Book Title: Jinsutra Lecture 11 Adhyatma Prakriya Hai Jagran Ki
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रवचन अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की For Private & Rersonal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ।।२६।। कोहो पीइं पणसोइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।।२७।। उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।।२८।। जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे।।२९।। से जाणमजाणं वा, कट्टं आहम्मिअं पयं। संवरे खिप्पंमप्पाणं, वीयं तं न समायरे।।३०।। सव्वंगंथविमुक्तो, सीईभूओ पसंतचित्तो अ। जं पावइ मुत्ति सुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहई।।३१।। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ मिटे-से नक्से-पा भी हैं जनं की राह में है, तो अब ठीक की खोज कैसे करोगे? मान ही लिया हो कि हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए। सत्य कहां है, तो आविष्कार का उपाय कहां रहा? तुमने जल्दी शास्त्र का सम्यक उपयोग भी है, असम्यक उपयोग स्वीकार कर लिया, खोजे बिना स्वीकार कर लिया, तो तुम खोज भी। शास्त्र को जो अंधे की तरह स्वीकार कर ले, शास्त्र उसके से वंचित रह जाओगे। लिए बोझ हो जाता है। शास्त्र को जो समझे, शास्त्र को जो ये महापुरुषों के चरण-चिह्न तुम्हें बांध लेने को नहीं हैं, तुम्हें निष्पक्ष होकर विचार करे, शास्त्र को जो जागरूक होकर ध्यान मुक्त करने को हैं। और ये चरण-चिह्न बड़े मिटे-मिटे से हैं। करे, तो शास्त्र से बड़ी सुगंध उठती है, बड़ी मुक्तिदायी सुगंध काफी समय बीत गया, इन राहों पर और लोग भी गुजर चुके हैं। उठती है। इन चरण-चिह्नों को अंधे की तरह मत मानकर चलना, अन्यथा शास्त्र को पकड़ना मत–सोचना। शास्त्र को अंधे की तरह | भटकोगे। जागना, खोजना। इन चरण-चिह्नों में अपने चरणों स्वीकार मत करना। अंधे की तरह स्वीकार करने में शास्त्र का की गति को खोजना है, अपनी चरणों की शक्ति को खोजना है। अपमान है। आंख खोलकर, शास्त्र में उतरना, शास्त्र को स्वयं कुछ मिटे-से नक्से-पा भी हैं जुनूं की राह में में उतरने देना-तो शास्त्र का सम्मान है। हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए। कोई भी सदगुरु तुम्हें अंधा नहीं बनाना चाहता है। क्योंकि और सौभाग्यशाली हैं हम कि हमसे पहले लोग यहां गुजरे हैं। वस्तुतः तो, तुम्हारी आंख में ही तुम्हारा गुरु छिपा है। तो सभी वे जो कह गये हैं, उनके जीवन का अनुभव जो बिखेर गये हैं, सदगुरु तुम्हारी आंख खोलना चाहते हैं। उतनी ही देर तुम्हारे उससे तुम बहुत कुछ पा सकते हो। लेकिन पाने के लिए बड़ी साथ होना चाहते हैं कि तुम्हारी आंख खुल जाये, कि तुम्हें अपने समझदारी चाहिए। भीतर का गुरु मिल जाये। समझो। जीवन से बहुत कुछ पाया जा सकता है। लेकिन तुम महावीर के ये वचन जैन पढ़ते हैं, अंधे की तरह। और अ-जैन | तो जीवन से भी नहीं पाते हो। शास्त्र तो जीवन की छाया मात्र हैं, तो पढ़ेंगे क्यों! गीता हिंदू पढ़ते हैं, अंधे की तरह। गैर-हिंदू तो प्रतिफलन हैं। शास्त्र जीवन से निकलते हैं, जीवन शास्त्र से नहीं फिक्र क्यों करेंगे! कुरान मुसलमान पढ़ते हैं, दोहराते हैं तोते की निकलता। तुम्हें जीवन मिला है, उससे तुम कुछ नहीं पाते, तो तरह। गैर-मुसलमान तो फिक्र ही क्यों करेगा! बहुत कठिन है कि तुम शास्त्र से कुछ पा सकोगे। क्योंकि मूल से मेरे जाने, तुम शास्त्र को तभी समझ सकोगे जब तुम न हिंदू नहीं मिलता कुछ, छाया से क्या मिलेगा? हो, न मुसलमान हो, न जैन हो। क्योंकि अगर पक्षपात पहले से जो जानते हैं, जो जागकर जीते हैं, जो हिम्मत और साहस से ही तय है, अगर तुमने जन्म से ही तय कर रखा है कि क्या ठीक जीते हैं, जिनके जीवन का आधार सुरक्षा, सुविधा नहीं है, साहस Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / जिन सूत्र भागः1 TRANSFERMA है-वे जीवन से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को। वे शास्त्र से भी महावीर तो सीधे पथ के वैज्ञानिक खोजी हैं। निचोड़ लेते हैं सत्य को। जो जागकर जीते हैं वे तो छाया से भी इन शब्दों को समझना, मनन करना। बन सके, थोड़ा-थोड़ा मूल को खोज लेते हैं क्योंकि छाया में भी—'कुछ मिटे-से उतारना। क्योंकि उतारोगे, तभी इनका अर्थ खुलेगा। इनका अर्थ नक्से-पा' कुछ धुंधले हो गये पैरों के चिह्न हैं। इनके पढ़ने और इनके सुन लेने में नहीं है। इनका अर्थ इनके अभागे हैं वे, जो जीवन से भी वंचित रह जाते हैं। साथ थोड़ी देर जीने में है। क्षणभर को भी अगर तुम इनके साथ सौभाग्यशाली हैं वे, जो कि शास्त्रों से भी खोज लेते हैं। जीये, तो तुम पाओगे इनकी सचाई, इनकी गहनता, इनकी इधर महावीर के वचनों पर हम चर्चा कर रहे हैं---इसलिए नहीं | गंभीरता। और क्षणभर भी तुम जीये तो ये सत्य तुम्हारी धरोहर कि तुम उन्हें मान लो। मानने से कभी कुछ हुआ नहीं। मानना तो हो जायेंगे; ये तुम्हारा हिस्सा हो जायेंगे। ये तुम्हारे खून, हड्डी, कमजोर की आदत है। मांस-मज्जा में समा जायेंगे। इन्हें समाने देना। वह कहता है, 'कौन चले, कौन झंझट करे! ठीक ही कहते। पहला सूत्र : 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक होंगे। हम पूजा करने को तैयार हैं। हम शास्त्र को फूल चढ़ा और कसाय को अल्प मानकर मत बैठ जाना। क्योंकि ये थोड़े देंगे। कहो, शोभा-यात्रा निकाल देंगे। लेकिन हमसे जीवन बढ़कर बड़े हो जाते हैं।' बदलने को मत कहो। वह जरा ज्यादा हो गया।' | 'ऋण को थोड़ा...।' जो भी आदमी ऋण लेता है. पहले पूजा हमारी तरकीब है शास्त्र से बचने की। मंदिर तुम्हारे धर्म थोड़ा ही मानकर लेता है और सोचता है: 'चका देंगे। के प्रतीक नहीं; धर्म के साथ तुमने जो चालाकी की है, उसके इतना-सा तो ऋण है। ब्याज भी कुछ ज्यादा नहीं है, चुका प्रतीक हैं। देंगे।' जो भी ऋण लेते हैं, इसी आशा में लेते हैं कि चुका देंगे। मन बड़ा चालाक है। ऋण चुकता नहीं मालूम होता फिर, बढ़ता जाता है। ब्याज घना मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने नौकर से कहा था कि मेरे जूतों पर होता जाता है। ब्याज ही नहीं चुकता, मूल का चुकाना तो बहुत पालिश कर दे। दूर। और यह साधरण जीवन के ऋण की बात तो छोड़ दो, जो 'अरे फजलू, इतनी देर हो गई और अभी तक मेरे जूतों पर जीवन का बहुत गहरा ऋण है, वह तो कभी चुकता नहीं मालूम पालिश भी नहीं हो पायी?' पड़ता। ले सभी लेते हैं, फंस जाते हैं। 'सरकार! यह दूसरा बूट हाथों में है।' महावीर कहते हैं, सभी ले लेते हैं तो जरूर मन में कोई कारण 'और पहला...?' होगा ले लेने का। सभी सोचते हैं, थोड़ा है। थोड़ा श्रम कर लेंगे, नौकर ने कहा, 'उसे इसके बाद हाथ में लूंगा सरकार।' चुक जायेगा। पहला! दूसरे के बाद! 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा...।' कितना ही छोटा घाव मन बहुत चालाक है। बड़ी तरकीबें खोजता है। ऐसी तरकीबें हो, यह सोच के कि छोटा है, क्या फिक्र करनी है, बैठ मत खोजता है कि दूसरे तो धोखा खाते ही हैं, खुद भी धोखा खा जाना, आश्वस्त मत हो जाना, क्योंकि घाव प्रतिपल बड़ा हो रहा जाता है। इस मन से थोड़े जागना। मन ही तुम्हें मनन नहीं करने है; जैसे छोटा-सा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। बीज को मिटा देता है। मन ही तुम्हें उतरने नहीं देता। जहां भी जाते हो, तुम्हारी देना बड़ा आसान था, वृक्ष को काटना बहुत मुश्किल हो गंदी छाया पड़ जाती है। शास्त्र पढ़ते हो, तुम्हारी छाया में शास्त्र जायेगा। तो जो जानकार हैं, वे ऋण लेते ही नहीं। वे कहते हैं, दब जाता है। शब्द सुनते हो, तुम्हारे पास तक पहुंचते-पहुंचते गरीबी में जी लेंगे लेकिन ऋण लेकर अमीर होने में कुछ सार उनका अर्थ रूपांतरित हो जाता है। नहीं, क्योंकि वह अमीरी ऊपर होगी, धोखे की होगी, भीतर ये महावीर के वचन बड़े बहुमूल्य हैं। आज के सूत्र तुम्हारे जलन होगी और भीतर दरिद्रता होगी। रूखी रोटी खाकर सो जीवन को बदल देनेवाले हो सकते हैं। ये तथ्यगत हैं। महावीर लेंगे, एक बार खा लेंगे, पर ऋण न लेंगे; क्योंकि ऋण बढ़ेगा। का कोई रस सिद्धांतों में नहीं है। महावीर कोई दार्शनिक नहीं हैं। शायद पेट में तो रोटी पड़ जायेगी, लेकिन प्राणों की शांति खो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGARIES ध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की जायेगी। शायद ऊपर-ऊपर से तो सब रौनक हो जायेगी, आयेंगे, पूजा कर लेंगे, दान कर देंगे-कुछ कर लेंगे लेकिन भीतर-भीतर अंधेरा हो जायेगा। अभी तो कर लो। महावीर साधारण ऋण की बात नहीं कर रहे हैं: वे तो उदाहरण 'घाव को छोटा, आग को तनिक...।' हैं। लेकिन जीवन में हम ऐसे बहुत ऋण लिये हैं। हमारा सारा छोटी-सी चिनगारी महलों को जला देती है। जीवन ऋण से भरा है। महावीर तो कहते हैं, परमात्मा से भी मत 'और कसाय को अल्प मान...।' क्रोध है, लोभ है, लेना। लेने की आदत ही मत डालना। क्योंकि आदत बढ़ती है। | माया-मोह है-कसाय है। 'कसाय' शब्द महावीर का बड़ा बीज वृक्ष होता है। आज थोड़ा लोगे, कल और थोड़ा ज्यादा बहुमूल्य है-जिससे तुम कसे हो, जिससे तुम बंधे हो, जो लोगे, परसों और थोड़ा ज्यादा लोगे-भिखमंगे हो जाओगे। तुम्हारा बंधन है। जैसे हिंदू-शास्त्र में 'पशु' शब्द है। जो पशु यहां तो सम्राट भी भिखमंगे हैं; लेते चले जाते हैं। का अर्थ है वही जैन-शास्त्रों में कसाय का अर्थ है। पशु का अर्थ महावीर कहते हैं, ऋण लेना ही मत। और जब बीज की तरह होता है : जो पाश में बंधा है। पशु यानी पाश में बंधा, बंधन में छोटा अंकुर उठे, भीतर भाव उठे, पहली लहर उठे, तभी रोक पड़ा। पशु का अर्थ सिर्फ जानवर नहीं है। पशु का अर्थ है : जो देना। घाव को छोटा मत मानना, क्योंकि छोटे-छोटे घाव बड़े बंधा है, चारों तरफ जिसके जंजीरें हैं। जो बंधा है, वह पश। जो होकर नासूर हो जाते हैं। जो उन्हें प्रथम चरण में रोक देता है, वही मुक्त हुआ, वही मनुष्य है। तो सभी मनुष्य दिखाई पड़नेवाले रोक पाता है। लोग मनुष्य नहीं हैं। काश! मनुष्यता इतनी सस्ती होती कि महावीर कहते हैं, घाव बड़ा हो जाये, फिर चिकित्सा करने की दिखाई पड़ने से मिल जाती। चिंता में पड़ोगे; बड़ी आसानी से घाव को रोका जा सकता है, | नहीं, जिनके बंधन गिर गये, जिन्होंने अपनी पशुता काट दी, जब वह बहुत छोटा है, या जब अभी पैदा ही नहीं हुआ। पैदा | पाश काट डाले, जो मुक्त हुए—वही मनुष्य हैं। जो मनन को होने के पहले ही मार