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________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति | हो, करुणा हो-ये शुभ भाव हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, | क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। मुझसे कुछ हो, इसमें ही बंधन है। बुरे का तो बंधन होता ही है, छरे की तीक्ष्ण धारा की भांति, जैसे कोई पतले छरे की धार पर भले का भी बंधन हो जाता है। लोभी तो बंधता ही है, दानी भी चलता हो, ऐसा मार्ग है। शुभ को भी एक तरफ छोड़ देना, बंध जाता है। और पापी तो बंधता ही है, पुण्यात्मा भी बंध जाता अशुभ को भी दूसरी तरफ छोड़ देना। संयमी का अर्थ है जो है, यद्यपि पुण्यात्मा की जंजीरें सोने की होती हैं। | दोनों के मध्य चलने में कुशल हो गया; जो चुनाव नहीं करता, इसलिए महावीर कहते हैं, शुभ और अशुभ भाव मोक्ष का च्वायसलेस, विकल्परहित, निर्विकल्प चलता है; जो मध्य में मार्ग नहीं हैं। दोनों से मुक्त होना है। अशुभ को तो छोड़ना ही सम्हलकर चलता है। है, शुभ को भी छोड़ना है। असाधु को तो छोड़ना ही है, साधु के हिंदू शास्त्र कहते हैं : मध्यं अभयम्! जो मध्य में है उसे कोई भी पार जाना है। एक ऐसी दशा चाहिए, जो सभी दशाओं का भय नहीं। इधर-उधर हुए कि भय शुरू हुआ। जरा भी झुके अतिक्रमण कर जाती हो। एक ऐसी दशा, जिसका लगाव, बायें, जरा भी झुके दायें, तो भय शुरू हुआ। न तो वामपंथी और आग्रह किसी भी बात में न हो। न दक्षिणपंथी, ठीक मध्य में, जो अपने को सम्हाल ले। . 'इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' कठिन लगेगा, क्योंकि हमें आसान लगता है: अशुभ छोड़ना दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर है, कोई हर्जा नहीं है; शुभ को पकड़ लेंगे! क्रोध छोड़ना है, छोड़ दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। | देंगे: करुणा को पकड़ लेंगे। लेकिन कछ पकड़ने को तो होगा। अगर तुम गौर से देखो तो मित्रों ने इतने कष्ट दिये हैं कि अब पकड़ने की हमारी पुरानी आदत है। दुश्मनों की क्या शिकायत करनी! महावीर कहते हैं, अगर गौर महावीर कहते हैं, पकड़ ही संसार है। और सारी पकड़ का से देखो तो शुभ आकांक्षाओं से ही पटा पड़ा है नर्क का मार्ग। छूट जाना, मुट्ठी का खुल जाना ही मोक्ष है। अशुभ आकांक्षाओं की तो बात ही छोड़ो; उनकी तो शिकायत | 'अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग क्या करनी! अगर कोई क्रोधी बंधन में पड़ा है तो यह तो अर्थात, भक्ति आदि शुभ भाव से दुख-मुक्ति होती है तो वह भी स्वाभाविक है; लेकिन चेष्टा करके जो दया कर रहा है, वह भी राग का अंश होने से पर-समयरत होता है।' बंधन में पड़ जाता है। वहां भी अहंकार निर्मित होता है महावीर भक्ति को भी बंधन का कारण कह रहे हैं। यह भी दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर अज्ञानवश तथाकथित बुद्धिमान आदमी भी ऐसा मानने लगे कि दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। शुद्ध सम्प्रयोग, शुद्ध भक्ति, तो क्यों बांधेगी, तो वह भी गलत शुभ ने ही इस बुरी तरह सताया है, अशुभ की तो शिकायत है। शुभ भक्ति से भी राग का ही अंश निर्मित होता है। क्या करें। अपनों ने इस तरह सताया है कि परायों की तो बात ही महावीर का मार्ग संकल्प का मार्ग है। वहां भक्ति के लिए भी क्या करें! उनकी शिकायत करने जैसी भी नहीं रही। जगह नहीं है। तुमने देखा, तुम्हारे शुभ भावों ने ही तुम्हें कितना सताया है। भगवान के लिए जगह नहीं है; भक्ति के लिए तो जगह कैसे प्रेम ने कितना सताया है, यह तो देखो। फिर घणा की सोचना। हो सकती है। तुम किसी के लिए अच्छा करना चाहते थे, उसके कारण कितनी ऋग्वेद में ऋषि ने पूछा है: झंझट में पड़े हो। फिर तुम किसी के लिए बुरा करना चाहते थे, कस्मै देवाय हविषा विधेम। उसकी सोचो। किस देवता को हम अपनी पूजा-अर्चना चढ़ायें, किस देवता महावीर कहते हैं, तुम अच्छा-बुरा दोनों ही करनेवाले नहीं हो, | की उपासना करें? लेकिन महावीर कहते हैं, जहां तक उपासना ऐसे साक्षी बन जाओ। वहां से मोक्ष का द्वार खुलता है। अच्छा है वहां तक तो किसी दूसरे से बंधन हो जायेगा। पर-समयरत, और बुरा तो कर्म का ही मार्ग है। और कर्म तो बांधता है। न शुभ | दूसरे पर निर्भर हो जाओगे। परमात्मा होगा तो परतंत्रता होगी। न अशुभ-दोनों के मध्य में संतुलित! और परतंत्रता होगी तो बंधन निर्मित रहेगा। तुम स्वतंत्र कैसे हो 1463 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340121
Book TitleJinsutra Lecture 21 Jin Shasan arthat Aadhyatmik Jyamiti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size27 MB
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