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________________ जिन सूत्र भागः 2 का चेहरा है, वह संसार के सामने भला हो। तुम दूसरों को धोखा चुपचाप निकल जाते हैं। तुमने खयाल किया, तुम सोचते हो कि दे लेना, तुम अस्तित्व को धोखा न दे पाओगे। अस्तित्व के यह दरवाजा है, इससे निकलूं? यह दीवाल है, इससे न सामने तो नग्न ही खड़ा होना होगा। निकलूं? इतने विचार की भी कहां जरूरत पड़ती है? जिसके थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। पास आंख है, निर्विचार में दरवाजे से निकल जाता है। जो चरित्रसंपन्न है, थोड़ा-सा भी जानता है तो पर्याप्त है। एक निश्चयनय के अनुसार, आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए कण भी अपना, तो बहुत। अपना होना चाहिए। प्रामाणिक रूप तन्मय होना...।' से अपना होना चाहिए। 'आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना।' न कुछ जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।। और पाने को है, न कहीं जाने को है। आत्मा ही गंतव्य है। और बहत सना हआ. बहत पढा हआ-बहश्रत-किस आत्मा ही साधन, आत्मा ही साध्य। आत्मा ही यात्री. आत्मा ही काम का जो अपने चरित्र से निचड़कर हाथ में न आया हो। मंजिल, आत्मा ही यात्रापथ है। स्वयं के स्वभाव में डब जाना ही 'निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए सब कुछ है, धर्म है। तन्मय होना ही सम्यक-चारित्र्य है।' णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। यह सूत्र बहुमूल्य है। यह सूत्र इन सारे सूत्रों में कोहिनूर है। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।। आत्मा में आत्मा का आत्मा के लिए ही तन्मय होना चरित्र है। ...और ऐसे चरित्रशील योगी को ही निर्वाण की उपलब्धि यह महावीर की परिभाषा है। अपने में पूरी तरह डूब जाना चरित्र होती है।' है। उस डुबकी को लगाकर जो बाहर आता है, वह बाहर भी तो सार की बात सिर्फ एक है, सूत्र की बात सिर्फ एक है कि ताजा होता है लेकिन वह ताजगी गौण है, असली बात तो बाहर न जाओ, भीतर आओ। बाहर दौड़ती ऊर्जा के भीतर डुबकी लगाना है। जो भीतर डुबकी लगाकर आता है, द्वार-दरवाजे बंद कर दो, ताकि ऊर्जा भीतर गिरने लगे। ताकि उसके बाहर के जीवन में भी सब रूपांतरित हो जाता है। वह वही तम अपने में डब सको। बाहर तो जाओ ही न. बाहर के विचारों नहीं हो सकता जो कल तक था। और यह रूपांतरण चेष्टित नहीं में भी मत जाओ। क्योंकि वे भी बाहर ही होता। यह रूपांतरण आरोपित नहीं होता। यह रूपांतरण | निर्विचार के क्षण में, जब कोई विचार नहीं, कोई क्रिया अभ्यासजन्य नहीं होता। यह रूपांतरण सहज होता है, बोध से नहीं-निर्विचार, निष्क्रिय-जब तुम थिर बैठे हो, न तो कोई होता है। | क्रिया कर रहे हो और न कोई विचार कर रहे हो, सिर्फ होश मात्र जैसे अंधे को आंख मिल गयी। तो अब दरवाजे से निकल शेष है, उस होश में जो घटता है, वही चारित्र्य है। जाता है। अब दीवाल से नहीं टकराता। ऐसा थोड़े ही है कि तो चरित्र का कोई संबंध नहीं है कि किसी से झूठ बोलो, कि रोकता है अपने को दीवाल से न टकराऊं। रोकने की भी कोई सच बोलो; कि ईमानदारी रखो, कि बेईमानी करो। खयाल जरूरत नहीं, आंख मिल गयी। या अंधेरे में दीया जल गया। करो, जो चरित्र ईमानदारी, बेईमानी, झूठ, सच, इन पर निर्भर है, अभी तुम टटोल-टटोलकर जा रहे थे। दीया जलते ही टटोलना वह चरित्र तो सामाजिक है, आत्मिक नहीं। अगर तुम जंगल में बंद कर देते हो। बंद करने के लिए कोई कसम थोड़े ही खानी चले जाओ, तो फिर तुम कैसे सच बोलोगे? किससे बोलोगे? पड़ती है कि अब कभी भी टटोलूंगा नहीं। अब कसम खाता हूं अगर तुम जंगल में चले जाओ, तो तुम कैसे ईमानदार बनोगे? कि टटोलने का त्याग करता हूं। कुछ कसम नहीं खानी पड़ती! | बोलो। बेईमानी ही करने का उपाय नहीं, तो ईमानदार कैसे दीये के जलते ही टटोलना समाप्त हो गया। अंधेरा गया, बनोगे। तो यह तो इसका अर्थ यह हुआ कि चरित्रवान केवल टटोलेगा कोई किसलिए। समाज में ही चरित्रवान हो सकता है। समाज के बाहर होते ही आंख मिल गयी, तो हम यह भी नहीं सोचते कि दरवाजा कहां चरित्रशून्य हो जाएगा। चरित्रहीन भी नहीं कह सकते हम है। आंख मिलते ही दरवाजा दिखायी पड़ने लगता है। हम उसको, क्योंकि चरित्रहीन होने के लिए भी समाज जरूरी है। 192 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340136
Book TitleJinsutra Lecture 36 Jivan hi Hai Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size40 MB
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