहीं करता। उसे ही निर्विकल्प चारित्र्य कहा है।' यह चरित्र की आखिरी यह जरा गहन बात है। यह जरा ऊंची बात है। पहले तल पर कोटि हुई। इससे ऊपर फिर चरित्र नहीं जा सकता। पाप से तो तो बुराई छूटती है। दूसरे को चोट देना बंद हो जाती है। दूसरे को | छूटे, पुण्य से भी छूटे। पाप ऐसे है, महावीर ने कहा, जैसे लोहे कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। किसी तरह का पाप नहीं करता। की जंजीरें, और पुण्य ऐसे है जैसे सोने की जंजीरें! पाप दुख लेकिन धीरे-धीरे जब और भी भीतर रमता है, तो उसे यह समझ लाता है। पुण्य सुख लाता है। लेकिन सुख में ही तो छिपा हुआ में भी आना शुरू होता है कि कोई किसी को सुख नहीं दे सकता। दुख आ जाता है। पाप अपमानित करवा देता है। पुण्य किसने कब किसको सुख दिया! हम सभी एक-दूसरे को सुख सम्मानित करवा देता है। लेकिन सम्मान में ही तो अहंकार आ | देने की कोशिश करते हैं, दे पाते हैं केवल दुख। बाप कहता है, जाता है। इसलिए दोनों से ही छूट जाना है। 194 2010_03
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________________ जीवन ही है गुरु जंजीर कितनी ही सोने की बनी हो, हीरे-जवाहरात जड़ी हो, तो कि संन्यास मत लो, बुढ़ापे में लेना। तुम बूढ़े हो गये हो, तुम भी जंजीर है। और कारागृह कितना ही सजा हो, तो भी कारागृह | कहते हो कि जिम्मेवारियां हैं। है। दोनों से मुक्त हो जाना है। न अच्छा, न बुरा। इन दोनों के आदमी सुन-सुनकर जिन बातों को ठीक मान लेता है, उन्हें जो पार हो गया, वही शुद्ध स्वभाव को उपलब्ध होता है। इसको | कभी हृदय से थोड़े ही ठीक मानता है। ठीक मान लेता है, महावीर निर्वाण कहते हैं। इसको निर्विकल्प चारित्र्य कहा है। | क्योंकि कौन जद्दोजहद करे, कौन तर्क करे, कौन विवाद करे! इसे हम दूसरों से बातें सुनकर नहीं पा सकते। दूसरों से सुनेंगे तो | ठीक है संन्यास, मगर अभी नहीं। जो ठीक है, तो अभी। और हमारे मन में और ही तरह की बात उठती है। जो ठीक नहीं है, तो कभी नहीं। ऐसा साफ होना चाहिये व्यक्ति मेरे पास एक वृद्ध सज्जन आये। उनके युवा बेटे ने संन्यास ले को। अगर कोई चीज सत्य है, तो फिर एक क्षण भी उसे टालना लिया है। वे बहुत नाराज थे। उनकी उम्र होगी कोई पचहत्तर उचित नहीं। कौन जाने वह क्षण आये, न आये। कल आये, न कहने लगे, आपने यह क्या किया? मेरे युवा बेटे को आये। बुढ़ापे के पहले ही आदमी मर जा सकता है। या बुढ़ापे में संन्यास दे दिया। यह तो बढ़ापे की बात है। यह तो आखिरी इतना अपंग हो जाए कि फिर कुछ भी न कर पाये-बैठ भी न बात है संन्यास। सके, उठ भी न सके, खाट से लग जाए। संन्यास आखिरी बात है! उसे टाले जाना है अंतिम क्षण के | तो जो सत्य है, तो अभी। अगर सत्य नहीं है, तो साफ समझो लिए। जब हाथ-पैर में कोई शक्ति न होगी, और श्वासें | कि कभी नहीं। बुढ़ापे में भी क्यों? चार दिन बुढ़ापे के बचे हैं, लड़खड़ा जाएंगी, तब संन्यास लेंगे? जब पैर उठते न बनेंगे। उनको भी ठीक से भोग लेना। उनका भी कुछ उपयोग कर जब तक पैर उठते थे तब तक वेश्यागृह गये और जब पैर न लेना-थोड़ा धन और इकट्ठा कर लेना। उठेंगे, तब दूसरों के कंधों पर सवार होकर मंदिर जाएंगे। ऊर्जा | लेकिन आदमी बड़ा होशियार है। वह तर्क से कुछ बातों को पर ही तो सवार होना होता है। जब तक ऊर्जा रहती है, तब तक | ठीक मान लेता है। क्योंकि कौन विवाद करे! या पंरपरा से ठीक आदमी संसार की बातों में पड़ा रहता है। कहते हैं धर्म की बात | मान लेता है। सभी ठीक मानते हैं, इसलिए ठीक होंगी। ठीक है, वह बूढ़े सज्जन कहने लगे धर्म की बात बिलकल ठीक | एक बहुत बड़े मनस्विद मायर्स ने अपने संस्मरणों में लिखा है, मैं यह नहीं कहता कि संन्यास गलत है, लेकिन समय अभी है...