देना। उपलब्ध हुए, वही मनुष्य हैं। जो मनु बने, वही मनुष्य हैं। क्रोध की लहर उठती है—एक घाव उठा आत्मा में। तुम कहते जैनों का शब्द 'कसाय' वही अर्थ रखता है—जो बांध ले, हो, आज तो कर लें, कल से न करेंगे। अब आज तो जो हो | कस दे, जो बांधती चली जाये और तुम सिकुड़ते जाओ और छोटे गया, हो जाने दो। क्रोध करके तम पछताते हो: निर्णय भी लेते होते जाओ, और बंधन बोझिल होते चले जायें। हो, कल न करेंगे। लेकिन जब क्रोध उठता है, तब तो तुम कर ही | 'कसाय' को अल्प मान, विश्वस्त होकर मत बैठ जाना। लेते हो। और फिर तुम कहते हो, यह तो छोटा-सा क्रोध है, कोई | अल्पता तो धोखा है। युद्ध तो खड़ा नहीं किया, किसी की जान तो ली नहीं। दो कड़े | यह तो तरकीब है 'कसाय' की तुम्हारे भीतर प्रवेश की। यह शब्द कह दिये तो क्या बिगड़ गया? और फिर, बिना कड़े शब्द | तो बीमारी का उपाय है तुम्हारे भीतर घर बनाने का। यह तो बीज कहे कहीं काम चला है! कहीं संसार चला है! यहां अगर बुद्ध | का ढंग है पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश करने का। बनकर बैठ गये तो लोग बद्ध समझेंगे। यहां जोर-जबर्दस्ती की | तम थोडा सोचो कि बीज बहत बडा हो दुनिया है। यहां अगर हमला न किया तो दूसरे लोग हमला कर | का होना ! उतना बड़ा बीज पृथ्वी में प्रवेश कैसे करता? बीज देंगे। यहां अगर किसी ने आंख दमकाई और उसको जवाब न बड़ा छोटा है, यह वृक्षों की तरकीब है। बड़ा छोटा बीज बनाते दिया, तो सभी लोग आंख दमकाने लगेंगे। फिर तो जीना हैं। बड़े से बड़ा वृक्ष भी बड़ा छोटा-सा बीज बनाता है। कोई भी मुश्किल हो जायेगा। रंध्र, कोई भी जरा-सा छेद पाकर घुस जायेगा पृथ्वी में। पृथ्वी तुम बहाने खोज लेते हो। तुम तरकीबें खोज लेते हो। फिर तुम को पता भी न चलेगा। लेकिन अगर जितने बड़े वृक्ष हैं, इतने ही कहते हो, इतना-सा तो है, इसमें क्या बिगड़ जायेगा? कौन बड़े उनके बीज होते, तो वृक्ष खो जाते। कहां से पृथ्वी में प्रवेश महानर्क हुआ जा रहा है, कौन-सा महापाप हुआ जा रहा है! होता? इतनी बड़ी रंधे, इतने बड़े छिद्र कहां खोजते? छोटा है, क्षमा मांग लेंगे, प्रार्थना कर लेंगे, गंगा-स्नान कर बीज, वृक्ष कितना ही बड़ा हो, छोटे ही बनाता है। छोटे में Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 तरकीब है। वृक्ष अपने को पुनः पुनः जन्माना चाहता है। कई छोटा मिलते ही इतना छोटा हो जायेगा कि तुम्हारी वासना उसमें तरकीबें करता है वृक्ष। फूल उगाता है सुंदर, तितलियों को समा न सकेगी। फिर तुम कहोगे, 'और...।' फिर तुम लुभाने के लिए। क्योंकि तितलियों के पैरों में लगकर, बीज के कहोगे, 'और...।' बीज की तरह जो प्रवेश हुआ था, वह छोटे-छोटे कण-पराग, नर पौधे तक पहुंच जायेंगे, नारी पौधे जल्दी ही वृक्ष की तरह पनपने लगेगा। और बीज की तरह जिसे तक पहुंच जायेंगे। मिलन हो जायेगा नर और मादा का। तो फूल मिटाना अति सुगम था, फिर वृक्ष को काटना मुश्किल हो जो है विज्ञापन है वृक्ष का; बुलावा है तितली को, कि आओ। जायेगा; क्योंकि इस वृक्ष की शाखायें तुम्हारी आत्मा में फैल तितली से प्रयोजन नहीं है, तितली के पैरों में पराग लग जाये तो | जायेंगी। फिर इस वृक्ष को उखाड़ने में तुम्हें लगेगा, तुम्हारे प्राण नर मादा को खोज ले, मादा नर को खोज ले, तो बीज-निर्माण उखड़े। तुम जराजीर्ण होने लगोगे। हो, तो संतति आगे बढ़े। ___ कभी खयाल किया, जो आदमी जिंदगी भर क्रोध करता रहा सेमर के फूल देखे! बीज के पास रुई को पैदा करते हैं। है, वह कितना सोचता है क्रोध छोड़ दे! कौन नहीं सोचता! क्योंकि सेमर बड़ा वृक्ष है। अगर बीज नीचे ही गिरें तो वृक्ष की क्योंकि क्रोध जलाता है, व्यर्थ की आग में गिराता है, जहर से छाया के कारण बड़े न हो पायेंगे। वृक्ष बड़ी होशियारी कर रहा | भरता है, जीवन से सारा सुख-चैन खो जाता है। कौन नही है। वह साथ में रुई पैदा कर रहा है। तुम्हारे तकियों के लिए चाहता। लेकिन क्रोधी क्रोध छोड़ नहीं पाता। लाख सोचता है, नहीं, अपने बीज को हवा की यात्रा पर भेजने को, ताकि बीज दूर | | छोड़ दे; छोड़ नहीं पाता। क्योंकि अब उसे समझ में ही नहीं चला जाये, नीचे न गिरे। ठीक वृक्ष के नीचे गिर जायेगा तो मर आता कि जड़ें उखाड़े कहां से! अब तो उसे ऐसा भी डर लगने जायेगा। इतने बड़े वृक्ष की छाया में कैसे पनपेगा, कैसे बड़ा | लगता है कि मैंने सदा ही क्रोध ही तो किया है, क्रोध ही तो मेरा होगा? धूप न मिलेगी। पानी न मिलेगा। क्योंकि बड़ा वृक्ष सब होना है। अगर क्रोध ही गया तो मैं कहां बचूंगा, मैं क्या बचूंगा। पी जायेगा। पूरी भूमि को निचोड़ लेगा। ये छोटे-छोटे बीज तो | उसको अपनी प्रतिमा ही खोती मालम पड़ती है। क्रोध के बिना मर जायेंगे। इन बेटे-बेटियों के लिए वह थोड़ी-सी रुई पैदा वह अत्यंत दीन मालूम पड़ेगा। क्रोध ही उसका बल था। क्रोध करता है। वे रुई के बहाने हवा पर तिर जाते हैं, हवा के झोंके में में ही उसकी महिमा थी। क्रोध में ही वह दूसरों की छाती पर चढ़ दूर निकल जाते हैं। कहीं दूर जाकर जमीन खोज लेंगे। फिर वहां गया था। क्रोध में ही उसने किसी को पराजित किया था। क्रोध वे भी बड़े होकर खड़े हो जायेंगे। | में ही बाजार में प्रतियोगिता की थी, प्रतिस्पर्धा की थी। क्रोध