Book Title: Jinsutra Lecture 21 Jin Shasan arthat Aadhyatmik Jyamiti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां प्रवचन जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIMIRMATI - मग्गो मग्गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो खलु सम्मतं मग्गफलं होइ निव्वाणं / / 52 / / दंसणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि। साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।।५३।। B आण्णाणादो पाणी, जदि मण्णादि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।।५४ / / HTTARAI HAHEE www.jainelibrary org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sन-दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्य की | क्योंकि हम जानते नहीं जीवन के नियम को, इसलिए हम / उसमें कोई जगह नहीं है। परमात्मा का नाम लेते हैं। तुमने देखा भी होगा, जब भी तुम वही उसकी विशिष्टता है। कहते हो ‘परमात्मा जाने' तो तुम्हारा मतलब यह होता है कि दो और दो जैसे चार होते हैं, ऐसे ही महावीर के वक्तव्य हैं। कोई नहीं जानता। ‘परमात्मा जाने' का यह अर्थ नहीं होता कि उन्हें समझने के लिए ठीक वैज्ञानिक की बुद्धि चाहिए। जैसे सौ परमात्मा जानता है-इतना ही अर्थ होता है कि तुम भी नहीं डिग्री तक हम पानी को गर्म करें, तो वह भाप बन जाता है। सौ जानते, कोई भी नहीं जानता। जहां तुम्हें अपने अज्ञान को प्रगट डिग्री तक पानी गर्म हुआ कि भाप बनेगा ही। इस भाप को बनाने | करना होता है वहां तुम परमात्मा को ले आते हो। लेकिन इस के लिए न तो किसी की प्रार्थना करनी जरूरी है, न किसी का | ढंग से प्रगट करते हो कि लगता है जैसे कोई जानता है। आशीर्वाद लेना जरूरी है। और अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म न 'परमात्मा जाने', इसमें तुमने यह भी छिपा लिया कि मैं नहीं हुआ, तो लाख प्रार्थना करो, लाख आशीर्वाद लो, पानी पानी ही जानता। और दूसरे के सामने यह बात ढांक दी, अज्ञान को छिपा रहेगा, भाप न बनेगा। लिया, प्रगट न होने दिया। जैसे विज्ञान कहता है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, विज्ञान कहता है: जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, परमात्मा हटता प्रकृति के नियम काफी हैं, पर्याप्त हैं; परमात्मा के होने से उन | जाता है। जिस दिन ज्ञान पूरा हो जायेगा, परमात्मा शून्य हो नियमों में कुछ जुड़ेगा नहीं। विज्ञान की एक मूलभूत धारणा | जायेगा। है-और वह है न्यूनतम सिद्धांत। जितने कम सिद्धांतों से काम महावीर की भी ऐसी ही दृष्टि है। इसलिए महावीर ने परमात्मा चल सके उतना उचित है। चेष्टा तो विज्ञान की यही है कि अंततः को इनकार किया, प्रार्थना को इनकार किया-शुद्ध जीवन के एक ही सिद्धांत मिल जाये जिससे जीवन की सारी पहेली सुलझ गणित को समझने की कोशिश की। सके। इसलिए गैर-अनिवार्य को बिलकुल जगह नहीं देना है। आदमी बंधन में है, तो कारण होंगे। अगर आदमी को अगर सौ डिग्री गर्म करने से पानी भाप बन जाता है तो फिर बंधन-मुक्त होना है तो उन कारणों को अलग करना होगा। पानी को भाप बनाने के लिए और किसी परमात्मा की जरूरत | बस, इतना सीधा-साफ। और सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं नहीं है। और किसी की प्रार्थना भी व्यर्थ है। इस नियम को अपने-आपको भुलाने के उपाय हैं। जिसने जान लिया, वह अगर पानी को भाप बनाना चाहेगा तो कोई तुम्हें बंधन में डाला नहीं है, कोई तुम्हें मुक्त करने न बना लेगा। आयेगा। जीवन के सीधे नियम का तुम उपयोग नहीं किये, विज्ञान के हिसाब से परमात्मा हमारे अज्ञान का हिस्सा है। इसलिए बंधन में पड़ गये हो। उपयोग कर लोगे, बंधन के बाहर 453 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग / हो जाओगे। संबंध नहीं है। इलाज करो। बीमारी के रोगाणु हैं, उनसे मुक्त जैसे कोई आदमी सम्हलकर चलता हो तो गिरता नहीं। जो होने की व्यवस्था करो। ताबीज से रोगाणु डरेंगे न और न मुक्त आदमी गिर जाता है, उससे हम कहते हैं, सम्हलकर चलो! होंगे और न तुम उनसे मुक्त हो सकोगे। सम्हलकर चलने का क्या अर्थ होता है ? सम्हलकर चलने का महावीर कहते हैं, जीवन में दुख है तो तुम ठीक-ठीक कारण अर्थ होता है: जमीन की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, उसका खोजो। दुख से तुम बचना चाहते हो, यह तो हमें मालूम है; ध्यान रखकर चलो। अगर इरछे-तिरछे चले-गिरोगे। वही लेकिन सिर्फ बचने की आकांक्षा से बच न सकोगे। और दुख से गुरुत्वाकर्षण का नियम जो तुम्हें चलाता है, सम्हालता है, | तुम बचना चाहते हो, इसलिए कोई भी कुछ बता देता है, वही जिसके बिना चल न सकोगे, अगर उसके विपरीत गये तो करने लगते हो—इससे भी न बच सकोगे। हो सकता है गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे, फिर कभी चल न पाओगे। तो | बतानेवाले की भी आकांक्षा शुभ हो; खोजनेवाले की भी गुरुत्वाकर्षण के निमय को समझ लो और अपने और उस नियम | आकांक्षा शुभ हो; लेकिन आकांक्षाओं से थोड़े ही जीवन चलता के बीच एक संगीत का संबंध बना लो। इतना ही धर्म है। है। जीवन चलता है सत्यों से, नियमों से। तो नियम को खोज महावीर धर्म की परिभाषा करते हैं : जीवन के स्वभाव सूत्र को लो। नियम के खोजते ही जीवन में क्रांति घटित होती है। समझ लेना धर्म है। जीवन के स्वभाव को पहचान लेना धर्म है। उस नियम की खोज को महावीर कहते हैं: मार्ग। वही मार्ग स्वभाव ही धर्म है। पकड़ में आ जाये तो फिर परिणाम के लिए प्रार्थना भी करनी ये सूत्र ऐसे ही सीधे-साफ हैं। जरूरी नहीं है, उतना भी समय खराब मत करना। क्योंकि जब पहला सूत्रः तुमने आग जला दी और पानी गर्म होने लगा तो अब बैठकर मग्गो मग्गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्खाद। प्रार्थना मत करना कि हे परमात्मा, इसको भाप बना! अब किसी मग्गो खलु सम्मतं मग्गफलं होइ निव्वाणं।। परमात्मा को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। अब तो पानी भाप 'जिन-शासन में मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकारों से कथन | | बनेगा। ईंधन पूरा है, आग जल उठी है-पानी भाप बनेगा। किया गया है। मार्ग है मोक्ष का उपाय और फल है निर्वाण।' अब इसे कोई रोक भी न सकेगा। इस नियम के विपरीत कुछ घट मार्ग और मार्ग-फल! बस महावीर के सारे वचन इन दो | न सकेगा। हिस्सों में बांटे जा सकते हैं : कारण और कार्य। ऐसा करो तो महावीर चमत्कार में नहीं मानते। कोई वैज्ञानिक बुद्धि का ऐसा होगा। बस इतनी दो सरणियों में महावीर के पूरे कथन बांटे व्यक्ति नहीं मानता। चमत्कार कहीं न कहीं धोखा होगा, क्योंकि जा सकते हैं। कुछ कथन हैं जो बताते हैं क्या करो और कुछ नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। अगर कोई आदमी हाथ से कथन हैं जो बताते हैं कि फिर क्या होगा। अगर जहर पी लो तो राख निकाल देता है तो कहीं न कहीं कोई मदारीगिरी होगी, मृत्यु होगी। अगर अमृत को खोज लो तो अमरत्व को उपलब्ध क्योंकि जीवन के नियम किसी का अपवाद नहीं मानते। जीवन हो जाओगे। के नियम व्यक्तियों की चिंता नहीं करते-निर्वैयक्तिक हैं, परिणाम कारण के पीछे ऐसे ही चला आता है जैसे तुम्हारे पीछे सार्वभौम हैं। उनसे अन्यथा होने का उपाय नहीं।। तुम्हारी छाया चली आती है। तो करना क्या है? न प्रार्थना, न अगर कोई आदमी साठ डिग्री पर पानी को भाप बना दे तो या पूजा, न मंदिर, न पाठ: क्योंकि इनसे कछ भी न होगा। इनसे तो थर्मामीटर से धोखा दे रहा है या किसी तरह का आयोजन कर कारण का कोई संबंध नहीं है। रहा है, जिससे तुम्हें यह भ्रम पैदा होता है कि साठ डिग्री पर पानी यह तो ऐसे ही है जैसे वर्षा नहीं हो रही और कोई यज्ञ कर रहा भाप बन रहा है। है। इसका कुछ लेना-देना नहीं है। यज्ञ से कोई कार्य-कारण का पानी तो सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसने किसी तरह का संबंध नहीं है वर्षा से। कि कोई बीमार पड़ा है और तुम ताबीज भ्रमजाल रचा है। लेकिन चमत्कार जगत में नहीं होते। बांध रहे हो: ताबीज से और बीमारी का कोई कार्य-कारण का चमत्कार का तो अर्थ यह होता है कि जगत के नियम पक्षपात 454 Jair Education International Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति करते हैं। किसी एक आदमी की मानकर कुछ उलटा भी कर देते तो उपनिषदों में जैसा सौंदर्य है, कृष्ण के वचनों में जैसा रस है हैं। किसी दूसरे की मानकर नियम में शिथिलता कर देते हैं। वैसा महावीर के वचनों में नहीं है। किसी