मायर्स खोज कर रहा था कि लोगों की क्या धारणा है, मरने नहीं है। | के बाद क्या होता है, इस संबंध में। तो वह जो भी मिलता उससे मैंने कहा ठीक है, आपके बेटे को मैं समझा-बुझाकर वापिस ही पूछता कि तुम्हारी मरने के बाद क्या स्थिति होगी, इस संबंध संसार में भेज दूंगा; आपका क्या इरादा है? यह वे सोचकर न में क्या धारणा है? एक महिला से उसने पूछा, उसकी जवान आये थे। वे तो बेटे को छुड़ाने आये थे। लेकिन मैंने कहा, बेटा बेटी अभी-अभी मर गयी थी, तो उसने पूछा कि तुम्हारी बेटी मर छूटे तो एक ही शर्त पर छूट सकता है। कि आपकी तो उम्र गयी, तुम्हारा क्या खयाल है, तुम्हारी बेटी का क्या हुआ होगा? पचहत्तर साल हो गयी, आप कब बूढ़े होंगे अब? उन्होंने कहा, तो उस महिला ने बड़े क्रोध से देखा और कहा, क्या हुआ वह तो ठीक है, लेकिन अभी बहत जिम्मेवारियां हैं। होगा? वह स्वर्ग के सुख भोग रही है। लेकिन मैं आपसे प्रार्थना बेटे को भी ऐसी ही जिम्मेवारियां होंगी पचहत्तर साल के हो | करती हूं कि इस तरह की दुखदायी बातें मुझसे न करें। अब इसे जाने पर। जिम्मेवारियां कम नहीं होतीं, बढ़ती जाती हैं। क्योंकि थोड़ा सोचो, मायर्स ने लिखा है कि एक तरफ वह कहती है, जिंदगी रोज और नयी-नयी जिम्मेवारियों को इकट्ठा करती चली स्वर्ग के सुख भोग रही है, और दूसरी तरफ कहती है कि आप जाती है। इस तरह की दुखदायी बातें न करें। तो फिर मैंने कहा, बेटे को ले लेने दो, कम से कम वह इतना | एक ही वचन में दो विरोधाभास! अगर वस्तुतः लड़की स्वर्ग तो कहता है कि मेरे ऊपर कोई जिम्मेवारियां नहीं हैं। न अभी के सुख भोग रही है, तो दुखदायी बात नहीं है। और अगर उसने शादी की है, न अभी घर बसाया है। अभी तुम कहते हो दुखदायी बात है, तो स्वर्ग के सुख की बात केवल कल्पना है। 195 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग 2 केवल सुनी-सुनायी है। आज की रात और बाकी है एक दो और सागरे-सरशार -और यह रात तो जाएगी। थोड़ा और भोग लें। फिर तो होना ही है मुझे होशियार फिर कहां ये हसीं सुहानी रात छेड़ना ही है साजे-जीस्त मुझे ये फरागत ये कैफ के लम्हात आग बरसायेंगे लबे-गुफ्तार -फिर यह मादक क्षण कहां मिलेंगे! कुछ तबियत तो हम रवां कर लें कुछ तो आसूदगी-ए-जौके निहां आज की रात और बाकी है -कुछ तो तृप्त कर लें छिपी हुई वासनाओं को, दबी हुई फिर कहां ये हसीं सुहानी रात वासनाओं को। ये फरागत ये कैफ के लम्हात कुछ तो तस्कीने-शोरिसे जज्बात कुछ तो आसूदगी-ए-जौके-निहां -कुछ तो अशांत मनोभावनाओं की शांति कर लें, तृप्ति कुछ तो तस्कीने-शोरिसे-जज़्बात खोज लें। कुछ तो उन्हें संतोष दे लें। आज की रात जाविदां कर लें आज की रात और आज की रात और आज की रात को सुख से ऐसा भर लें कि अमर हो जाए। लोग कहते हैं कि आज नहीं कल जिंदगी तो हाथ से चली आज की रात और आज की रात। जाएगी। ऐसा कहते भी हैं, और फिर भी कहते हैं ऐसे ही आदमी सोचता चलता है। धर्म को टालता कल पर। एक दो और सागरे-सरशार अधर्म को करता आज की रात। धर्म को करता