में काम, क्रोध, लोभ, मोह भी बीज की तरह तम्हारे मन की भूमि ही उसने बड़ा मकान बना लिया था। क्रोध की ही तरंगों पर में आते हैं। इसलिए महावीर का सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। वे यह चढ़कर उसने जीवन को जाना है। आज अचानक क्रोध छोड़ देने कहते हैं, छोटे मानकर मत सोच लेना कि क्या, क्या बिगड़ता की बात उठती है; उठती है, उसी के मन में उठती है, कोई न कहे है। जरा-सा बच्चे पर क्रोध कर लिया, क्या हर्ज। अपना ही तो भी उठती है क्योंकि क्रोध दुख देता है। लेकिन, क्रोध बच्चा है। उसके ही सुधार के लिए क्रोध कर रहे हैं। और फिर उसकी प्रतिमा में इतना प्रविष्ट हो गया है रग-रेशे में, जड़ें फैल क्रोध जरा-सा है। एक चांटा भी मार दिया तो क्या, अपना ही तो गई हैं छोटे-छोटे स्नायुओं में, तंतु-जाल हो गया है! है! ऐसे छोटे-छोटे बहाने खोजकर क्रोध प्रवेश करता है, माया कभी किसी बड़े वृक्ष को पृथ्वी से उखाड़कर देखा! कितने प्रवेश करती है, मोह प्रवेश करता है, लोभ प्रवेश करता है। दूर-दूर तक जड़ें फैल जाती हैं। दूसरे वृक्षों की जड़ों को भी अपने आदमी कहता है, कोई ज्यादा तो मैं मांग नहीं रहा, थोड़ा-सा ही में अटका लेती हैं। तुम्हारे मकान की भूमि में चली जाती हैं। मांग रहा हूं। इस संसार में तो इतनी-इतनी वासनाओं भरे लोग मकान की नींव में प्रवेश कर जाती हैं। मकान की ईंटों को जकड़ हैं; मैं तो कुछ मांगता नहीं। परमात्मा, एक छोटा-सा मकान | लेती हैं। | मांगता हूं, छोटी-सी घर-गृहस्थी हो, सुख-शांति हो!... बैंकाक के पास बुद्ध की एक प्रतिमा है, बड़ी मूल्यवान प्रतिमा छोटा मिल जायेगा तब तुम बड़ा मांगना शुरू करोगे। क्योंकि है! एक वृक्ष उस प्रतिमा में समाकर बैठ गया है। प्रतिमा 1232 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REER अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की अध्यात्म प्रक्रिया खंड-खंड हो गई है। वृक्ष ने प्रतिमा के कोने-कोने में जड़ें पहुंचा है। फिर तुम्हारा पूरा शरीर उसी से निर्मित हुआ है। दी हैं। तुम कहोगे, वृक्ष को अलग क्यों नहीं कर देते? लेकिन कोई सात अरब जीवाणु तुम्हारे शरीर में हैं। एक से शुरू हुए, अब वृक्ष को अलग किया कि प्रतिमा गिरेगी। वृक्ष तोड़ रहा है सात अरब तक पहुंच गए हैं। और बहुत जल्दी पहुंच जाते हैं। प्रतिमा को, लेकिन वृक्ष ही जोड़े भी हुए है। उसकी ही जड़ों में दिन दूने, रात चौगुने होते चले जाते हैं। जो आंख से नहीं दिखाई प्रतिमा अटकी है, खंड-खंड हो गई है, टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। पड़ता था, वही आज तुम्हारा मित्र होगा, तुम्हारा भाई होगा, नाक अलग है, लेकिन जड़ों में अटकी है। हाथ टूट गया है, तुम्हारा बेटा होगा, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी प्रेयसी। जो अदृश्य लेकिन जड़ों में फंसा है। था, जिसको देखने के लिए खुर्दबीन चाहिए थी, इतना छोटा जब भी मैं इस प्रतिमा को चित्रों में देखा हूं, तभी मुझे आदमी इतना बड़ा हो जाता है! की याद आई। अब भक्त चाहते हैं कि इससे छुटकारा हो जाये। फैलाव प्रकृति का नियम है। यहां किसी भी चीज को जगह यह तो मिटाये डाल रही है। इतनी बहुमूल्य प्रतिमा को नष्ट कर दी, वह फैलेगी। फैलना स्वभाव है। इसलिए तो हिंदू विश्व को डाला इस वृक्ष ने। लेकिन इस वृक्ष को पानी देते हैं, दुश्मन को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म यानी जो फैलता चला जाता है; जो जानता पानी देते हैं। क्योंकि जिस दिन इस वृक्ष को हटाया, उसी दिन ही नहीं कैसे रुके, जो फैलता ही चला जाता है; अनंत जिसका प्रतिमा खंड-खंड होकर गिर जायेगी। तोड़ा भी इसी ने है, जोड़े विस्तार है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं। यहां छोटी-सी भी यही है। यही अड़चन है। चीज पकड़ो, जल्दी ही बड़ी होने लगती है। इन छोटी-छोटी क्रोध ही तुम्हें तोड़ रहा है, क्रोध ही तुम्हें जोड़े भी है। लोभ ही बातों के कारण तुम भटकते चले जाते हो। तुम्हें तोड़ रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हें सम्हाले भी है। लोभ ही कभी-कभी तुम्हें खयाल भी नहीं होता। तुम जरूरी काम से तुम्हें नर्क की तरफ ले जा रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हारी नाव भी जा रहे थे, मां बीमार पड़ी थी और तुम उसके लिए दवा लेने जा है। अब तुम मुश्किल में पड़ोगे। नाव छोड़ो तो डूबे। नाव में रहे थे और किसी आदमी ने रास्ते में गाली दे दी-भूल गए मां, बैठे तो नाव सरक रही है नर्क की तरफ। छोड़ना भी तुम चाहते | भूल गए दवा, भूल गए इलाज-चिकित्सा, उससे झगड़ने खड़े हो, एक पैर उठा भी लेते हो; लेकिन छोड़ा तो डूबे। हो गए, पहले इससे निपटारा कर लेना है! चाहे इसमें मां मर इसलिए महावीर कहते हैं, सचेत हो जाना! सावधान हो जाए, लौटकर घर आओ और पाओ कि मां जा चुकी, फिर चाहे जाना! पछताओ-लेकिन क्षुद्र भी, अति क्षुद्र भी, अति व्यर्थ भी, जब 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कसाय आता है तुम्हारी आंखों में, तो तुम्हें परिपूर्ण घेर लेता है। इसी को अल्प मानकर विश्वस्त मत हो जाना।' ये छोटे जो आज हैं, | तरह तो मंजिल खोती चली गई है। तुम बिलकुल हवा की