तीसरे पर नाराज हो जाते हैं। जिस पर प्रसन्न हैं, साठ डिग्री गणित को गाया नहीं जा सकता। गणित को गाओ तो गणित पर पानी भाप बन जाता है; जिस पर नाराज हैं, उसके लिए डेढ़ बिगड़ जाता है। क्योंकि गाने के लिए कुछ गैर-गणित भीतर सौ डिग्री पर भी भाप नहीं बनता। लाना पड़ता है। मगर महावीर कहते हैं, पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है। इसलिए तो हम कवि से कभी तार्किक होने की अपेक्षा नहीं नियम न नाराज होते न प्रसन्न होते। नियम निर्वैयक्तिक है। करते। और कवि अगर सपनों की बात करे तो हम उसे क्षमा इसको खयाल में लेना। परमात्मा व्यक्ति है। करते हैं। और कवि अगर मनगढंत बातों में घूमे तो हम कहते हैं, तो जब भी हम परमात्मा की बात करते हैं, हमारे मन में कवि है, कविता है। संभावनाएं उठने लगती हैं कि अगर खूब प्रार्थना करें, खूब स्तुति | लेकिन गणितज्ञ से हम दूसरी अपेक्षा करते हैं। गणितज्ञ से हम करें, खूब समझा-बुझा लें, तो जो दूसरे के लिए नहीं हुआ है वह चाहते हैं सीधी-साफ रेखा हो, शुद्ध रेखा हो, जिसमें कुछ भी हमारे लिए हो जायेगा। क्योंकि व्यक्ति के आते ही लगता है गणितज्ञ ने अपने भाव के कारण न डाला हो। केवल सत्य का फुसला लेंगे, राजी कर लेंगे, समझा लेंगे, रोयेंगे, गिड़गिड़ायेंगे, प्रतिफलन हो। शुद्ध सत्य का प्रतिफलन हो। सजावट न हो, सहानुभूति पैदा कर लेंगे, करुणा मांगेंगे! आखिर परमात्मा शंगार न हो। दयालु है, तो खूब रोयेंगे तो दया उठेगी। इसलिए महावीर के वचन, जैसे महावीर नग्न हैं वैसे ही लेकिन महावीर कहते हैं, ऐसे तुम किसी और को धोखा नहीं दे | महावीर के वचन भी नग्न हैं। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा रहे, अपने को ही धोखा दे रहे हो। है वैसा कहा है। और जिनके पास वैज्ञानिक बुद्धि है उनको ऐसी चेष्टाएं व्यर्थ हैं और उनमें गंवाया गया समय तुमने व्यर्थ महावीर पर बड़ी श्रद्धा पैदा होगी। उनको महावीर के साथ बड़ा ही गंवाया। मार्ग को खोज लो! संबंध जुड़ जायेगा। महावीर का जोर मार्ग पर है; परमात्मा के सहारे पर नहीं; 'मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकार से कथन किया है। मार्ग परमात्मा के आलंबन पर नहीं। यही तो सारे विज्ञान की दृष्टि मोक्ष का उपाय है और उसका फल मोक्ष या निर्वाण...' है। विज्ञान कहता है, कहीं कुछ घट रहा है। हमें आज पता न हो | मोक्ष या निर्वाण शब्द को समझ लेना चाहिए। क्यों घट रहा है; लेकिन जिस दिन पता चल जायेगा उस दिन 'मोक्ष' शब्द बड़ा अनूठा है। भारत के बाहर की किन्हीं फिर घटाने की शक्ति हमारे हाथ में आ जायेगी। भाषाओं में मोक्ष के पर्यायवाची कोई शब्द नहीं है। स्वर्ग है सभी और जब तक हमें पता नहीं है तब तक बेहतर है कि हम कहें | भाषाओं में, लेकिन मोक्ष भारत के बाहर की किन्हीं भाषाओं में कि हमें मालम नहीं। नहीं है। क्योंकि मोक्ष की धारणा ही किसी और देश में पैदा नहीं तो महावीर के अधिक वचन तो मार्ग-सूचक हैं। और कुछ हुई। उतनी ऊंचाई तक, उतनी गहराई तक मनुष्य की चिंतना और वचन फल-सूचक हैं। ऐसा पूरा जिन-शासन दो हिस्सों में | ध्यान गया नहीं कहीं और। विभाजित है। मोक्ष का अर्थ होता है : जहां सुख भी नहीं, दुख भी नहीं। आइंस्टीन भी इससे राजी होगा। प्लांक भी इससे राजी होगा। स्वर्ग का अर्थ होता है : जहां सुख है, भरपूर सुख है। स्वर्ग का रसेल भी इसमें भूल-चूक न निकाल पायेगा। इसलिए महावीर | अर्थ होता है जो हम चाहते हैं वही है; जैसा हम चाहते हैं वैसा के वचनों में या जैन शास्त्रों में तुम्हें कहीं काव्य न मिलेगा, काव्य | है। हमारी चाह का परिपूरक है। हमारी चाह को भरता है। का चमत्कार न मिलेगा। पढ़ोगे तो रूखे-सूखे लगेंगे। ठीक हमारी चाहत के अनुकूल जहां सब हो रहा है वहां स्वर्ग है। तो गणित की किताबें हैं-ज्यामिति, आध्यात्मिक ज्यामिति। जहां हमारी चाह पूरी होती है वहां क्षणभर को हम भी स्वर्ग में हो अंतरात्मा के संबंध में ज्यामेट्री खड़ी की है। जाते हैं। 455 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 नर्क का अर्थ है : जहां सब हमारी चाह के विपरीत हो रहा है | उस क्षण में तुम कहां होते हो? उस क्षण में तुम शरीर के भीतर जो हम चाहते हैं ठीक उससे उलटा हो रहा है; जिस-जिससे हम | होते हो? नहीं, उस क्षण में शरीर की स्मृति खो जाती है। तुम बचना चाहते हैं वही-वही हो रहा है। विदेह हो जाते हो। क्योंकि शरीर से हमारा संबंध चाह का संबंध नर्क और स्वर्ग सारी दुनिया की भाषाओं में हैं। है। उस क्षण में तुम शरीर में नहीं होते। उस क्षण में तुम पृथ्वी पर 'मोक्ष' बड़ा अनूठा शब्द है। मोक्ष का अर्थ है : न तो हमारी नहीं होते। उस क्षण में तुम स्थान में नहीं होते। उस क्षण में तुम अब कोई चाह है, न हमारी कोई पसंद है। क्योंकि महावीर कहते समय में भी नहीं होते। उस क्षण में तुम अचानक किसी दूसरे ही हैं, जब तक चाह है तब तक बंधन रहेगा। हां, यह भी हो सकता लोक में प्रवेश कर गये-पार का लोक! जल्दी ही तुम लौट है कि तुम सोने के बंधन बना लो; लोहे की जंजीरें तोड़ डालो | आओगे। क्योंकि उस पार के लोक में जीने की, उस ऊंचाई पर और सोने की जंजीरें ढाल लो। और यह भी हो सकता है उन | जीने की तुम्हारी क्षमता नहीं है। उस ऊंचाई पर श्वास लेने की जंजीरों पर हीरे-मोती जड़ दो। वे प्यारे लगने लगें। वे इतने प्यारे तुम्हारी कुशलता नहीं है। उन ऊंचाइयों पर उड़ने की अभी तुमने हो जायें कि आभूषण मालूम पड़ें। | आदत नहीं डाली, अभ्यास नहीं किया है। बहुत-से आभूषण, जिन्हें तुम आभूषण समझते हो, जंजीरें | इसलिए कभी-कभी क्षणभर को जब चाह छूट जाती है, तब सिद्ध होते हैं; और बहुत-सी जंजीरें जिनकी तुम्हें याद भी नहीं | तुम एकदम मुक्ति अनुभव करते हो। आती कि जंजीरें हैं, आभूषणों में छिप गई हैं। ऐसे ही तो पहली दफा आदमी को मोक्ष का खयाल उठा होगा तो महावीर कहते हैं, सुख की आकांक्षा या सुख का मिलना भी | कि जो क्षणभर को हो सकता है वह सदा को क्यों न हो! जो एक जंजीर है-सोने की जंजीर है। दुख का मिलना लोहे की जंजीर | क्षण को चेतना में कभी-कभी झलक जाता है, वह सदा के लिए है। लेकिन दोनों बांधते हैं। तुमने खयाल किया? कभी तुम्हें चेतना का स्वभाव क्यों न बन जाये! एकाध क्षण को भी ऐसी चैतन्य की घड़ी आई, जब न सुख की मोक्ष का अर्थ है : जहां चेतना की कोई चाह नहीं। जहां चाह आकांक्षा है न दुख की? तब तुमने देखा, कैसी मुक्ति अनुभव | नहीं वहां संसार में कोई राह नहीं। होती है! सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। सब कारागृह विलुप्त चाह राह बनाती है; संसार में ले आती है। क्योंकि जहां चाह हो जाते हैं। क्षणभर को तुम्हारे चेतना के आकाश में एक भी आई, वहां वस्तुओं का संसार आया। तुमने कुछ चाहा, तुम्हारी बादल नहीं रह जाता। निरभ्र आकाश! अनंत आकाश! जैसे ही आंख दूर गई, 'पर' पर पड़ी-तुम बंधे! तुम उलझन में पड़े! उठी आकांक्षा, बादल घिरे, अंधेरा छाया! आकाश तो खो गया, और जिसने सुख चाहा-उसे दुख मिला। बदलियां रह गईं! धुएं के बादल रह गये! | यह तो हमारा सबका अनुभव है। सभी ने सुख चाहा कभी क्षणभर को भी अगर तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जाता हो, है-मिला कहां? चाहा तो सभी ने सुख है; पाया सभी ने दुख छा है, न दुख की, कोई इच्छा नहीं है, तुम है। इसे तुम कब देखोगे? कब जागोगे कि चाह तो कुछ और अनिच्छा में बैठे हो–उसी घड़ी को महावीर 'सामायिक' कहते होती है, मिलता कुछ और है। हैं। तुम संसार के बाहर हो। क्योंकि महावीर के हिसाब में संसार तो महावीर कहते हैं, यह जीवन का आधारभूत नियम है कि जो का अर्थ है : चाह के भीतर होना। | सुख चाहेगा वह दुख पायेगा। सुख की चाह में ही दुख छिपा है। चाह से भरे होना संसार में होना है। फिर तुम चाह कोई भी | इसे समझो। करो। चाहे पृथ्वी के धन की हो, चाहे स्वर्ग के धन की हो; चाहे | पहला, सुख वही चाहता है जो दुखी है-एक बात। क्योंकि तुम पुण्य की आकांक्षा करो; लेकिन कोई भी आकांक्षा है, चाहत | तुम वही चाहते हो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुम्हारे पास है, जारी है और तुम संसार में हो। | तुम क्यों चाहोगे? जो तुम्हारे पास है ही, उसकी तो चाह खो ऐसी भी घड़ियां हैं चैतन्य की, जब कोई चाह नहीं, जब तुम | जाती है; जो नहीं है उसकी ही चाह पैदा होती है। अभाव चाह | हो-निपट अकेले! शुद्ध! कोई धुएं की रेखा भी भीतर नहीं। को जन्माता है। अभाव जन्मदाता है। 