स्थगित, अधर्म एक दो और भरे प्याले ले आओ। को कभी स्थगित नहीं करता। अगर तुमसे मैं कहूं ध्यान करो, फिर तो होना ही है मुझे होशियार तुम कहते हो, करेंगे, जरूर करेंगे, समय आने पर। यह समय फिर तो जागना है। फिर तो ध्यान करना है। फिर तो समाधि कभी भी न आयेगा। अगर मैं कहूं प्रार्थना कर लो, तो तुम कहते को उपलब्ध होना है। / हो, फुर्सत कहां ! क्रोध करने को फुर्सत मिल जाती है। रोष करने एक दो और सागरे-सरशार। को फुर्सत मिल जाती है। लोभ करने को फुर्सत मिल जाती है। ले आओ, एक-दो लबालब प्याले और। और जब तुम क्रोध करते हो तब तुम कभी नहीं कहते कि कल फिर तो होना ही है मुझे होशियार कर लेंगे। तुम आज करते हो।। अगर होशियार ही होना है, तो एक-दो प्याले और क्यों? गुरजिएफ ने लिखा है कि उसका पिता मर रहा था। उसने क्योंकि अगर होशियार ही होना है तो दो प्याले और होशियारी अपने बेटे को अपने पास बुलाया-गुरजिएफ को। वह नौ को खराब करेंगे। ध्यान को नष्ट करेंगे। साल का था और उससे कहा, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है। लेकिन लोग कहते हैं, होना ही है होशियार—मजबूरी है। लेकिन एक बात मेरे बाप ने मुझे दी थी, उसने मुझे बड़ा सहारा होश तो आयेगा ही, थोड़ा और पी लें। दिया, वही मैं तुझे दे जाता हूं। खयाल रखना, तेरी उम्र अभी छेड़ना ही है साजे-जीस्त मुझे ज्यादा भी नहीं है, लेकिन याद रखना, कभी तेरे काम पड़ आग बरसायेंगे लबे-गुफ्तार जाएगी। और उसने कहा एक बात, अगर कभी क्रोध का मौका कुछ तबियत तो हम रवां कर लें आ जाए, तो जिसने तुझे गाली दी हो, अपमान किया हो, उससे -फिर जीवन का संगीत छिड़नेवाला है; उसके पहले, उसके कहना चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दूंगा। चौबीस घंटे बाद! पहले हम थोड़ी बेहोशी का भी मजा ले लें, थोड़ी मस्ती पैदा कर | और गुरजिएफ ने लिखा है कि जिंदगी में फिर क्रोध का मौका लें। ही न आया। क्योंकि जब भी किसी ने क्रोध किया. मरते हए बाप कुछ तबियत तो हम रवां कर लें की बात याद रही। मैंने कहा, चौबीस घंटे बाद। चौबीस घंटे 96 2010_03
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________________ जीवन ही है गरु बाद किसी ने कभी क्रोध किया है? चौबीस मिनट बाद मुश्किल जैसे ही भीतर की क्रांति घटती है, भीतर दीया जलता है, तुम है; चौबीस पल बाद मुश्किल है! क्रोध तो उसी वक्त होता है। अचानक हैरान हो जाते हो कि बाहर सब बदल गया। सब वही उसी वक्त जलती है आग। यह तो ऐसा हुआ कि चौबीस घंटे है, और फिर भी वही नहीं है। बाद, तुम इतना सोचोगे-विचारोगे चौबीस घंटे कि तुम्हें साफ ही / रक्से-तरब किधर गया, नग्मा-तराज़ क्या हुए हो जाएगा कि या तो उस आदमी ने जो बात कही थी वह ठीक ही गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ थी, या उस आदमी ने जो बात कही थी वह बिलकुल गैर-ठीक रक्से-तरब किधर गया-वे सुख के जो नृत्य बाहर चल रहे थी। अगर गैर-ठीक थी, तो क्रोध क्या करना! अगर ठीक थी, | थे, कहां गये? तो क्रोध क्या करना! चौबीस घंटे का फासला अगर हो जाए, तो नग्मा-तराज क्या हुए वे जो गायक बड़े मधुर मालूम होते क्रोध संभव नहीं। थे, उनका क्या हुआ! लेकिन वैसा फासला हम ध्यान के लिए करते हैं, क्रोध के लिए गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ। नहीं। इसलिए ध्यान कभी संभव नहीं हो पाता। लोग टाले