तरंगों कल बड़े हो जायेंगे; क्योंकि ये थोड़े ही बढ़कर बहुत हो जाते हैं। में भटकते लकड़ी के टुकड़े हो; जहां हवा आ जाती है, जहां मा के गर्भ में जब पिता का बीज पड़ता है, तो क्या होता है? पानी की तरंग ले जाती है, वहीं चल पड़ते हो। तुम सांयोगिक हो इतना छोटा होता है कि खाली आंख से देखा भी नहीं जा गये हो-ऐक्सीडेंटल। तुम्हारे जीवन में कोई दिशा नहीं है, कोई सकता। इतना छोटा होता है कि दूरबीन चाहिए. खुर्दबीन बढ़ाव, कोई विकास, कोई गंतव्य, कोई मंजिल! कहां तुम जा चाहिए। एक संभोग में कोई एक करोड़ जीवाणु पिता के वीर्य से रहे हो, क्यों तुम जा रहे हो-कुछ भी नहीं है। आकस्मिक मां में प्रवेश करते हैं। एक करोड़! वीर्य की एक बूंद में लाखों घटनाएं, दुर्घटनाएं, तुम्हारे जीवन की निर्णायक हो गई हैं। कुछ होते हैं। इतने छोटे! फिर वही गर्भाधान में बड़ा होने लगता है। भी उठ आता है, जिससे तुम्हारी कोई संगति नहीं है, तुम वह वही बीज एक से दो होता है, दो से चार होता है, चार से आठ करने में लग जाते हो। होता है—इस तरह बढ़ता है। अपने को ही तोड़ता है। एक होता | मैं विश्वविद्यालय में भर्ती होने गया, तो मैं अपना फार्म भर रहा है, बड़ा होता है, पोषण मिलता है, दो हो जाता है। टूटकर दो था। मेरे पास ही एक लड़का खड़ा था, वह भी भर्ती होने आया टुकड़े हो जाते हैं, चार हो जाते हैं, आठ हो जाते हैं, फैलता जाता था। उसने मेरे फार्म में देखा। उसने कहा, 'तो आप दर्शनशास्त्र 2331 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ले रहे हैं? तो मैं भी लूंगा।' लेकिन लोग सांयोगिक हैं। लोग एक्सीडेंटल हैं। रंग उन्हें पहले मैंने कहा, 'तू रुक। तुझे इससे क्या प्रयोजन? यह भी खींचता है। डब्बा खाली हो तो भी चलेगा, लेकिन रंग, रंग बिलकुल सांयोगिक है कि मैं यहां खड़ा अपनी दर्खास्त भर रहा | आंख को खींच लेता है। कितनी ऊंचाई पर दुकान पर डब्बा ह, तू भी भर रहा है; मेरी दर्खास्त को एक तो देखने की कोई होना चाहिए, तब आंख जल्दी पकड़ में आती है। पांच फीट, तो जरूरत नहीं; देख भी ली तो तुझे कोई विषय इसलिए लेने की ठीक आंख की सीध में होता है। लोग ऐसे अलाल हैं कि आंख जरूरत नहीं...। न तू मुझे जानता।' उसने कहा, 'यह भी आप | भी ऊपर उठाकर कौन देखता है। अगर जरा डब्बा ऊपर रखा ठीक कहते हैं। मैंने यह सोचा ही नहीं।' हो, या डब्बा बहुत नीचे रखा हो...तो अब तो विशेषज्ञ हैं इस तुमने कभी जिंदगी में देखा! इस तरह रोज हो रहा है। दुकान संबंध में, जो बताते हैं कि तुम जब कोई चीज बनाकर बाजार में पर तुम गये थे; कुछ खरीदने गये थे, कुछ खरीद लाये। क्योंकि | बेचो तो डब्बे का रंग क्या हो, कितने बड़े अक्षरों में नाम हो, दुकानदार बड़ा कुशल था। उसने बेच दिया कुछ। दुकान पर कितनी ऊंचाई पर दुकान में रखा जाये, कितनी दूरी पर ग्राहक गये थे, दुकानदार ने कुशलता भी न की हो, लेकिन दुकान की खड़ा हो, तो काउंटर कितने फासले पर बनाया जाये, बेचनेवाला खिड़की में सजी हुई चीजों में कुछ चीज जंच गई, जिसकी तुम्हें क्या कहे, कैसे शब्दों का उपयोग करे, क्योंकि जरा-जरा-सी क्षणभर पहले तक कोई भी जरूरत न थी, क्षणभर पहले तक तुम्हें बातें हैं...। सपना भी न आया था उसका; लेकिन बस आंख में पड़ गई, एक भिखमंगा एक घर में भीख मांगने गया। सुंदर है, स्वस्थ सरक गये तुम। शायद जरूरी काम छोड़कर, जो तुम लेने गये है, जवान है। महिला बाहर निकली और उसने कहा कि जवान थे, कुछ और लेकर आ जाओ। तुम जो लेने जाते हो, वही लेकर हो, स्वस्थ सुंदर हो, कोई काम क्यों नहीं करते? जिंदगी में लौटते हो? सफल हो सकते हो, भीख मांगने की जरूरत क्या है? पश्चिम में मनोविज्ञान इस पर बड़ी खोज करता है कि लोग उस आदमी ने कहा, 'अब तुमसे क्या कहें! दुनिया में बहुत हैरानी के निष्कर्ष हाथ लगे हैं। | हैं, लेकिन तुम्हारे मुकाबले कुछ भी नहीं। तुम इस घर में क्या एक उपन्यास बिकता नहीं था; छप गया और बिका नहीं। कर रही हो? तुम तो फिल्म अभिनेत्री हो सकती थीं।' उस स्त्री विशेषज्ञों से सलाह ली तो उन्होंने कहा, इस किताब का नाम ने कह, 'रुक, रुक। मैं अभी तेरे लिए भोजन लाती हूं।' बदल दो, नाम ठीक नहीं है, नाम खींचता नहीं है। नाम बदल | भिखमंगे को भी समझना पड़ता है, क्या कहे, किन शब्दों का दिया, किताब बिकी। ऐसी बिकी, लाखों की प्रतियों में बिकी। उपयोग करे! क्योंकि लोग अंधे हैं। लोगों को पता नहीं, वे क्या सालभर से छपी पड़ी थी, कोई खरीदनेवाला न था। किताब वही कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। तुम से लोग करवा रहे हैं। तुमने की वही, सिर्फ नाम बदलने से कुछ भी नहीं बदला, एक शब्द सैंकड़ों चीजें खरीद ली हैं जो बेचनेवालों को बेचनी थीं, तुम्हें भीतर नहीं बदला है, सिर्फ कवर, खोल बदल गई—और खरीदनी नहीं थीं। किताब बिकने लगी! पुराने अर्थशास्त्र का नियम था कि H जहां-जहां मांग होती है, मनोवैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि चीजें बेचते हैं तो डब्बे वहां-वहां पूर्ति होती है। नये अर्थशास्त्र का नियम है : जहां-जहां का रंग क्या होना चाहिए। क्योंकि उन्होंने सब रंगों के डब्बे पूर्ति होती है वहां-वहां मांग पैदा हो जाती है। तुम चीज तो रखकर देखे। स्त्रियां