456 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति तो जिस आदमी ने सुख चाहा, एक बात तो उसने यह बतायी दुख निकलता है। कि वह दुखी है। फिर जिस आदमी ने सुख चाहा, उसने दूसरी तो महावीर कहते हैं, जिसने छोड़ा है, उसने सिर्फ दुख को ही बात भी बतायी कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | नहीं छोड़ा, उसने सुख को भी छोड़ा है। उसने नर्क का ही त्याग जाऊंगा, विषाद घेरेगा, असफलता हाथ लगेगी। और जैसे ही नहीं किया...। वह तो सभी करते हैं; उसमें कौन-सी कुशलता उसे यह खयाल आया कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | है? उसमें कौन-सी मेधा है? दुख से कौन नहीं बचना जाऊंगा, विषाद होगा मेरे जीवन में, उद्विग्न हो जाऊंगा, हारा चाहता-सभी बचते हैं। उसमें कौन-सी बुद्धिमानी है? उसमें हुआ, थका हुआ, पराजित-भय समाया! भय आया। यह कौन-सी विशेषता है। लेकिन जिसने गौर से देखा, समझा, आदमी वैसे ही दुखी था, इसने सुख की चाह करके और दुख | जीवन की पर्तों को उघाड़ा, रहस्य को पहचाना, गणित का सूत्र बुला लिया, और भयभीत हो गया। अब यह डगमगाते कदमों समझ में आ गया उसे कि दुख की सारी चाल यही है कि वह तुम्हें से सुख की तरफ चलता है। | सुख का आश्वासन देता है और भरमा लेता है। तुम सुख के और, सुख हम सदा बाहर मांगते हैं: किसी स्त्री से मिलेगा, आश्वासन में दुख के पीछे चले जाते हो, भटक जाते हो। किसी पुरुष से मिलेगा, धन से मिलेगा, पद से मिलेगा! लेकिन मिलता दुख है, चाहते सदा सुख हो। पद से सुख का क्या संबंध है? तुम कितनी ऊंची कुर्सी पर बैठते / जो जागा इस अनुभव में, उसने सुख नहीं चाहा। और जिसने हो, इससे सुख का क्या संबंध? तुम कितने बड़े मकान में हो, सुख नहीं चाहा, उसके जीवन से दुख विदा होने लगे। क्योंकि इससे क्या सुख का संबंध है? | बिना सुख की चाह के दुख निर्मित नहीं हो सकता। सुख का मकान के बड़े और छोटे होने से कहीं भी तो कोई थोड़ा सोचो! संबंध नहीं है। क्योंकि सड़क पर खड़े भिखारी भी कभी सुखी जिस आदमी ने सफलता नहीं चाही, उसे तुम विफल कैसे देखे गये हैं। महावीर खुद ही ऐसे भिखारी थे। और कभी महलों करोगे? और जिसने कभी जीतना नहीं चाहा, उसे तुम हराओगे में सम्राट भी दुखी देखे गये हैं। कैसे? और जिसने कभी धनी होने के पागलपन में अपने को तो दुख और सुख का संबंध स्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता, नहीं लगाया, उसे तुम निर्धन कैसे कर पाओगे? और जिसने परिस्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता—कुछ भीतरी दशाओं से तुमसे सम्मान नहीं मांगा, तुम उसका अपमान कैसे करोगे? जुड़ा है। तो जब भी तुमने बाहर मांगा, गलत जगह मांगा। और | करोगे कैसे? उपाय कहां है ? उसने तुम्हें सुविधा कहां दी? मांग मात्र बाहर की होती है। भीतर तो मांगोगे किससे, मांगोगे जिसने सम्मान चाहा, उसे तुम अपमानित कर सकते हो। क्या? वहां तो कुछ भी नहीं है-शून्य आकाश है। वहां तो जिसने धन चाहा, उसकी चाह में ही वह निर्धन हो गया। जिसने कोरापन है। वहां तो तुम मुट्ठी बांधना चाहोगे तो बंधेगी नहीं; जीत चाही, उसने पराजय के ढेर लगा लिये। बंध भी जायेगी तो हाथ में कुछ न आयेगा। आकाश को कौन इसलिए महावीर कहते हैं: मोक्ष का अर्थ है इस अनुभव को मुट्ठी में बांध सका है! आत्मा को भी कोई नहीं बांध सका है। तुम्हारे जीवन की स्थिर दशा बना लेना कि न सुख की चाह न तो भीतर तो कुछ पकड़ में आता नहीं, बाहर पकड़ में चीजें आ दुख की चाह, न नर्कन स्वर्ग, कोई चाह नहीं। जाती हैं, तो हम सोचते हैं बाहर होगा। ऐसे बाहर दौड़ते हैं जहां ___ अचाह की दशा मोक्ष है। नहीं है। फिर एक न एक दिन स्वप्न टूटता है और पता चलता है / तो यह तो परिणाम है मोक्ष। मोक्ष यहां घट सकता है। ऐसा यहां नहीं है; हम महादुखी हो जाते हैं। उस महादुख से और बड़े मत सोचना जैसा कि साधारणतः लोग समझते हैं कि मोक्ष मरने सुख की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि जितने हम दुखी होते हैं | के बाद घटता है। जिसको जीते-जी नहीं घटा उसे मरने के बाद उतनी ही तीव्र आकांक्षा होती है कि जल्दी करो, मौत करीब आयी | भी नहीं घटेगा। पहले तो मोक्ष जीवन में उतरता है। इसलिए जाती है, सुखी होना है। ऐसा एक दुष्टचक्र है। दुख में से सुख व्यक्ति पहले जीवन-मुक्त होता है-जीते-जी मुक्त होता है। की आकांक्षा निकलती है; सुख की आकांक्षा में से और बड़ा फिर जो जीते-जी मुक्त हो गया, वह तो मरने के बाद भी मुक्त | Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 रहेगा। मुक्ति एकमात्र संपदा है जिसे मृत्यु नहीं छीन पाती। और पर जाकर कहा कि सुनो, मरना है तो इतना शोरगुल क्यों कर रहे सारी संपदाएं मृत्यु छीन लेती है। | हो? शोरगुल जिसको जिंदा रहना है उसको शोभा देता है। अब इसलिए महावीर कहते हैं: अगर तुम थोड़े भी बुद्धिमान हो, जिसको मरना ही है तो यह इतना क्या विज्ञापन? दरवाजा खोलो थोड़ा हिसाब तो करो, गणित तो बिठाओ! तुम जो इकट्ठा कर रहे और मेरे साथ चलो! तुम्हें मरने की कोई ढंग से व्यवस्था जुटा हो वह सब मौत छीन लेगी। पहले तो कर न पाओगे। कौन कब | देंगे; यह कोई ढंग चुना? अब जब मरना ही है...। कर पाया? और अगर किसी तरह कर भी लिया तो जब तक तुम तब वह मुझे तो धमकी दे नहीं सका कि मर जाऊंगा। अब उसे कर पाओगे, मौत द्वार पर आ जायेगी। करोगे तुम, छीन लेगी | कुछ समझ में न आया तो उसने दरवाजा खोल दिया। मैंने कहा, मौत। यह कैसी नासमझी कर रहे हो? उसे कमा लो, जिसे मौत 'तुम मेरे साथ आओ-नर्मदा पर चलेंगे। 'धुआंधार' ले न छीन सकती होः मुक्त दशा! चैतन्य की अचाह की दशा! | चलेंगे। वहां से तुम कूद जाना। चांद की रात है, जलप्रपात है, चैतन्य का निरभ्र आकाश, जिसमें कोई चाह के बादल नहीं! जब मर ही रहे हो—जिंदगी में तो कुछ नहीं मिला, कम से कम फिर मौत कुछ भी न कर पायेगी। मौत को ही सुंदर बना लो!' मौत एक जगह जाकर हारती है-वह मोक्ष है। और सभी उसने मेरी तरफ बड़ी गौर से और हैरानी से देखा; क्योंकि जो चीजों पर जीत जाती है। अब इसे समझना। भी आये थे, वह सब समझा रहे थे दरवाजे के बाहर से कि बेटा हमारी जीवन की भी आकांक्षा है, इसलिए मौत जीत जाती है। मरना मत! ऐसा मत करना, वैसा मत करना! जीवेषणा! हम जीना चाहते हैं-हर हाल जीना चाहते हैं! हर एक लड़की से उसका प्रेम था। उस लड़की ने विवाह करने से शर्त पूरी करने को राजी हैं, लेकिन जीना चाहते हैं। सड़ते हों, इनकार कर दिया था। तो लोग समझा रहे थेः 'उससे अच्छी गलते हों, मरते हों, खाट पर पड़े हों, अस्पतालों में लटके हों, लड़कियां मिल जायेंगी, उसमें रखा क्या है? तू घबड़ाता क्यों उलटे-सीधे हाथ-पैर बंधे हों लेकिन जीना चाहते हैं। मरना हैं?' मगर वह जिद्द पकड़े हुए था। नहीं चाहते। कैसी भी हालत में आदमी पड़ा हो और उससे पूछो, मैं उसे घर ले आया और मैंने कहा कि रात तझे जो भी करना 'मरना चाहते हो?' वह इनकार करेगा। तुम चकित होओगे, हो, क्योंकि यह आखिरी रात है-कोई फिल्म देखनी है? कोई बहुत-से लोग कहते हैं कि 'अब तो भगवान उठा लो!' वह भी मिठाई खानी है? कुछ आखिरी पत्र वगैरह लिखना? कुछ भी मरना नहीं चाहते। वह भी कहने की बातें कर रहे हैं। तुझे करना हो तो बोल, क्योंकि फिर मौका नहीं रहेगा। और दो / मेरा एक मित्र मरना चाहता था, आत्महत्या करना चाहता था। बजे रात हम उठेंगे और चल पड़ेंगे। तू कूद जाना, हम उसके पिता बहुत घबड़ा गये। इकलौता बेटा था और अकेले आयेंगे। मित्र का कर्तव्य है...कि जो असमय में काम आये वही मुझसे ही उसकी दोस्ती थी, तो वे मुझे बुलाने आये। तो मैंने मित्र है। अब इस वक्त तेरे कोई काम नहीं आ सकता। कहा, 'घबड़ाओ मत! मैं उसे भलीभांति जानता हूं। चिंता न वह सुनता था मेरी बात, बड़े क्रोध से देखता था। बोलता भी करो।' पर वे बोले कि चिंता होती है, उसने दरवाजा बंद कर नहीं था कुछ। दो बजे रात का अलार्म भर दिया। दोनों हम सो लिया है। और अगर दरवाजे पर खटका भी करो तो वह गये। बीच में अलार्म-घड़ी रख ली। जैसे ही दो बजे अलार्म चिल्लाता है, कि 'मैं मर जाऊंगा, दरवाजा नहीं खोलूंगा।' वह | बजा, उसने जल्दी से अलार्म बंद किया। मैंने उसका हाथ घड़ी कुछ कर न ले, सिर न तोड़ दे। कुछ छुरी वगैरह न छिपा रखी पर पकड़ा। मैंने कहा, अलार्म बंद नहीं कर सकते! वह एकदम हो, कुछ जहर वगैरह न रखे हो, कोई गोलियां न ले आया हो! | बैठ गया और चिल्लाया कि तुम मेरे दुश्मन हो कि मेरे दोस्त ? और पिता वैद्य हैं तो और भी डरे कि वह जहर तो हमारे घर में तुम मुझे क्यों मारने में लगे हो? क्या मुझे मरना ही पड़ेगा? रहता ही है, गोलियां भी हैं, दवाइयां भी हैं, वह कुछ ले न गया '...मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम मरना चाहो तो मैं साथ हो उठाकर! देता हूं। तुम जीना चाहो तो मैं साथ देने को तैयार हूं-मेरा काम तो मैं गया। भीड़ लगी थी, मुहल्ला इकट्ठा था। मैंने दरवाजे | साथ देने का है-तुम अगर मरने में सुख पाते हो तो मैं क्यों ९हा 458 Main Education International . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति / बाधा दूं! तुम फिर सोच लो, सुबह कहीं तुम बदल मत जो सौ में से एक मर जाता है, वह भी ऐसा लगता है कि जाना—सूरज ऊगा देखकर, फिर लोग, भीड़ देखकर-फिर भूल-चूक से सफल हो गया। निन्यानबे तो सफल नहीं होते, तुम मौत की बात मत कर लेना। अब तुम तय कर लो। अगर | क्योंकि वह असफलता का इंतजाम पहले से कर लेते हैं। मरने मरना हो तो मर जाओ। अगर जिंदा रहना है तो जिंदा रहो, फिर की चेष्टा, उनकी कुछ घोषणा है जीवन के बाबत। वे किसी और मरने की बात मत करो।' तरह का जीवन चाहते हैं लेकिन जीवन नहीं चाहते, ऐसा नहीं है। वह आदमी अभी भी जिंदा है। वह मुझ पर बहुत नाराज है! जीवन तो चाहते ही हैं और तरह का जीवन चाहते हैं। इस उसने शादी भी कर ली किसी दूसरी स्त्री से। अब तो बच्चे भी हैं जीवन से तप्ति नहीं हो रही है। तो वे इस जीवन के प्रति शिकायत उसके। और कभी मैं गया उस गांव दुबारा तो उसको बुलाता हूं कर रहे हैं मरने की कोशिश में। तो वह बड़ी नाराजगी में आता है। वह प्रसन्न नहीं है। जैसे मैंने | लेकिन कौन किसको रोक सकता है? मरना कोई चाहता नहीं, उसका कोई अहित किया। और मैं वही कर रहा था जो वह करना इसलिए कानून चलता है। अन्यथा मैं नहीं देखता कोई उपाय है चाहता था। कि तुम कैसे किसी आदमी को रोक सकोगे मरने से। जिसको लोग कहते हैं कि मर जायें अब तो। वे यह नहीं कह रहे हैं कि मरना है वह राह खोज लेगा।। मरना चाहते हैं। भूल मत समझ लेना। वे तो सिर्फ यही कह रहे मौत तो व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको कोई राज्य हैं कि जिंदगी थोड़ी बेहतर होनी चाहिए। यह कोई जिंदगी है। छीन नहीं सकता। इस मरने की चाह में ही जीवन की आकांक्षा है। इस मरने की लेकिन कोई मरना ही नहीं चाहता, छीनने का सवाल ही नहीं चाह में भी और जीवन को चूस लेने का भाव है। वे यह कह रहे है। कभी-कभी कोई भूल-चूक से सफल हो जाता है। वह भी | हैं कि अब जिंदगी में कुछ सार तो नहीं मालम पड़ता, क्या पछताता होगा मरकर कि 'अरे, यह मैंने क्या कर लिया। यह फायदा जीने से! लेकिन फिर भी भीतर जीने की आकांक्षा है! जरा मैं अति कर गया। जरा दो कदम ज्यादा उठा लिये, जरा दो अन्यथा कौन किसको मरने से रोक सका है? कौन कब रोक कदम कम उठाने थे।' प्रेत होकर वह भी पछताता होगा। सकता है? महावीर कहते हैं : चूंकि जीवेषणा है, इसलिए मौत तुमसे कुछ दुनिया के सरकारी कानूनों में अगर सबसे मूढ़तापूर्ण कोई है तो छीन पाती है। जिस व्यक्ति की जीवन की आकांक्षा भी न वह आत्महत्या के विपरीत कानून है। वह कुछ समझ के बाहर रही...। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसको मरने की आकांक्षा है। सरकारों को ऐसे कानून नहीं बनाने चाहिए जिनको वह पूरा न | पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसको जीवन की आकांक्षा न रही, करवा सकती हों। आत्महत्या का कानून कोई सरकार पूरा नहीं उसे मरने की आकांक्षा कैसे पैदा होगी? वह तो जो है उसे करवा सकती। जिसको मरना है, उसे कोई कैसे रोक सकता है, स्वीकार कर लेता है। जीवन तो जीवन, मौत तो मौत। उसने थोड़ा सोचो तो! सौ में निन्यानबे लोग जो मरने की चेष्टा करते | अपनी आकांक्षाओं को आरोपित करना बंद कर दिया। जो तथ्य हैं, वे सिर्फ दिखावा करते हैं, मरना नहीं चाहते सौ में से है, स्वीकार कर लेता है। अभी जी रहा है, तो जी रहा है; क्षणभर निन्यानबे मरने की चेष्टा करके बच जाते हैं। वे बचने का पहले बाद सांस बंद हो गई तो वह चुपचाप बंद कर लेगा। वह एक ही इंतजाम कर लेते हैं। आकांक्षा जीने की इतनी प्रगाढ़ है! और दफा ज्यादा सांस लेने की चेष्टा न करेगा। हां! मरने के महले | वह जो एक आदमी मर जाता है, वह भी मरना चाहता था, इसमें मरेगा भी नहीं; क्योंकि उसमें भी जीवेषणा, आकांक्षा, चाह का संदेह है। मर गया, यह दूसरी बात है। कुछ जरा जरूरत से | हिस्सा होता है। ज्यादा इंतजाम कर गया। कुछ समझ न पाया। दस गोलियां मुक्तपुरुष वही है जिसके भीतर से अब जीवन की भी आकांक्षा लेनी थीं, बीस ले लीं। कुछ भूल-चूक गणित में हो गई। नहीं रही। फिर मौत कोई परिणाम नहीं ला पाती। सोचती थी पत्नी कि पति सांझ घर आ जायेंगे, वे दो दिन तक | और जहां मौत व्यर्थ हो जाती है, वही कसौटी है कि तुमने परम नहीं आये और वह रात पड़ी-पड़ी मर गई। जीवन को जाना। उस परम जीवन का नाम महावीर मोक्ष रखते हैं 459 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः या निर्वाण। 'दर्शन' का अर्थ है : देखने की क्षमता; द्रष्टा, साक्षी। लेकिन बुद्ध और महावीर दोनों ने निर्वाण शब्द का उपयोग 'ज्ञान' का अर्थ है : साक्षी को जो दिखाई पड़ता है; द्रष्टा के जो अलग-अलग अर्थों में किया है। बुद्ध के निर्वाण का ठीक वही | अनुभव में आता है। और 'चारित्र्य' का अर्थ है: जो जागा, अर्थ होता है जो दीये के बुझने का होता है। दीये को फूंककर बुझा जिसने देखा, जिसने जाना—उस जानने के कारण जो जीवन में देते हैं, उसको हम कहते हैं दीये का निर्वाण हो गया। महावीर के उतर आता है। निर्वाण शब्द का अर्थ अलग है, क्योंकि उनकी जीवन-दृष्टि | तो पहली तो घटना घटती है साक्षी-भाव में दर्शन की। दूसरी अलग है। महावीर कहते हैं, दीया नहीं बुझता। दीया तो बुझेगा | घटना घटती है बोध की, ज्ञान की-समझ में आया। तीसरी ही नहीं कभी; यह ज्योति तो सदा रहनेवाली है। सिर्फ दीये की | घटना घटती है चारित्र्य की। क्योंकि जो समझ में आ गया, ज्योति से धुआं नहीं उठता। उससे विपरीत करोगे कैसे? 'वाण' का अर्थ होता है वासना। 'निब्बाण' का अर्थ होता अगर तुम जैन मुनियों से पूछो तो वे अकसर उलटी व्याख्या है: वासनारहित हो जाना। तुमने देखा, ईंधन जलाते हो : लपटें कर रहे हैं। वे चरित्र को पहले रखते हैं जबकि किसी सूत्र में भी उठती हैं, धुआं भी उठता है। अगर ईंधन गीला हो तो धुआं महावीर ने चरित्र को पहले नहीं रखा; चरित्र को अंतिम रखा है। बहुत उठता है; अगर ईंधन सूखा हो तो कम उठता है। अगर पहला दर्शन, फिर ज्ञान, फिर चरित्र। अगर जैन मुनि ईंधन बिलकुल सूखा हो तो धुआं उठ ही नहीं सकता; क्योंकि वह कहता है: 'चरित्र! पहले चरित्र को सुधारो। जब चरित्र धुआं आग के कारण नहीं उठता, लकड़ी के गीलेपन के कारण सुधरेगा तो ज्ञान होगा। चरित्रहीन को कहीं ज्ञान हुआ है? और उठता है; लकड़ी के कारण नहीं उठता, वह जो लकड़ी में पानी | जब ज्ञान होगा तब कहीं दर्शन उपलब्ध होगा।' उसने सारी बात छिपा है, उसके कारण उठता है। उलटी कर ली। तो महावीर कहते हैं कि जब ऐसी सूखे ईंधन जैसी व्यक्ति की लेकिन महावीर के शब्दों में कहीं भी चरित्र पहले नहीं चेतना हो जाती है, जिसमें वासना का कोई गीलापन नहीं रहा, | आता-आ नहीं सकता। पहले तो मूर्छा तोड़नी जरूरी है। | सूख गई पोर-पोर, वासना-मात्र सूख गई, हरी वासना जरा भी दर्शन यानी मूर्छा का टूट जाना; देखने की क्षमता आ जाना; न रही-तब लपट तो उठती है, लेकिन धुआं नहीं उठता। आंख का खुल जाना। आंख खुली कि अनुभव में आना शुरू उस निर्धूम लपट का नाम निर्वाण है। वासना के गिर जाने का होता है कि क्या है सत्य। वह जो 'क्या है सत्य', उसकी नाम निर्वाण। अनुभूति है, उसका नाम ज्ञान है। बुद्ध के हिसाब से तो आत्मा के मिट जाने का नाम निर्वाण, तो ज्ञान शास्त्र से नहीं मिल सकता। महावीर के हिसाब से वासना के मिट जाने का नाम निर्वाण। इसलिए महावीर ने ज्ञान को दर्शन के बाद रखा है। ज्ञान तो ' 'मार्ग है उपाय, मोक्ष है फल।' और इन दो बातों में, महावीर मिल सकता है केवल ध्यान से, शास्त्र से नहीं। और चारित्र्य कहते हैं, सारी बात हो गई। कभी भी अभ्यास करने से नहीं पैदा हो सकता। अभ्यास से तो 'दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तथा तप को जिनेंद्रदेव ने मोक्ष का मार्ग | जो पैदा होता है, वह आदत है। कहा है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन भावों चारित्र्य तो तब पैदा होता है जब तुम्हारे भीतर दृष्टि इतनी सघन से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' होती है कि तुम उसके विपरीत नहीं चल पाते।। फिर मार्ग क्या है? मैंने सुना है, एक बिच्छू ने एक केंकड़े से कहा कि मुझे नदी के 'दंसणाणचरित्ताणि...' उस पार जाना है, मित्र! पार करवा दो! उस केंकड़े ने कहा, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप-ये शब्द बड़े बहुमूल्य हैं। 