चले कटाक्ष, हाव-भाव, सब खो गये। जाते हैं। उन सब में अर्थ था, क्योंकि भीतर तुम सोये थे। ऐसा समझो, 'आभ्यंतर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती है। तुम्हारी नींद संसार से जोड़े हुए है। नींद है सेतु तुममें और संसार आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | में। जागरण सेतु है तुममें और परमात्मा में। या तुममें और स्मरण रखना इस सूत्र कोः अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि तुम्हारी स्वयं की सत्ता में। होदि णियमेण। नियम से हो जाती है बाहर की शुद्धि, अगर अगर सोये हुए हो, तो संसार चलता रहेगा। संसार सोये हुए भीतर शुद्धि हो जाए। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे आदमी का सपना है। अगर जागे हो, संसार समाप्त हुआ। नहीं दोसे। और भीतर के दोष ही बाहर आते हैं। कि वृक्ष खो जाएंगे। नहीं कि मकान खो जाएंगे। नहीं कि तुम्हारी इसलिए बाहर के दोषों को बदलने की चिंता मत करो। भीतर पत्नी और बच्चे खो जाएंगे। लेकिन कुछ खो जाएगा। मकान जड़ें खोजो। बाहर की बदलाहट तो ऐसे है जैसे कोई पत्ते काटता होगा, तुम्हारा न होगा। पत्नी होगी, तुम्हारी न होगी। 'मेरा' रहे वृक्ष के और जड़ों को पानी देता रहे। तो पत्ते नये आते रहेंगे। 'तेरा' खो जाएगा। लोभ खो जाएगा। कोई अगर गाली देगा, पत्ते काटने से वृक्ष नहीं मरते। पत्ते काटने से वृक्ष और सघन हो तो गाली तो बाहर से आयेगी अब भी, लेकिन तुम अचानक जाते हैं। पत्ते काटने से एक पत्ते की जगह तीन पत्ते आ जाते हैं। पाओगे कि समस्या उसी आदमी की है। अगर वक्ष को मिटाना ही हो, तो जड काटो। जड भीतर छिपी। मैंने सना है, एक झेन फकीर रास्ते से गजर रहा था और एक है। अंधेरे में दबी है। और ऐसा ही मनुष्य के जीवन में है। ऊपर आदमी उसे लकड़ी मारकर भागा। उसके संगी-साथी ने कहा, क्रोध आता है, लोभ आता है, काम आता है, तुम इनके साथ कुछ करो, तुम खड़े हो! वह फकीर बोला, मैं क्या करूं? लड़ने में लग जाते हो। ये पत्ते हैं। जड़, जड़ कहां है? जड़, समस्या उसकी है, मेरी नहीं। उसके भीतर जरूर कुछ आग जल महावीर कहते हैं, बेहोशी है। जड़ मूर्छा है। जड़ नींद है। जड़ रही होगी। उस आग के प्रभाव में ही वह क्रोध से भर गया है। काटो। होश से भरो। जागो। अगर मैं उसे आज न मिलता-अच्छा हुआ मैं मिल अगर जागरण आ जाए तो क्रोध, माया, लोभ, मोह ऐसे ही खो गया नहीं तो वह किसी और पर उबल पड़ता। वह तो अच्छा जाते हैं जैसे जड़ें काट देने पर पत्ते खो जाते हैं अपने-आप। पत्तों हुआ कि मुझ पर उबला, किसी और पर उबलता तो दूसरा भी को तुम्हें तोड़ना भी न पड़ेगा, खुद ही कुम्हला जाएंगे, खुद ही | उस पर टूट पड़ता। वह मुश्किल में पड़ जाता। वैसे ही मुश्किल समाप्त हो जाएंगे। में है! इतना क्रोध उसके भीतर जल रहा है, अब और उसे दंड 'आभ्यंतर-शद्धि होने पर बाह्य-शद्धि भी नियमतः होती है। देने की जरूरत है क्या? दंड उसने काफी पा ही लिया। लेकिन आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | समस्या उसकी है, समस्या मेरी नहीं है। 