________________ जिन सूत्र भाग : 2 जिसको महावीर आत्मा कहते हैं। आत्यंतिक गरिमा दी। और दूसरी बात उन्होंने कहा. किसी से | उस आत्मा तक कोई पाप कभी नहीं पहुंचता। वहां तुम अभी मांगने को यहां कुछ भी नहीं। परमात्मा ही नहीं है, मांगोगे भी गौरीशंकर पर ही विहार कर रहे हो। वहां तुम अभी भी किससे? मुफ्त यहां कुछ भी न मिलेगा। श्रम करना होगा। परमात्मा में ही बसे हो। बाहर की परिधि गंदली हो गयी है। इसलिए महावीर की संस्कृति श्रमण-संस्कृति कहलायी। श्रम लंबी यात्रा है जन्मों-जन्मों की, कपड़े धूल से भर गये हैं। कपड़े करना होगा। पूजा से न मिलेगा, श्रम से मिलेगा। भिखारी की उतार डालो। अपने को पहचानो, तुम कपड़े नहीं हो। तुम देह तरह मांगकर न मिलेगा, अर्जित करना होगा। यह पहाड़ चढ़ने नहीं, मन नहीं। तुम साक्षी हो; चैतन्य हो। तुम परम बोध की से ही चढ़ा जा सकेगा। यह किसी दूसरे के कंधों पर यात्रा अवस्था हो। वहां तुम वैसे ही शुद्ध हो जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, होनेवाली नहीं है। लोग तीर्थयात्रा को जाते हैं, डोली में बैठ जाते जैसे कृष्ण। वहां परमात्मा विराजमान है। हैं। यह ऐसा तीर्थ नहीं है जहां डोली में बैठकर यात्रा हो सकेगी। इसलिए इस ऊंचाई की बात से हताश मत हो जाना। यह अपने ही पैरों से चलना होगा। इसलिए महावीर ने कहा, जब ऊंचाई की बात तो केवल तथ्य की सूचना है। इस ऊंचाई की ऊर्जा जगती हो, जब जीवन में प्रफुल्लता हो, शक्ति हो, तब बात से तो तुम उत्साह से भरना कि अहो! ऐसी संभावना मेरे कल पर मत टालना। यह मत कहना कि कल बुढ़ापे में। . भीतर भी है। जो महावीर के लिए हो सका. वह सब के लिए हो महावीर पहले मनुष्य हैं, जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म को युवा के सकता है। | साथ जोड़ा और कहा, यौवन और धर्म का गहन मेल है। क्योंकि महावीर ने मनुष्य को बड़ा आश्वासन दिया है। दो कारणों से। | ऊर्जा चाहिए यात्रा के लिए, संघर्ष के लिए, तपश्चर्या के लिए, एक, महावीर ने घोषणा की कि मनुष्य के ऊपर और कोई भी संयम के लिए, विवेक के लिए, बोध के लिए-ऊर्जा चाहिए। नहीं। कोई परमात्मा नहीं। मनुष्य ही अपनी शद्ध अवस्था में ऊर्जा के अश्व पर ही सवार होकर तो हम पहंच सकेंगे। इसलिए परमात्मा हो जाता है। महावीर ने कहा, आत्मा के तीन रूप हैं। कल पर मत टालना। बहित्मिा -जब चेतना बाहर जा रही है। अंतरात्मा–जब महावीर ने मनुष्य को परम स्वतंत्रता भी दी और परम दायित्व चेतना भीतर आ रही है। और परमात्मा–जब चेतना कहीं भी भी। परम स्वतंत्रता, कि कोई परमात्मा ऊपर नहीं है। और परम नहीं जा रही; न बाहर, न भीतर। बहिआत्मा-जब चेतना पाप दायित्व, कि तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है। जो भी परिणाम कर रही है। अंतरात्मा–जब चेतना पुण्य कर रही है। होगा, तुम ही जिम्मेवार होओगे। कोई और जिम्मेवार नहीं है। परमात्मा-जब चेतना न पाप कर रही है, न पुण्य कर रही है। महावीर की इस स्वाधीनता को, और महावीर के इस दायित्व को बहिआत्मा--जब अशुभ से संबंध जुड़ा। अंतरात्मा–जब शुभ जिसने समझ लिया, वही जिन है। जैन-घर में पैदा होने से कोई से संबंध जुड़ा। परमात्मा-जब सब संबंध छूट गये। असंग का जिन नहीं होता। जिन तो एक भावदशा है। परम उत्तरदायित्व जन्म हुआ। निर्विकल्प का जन्म हुआ। वही निर्वाण है। और परम स्वातंत्र्य की इकट्ठी भावदशा का नाम जिनत्व है। उसे पाये बिना चैन मत पाना। उसे पाये बिना रुकना मत। तो जहां भी कोई इस अवस्था को उपलब्ध हो जाएगा, उसका आज कितना ही कठिन मालूम पड़े, लेकिन तुम्हारा जन्मसिद्ध संग-साथ महावीर से जुड़ गया। जैन-घर में पैदा होने के कारण अधिकार है। उसे पाया जा सकता है। उसे पाया गया है। और ही मत सोचना कि तुम जैन हो गये। इतना सस्ता काम नहीं है। जो एक मनुष्य के जीवन में घटा, वह सभी मनुष्यों के जीवन में श्रम। श्रम से अर्जित। घट सकता है। वह सभी की नियति है। लेकिन तुम्हारे ऊपर है। मिल सकता है हृदय-धन। हृदय-धन तुम्हारे पास है ही। तुम अगर दावा करो, तो ही पा सकोगे। तुम अगर भिखारी की सिर्फ भीतर आंख खोलनी है। तरह बैठे रहो, तो खो दोगे। दूसरी बात। पहले तो महावीर ने कहा आदमी के ऊपर कोई आज इतना ही। भी नहीं, परमात्मा भी नहीं। इसलिए मनुष्य को उन्होंने 1001 | JainEducation International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org