'तुमने मुझे नासमझ समझा है? बीच रास्ते में मेरी पीठ पर बैठे महावीर का सारा नवनीत इन तीन शब्दों में, त्रिरत्न-दर्शन, डंक मार दोगे, डूब जाऊंगा, मर जाऊंगा।' / | ज्ञान, चरित्र में समाया हुआ है। बिच्छू ने कहा, 'मालूम होता है तर्क में तुम बहुत कमजोर हो। 4600 . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति तुमने ठीक तर्क-शास्त्र का शिक्षण नहीं लिया। अरे नासमझ! समझ लेना। दर्शन का अर्थ फिलासफी नहीं है। दर्शन का अर्थ जब मैं पीठ पर तेरी बैठा हूं और डंक मारूंगा तो तू डूबेगा वह तो है: देखने की क्षमता; तुम्हारी आंखों का निष्कलुष हो जाना; ठीक, मैं भी तो डूबूंगा! मैं भी तो मरूंगा! तो यह बात तर्क के तुम ऐसे देख सको कि देखने में तुम अपने भावों को मिश्रित न विपरीत है। ऐसा मैं कैसे कर सकूँगा? तेरी ही मौत होती होती करो; तुम निर्भाव से देख सको; तटस्थ, निष्पक्ष, निर्विकार, तुम तो समझ में आ सकता था; तेरी मौत तो मेरी मौत भी बनेगी। अपने को बीच में न डालो; तुम अपने को बिना डाले देख इसलिए यह बात तर्क के अनुकूल नहीं है।' केंकड़े ने कहा, | | सको। तो फिर तुम्हारे जीवन में दर्शन उपलब्ध होगा। 'बात तो ठीक है। तर्क के बिलकुल अनुकूल नहीं है। आओ क्रोध आये, क्रोध को गौर से देखना। क्रोध को रोककर चरित्र बैठ जाओ!' बैठ गया पीठ पर बिच्छ, चल पड़े दोनों और बीच निर्मित करने की कोशिश मत करना। क्रोध को गौर से देखना। मझधार में जो होना था हुआ। बिच्छु ने डंक मारा। जब डंक | इतने गौर से देखना कि तुम्हें क्रोध का सारा अर्थ समझ में आ मारा और दोनों डूबने लगे तो मरते-मरते केंकड़े ने पूछा कि जाये। इतने गौर से देखना कि तुम क्रोध से पृथक और अलग महानुभाव, तर्क का क्या हुआ? उस बिच्छू ने कहा, 'तर्क का साक्षी हो, यह तुम्हारी अनुभूति में आ जाये। इतने गौर से देखना इससे क्या संबंध है? यह मेरा चरित्र है।' कि क्रोध वहां पड़ा रह जाये वस्तु की तरह, तुम यहां द्रष्टा की लोग जैसा जी रहे हैं वैसा जीने को मजबर हैं। उनके पास दष्टि तरह खडे रह जाओ: तम्हारे दोनों के बीच का सेत टट जाये। ही वैसी जीने की है। तुम सोचते हो, कोई आदमी शराब पीता है, दर्शन का अर्थ होता है सारे सेतुओं का टूट जाना। व्यक्ति इसलिए मूर्छित है। असलियत और है। वह मूर्छित है, अलिप्त खड़ा होकर देखता है-क्रोध है तो क्रोध को; काम है| इसलिए शराब पीता है। तुम सोचते हो, एक आदमी मांसाहार तो काम को; हिंसा है तो हिंसा को; प्रेम है तो प्रेम को; राग है तो करता है, इसलिए हिंसक है। तुम गलत सोचते हो। वह आदमी राग को अलिप्त भाव से देखता है, सिर्फ देखता है। जिसको हिंसक है, इसलिए मांसाहार करता है। अगर तुमने ऐसा सोचा | कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश; जिसको बुद्ध ने सम्यक कि मांसाहार करने के कारण हिंसक है तो तुम्हारी चेष्टा यह होगी स्मृति कहा है, ठीक-ठीक स्मृति, जिसको गुरजिएफ ने कि मांसाहार छुड़ा दो। मांसाहार तो छूट जायेगा, लेकिन अगर सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-बोध; उसी को महावीर दर्शन वह हिंसक होने के कारण मांसाहारी था, तो हिंसा नहीं छूटेगी। कहते हैं। इधर दर्शन की क्षमता घनी होगी कि दर्शन से जो-जो फिर हिंसा नये मार्ग खोज लेगी। किसी और तरफ से हिंसक हो | तुम्हें दिखाई पड़ेगा, वह जो दर्शन का सार इकट्ठा होने लगेगा वह जायेगा वह। किसी और बहाने से हिंसा करेगा। है ज्ञान। तो एक तो ज्ञान है जो शास्त्र से मिलता है और एक ज्ञान ध्यान रखना, हम जैसे हैं वह हमारे भीतरी चित्त की अवस्था के है जो जीवन के साक्षी-भाव से मिलता है। उसको महावीर ज्ञान कारण है। कहते हैं। पढ़ लोगे शास्त्र में, उससे क्या होगा? अकसर ऐसा बाहर से भीतर को नहीं बदला जा सकता। आचरण से अंतस हुआ है। नहीं बदला जा सकता। लेकिन अंतस बदल जाये तो आचरण | अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर तत्क्षण बदलना शुरू हो जाता है। क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग। __ महावीर का सूत्र बिलकुल साफ है : दर्शन, ज्ञान, चरित्र। इन | अहले-दानिश आम हैं-शास्त्रों के जानकार बहुत हैं। तीन को जैनों ने त्रिरत्न कहा है। ये उनकी तीन मणियां हैं, जिन तथाकथित बुद्धिमान बहत हैं। तथाकथित बद्धिशाली बहत हैं। पर मोक्ष का भवन निर्मित होता है। ये आधार हैं। और ये तीन कमयाब हैं अहले-नजर-लेकिन जिनके पास द्रष्टा की दृष्टि रत्न जिसके पास हैं उसके पास सब आ गया-सारी संपदा सारे है, अहले-नजर, जिनके पास शुद्ध आंख है, देखने की क्षमता जगत की। त्रिलोक की सारी संपदा उसके पास आ गई। है, ऐसे बहुत-बहुत विरले हैं। दर्शन उपलब्ध होता है-जागरण से, अप्रमत्तता से, होश से। अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर दर्शन का अर्थ तुम जैन दर्शन, हिंदू दर्शन, बौद्ध दर्शन, ऐसा मत क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग। 461 | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 अगर तुम्हारे जीवन की प्याली अमृत से बिना भरी रह गई तो | हैं, बाहर निकालते हैं। कुछ आश्चर्य नहीं; क्योंकि तुमने शास्त्रों से ही जीवन की प्याली तपश्चर्या का अर्थ है : इस जीवन-दृष्टि का ठे को भरना चाहा। शास्त्रों से ही तुमने सोचा कि तुम बुद्धिमान हो | जाना। सुख को बुलाना नहीं, कोई निमंत्रण नहीं लिखना और जाओगे। तो अहले-दानिश हो गये, तथाकथित बुद्धिमान हो | दुख आ जाये तो जो आ गया बिना बुलाये, अतिथि देव है, गये। कंठस्थ हो गये सत्य। लेकिन कंठस्थ सत्य, सत्य नहीं | उसको स्वीकार कर लेना। है-मात्र थोथे सिद्धांत हैं। प्राण कौन डालेगा उनमें? प्राण तो तो तप का अर्थ दुख पैदा करना नहीं है; लेकिन दुख जो तुमने व्यक्ति को स्वयं डालने होते हैं। इसे याद रखना। जन्मों-जन्मों में अर्जित किया है, वह आयेगा। उसके साथ क्या जिसे तुम पाओ वही सत्य है। जिसे तुमने नहीं पाया वह सत्य | रुख अपनाओगे? तप एक रुख है, दृष्टि है। तप यह कहता है, नहीं हो सकता: वह सत्य के संबंध में कोई सिद्धांत होगा। ऐसा मैंने दुख के बीज बोये थे, अब फसल काटने का वक्त आ गया ही समझो कि पाक-शास्त्र पढ़ते रहो, पढ़ते रहो, इससे न तो | तो मैं काटूंगा। यह फसल कौन काटेगा? दुख के बीज मैंने बोये भूख मिटेगी, न जीवन पुष्ट होगा। रोटी पकानी पड़ेगी। आटा | थे तो फसल भी मुझे ही काटनी है। तो अब रो-रोकर क्या गूंथना पड़ेगा। चूल्हा जलाना पड़ेगा। इतना ही नहीं, फिर रोटी काटनी ! अब स्वीकार-भाव से काट लेनी है। पचानी पड़ेगी। रोटी भी बन जाये तो भी कुछ काम नहीं आती, | इसे खयाल रखना; नहीं तो भ्रांति क्या है कि जो लोग तपस्वी जब तक कि पचाने की क्षमता न हो, जब तक रोटी पचे न और | बनते हैं, वे सोचते हैं, अभी सुख को लिखते थे चिट्ठियां, अब लहू में रूपांतरित न हो जाये, हड्डी, मांस-मज्जा न बने, तब तक दुख को लिखो! मगर चिट्ठियां लिखना जारी रहता है। बुलावा किस काम की? भेजते ही रहते हैं। पहले सुख को पकड़ते थे; अब वे सोचते हैं, दर्शन की भट्टी में ज्ञान की रोटी पकती है। और ज्ञान की रोटी दुख को पकड़ो। पहले सुख को न जाने देते थे; अब दुख जाने को जब तुम पचाते हो और ज्ञान की रोटी जब तुम्हारा खून, | लगे तो वे कहते हैं, 'मत जाओ! तुम्हारे बिना हम कैसे रहेंगे।' मांस-मज्जा बन जाती है, तो चारित्र्य। चरित्र आखिरी बात है। लेकिन यह तो विकृति हो गई। यह तो रोग हो गया। यह तो सबसे पहले तो शून्य आकाश में दर्शन घटता है। फिर दर्शन | पुराना रोग बदला तो नया रोग पकड़ गया। उतरता है तुम्हारी अंतरात्मा में, ज्ञान बनता है। फिर ज्ञान तुम्हारे तप का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि जो आये दुख तो निश्चित जीवन में अनस्यूत हो जाता है। तब चारित्र्य बनता है। ये त्रिरत्न हमने कमाया होगा; बिना कमाये कुछ भी आता नहीं। तो हमने और तप। किसी न किसी रूप में उसे बुलाया होगा। बिना बुलाये कुछ भी 'तप' शब्द भी समझने जैसा है। तप का अर्थ अपने को दुख आता नहीं। हमने सुख मानकर ही बुलाया होगा; लेकिन वह देना नहीं होता। तपस्वी का अर्थ अपने को सतानेवाला नहीं है, | हमारी मान्यता भ्रांत थी। जिसको हमने सुख कहकर पुकारा था, मेसोचिस्ट नहीं है। तप का अर्थ होता है : दुख आये तो उसे वह दुख का नाम था। आ गया दुख, अब