97 ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 कोई तुम्हें गाली देता है, समस्या गाली देनेवाले की है। तुम्हारा | कहीं से गिरोगे। क्या है! तुम इस सारी दुनिया को कैसे बदलोगे? यह दुनिया | ध्यानी व्यक्ति धीरे-धीरे अपने हृदय की सुनकर चलता है। कुछ ऐसी है! वह अपने भीतर से अपना राग नहीं छूटने देता। वह भीतर के बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि शिव और पार्वती एक पूर्णिमा की रात | धागे को पकड़े रखता है। कौन क्या कहता है, कौन क्या करता | विहार पर निकले। स्वभावतः शिव नंदी पर बैठे हैं. पार्वती है, यह बिलकल गौण है। इसका कोई भी मल्य नहीं है। साथ-साथ चल रही हैं। राह से दो आदमी आये और उन्होंने | 'आभ्यंतर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि नियमतः होती है।' कहा, यह देखो, मुस्तंड खुद तो चढ़ा बैठा है बैल पर और स्त्री | वह अपने भीतर को निखारता है, जगाता है, शुद्ध करता है। को नीचे चला रहा है। यह कैसा शिष्टाचार! तो शिव ने कहा, वह अपने भीतर मंदिर बनाता है। वह अपने भीतर की प्रतिमा को देख, मैं नीचे आ जाता हूं, तू ऊपर बैठ जा। वे नीचे चलने लगे, | साफ करता है। बस वहां जब शुद्धि हो जाती है, उसके बाहर भी पार्वती नंदी पर बैठ गयीं। फिर कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा, | शुद्धि की झलक आने लगती है। वहां जब धूप-दीप जलने देखो, यह औरत पति को नीचे चलवा रही है, खुद चढ़कर बैठी | लगते हैं, बाहर भी रोशनी और गंध आने लगती है। मगर, है। यह कैसा पति, और यह कैसी पत्नी, और यह कैसा प्रेम! तो उसका सारा उपक्रम और सारा काम भीतर है। शिव ने कहा, अब क्या करें? चलो हम दोनों ही बैठ जाएं। तो धर्म का कोई संबंध बाहर से नहीं। धर्म का सारा संबंध भीतर वे दोनों ही नंदी पर सवार हो गये। कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा से है। धर्म तुम्हारे और तुम्हारे ही बीच की बात है। धर्म का कुछ इन मूों को देखो, नंदी को मार डालेंगे। दोनों के दोनों चढ़े हैं। लेना-देना किसी और से नहीं है। धर्म नितांत वैयक्तिक है। यह कोई ढंग हुआ! आखिर पशुओं पर भी कुछ दया होनी 'अप्पा अप्पणे सुरदो।' आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए चाहिए। तो शिव ने कहा, अब तो एक ही उपाय है। वे दोनों | तन्मय हो जाना। उतर गये और उन्होंने कहा, अब नंदी को हम अपने कंधों पर उठा | 'इसीलिए कहा गया है कि जैसे शुभ चरित्र के द्वारा अशुभ लें। नंदी को बांधकर डंडों में कंधों पर रखकर चले। बड़ा | प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध उपयोग के द्वारा मुश्किल था! | शुभ प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से योगी फिर कुछ लोग मिल गये। और उन्होंने कहा, ये पागल देखो! आत्मा का ध्यान करे।' रहे थे जब ये लोग मिले। उन्होंने कहा. ये महावीर कहते हैं. पहले शभ चरित्र पैदा होता है। जैसे तम पागल देखो. अच्छा भला नंदी, उस पर बैठकर यात्रा कर सकते भीतर प्रवेश करते हो, शांत होते हो, तम्हारे चरित्र में एक शभता थे, तो उसको कंधे पर लादकर चले रहे हैं। तो शिव और पार्वती आती है, शुभ चरित्र पैदा होता है। शुभ चरित्र से अशुभ चरित्र दोनों खड़े हो गये, और उन्होंने कहा अब हम क्या करें? अब तो | अपने-आप कट जाता है। जैसे प्रकाश से अंधेरा कट जाता है। कछ करने को बचा नहीं। जो-जो कहा लोगों ने, हमने किया। | शुभ चरित्र के द्वारा अशुभ का निरोध हो जाता है। और फिर, शुभ तो वे वहीं खड़े थे, नंदी भी घबड़ा गया लटका-लटका। उसने के भी ऊपर शुद्ध चरित्र है। क्योंकि शुभ में भी अशुभ से थोड़ा जोर से लातें फड़फड़ायीं, वह पुल के नीचे! नदी में