खरीदने आती हैं, तो वे हिसाब लगाते हैं बनाओ! इसकी तुम फिक्र ही मत करो कि इसकी कोई मांग है या कि कौन-से रंग से ज्यादा आकर्षित होती हैं। कुछ रंग हैं जिनकी नहीं। मांग पैदा कर ली जायेगी। लोग पागल हैं। तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता। अगर उस रंग का डब्बा तुमने | बर्नार्ड शा ने जब पहली दफा अपनी किताबें लिखीं तो बिकी अपनी चीज को बेचने के लिए बना लिया है तो तुम्हारा दिवाला नहीं। क्योंकि नाम बिकता है। कोई नाम तो था नहीं। कोई निकलेगा। अब रंग से भीतर की चीज का कोई भी संबंध नहीं है, | जानता तो था नहीं बर्नार्ड शा को। तो क्या किया उसने? वह 234 | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BBORANASS अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की खुद ही चक्कर लगाकर किताबों की दुकानों पर जाता था खोजी जीवन की रत्ती-रत्ती का होश रखता है। सब चीजें बड़ी पूछने-'जार्ज बर्नार्ड शा की किताब है?' दुकानदार पूछता, हैं। वही करता है जो करना जरूरी है। उसी तरफ जाता है जहां 'कौन जार्ज बर्नार्ड शा?' जाना जरूरी है। व्यर्थ को काटता है, ताकि सार्थक ही बचे। जो ...अरे! तुम्हें जार्ज बर्नार्ड शा का पता नहीं? क्या खाक नहीं करना है, उसे नहीं ही करता है। खिलवाड़ नहीं करता किताबों का धंधा करते हो? इस-इस नाम की किताब छपी जिंदगी के साथ। है।' ऐसा वह खुद ही दुकानों पर चक्कर लगाता। पता बता जिंदगी उसकी एक साधना है, एक उपक्रम है, एक सोपान है। आता उनको। तरकीब से समझा आता। और जब उसने अपने उसकी जिंदगी में एक दिशा है। वह कहीं जा रहा है। मित्रों को भी कह दिया कि तुम जब निकलो कहीं से, कोई विशेष अगर ऐसे तुम सब दिशाओं में भागते रहे, तो तुम कहीं भी न रूप से जाने की जरूरत नहीं, लेकिन रास्ते में अगर किताब की पहुंचोगे। अगर तुम कहीं नहीं पहुंचे हो तो कारण तो खोजो! दुकान पड़ जाये, इतनी कृपा मुझ पर करना, पूछ लेना-जार्ज | कारण यही है कि दो कदम चलते हो बायें तरफ, फिर दिल बदल बर्नार्ड शा की फला-फलां किताब है? कई ग्राहक आने लगे, गया; फिर दो कदम चलते हो दायें तरफ, तब तक फिर दिल रोज आने लगे-कि है कौन जार्ज बर्नार्ड शा?' दुकानदारों ने बदल गया। तुम्हारा दिल है कि पारा है? छितर-छितर जाता पता लगाया, किताबें खरीदकर लाये। जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा, | है। जितना पकड़ो उतना ही छितरता जाता है। सब दिशाओं में ऐसे मेरी किताबों का बिकना शुरू हुआ। बिखर जाता है। ऐसे तुम बिखर गये हो। इस बिखरेपन के चीज होनी चाहिए, फिर चीज के आसपास कांटा, कांटे के कारण ही आत्मा का तुम्हें कोई अनुभव नहीं होता। आसपास आटा होना चाहिए। फिर कोई न कोई फंस जायेगा। महावीर कहते हैं, छोटे को छोटा मत जानना। छोटा बड़ा हो संसार बड़ा मूढ़ है। तुम जरा जागो! जाता है। इसलिए जिससे बचना हो, उसके बीजारोपण के पहले महावीर का इतना ही प्रयोजन है कि तुम जरा जागो, अन्यथा | ही जागना। ऐसे तो यह रास्ता बड़ा ही होता चला जायेगा। इसका कोई अंत 'क्रोध प्रीति को नष्ट करता है। मान विनय को नष्ट करता है। न होगा। माया मैत्री को नष्ट करती है। लोभ सब कुछ नष्ट करता है।' अजल से गर्म-सफर हं, मगर मझे अब तक कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। बिछुड़ गया था मैं जिससे वोह कारवां न मिला। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।। तुम अपने स्वभाव से छूट गये हो। संयोग में उलझ गये हो। 'क्रोध प्रीति को नष्ट करता है...।' बिछड़ गया था मैं जिससे वोह कारवां न मिला! अब लोग हैं, प्रेम चाहते हैं। कौन है जो नहीं चाहता! ऐसा अजल से गर्मे-सफर हूं, मगर मुझे अब तक आदमी खोजा, ऐसे प्राण तुमने कभी पाये जो प्रेम न मांगते हों? -शुरू से, जगत के प्रारंभ से खोज रहा हूं अपने को-और सभी तो प्रेम के भूखे हैं। निरपवाद रूप से सभी प्रेम के लिए मिल नहीं पाता हूं। क्योंकि और दूसरी चीजें बीच में मिल जाती | प्यासे हैं। फिर प्रेम खो कहां गया है? जहां सभी लोग प्रेम हैं जो अटका लेती हैं। कभी धन, कभी पद, कभी प्रतिष्ठा, कभी चाहते हैं और जहां सभी लोग सोचते हैं कि प्रेम दें, वहां प्रेम के यश, कभी रूप, कभी रंग, कभी शब्द, कभी गंध-इंद्रियों के फूल खिलते दिखायी नहीं पड़ते। प्रेम खो कहां गया है? तो हजार जाल हैं! कोई न कोई मिल जाता है। अपने घर तक पहुंच महावीर कहते हैं, प्रेम प्रेम की बात करने से क्या होगा? क्रोध, ही नहीं पाते। कोई न कोई अटका लेता है। प्रीति को नष्ट करता है। तुम क्रोध के बीजों को तो जगह देते जाते ध्यान रखना, कोई तुम्हें अटकाता नहीं। तुम अटकने को तैयार हो और प्रेम की पुकार और गुहार मचाये रखते हो। चिल्लाते ही बैठे हो। कोई न भी अटकाये, तो भी अटकने की कोई रहते हो, प्रेम, प्रेम, प्रेम और क्रोध के बीज पनपाये जाते हो! तरकीब खोज लोगे। बोते हो जहर, अमृत की मांग करते रहते हो! फिर अगर जहर छोटे को छोटा मत मानना। सब चीजें बड़ी हैं। सत्य का का झाड़-झंखाड़ तुम्हारे जीवन को भर देता है और अमृत की 2351 www.jainelibray.