इसे स्वीकार कर सहिष्णुता से स्वीकार करना। तप का अर्थ है: दुख आये तो उसे | लेना। इसे धक्के नहीं देना, इनकार दुश्मन की तरह दुत्कारना नहीं; उसे भी मित्र की तरह स्वीकार साक्षी-भाव रखना है। कर लेना। साधारणतः हम सुख को तो बुलाते हैं, दुख को दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप जिनेंद्रदेव ने मोक्ष के मार्ग कहे। दुत्कारते हैं। तप का अर्थ होता है : सुख को तो बुलाना मत; आ | शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं...।' गये दुख को स्वीकार कर लेना। यह बड़ी क्रांतिकारी बात है : 'शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के तप हमसे ठीक उलटी व्यवस्था है। अभी हम कहते हैं, सुख | मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' आये, चिट्ठियां लिखते हैं सुख को कि आओ, निमंत्रण भेजते | ___ अच्छा करूं, बुरा न करूं, पुण्य करूं, पाप न करूं-ये शुभ हैं। और दुख को, बिना बुलाया भी आ जाये-बिना बुलाया ही | भाव हैं। किसी को दुख न दं, सुख दूं-ये शुभ भाव हैं। मुझसे आता है, क्योंकि कौन दुख को बुलाता है-उसे हम धक्का देते हिंसा न हो, अहिंसा हो; लोभ न हो, दान हो; क्रोध न हो, दया 462 Main Education International Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति | हो, करुणा हो-ये शुभ भाव हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, | क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। मुझसे कुछ हो, इसमें ही बंधन है। बुरे का तो बंधन होता ही है, छरे की तीक्ष्ण धारा की भांति, जैसे कोई पतले छरे की धार पर भले का भी बंधन हो जाता है। लोभी तो बंधता ही है, दानी भी चलता हो, ऐसा मार्ग है। शुभ को भी एक तरफ छोड़ देना, बंध जाता है। और पापी तो बंधता ही है, पुण्यात्मा भी बंध जाता अशुभ को भी दूसरी तरफ छोड़ देना। संयमी का अर्थ है जो है, यद्यपि पुण्यात्मा की जंजीरें सोने की होती हैं। | दोनों के मध्य चलने में कुशल हो गया; जो चुनाव नहीं करता, इसलिए महावीर कहते हैं, शुभ और अशुभ भाव मोक्ष का च्वायसलेस, विकल्परहित, निर्विकल्प चलता है; जो मध्य में मार्ग नहीं हैं। दोनों से मुक्त होना है। अशुभ को तो छोड़ना ही सम्हलकर चलता है। है, शुभ को भी छोड़ना है। असाधु को तो छोड़ना ही है, साधु के हिंदू शास्त्र कहते हैं : मध्यं अभयम्! जो मध्य में है उसे कोई भी पार जाना है। एक ऐसी दशा चाहिए, जो सभी दशाओं का भय नहीं। इधर-उधर हुए कि भय शुरू हुआ। जरा भी झुके अतिक्रमण कर जाती हो। एक ऐसी दशा, जिसका लगाव, बायें, जरा भी झुके दायें, तो भय शुरू हुआ। न तो वामपंथी और आग्रह किसी भी बात में न हो। न दक्षिणपंथी, ठीक मध्य में, जो अपने को सम्हाल ले। . 'इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' कठिन लगेगा, क्योंकि हमें आसान लगता है: अशुभ छोड़ना दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर है, कोई हर्जा नहीं है; शुभ को पकड़ लेंगे! क्रोध छोड़ना है, छोड़ दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। | देंगे: करुणा को पकड़ लेंगे। लेकिन कछ पकड़ने को तो होगा। अगर तुम गौर से देखो तो मित्रों ने इतने कष्ट दिये हैं कि अब पकड़ने की हमारी पुरानी आदत है। दुश्मनों की क्या शिकायत करनी! महावीर कहते हैं, अगर गौर महावीर कहते हैं, पकड़ ही संसार है। और सारी पकड़ का से देखो तो शुभ आकांक्षाओं से ही पटा पड़ा है नर्क का मार्ग। छूट जाना, मुट्ठी का खुल जाना ही मोक्ष है। अशुभ आकांक्षाओं की तो बात ही छोड़ो; उनकी तो शिकायत | 'अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग क्या करनी! अगर कोई क्रोधी बंधन में पड़ा है तो यह तो अर्थात, भक्ति आदि शुभ भाव से दुख-मुक्ति होती है तो वह भी स्वाभाविक है; लेकिन चेष्टा करके जो दया कर रहा है, वह भी राग का अंश होने से पर-समयरत होता है।' बंधन में पड़ जाता है। वहां भी अहंकार निर्मित होता है महावीर भक्ति को भी बंधन का कारण कह रहे हैं। यह भी दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर अज्ञानवश तथाकथित बुद्धिमान आदमी भी ऐसा मानने लगे कि दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। शुद्ध सम्प्रयोग, शुद्ध भक्ति, तो क्यों बांधेगी, तो वह भी गलत शुभ ने ही इस बुरी तरह सताया है, अशुभ की तो शिकायत है। शुभ भक्ति से भी राग का ही अंश निर्मित होता है। क्या करें। अपनों ने इस तरह सताया है कि परायों की तो बात ही महावीर का मार्ग संकल्प का मार्ग है। वहां भक्ति के लिए भी क्या करें! उनकी शिकायत करने जैसी भी नहीं रही। जगह नहीं है। तुमने देखा, तुम्हारे शुभ भावों ने ही तुम्हें कितना सताया है। भगवान के लिए जगह नहीं है; भक्ति के लिए तो जगह कैसे प्रेम ने कितना सताया है, यह तो देखो। फिर घणा की सोचना। हो सकती है। तुम किसी के लिए अच्छा करना चाहते थे, उसके कारण कितनी ऋग्वेद में ऋषि ने पूछा है: झंझट में पड़े हो। फिर तुम किसी के लिए बुरा करना चाहते थे, कस्मै देवाय हविषा विधेम। उसकी सोचो। किस देवता को हम अपनी पूजा-अर्चना चढ़ायें, किस देवता महावीर कहते हैं, तुम अच्छा-बुरा दोनों ही करनेवाले नहीं हो, | की उपासना करें? लेकिन महावीर कहते हैं, जहां तक उपासना ऐसे साक्षी बन जाओ। वहां से मोक्ष का द्वार खुलता है। अच्छा है वहां तक तो किसी दूसरे से बंधन हो जायेगा। पर-समयरत, और बुरा तो कर्म का ही मार्ग है। और कर्म तो बांधता है। न शुभ | दूसरे पर निर्भर हो जाओगे। परमात्मा होगा तो परतंत्रता होगी। न अशुभ-दोनों के मध्य में संतुलित! और परतंत्रता होगी तो बंधन निर्मित रहेगा। तुम स्वतंत्र कैसे हो 1463 . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 जाओगे? तम परिपूर्ण मुक्त कैसे हो सकोगे? हुआ है, वह किसी परमात्मा के खेल की बात बन जाये तो थोड़ी महावीर के हिसाब में परमात्मा का होना मोक्ष के विपरीत है।। ज्यादती हो गई। जन्मों-जन्मों की चेष्टाओं के बाद जिसे पाया या तो मोक्ष हो सकता है या परमात्मा हो सकता है। अगर | जाता है, उसे पाकर अगर जरा-सी उसकी मर्जी के बदलने से परमात्मा है तो मोक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि परमात्मा तो | खोना पड़े, तो वह उपलब्धि उपलब्धि के योग्य न रही। फिर निरंकुश होगा। वह तो नियम के ऊपर होगा। महावीर कहते हैं, जगत एक पागलपन है। नियम के ऊपर किसी का भी होना खतरनाक है, क्योंकि फिर | 'शुद्ध सम्प्रयोग अर्थात भक्ति आदि शुभ भाव से दुख मुक्ति उसकी मर्जी ! जैसा हिंदू कहते हैं, परमात्मा की लीला, इच्छा! होती है, ऐसा अगर कोई मानता हो तो वह गलत मानता है, उसने संसार बनाया। यह महावीर को बर्दाश्त के बाहर है। / क्योंकि वह भी राग का अंश है।' महावीर कहते हैं, इसका तो अर्थ हुआ कि जो लोग मुक्त हो अगर भक्तों की बात सुनें तो लगता भी है कि राग का अंश। गये, अगर परमात्मा की लीला हो जाये, इच्छा हो जाये तो उनको | शुद्ध राग है, बड़ा श्रेष्ठ राग है, जरा भी दूषित नहीं है संसार वापस संसार में भेजा जा सकता है। तो ऐसे मोक्ष का तो कोई से-लेकिन फिर भी राग तो है ही! मूल्य न रहा। अगर परमात्मा की मर्जी से संसार निर्मित होता है | उसके मजकूर के सिवा 'बेदार' तो मोक्ष लेकर भी हम क्या करेंगे? उसकी मर्जी जिस दिन बदल और कुछ बात खुश नहीं आती। जाये, आज्ञा दे दे कि चलो मोक्ष खाली करो, संसार वापस भक्त कहता है, भगवान की याद के सिवाय और कछ बात में लौटो! अगर खेल ही है और वह निरंकुश है और वह नियम के मजा नहीं आता। लेकिन इसका अर्थ तो साफ हुआ कि मजा ऊपर है, तो फिर व्यर्थ बात हो गई। अभी अपना नहीं है-उसकी याद! तो कहीं निर्भर है, पर है, महावीर पूछते हैं कि परमात्मा नियम के ऊपर है, या नियम अपने से बाहर है। परमात्मा के ऊपर है? अगर नियम परमात्मा के ऊपर है तो शाम से आ रही है याद तेरी परमात्मा परमात्मा नहीं। फिर नियम ही परमात्मा है। और अगर जाम छलका रही है याद तेरी परमात्मा नियम के ऊपर है तो नियम सब बकवास है। फिर झनझना-सा रहा है साजे-खयाल नियम का क्या अर्थ? उसकी निरंकुश इच्छा है; जब वह जैसा गीत-से गा रही है याद तेरी। चाहे कर दे। . लेकिन भक्त वैसे ही शब्दों का उपयोग करता है परमात्मा के इसलिए महावीर कहते हैं, अगर जगत में व्यवस्था लिए जो वह प्रेयसी के लिए करता है या प्रेमी के लिए करता है। चाहिए...