गिर गया। जोड़ है। संबंध तो अशुभ से बना ही है, उसी के विपरीत है शुभ। कहानी का अर्थ है, लोग क्या कहते हैं, इस पर बहुत ध्यान देने एक आदमी लोभी है, वह दान करता है। तो लोभ अशुभ है, की जरूरत नहीं। लोग तो कुछ न कुछ कहेंगे। लोग बिना कहे दान शुभ है। लेकिन दान जुड़ा है लोभ से ही। न लोभ किया नहीं रह सकते। असली सवाल अपने भीतर है। लोग जो कहते होता, तो दान कैसे करता। पहले धन इकट्ठा किया, फिर दान हैं, वह उनकी दृष्टि है। लोग जो कहते हैं, वह उनकी समस्या कर रहा है। तो यह जो शुभ है, यह अशुभ का ही संगी-साथी है। उसे तुम अपनी समस्या मत बनाना। और तुम लोगों का | है। अच्छा है, लेकिन है तो अशुभ का ही संगी-साथी। एक अनुकरण करके मत चलने लगना। अन्यथा तुम कहीं के न रह | आदमी ने क्रोध किया, फिर आकर पश्चात्ताप किया। क्षमा जाओगे। अन्यथा तुम्हारी वही गति होगी जो नंदी की हुई। तुम मांगी। क्रोध किया, वह अशुभ था; क्षमा मांगी, वह शुभ हुआ; 2010_03
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________________ RECT जीवन ही है गुरु लेकिन क्षमा भी तो क्रोध करने के कारण ही हुई। तो क्षमा भी अपने से न मिल सकेगी। कहीं इससे तुम्हारे मन में हताशा न क्रोध से ही जुड़ी है। क्षमा भी क्रोध का ही अनुसंग है। इसलिए पैदा हो जाए। क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है, अगर बहुत शुद्ध तो नहीं है। अशुद्धि उसके लिए जरूरी है। शुभ कर्म | उत्तुंग शिखर हो, तुम देखकर ही डर जाओ, और तुम सोचो, हम अशुभ कर्म से जुड़े हैं। कैसे जा सकेंगे? चले गये होंगे महावीर, कोई बद्ध, कोई तो पहले तो शभ के द्वारा अशभ को काटे। दान से लोभ को कृष्ण। अद्वितीय पुरुष हैं, अवतारी पुरुष हैं। हम साधारणजन। काटे। क्षमा से क्रोध को काटे। प्रेम से कामवासना को काटे। लेकिन ध्यान रखना, वे भी तुम्हारे जैसे ही साधारणजन थे। क्रूरता को करुणा से काटे। लेकिन ये सब हैं शुभ। और अशुभ इसीलिए महावीर ने अवतार की धारणा को इनकार कर दिया। के साथ इनका संबंध है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक महावीर ने कहा अवतार की धारणा में खतरा है। अवतार का उजला पहलू है, एक अंधेरा पहलू है। लेकिन दोनों जुड़े हैं। मतलब होता है, कोई विशिष्ट व्यक्ति; ईश्वर है, वह ईश्वर की महावीर कहते हैं, परम स्थिति तो तब पैदा होगी, जब शुद्ध | तरह उतरा है। तो ठीक है, अगर उसने इतनी ऊंचाई पा ली तो आत्मा पैदा होगी। न जहां शुभ है, और न अशुभ है। न जहां | कौन से गुण-गौरव की बात है। ऐसी ऊंचाई को लेकर ही उतरा काम है, न जहां क्रोध है; न जहां ब्रह्मचर्य है, न जहां करुणा है। था। साधारणजन, महावीर ने कहा- नहीं है कोई अवतार। क्योंकि ब्रह्मचर्य भी जुड़ा तो कामवासना से ही है। उलटा सही। कोई भी नहीं है। कामवासना नीचे की तरफ जा रही है, ब्रह्मचर्य ऊपर की तरफ जा तीर्थकर की धारणा अवतार से बिलकल उल्टी है। तीर्थकर का रहा है, लेकिन ऊर्जा तो वही है। बात तो वही है। | अर्थ है, नीचे से जो ऊपर चढ़ा है। अवतार का अर्थ है, ऊपर से परम अवस्था में न तो कामवासना है, न ब्रह्मचर्य है। परम जो नीचे अवतरित हुआ है। हिंदुओं की धारणा अवतार की है। अवस्था में न तो क्रोध है, न करुणा है। परम अवस्था में न तो कृष्ण हैं, राम हैं, वे अवतारी पुरुष हैं। महावीर अवतारी पुरुष हिंसा है, न अहिंसा है। इसको महावीर शुद्ध