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः 1 MARRHERI कोई वर्षा नहीं होती तो कसूर किसका है, उत्तरदायित्व | सबको मरना भी पड़े तो भी उचित है। मेरे सुख के लिए अगर किसका है? | सबको दुखी भी होना पड़े तो भी ठीक है। क्योंकि मैं साध्य हूं, * 'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है...।' और सब साधन हैं। सबके कंधों पर मेरे पैर रखने पड़ें मझे और अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है तो जानना कि क्रोध सबके सिरों से मुझे सीढ़ियां बनाकर चढ़ना पड़े राजमहलों तक, होगा-चाहे बहुत-बहुत करने की वजह से तुम्हें याद भी न चढूंगा। क्योंकि और सब सीढ़ियां होने को ही बने हैं। आती हो अब, ऐसे रग-पग गये होओ क्रोध में कि अब तुम्हें अहंकारी अपने को अस्तित्व का केंद्र मान रहा है। विनम्र का पहचान भी नहीं पड़ता कि क्रोध है। किसी क्रोधी को कहो। वह | क्या अर्थ है ? विनम्र कहता है: मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं? मैं फौरन कहता है, 'कौन कहता है, मैं क्रोध में हूं? मैं क्रोध में नहीं नहीं था, तब भी अस्तित्व था। मैं नहीं हो जाऊंगा, तब भी हूं।' क्रोधी भी यही कहे चला जाता है, मैं क्रोध में नहीं हूं। तुम अस्तित्व होगा। मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता है? एक भी जब क्रोध में पकड़े जाते हो तो तुम स्वीकार नहीं करते कि मैं | तरंग हूं माना, मैं भी एक लहर हूं इस विराट की, पर बस एक क्रोध में हूं। क्रोध को कोई स्वीकार ही नहीं करता और प्रेम की लहर हूं। विराट सत्य है। मेरा होना तो एक सपना है; रात लोग मांग किये जाते हैं। देखा, सुबह खो जायेगा। यह मेरा होना कोई ठोस पत्थर की अगर क्रोध है तो स्वीकार करो, क्योंकि स्वीकार निदान तरह नहीं है, पानी की लकीर है। बनेगा। क्रोध है तो स्वीकार करो कि है, तो मिटाने का कोई तो विनम्र सीख पाता है जीवन के सत्यों को। और अंततः उपाय हो सकता है। जिसे तुम स्वीकार ही न करोगे, उसे | परमात्मा को भी सीख पाता है, क्योंकि उसने पहली शर्त पूरी कर मिटाओगे कैसे? और अगर प्रेम न हो तो महावीर का सूत्र यह दी। उसने झूठ को अंगीकार न किया। उसने सत्य से ही कह रहा है: अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम न हो तो निश्चित जानना शुरुआत की। सत्य से शुरुआत हो तो सत्य पर अंत होता है। कि क्रोध है, चाहे तुम्हें पता चलता हो न पता चलता हो, पुरानी असत्य से ही शुरुआत हो जाये, तो फिर सत्य कहां मिलेगा? आदत हो, मजबूत आदत हो, खून में घुल-मिल गई हो, क्रोध | फिर तो असत्य बढ़ता चला जायेगा। तुम्हारा स्वभाव जैसा हो गया हो कि अब तुम्हें याद भी न आता अहंकारी धीरे-धीरे मद में चूर होता जाता है। आंखें देखने की हो कि अक्रोध क्या है, तो भेद करना मुश्किल हो गया क्षमता खो देती हैं। बोध विलुप्त हो जाता है। एक तंद्रा और हो लेकिन अगर जीवन में प्रेम न हो तो क्रोध है। निद्रा में जीता है। 'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है। मान, विनय को नष्ट करता 'मान, विनय को नष्ट करता है...।' और अगर तुम्हारे है...।' जीवन में विनम्रता न हो तो तुम जान लेना कि कहीं अहंकार का अहंकार, तुम्हारी विनम्रता को नष्ट कर देता है। और विनम्रता शत्रु घात लगाये छिपा बैठा है। नष्ट होती है, बड़ा बहुमूल्य कुछ तुम्हारे भीतर समाप्त हो जाता | 'माया, मैत्री को नष्ट करती है...।' कपट, छल-छिद्र मैत्री है। सीखने की क्षमता खो जाती है। विनम्र सीखने में सक्षम होता को नष्ट करता है। मैत्री का अर्थ ही होता है कि तुम किसी के है। विनम्र खुला होता है। विनम्र तत्पर होता है। कुछ भी नया साथ ऐसे हो जैसे अपने साथ। मैत्री का अर्थ होता है तुम्हारे आये, उसके द्वार बंद नहीं होते। और विनम्र जीवन के सत्य को और मित्र के बीच कोई रहस्य नहीं, कोई छुपाव नहीं, कोई दुराव पहचानता है कि मैं एक खंड मात्र हूं इस विराट का। नहीं। मैत्री का अर्थ होता है : तुम अपने को अपने मित्र के सामने अहंकारी एक बड़ी भ्रांति में जीता है। अहंकारी की भ्रांति यह है बिलकुल नग्न करने में समर्थ हो। तुम जानते हो, तुम्हें भरोसा है कि जैसे मैं केंद्र हूं सारे विश्व का, जैसे सब मेरे लिए हैं और मैं प्रेम का। तुम जानते हो कि तुम जैसे हो, तुम्हारा मित्र तुम्हें किसी के लिए नहीं; जैसे सब मेरे साधन हैं और मैं साध्य हूं। स्वीकार करेगा। उसका प्रेम बेशर्त है। अगर मित्र से भी तुम्हें अहंकार को अगर हम ठीक से समझें तो उसका अर्थ होता है | कुछ छिपाना पड़ता हो, तो तुम मित्र को भी शत्रु मान रहे हो। सारा जगत साधन है और मैं साध्य हं। मेरे जीवन के लिए अगर | मैक्यावली ने लिखा है...। ठीक महावीर से उलटा है 2361 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की मैक्यावली। इसलिए महावीर को समझना हो तो मैक्यावली को | सकते हैं। मित्र के सामने तो हम अपना कलुष, अपना पाप, भी समझना उपयोगी होता है। मैक्यावली ने लिखा है : मित्र से अपना अपराध, सभी प्रगट कर सकते हैं। क्योंकि हम जानते हैं, भी ऐसी बात मत कहना जो तुम शत्रु से न कहना चाहते होओ; प्रेम का भरोसा है। उस प्रेम की छाया में सब स्वीकार है। क्योंकि कौन जाने, जो आज मित्र है कल शत्रु हो जाये। फिर तुम क्योंकि मित्र ने हमें चाहा है किन्हीं कारणों से नहीं; अकारण पछताओगे कि अच्छा होता, इससे यह बात न कही होती। चाहा