अब तुम चकित होओगे कि दृष्टियां कितनी मौलिक फर्क नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है कि जो हमारा राग रूप से भिन्न हो सकती हैं! हिंदु कहते हैं, अगर जगत में मनुष्यों के प्रति था, उसी राग को हम परमात्मा की तरफ आरोपित व्यवस्था चाहिए तो परमात्मा चाहिए। क्योंकि बिना परमात्मा के कर देते हैं। कौन व्यवस्था करेगा? अराजकता हो जायेगी। और महावीर शाम से आ रही है याद तेरी कहते हैं, अगर परमात्मा हुआ तो अराजकता हो जायेगी। जाम छलका रही है याद तेरी क्योंकि फिर व्यवस्था कैसे सम्हलेगी? अगर नियम के ऊपर झनझना-सा रहा है साजे-खयाल कोई बैठा है जो नियम को भी तोड़-मरोड़ कर सकता है तो गीत-से गा रही है याद तेरी। अव्यवस्था हो जायेगी। महावीर परमात्मा को उसी कारण से | यह हम प्रेयसी के लिए भी कह सकते हैं और परमात्मा के लिए इनकार करते हैं जिस कारण से हिंदू स्वीकार करते हैं। भी कह सकते हैं। का अर्थ ही है कि एक ऐसी चित्त की दशा, एक ऐसे इसलिए सूफियों के वचन दोहरे अर्थ किये जा सकते हैं। या तो | चैतन्य की दशा जिसको फिर वापस न लौटाया जा सके। तुम उनका अर्थ कर लो सांसारिक, तो प्रेयसी के लिए कहे गये अन्यथा इतने श्रम, इतनी तपश्चर्या, इतनी चेष्टा से जो उपलब्ध | हैं; या अर्थ कर लो आध्यात्मिक, तो परमात्मा के लिए कहे गये 464 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEEALLL जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति हैं। लेकिन शब्द वही के वही हैं। उमर खैयाम की रुबाइयां इसी -हे धर्मगुरु! मुझे प्रार्थना के समय शराब पीने से मत रोक! तरह भ्रष्ट हुईं। जिस व्यक्ति ने पहली दफा अनुवाद किया कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिद्क लाना है। फिटज़राल्ड ने, अंग्रेजी में, उसने समझा कि ये मधु-गीत हैं, -थोड़ी-सी सचाई तो होनी चाहिए, नहीं तो प्रार्थना झूठी हो शराब की प्रशंसा में गाये गए गीत हैं। लेकिन उमर खैयाम शराब जायेगी। कहता है परमात्मा की याद को, उसकी स्मृति को, जिक्र को। अब या तो हम समझ लें कि यह बाहर की शराब है या हम और जिन साकियों की वह बात करता है, वह वही परमात्मा है। समझ लें कि किसी भीतर की शराब है। लेकिन महावीर कहते और जिस मधु के ढालने की बात कर रहा है, वह जीवन-रस है। हैं, शराब शराब है। तुम इसे कितना ही ऊंचा उठाओ, और लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिटज़राल्ड ने अनुवाद कितने ही शुद्ध अंगूरों से निचोड़ो, शराब शराब है। और नशा दिया। उसने समझा कि यह सब प्रेयसी, साकी, मधुशाला-ये नशा है। यह किसी की सुंदर सूरत को देखकर छा जाये या यह सब संसार की ही चीजें हैं। | परमात्मा के फूल और पक्षियों के गीत सुनकर आ जाये, इससे दोनों के लिए उपयोग हो सकते हैं। क्या फर्क पड़ता है? लेकिन तुम्हारा राग अभी भी बाहर है। चलो छिया-छी हो अंतर में सुंदर स्त्री बाहर है, सुंदर पुरुष बाहर है, सुंदर फूल भी बाहर तुम चंदा हैं और सुंदर परमात्मा का आकाश और चांद तारे भी बाहर मैं रात सुहागन चमक-चमक उढे आंगन में 'राग का अंश होने से भक्ति भी पर-समयरत है।' चलो छिया-छी हो अंतर में वह दूसरे में लगी। दूसरे में उत्सुक है। अपनी तरफ नहीं लौट भक्त जो भाषा बोलते हैं—मीरा की भाषा, चैतन्य की भाषा रही है। दूसरे की तरफ बह रही है। और दूसरा बंधन है। या कबीर की-उसमें कठिनाई मालूम होगी। | इसलिए महावीर भक्ति को भी जगह न देंगे। और अगर हम कबीर कहते हैं, मैं राम की दुलहन हो गया! आखिर भाषा तो भक्तों की बातें सुनें तो महावीर की बात में सचाई भी मालूम इसी जगत के रागात्मक शब्दों का उपयोग कर रही है। मीरा पड़ती है, निश्चित सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि भक्त कहती है, 'सेज को तैयार किया है. तम कब आओगे?' 'सेज | भगवान से ऐसी बातें करता है। जैसे प्रेमी एक-दूसरे से बातें को तैयार किया है'-यह तो सुहागरात की ही बात हो गई। करते हैं। मान-मनौवल भी चलती है। रूठना-मनाना भी तो महावीर के कहने में सार्थकता भी है कि कितना ही शुद्ध राग चलता है। शिकवा-शिकायत भी चलती हैं। हो जाये, कितना ही शुद्ध सम्प्रयोग, कितनी ही शुद्ध भक्ति हो, मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था लेकिन उसमें स्वर तो संसार का ही होगा। उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह भक्त भगवान से कहता है: कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिदक लाना है। मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था-तुम्हारे सूफी कहते हैं कि हमें प्रार्थना के वक्त पीने से मत रोको, उपेक्षा-भाव पर मुझे नाराज होना चाहिए: चिल्लाता रहता हूँ, क्योंकि प्रार्थना के लिए थोड़ी सचाई लानी है। और बिना पीए तुम्हारा कोई उत्तर भी नहीं पाता... कहीं सचाई हुई? बिना पीए तो आदमी झूठ और धोखे दिये / मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था चला जाता है। इसलिए तो शराबी की बातें सुनो, वह ज्यादा उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? ईमानदारी की होती है। वह सच बोलने लगता है। फिक्र ही न भक्त तो बात करता है, प्रार्थना करता है, बोलता है, रोता है रही झूठ बोलने की। झूठ याद कौन रखे! फायदा, हानि, कभी, कभी भगवान पर नाराज भी हो जाता है। खफा भी हो | लाभ-कुछ भी न रहा। जाता है, दो-चार दिन प्रार्थना भी नहीं करता, बंद कर देता है सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह! द्वार-दरवाजे कि पड़े रहो। फिर मना भी लेता है। 1465 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः लेकिन महावीर कहेंगे, यह सारा खेल तो कल्पना का है। यह | समर्पण और संकल्प में समन्वय स्थापित कर लें? वही तो तमने तो राग का ही है। इसमें तो दूसरा अभी भी मौजूद है। माना कि | किया है। हो सकता है, यह सवाल ही नहीं है—वही हुआ है। शुद्ध हुआ, शुभ हुआ, किसी को हानि नहीं हो रही है इससे, | लेकिन समन्वय हो नहीं सकता। सिर्फ समझौता हो जाता है। तो लाभ ही हो रहा है लेकिन फिर भी, जहां तक लाभ हो रहा है | तुम दोनों बातों का तालमेल बिठा लेते हो। लेकिन उस तालमेल वहां तक हानि भी जुड़ी है। इसके भी पार जाना है। बिठालने में दोनों मार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं। महावीर के लिए भाव भी बंधन है। इसलिए महावीर का मार्ग | ऐसा ही समझो, बैलगाड़ी से कोई यात्रा करता है, कोई कार से शुद्ध निर्भाव का मार्ग है। जैन भी जैन मंदिरों में जो कर रहे हैं, | यात्रा करता है, कोई रेलगाड़ी से, कोई हवाई जहाज से सब महावीर लौटें तो नाराज होंगे। कहेंगे, 'तुम यह क्या कर रहे | पहुंच जाते हैं। सबके मार्ग अलग हैं। रेलगाड़ी रेल की पटरियों हो? यही सब तो मैंने मना किया था।' महावीर की ही मूर्ति के पर दौड़ती है। बैलगाड़ी को पटरियों पर दौड़ने की कोई जरूरत सामने बैठे हैं साज-शृंगार लगाकर, कि हे प्रभु! महावीर से ही | नहीं है, ऊबड़-खाबड़ जंगली पथ से भी गुजर जाती है। कार बातें चल रही हैं। महावीर से बात चलाने का उपाय नहीं है। वहां से न गुजर सकेगी। अब ये सब रास्ते और ये सब वाहन अगर महावीर की मानते हो, अगर महावीर के मार्ग को शुद्ध | ठीक हैं। लेकिन तुमने अगर कहा, समन्वय स्थापित कर लें कि रखना है. तो महावीर से बातें चलाने का उपाय नहीं है। सच तो चलो बैलों को लेकर कार में जोत दें, कि कार का इंजिन बैलगाड़ी जा भी जैन धर्म में संभव नहीं हो सकती प्रार्थना की कोई में रख दें, कि रेल के चक्के बैलगाड़ी में ठोक दें और बैलगाड़ी के गुंजाइश नहीं है; भक्ति का कोई मार्ग नहीं है। लेकिन मंदिर चक्के रेल में ठोक दें तो समन्वय स्थापित नहीं होगा सिर्फ बनते हैं, पूजा होती है, प्रतिमा खड़ी होती है। इतना ही होगा कि कोई भी वाहन चलाने में, पहुंचाने में समर्थ न बात असल ऐसी है कि जिन्हें भक्त होना चाहिए था, वह अगर रह जायेगा। यह समन्वय नहीं हुआ। यह तुमने रास्ते ही खराब जैन घरों में पैदा हो जाते हैं तो वह क्या करें। खुद तो भक्त होने कर लिए, वाहन ही नष्ट कर दिए। का उपाय नहीं है, महावीर को ही भ्रष्ट कर लेते हैं। प्रत्येक मार्ग पर सुनिश्चित चिह्न हैं और प्रत्येक मार्ग की अपनी दुनिया के सभी धर्म भ्रष्ट हो गये हैं, संकर हो गये हैं; क्योंकि सुनिश्चित दिशा है। तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं लोग जन्मों के कारण धर्मों में हैं। और यह बड़ी खतरनाक बात तो तुम खयाल रखना : मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात है। मैं तो चाहूंगा, महावीर का धर्म शुद्ध हो। क्योंकि शुद्ध हो तो तुम्हारी समझ में आ जाये; फिर जिसको वह यात्रा सुगम मालूम कछ थोड़े-से लोग जो संकल्प से पहुंच सकते