________________ 223 जिन सूत्र भाग: 2 चूहा नहीं हूं। और जो इस गरीब मुल्ला पर गुजरते देखा है, वह जाओ। उस अंधे ने कहा, तुम पागल हुए हो! मुझे क्या फर्क अब अपने पर गुजरते नहीं देखना चाहता। पड़ता है, कंदील हाथ में हो, या न हो! अंधेरा अंधेरा है। मैं जीवन को खली आंख से देखते चलें। जो चारों तरफ गजर अंधा हूं, क्या तुम भूल गये? कंदील क्या करेगी! रहा है, वही शास्त्र है। जो सब पर गुजर रहा है, वही शास्त्र है। लेकिन उस मित्र ने तर्क किया कि माना कि तुम अंधे हो और तुम पर गुजर रहा है, उसे भी गौर से देखो। कोई भी जीवन का कंदील तुम्हारे लिए कुछ न कर सकेगी, लेकिन इतना तो करेगी अनभव बिना सार निचोड़े मत जाने दो। तो ही धीरे-धीरे कि दसरा कोई तमसे न टकरा सकेगा। रोशनी हाथ में रहेगी, तो परिपक्वता आती है। तो ही धीरे-धीरे ऐसी घड़ी आती है, जहां | दूसरा तुमसे न टकरा सकेगा। यह तर्क अंधे को भी जंचा, वह तुम्हारे भीतर से चरित्र का आविर्भाव होता है। लेकिन उस चरित्र कंदील लेकर गया। कोई दस-पांच कदम ही गया था कि कोई की न तो कोई मांग होती, न कोई आकांक्षा होती, न उस चरित्र उससे आ टकराया। उसने कहा, क्या मामला है? क्या तुम भी का कोई लक्ष्य होता। वह चरित्र स्वयं में सुंदर। स्वांतः सुखाय। अंधे हो? हाथ में कंदील है मेरे, दिखायी नहीं पड़ती? उस दूसरे भीतर ही भीतर उसका रस है। आदमी ने कहा कि महानुभाव, आपकी कंदील बुझी हुई है। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि मैं चरित्रवान है, इसलिए अंधे को पता कैसे चले कि कंदील बुझ गयी। अंधे को कंदील मुझे सम्मान मिले। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता—यह भी का जलना ही पता नहीं चलता, तो बुझना कैसे पता चलेगा? शिकायत नहीं करता-कि दूसरे चरित्रहीन सम्मानित हो रहे हैं, और कहते हैं, उसे अंधे ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि मैं यह क्या अन्याय हो रहा है! वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि वर्षों से चल रहा हूं, कभी मुझसे कोई भी न टकराया था। क्योंकि चरित्रहीन सफल हो रहे हैं और चरित्रवान असफल हो रहे हैं, हे | मैं खुद ही संभलकर चलता हूं, लकड़ी चोट करके चलता हूं, प्रभु, यह कैसा अन्याय है! नहीं, उसकी कोई शिकायत नहीं। खबर करके चलता हूं कि भई, में अंधा हूं। तुम्हारी कंदील ने मुझे वह जानता है कि चरित्रहीन कितना ही सफल हो जाए, उसकी आश्वासन दे दिया कि आज तो कोई खबर रखने की जरूरत सब सफलता अंततः जोड़ में असफलता बन जाती है। वह | नहीं। आज तो लापरवाह चल सकता हूं। कंदील तो हाथ में है, जानता है कि चरित्रवान सफल हो कि असफल, उसके आनंद में | कोई टकरायेगा नहीं। यह पहली दफे मेरी जिंदगी में कोई मझसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी विफलता भी सफलता है। टकराया है, तुम्हारी कंदील के कारण टकराया है। कंदील ने सफलता तो सफलता है ही। वह सड़क पर भिखारी की तरह भी भरोसा दे दिया, आत्मविश्वास दे दिया। अन्यथा अंधा अपने खड़ा हो, तो उसके भीतर सम्राट का भाव होता है। चरित्रहीन, अंधेपन के हिसाब से व्यवस्था करके चलता है। लकड़ी सम्राट की तरह सिंहासन पर भी बैठा हो, तो भी अपराधी के भाव | टटोलकर, आवाज करके। आज उसने अपनी सहज सावधानी से भरा होता है। को भी छोड़ दिया। असली निर्णय भीतर है। चरित्र का एक सहज सुख है। एक अगर तुम्हें पता हो कि तुम अज्ञानी हो, तो तुम टटोलकर शीतलता है। लेकिन, उस चरित्र का जो अपने से आता है। चलोगे, आवाज करके चलोगे, लकड़ी बजाकर चलोगे; महावीर कहते हैं, 'चरित्रविहीन पुरुष का विपुल अकड़कर न चलोगे। लेकिन, अगर तुम्हारा अज्ञान शास्त्र-अध्ययन भी व्यर्थ ही है; जैसे कि अंधे के आगे शास्त्र अध्ययन में ढंक गया, तो तुम्हें लगता है, तुम्हारे हाथ में लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।' अंधे के सामने एक दीपक जलाओ, कि करोड़ दीपक उधार ज्ञान हो जाता है, तो ज्ञान तो नहीं आता, सिर्फ अकड़ आती जलाओ, कोई अंतर नहीं पड़ता। है। ज्ञान तो नहीं जलता, सिर्फ अहंकार प्रगाढ़ होता है। सुना है मैंने, एक अंधा अपने मित्र के घर से विदा हो रहा था। इस अहंकार से चरित्र तो कैसे पैदा होगा! अहंकार तो सबसे तो मित्र ने कहा, रात में अंधेरा ज्यादा है, अमावस की रात है। बड़ी बाधा है चरित्र में। क्योंकि चरित्र की अगर कोई बुनियाद है, रास्ते पर कोई दुर्घटना हो जाए, तुम यह हाथ में कंदील लिये तो निर-अहंकारिता है। अपने को बदलने को वही तैयार होता 86 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org