अवस्था कहते हैं। नहीं हैं। वे तीर्थंकर हैं। वे क्रमशः नीचे से ऊपर गये हैं। वे तुम जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमिव तहेव सुद्धण। | जहां खड़े हो वहीं खड़े थे, वहीं से ऊपर गये हैं। इसलिए तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय आद।। महावीर के साथ यात्रा ज्यादा सुगम है। क्योंकि महावीर तुम जैसे जैसे शुभ के द्वारा अशुभ का निरोध हो जाता है, वैसे ही शुद्ध हैं। अगर तुम अशुद्ध हो, तो वे भी अशुद्ध थे। अगर तुम मनुष्य के द्वारा शुभ का भी निरोध हो जाता है। और जब शुभ और | हो कमजोर, सीमाओं में बंधे, तो वे भी मनुष्य थे। और अगर वे अशुभ दोनों का निरोध हो जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वही | कर सके, तो बड़ी आशा पैदा होती है, तुम भी कर सकते हो। निर्वाण है। यह आत्यंतिक कल्पना है। इससे ऊपर मनुष्य का | और जो पाप तुम्हें ऊपर बहुत ज्यादा बोझिल मालूम पड़ते हैं, वे स्वप्न कभी नहीं गया। इससे ऊपर जाने का कोई उपाय भी कछ भी नहीं हैं सिर्फ नींद में देखे गये सपने हैं। नहीं। यह आखिरी उत्तुंग ऊंचाई है। यह गौरीशंकर है चैतन्य उड़ने के लिए ही जो है बनी वह गंध सदा उड़ती ही है, का। इससे ज्यादा पवित्रता की और कोई कल्पना न कभी की चढ़ने के लिए ही जो है बनी वह धूप सदा चढ़ती ही है गयी, न की जा सकती है। यहां शुभ भी अशुभ है। यहां पाप अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, भी...पाप तो पाप है ही, यहां पुण्य भी पाप जैसा है। यहां संसार कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़ों में शिकन पड़ती ही है पूरे द्वंद्व के साथ पीछे छूट गया। यह निर्द्वद्व, अद्वैत चित्त की | यह सारी शिकन कपड़े पर है। शरीर पर है, मन पर है-यह अवस्था है। | सारी शिकन कपड़े पर है। महावीर कहते हैं, योगी ऐसे ही क्रम से, क्रम से ध्यान की इस अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, परम अवस्था को उपलब्ध हो, यही समाधि है. यही निर्वाण है। / कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़े में शिकन पड़ती ही है इस परम उदात्त कल्पना से तुम भयभीत और चिंतित मत हो लेकिन भीतर तुम्हारे अंतर्तम में जो जी रहा है, वहां कोई शिकन जाना। कहीं ऐसा न हो जाए कि यह इतनी ऊंचाई, तुम सोचो कभी नहीं पहुंचती। तुम्हारे अंतर्तम में एक बिंदु है, एक केंद्र है, 99 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 जिसको महावीर आत्मा कहते हैं। आत्यंतिक गरिमा दी। और दूसरी बात उन्होंने कहा. किसी से | उस आत्मा तक कोई पाप कभी नहीं पहुंचता। वहां तुम अभी मांगने को यहां कुछ भी नहीं। परमात्मा ही नहीं है, मांगोगे भी गौरीशंकर पर ही विहार कर रहे हो। वहां तुम अभी भी किससे? मुफ्त यहां कुछ भी न मिलेगा। श्रम करना होगा। परमात्मा में ही बसे हो। बाहर की परिधि गंदली हो गयी है। इसलिए महावीर की संस्कृति श्रमण-संस्कृति कहलायी। श्रम लंबी यात्रा है जन्मों-जन्मों की, कपड़े धूल से भर गये हैं। कपड़े करना होगा। पूजा से न मिलेगा, श्रम से मिलेगा। भिखारी की उतार डालो। अपने को पहचानो, तुम कपड़े नहीं हो। तुम देह तरह मांगकर न मिलेगा, अर्जित करना होगा। यह पहाड़ चढ़ने नहीं, मन नहीं। तुम साक्षी हो; चैतन्य हो। तुम परम बोध की से ही चढ़ा जा सकेगा। यह किसी दूसरे के कंधों पर यात्रा अवस्था हो। वहां