हैं, उनका रास्ता पड़े वह चल सके। वहां भक्ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों सीधा-साफ हो। लेकिन वह शुद्ध तभी हो सकता है, जब लोग से कुछ लेना-देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्टा उसे स्वयं चुनें, जन्म के कारण धर्म आरोपित न हो। तो कृष्ण के करना, क्योंकि वही निर्भाव ही वहां गाड़ी का चाक है। मार्ग पर ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनको महावीर के मार्ग पर होना लेकिन अकसर लोग ऐसा करते हैं : महावीर के मार्ग पर भाव चाहिए था। वे वहां सब खराब कर रहे हैं। वे प्रार्थना भी करते ले आयेंगे और जब नारद को पढ़ेंगे तब उनकी बुद्धि में निर्भाव हैं, लेकिन उनको आंसू नहीं बहते। वे कहते हैं, 'कैसे प्रार्थना उठने लगेगा। ये तरकीबें हैं न पहुंचने की। ये बहाने हैं ताकि तुम करें, हृदय में कोई रसधार आती ही नहीं!' इधर महावीर के मार्ग पहुंच न पाओ। ऐसे उलझाव खड़े करते हो। पर ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के मार्ग पर होते तो सुगमता से पहुंच अंततः समन्वय है, लेकिन वह है गंतव्य पर पहुंचकर। जहां से जाते। उनकी आंखें लबालब भरी हैं। उनकी प्याली छलकी जा मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वे सभी रास्ते यहीं आ जाते हैं। लेकिन रही है। लेकिन महावीर के वचन हैं कि राग का अंश है भक्ति, हर रास्ते की व्यवस्था अलग है। कोई पहाड़ से गुजरता है, कोई तो रोके हुए हैं। आंसुओं को सुखाने की कोशिश कर रहे हैं। रेगिस्तानों से गुजरता है, कोई हरियाली से भरे उपवन से गुजरता अड़चन पैदा होती है अगर तुम अपने से विपरीत चले गये। है। किसी रास्ते पर कोयल की कुह-कह है और किसी रास्ते पर किसी ने पीछे पूछा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम | बिलकुल सन्नाटा है, पक्षी हैं ही नहीं। 466 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति रास्तों की अलग-अलग व्यवस्था है। और प्रत्येक ने चेष्टा करीब-करीब आओगे, वैसे पाओगे तुम रूपांतरित हुए, बदले, की है कि उसका रास्ता शुद्ध रहे। नये हुए, नया जन्म हुआ। तो महावीर साफ किये दे रहे हैं : एक-एक कदम पर जन्म है। एक-एक पल नये का आविर्भाव अण्णाणादो णाणी जदि मण्णादि सुद्ध संपओगादो है। उस आविर्भाव से ही प्रमाण मिलता है कि मैं जो चल रहा हूं हवदि त्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो।। तो ठीक चल रहा हूं। लेकिन जो बैठे हैं उनके पास कोई उपाय भक्ति भी दुख-मुक्ति की तरफ नहीं ले जायेगी। | नहीं है कि जानें कौन ठीक है। तर्क जुटायेंगे, चिंतन करेंगे, ध्यान रखना, जब महावीर कहते हैं, भक्ति दुख-मुक्ति की शास्त्रों का मेल-ताल बिठायेंगे। तरफ नहीं ले जायेगी, तो यह सार्थक है वचन महावीर के मार्ग और तर्क वेश्या जैसा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम जैसा पर। यह वचन आत्यंतिक नहीं है। इस वचन से नारद गलत | उसका उपयोग करना चाहो वैसा कर ले सकते हो। अब महावीर नहीं होते। इस वचन से सिर्फ इतना ही साफ होता है कि महावीर कहते हैं, व्यवस्था के कारण परमात्मा को स्वीकार नहीं किया जा के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू कुहू नहीं है। और अगर सकता। हिंदू कहते हैं, व्यवस्था के लिए परमात्मा की जरूरत महावीर के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू-कुहू सुनाई पड़े, है, अन्यथा व्यवस्था कौन करेगा? विपरीत तर्क, लेकिन दोनों तो तुम भटक गये हो, तुम मार्ग पर हो नहीं। वहां भाव बंधन है; ठीक मालूम होते हैं अपनी-अपनी जगह। तुम सोच-सोचकर क्योंकि वहां दूसरे की मौजूदगी परतंत्रता है। बैठ-बैठकर, विचार कर-करके कभी न पहुंच पाओगे। उठो धिगस्तु परवश्यताम्। और चलो! -धिक्कार है परवशता को, परतंत्रता को। महावीर का मार्ग शुद्धतम मार्गों में से एक है। लेकिन उसे शुद्ध वहां परमात्मा प्रीतिकर नहीं है। उसकी मौजूदगी ही अपनी रखना। महावीर के मार्ग पर पूजा को मत ले आना, प्रार्थना को गुलामी का सबूत है। मत ले आना। महावीर अपने मार्ग की बात कर रहे हैं। अब यह तुम्हें बड़ा अगर पूजा-प्रार्थना में ही रस है तो पूजा-प्रार्थना के मार्ग हैं। कठिन लगता है। तुम्हें लगता है, अगर महावीर सही हैं तो नारद बजाय इसके कि तुम मार्ग को खराब करो, तुम्हीं उतरकर दूसरे गलत होने चाहिए। वहां तुम भूल कर रहे हो। तुम्हें लगता है, मार्ग पर चले जाना। अगर नारद सही हैं तो महावीर गलत होने चाहिए। तुम बड़ी दुनिया बड़ी धार्मिक हो जायेगी उस दिन, जिस दिन लोग जल्दी कर रहे हो। तुम जीवन की विराटता को नहीं देख पाते। सुलभता से एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर जा सकेंगे; न उन्हें कोई जीवन इतना विराट है कि सब विरोधी मार्गों को अपने में समाए रोकेगा, न कोई बाधा डालेगा, न उन्हें कोई जबर्दस्ती अपने मार्ग हुए है। यहां महावीर भी सही हैं और नारद भी सही हैं। और | पर खींचेगा, न कोई कन्वर्ट करने को उत्सुक होगा और न कोई नारद के मार्ग पर चलकर भी लोग पहुंच गये हैं और महावीर के रोक लेने को उत्सुक होगा। अगर किसी के मन में उमंग उठी है मार्ग पर भी चलकर लोग पहंच गये हैं। | आनंद की, रस की, भाव की, तो वह मार्ग खोज लेगा भाव का। लेकिन एक बात तय है : जो भी चले हैं वे पहुंचे हैं। कुछ लोग | कोई बाधा नहीं डालेगा, न कोई उसे प्रभावित करेगा कि इस मार्ग हैं जो मार्गों के किनारे बैठकर विचार कर रहे हैं कौन सही है! पर आओ। क्योंकि कभी-कभी प्रभाव में तुम गलत मार्ग पर जा जीवन ऐसे ही बीता चला जाता है सोचने में, कौन सही है! सही सकते हो। कभी-कभी रोकने की वजह से गलत मार्ग पर रुक का भी कैसे पता चलेगा जब तक चलोगे नहीं? चलने से ही | सकते हो। पता चलेगा कौन सही है। क्योंकि जब करीब आने लगोगे | जीवन एक मुक्त हलन-चलन, रूपांतरण, बदलाहट की | जलस्रोत के, तो ठंडी हवाएं छूने लगेंगी। जब करीब आने सुविधा होनी चाहिए। लगोगे मंजिल के तो जीवन में आलोक आने लगेगा। जब करीब महावीर का मार्ग अपने-आप में पूर्ण सही है। पर उससे कोई आने लगोगे तो दर्शन ज्ञान बनेगा, ज्ञान चरित्र बनेगा। जैसे-जैसे और गलत नहीं होता। उससे विपरीत दिखाई पड़नेवाले भी 9 467 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R SDIWANDERL जिन सूत्र भागः 11 ST गलत नहीं होते। इतना तुम्हें स्मरण रहे तो तुम्हारे भीतर संप्रदाय | तरफ देख रहा है; अंतर्मुखी हों तो अंदर की तरफ देख रहा है। का भाव पैदा नहीं होगा। | बहिर्मुख, अंतर्मुख, दोनों से मुक्त हों तो परमात्मा स्थित हुआ, संप्रदाय का भाव इस तरह पैदा होता है। इन सूत्रों को जो स्वस्थ हुआ, अपने में लौट आया। इस अवस्था को महावीर पढ़ेगा...। जैन पढ़ते रहे हैं। तो जब वे देखते हैं किसी को मंदिर | मोक्ष कहते हैं। की तरफ जाते कृष्ण के, तब उनको लगता है, बेचारा भटका! उनको याद आता है महावीर का सूत्र कि राग का अंश है भक्ति! आज इतना ही। और यह आदमी राग में पड़ा है। नहीं, यह तुम सोचना ही मत। तुमने अपने लिए सोच लिया, काफी है। तुम्हें दूसरे की अंतर्व्यवस्था का कुछ भी पता नहीं है। तुम बस अपने लिए निर्णय कर लो, उतना बहुत। और वह निर्णय भी चलने के लिए हो, बैठे-बैठे सोचने के लिए नहीं। महावीर तुम्हें वहां ले जाना चाहते हैं जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता-जहां बस तुम एकांत अकेले अपनी परिपूर्णता शुद्धता में बच रहते हो! निधूम जलती है तुम्हारी चेतना! हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं। ऊंचाइयां भी जहां नीचे छूट जाती हैं। हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऊंचाइयां भी पीछे छूट गईं। ऊंचाइयां भी! नीचाइयां तो छूट ही गईं, ऊंचाइयां भी छूट गईं। अशुभ तो छूट ही गया, शुभ भी छूट गया। पाप तो छूटा, पुण्य भी छूटा। हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हं मैं। -और मैं किस आकाश में उड़ रहा हूं! महावीर उस आकाश को आत्मा कहते हैं। अंत काश! परम आनंद है वहां! परम शांति! महावीर उस परम दशा को ही परमात्म-दशा कहते हैं। परमात्मा एक नहीं है महावीर के लिए, वरन प्रत्येक व्यक्ति की नियति है। हर व्यक्ति परमात्मा होने के मार्ग पर है। हर व्यक्ति परमात्मा हो रहा है; देर-अबेर होता चला जा रहा है। परमात्मा सृष्टि के प्रथम क्षण में नहीं है-परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति की अंतिम उपलब्धि में है। उतने ही परमात्मा हैं जितनी आत्माएं हैं। फिर ये आत्माएं बहिर्मखी हों तो परमात्मा बाहर की 4681