तुम वैसे ही शुद्ध हो जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, होनेवाली नहीं है। लोग तीर्थयात्रा को जाते हैं, डोली में बैठ जाते जैसे कृष्ण। वहां परमात्मा विराजमान है। हैं। यह ऐसा तीर्थ नहीं है जहां डोली में बैठकर यात्रा हो सकेगी। इसलिए इस ऊंचाई की बात से हताश मत हो जाना। यह अपने ही पैरों से चलना होगा। इसलिए महावीर ने कहा, जब ऊंचाई की बात तो केवल तथ्य की सूचना है। इस ऊंचाई की ऊर्जा जगती हो, जब जीवन में प्रफुल्लता हो, शक्ति हो, तब बात से तो तुम उत्साह से भरना कि अहो! ऐसी संभावना मेरे कल पर मत टालना। यह मत कहना कि कल बुढ़ापे में। . भीतर भी है। जो महावीर के लिए हो सका. वह सब के लिए हो महावीर पहले मनुष्य हैं, जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म को युवा के सकता है। | साथ जोड़ा और कहा, यौवन और धर्म का गहन मेल है। क्योंकि महावीर ने मनुष्य को बड़ा आश्वासन दिया है। दो कारणों से। | ऊर्जा चाहिए यात्रा के लिए, संघर्ष के लिए, तपश्चर्या के लिए, एक, महावीर ने घोषणा की कि मनुष्य के ऊपर और कोई भी संयम के लिए, विवेक के लिए, बोध के लिए-ऊर्जा चाहिए। नहीं। कोई परमात्मा नहीं। मनुष्य ही अपनी शद्ध अवस्था में ऊर्जा के अश्व पर ही सवार होकर तो हम पहंच सकेंगे। इसलिए परमात्मा हो जाता है। महावीर ने कहा, आत्मा के तीन रूप हैं। कल पर मत टालना। बहित्मिा -जब चेतना बाहर जा रही है। अंतरात्मा–जब महावीर ने मनुष्य को परम स्वतंत्रता भी दी और परम दायित्व चेतना भीतर आ रही है। और परमात्मा–जब चेतना कहीं भी भी। परम स्वतंत्रता, कि कोई परमात्मा ऊपर नहीं है। और परम नहीं जा रही; न बाहर, न भीतर। बहिआत्मा-जब चेतना पाप दायित्व, कि तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है। जो भी परिणाम कर रही है। अंतरात्मा–जब चेतना पुण्य कर रही है। होगा, तुम ही जिम्मेवार होओगे। कोई और जिम्मेवार नहीं है। परमात्मा-जब चेतना न पाप कर रही है, न पुण्य कर रही है। महावीर की इस स्वाधीनता को, और महावीर के इस दायित्व को बहिआत्मा--जब अशुभ से संबंध जुड़ा। अंतरात्मा–जब शुभ जिसने समझ लिया, वही जिन है। जैन-घर में पैदा होने से कोई से संबंध जुड़ा। परमात्मा-जब सब संबंध छूट गये। असंग का जिन नहीं होता। जिन तो एक भावदशा है। परम उत्तरदायित्व जन्म हुआ। निर्विकल्प का जन्म हुआ। वही निर्वाण है। और परम स्वातंत्र्य की इकट्ठी भावदशा का नाम जिनत्व है। उसे पाये बिना चैन मत पाना। उसे पाये बिना रुकना मत। तो जहां भी कोई इस अवस्था को उपलब्ध हो जाएगा, उसका आज कितना ही कठिन मालूम पड़े, लेकिन तुम्हारा जन्मसिद्ध संग-साथ महावीर से जुड़ गया। जैन-घर में पैदा होने के कारण अधिकार है। उसे पाया जा सकता है। उसे पाया गया है। और ही मत सोचना कि तुम जैन हो गये। इतना सस्ता काम नहीं है। जो एक मनुष्य के जीवन में घटा, वह सभी मनुष्यों के जीवन में श्रम। श्रम से अर्जित। घट सकता है। वह सभी की नियति है। लेकिन तुम्हारे ऊपर है। मिल सकता है हृदय-धन। हृदय-धन तुम्हारे पास है ही। तुम अगर दावा करो, तो ही पा सकोगे। तुम अगर भिखारी की सिर्फ भीतर आंख खोलनी है। तरह बैठे रहो, तो खो दोगे। दूसरी बात। पहले तो महावीर ने कहा आदमी के ऊपर कोई आज इतना ही। भी नहीं, परमात्मा भी नहीं। इसलिए मनुष्य को उन्होंने 1001 | JainEducation International 2010_03