है। तो किन्हीं कारणों से टूटेगी नहीं मैत्री। ऐसा नहीं है कि मैक्यावली यह कह रहा है कि तुम मित्र के साथ भी ऐसा ही मित्र देख लेगा कि अरे, तुमने और ऐसा पाप किया। दोस्ती व्यवहार करना, जैसा तुम शत्रु के साथ करते हो; क्योंकि मित्र खतम! नहीं, मित्र तुम्हारे पाप के प्रति भी करुणा का भाव यहां शत्रु भी हो जाते हैं। महावीर से पूछो तो महावीर कहेंगेः रखेगा। वह कहेगा, सभी से होता है, मनुष्य मात्र से होता है। मित्र की तो बात ही छोड़ो, तुम शत्रु के साथ भी ऐसा व्यवहार | मित्र तुम्हें समझने की कोशिश करेगा। मित्र तुम्हारी निंदा नहीं करना जैसा मित्र के साथ करते हो; क्योंकि कौन जाने जो आज करेगा। जरूरत होगी तो आलोचना करेगा, निंदा नहीं। लेकिन शत्रु है, कल मित्र हो जाये। तो ऐसी कुछ बातें मत कह देना जो आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि श्रेष्ठतर का आगमन हो कल फिर लौटाना बड़ी मुश्किल हो जाये। फिर थूके को चाटने सके। आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि तुम और बड़े होने जैसा होगा। जिससे दुश्मनी है, उसको हम ऐसी बातें कहने को हो, तुम अभी और खुलने को हो; यह कली इतने ही होने को लगते हैं जो बिलकुल अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। कहते हैं, राक्षस है। नहीं, तुम्हारी नियति और बड़ी है। कल तक नर में छिपा नारायण था, आज राक्षस! लेकिन कल मित्र अगर तुम्हारी आलोचना भी करेगा तो उसमें गहन प्रेम अगर यह मैत्री फिर बनी, तो फिर कहां मुंह छुपाओगे? फिर होगा। और शत्रु अगर तुम्हारी प्रशंसा भी करता है तो उसमें भी कैसे लौटाओगे? फिर कैसे कहोगे कि यह नर में नारायण, फिर | व्यंग्य होता है; उसमें भी कहीं गहरी निंदा का स्वर होता है, कहीं राक्षस नहीं है। कटाक्ष होता है। महावीर कहते हैं: मैत्री को तुम आधार मानकर चलना। जो मैत्री तो संभव है तभी, जब माया बीच में न हो। इसलिए आज मित्र है, वह तो मित्र है ही; जो आज नहीं है, वह भी हो दुनिया में मैत्री धीरे-धीरे खोती गई है। लोग नाममात्र को मैत्री सकता है कल मित्र हो जाये। जो आज शत्रु है वह भी मित्र हो कहते हैं; उसे परिचय कहो, बस ठीक है; इससे ज्यादा नहीं। सकता है। और महावीर की बात मानकर जो चलेगा, धीरे-धीरे दुनिया से मैत्री का फूल तो करीब-करीब खो गया है। क्योंकि पायेगाः उसके शत्रु मित्र हो गये। और मैक्यावली की जो मैत्री के फूल के लिए सरलता चाहिए, निष्कपटता चाहिए। मानकर चलेगा, वह पायेगा : उसके मित्र धीरे-धीरे शत्रु हो गये; कपट, माया अगर बीच में आई तो मैत्री समाप्त हो जाती है। क्योंकि तुमने कभी उनसे मित्र जैसा व्यवहार ही नहीं किया। अगर गणित बीच में आया तो मैत्री समाप्त हो जाती है। मैत्री तो अगर मित्र से भी छिपाना पड़े, इसी को महावीर माया कहते हैं। एक काव्य है-गणित नहीं, तर्क नहीं। मित्र के सामने हम 'माया, मैत्री को नष्ट करती है...।' | अपने को वैसा ही प्रगट कर देते हैं जैसे हम हैं। इसलिए तो मित्र माया का अर्थ है: सच न होना। माया का अर्थ है: धोखे के पास राहत मिलती है। कम से कम कोई तो है जिसके पास देना। माया का अर्थ है : जो तम नहीं हो, वैसे दिखाना। माया जाकर हमें झूठ नहीं होना पड़ता; नहीं तो चौबीस घंटे झूठ। का अर्थ है : प्रामाणिक न होना। माया का अर्थ है : प्रवंचना। पत्नी है तो उसके सामने झूठ। दफ्तर है, मालिक है, तो उसके माया का अर्थ है: दिखावा, धोखा; आंख में आंसू भरे थे, सामने झूठ। बाजार में संगी-साथी हैं, उनके साथ झूठ। सब लेकिन मुस्कुराने लगे, तो यह मैत्री न हुई। मित्र के सामने तो हम तरफ झूठ है। तो तुम कहीं खुलोगे कहां? तुम बंद ही बंद मर रो भी सकते हैं। और किसके सामने रोओगे? अगर मित्र के | जाओगे। हवा का झोंका, सूरज की किरणें तुममें कहां से प्रवेश सामने भी नहीं रो सकते तो फिर और कहां रोओगे? मित्र के करेंगी? तुम कब्र बन गये। कहीं कोई तो हो कहीं, जहां तुम सामने तो हम अपना दुख, पीड़ा, दैन्य, सभी कुछ प्रगट कर शिथिल होकर लेट जाओ; जहां तुम जैसे हो वैसे ही होने को Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 स्वतंत्र होओ; जहां कोई मांग नहीं है; जहां मित्र की आंख यह तो सीमा होगी। बस प्रेम। प्रेम, तुम्हारे होने का ढंग। प्रेम, नहीं कह रही है कि ऐसे नहीं, ऐसे होओ। तुम्हारे होने की सुगंध, सुरभि। प्रेम, तुम्हारे होने की व्यवस्था। मैत्री बड़ी अनूठी घटना है। शब्द ही बचा है संसार में। मैत्री कोई न भी हो, तुम अकेले कमरे में बैठे हो तो भी प्रेम से भरे बैठे के फूल बहुत कम खिलते हैं। क्योंकि मैत्री के फूल के खिलने के | हो। उस शून्य में ही प्रेम उंडेल रहे हो। वक्षों के पास बैठे हो तो लिए दो ऐसे व्यक्ति चाहिए जो निष्कपट हों, जिनके बीच माया वृक्षों से प्रेम-वार्ता चल रही है। चांद-तारों को देखा है तो वहीं न हो। प्रेम का आलिंगन होने लगा। सरिता-सागर के पास गये हो तो 'माया, मैत्री को नष्ट करती है। और लोभ, सब कुछ नष्ट वहीं मैत्री का सुर बजने लगा। अकेले कि भीड़ में, अकेले कि कर देता है।' अगर तुम्हारी जिंदगी में खंडहर ही खंडहर मालूम साथ में, सुख में कि दुख में लेकिन प्रेम की वीणा बजती ही पड़ता हो, मरूद्यान का कहीं कोई पता न चलता हो, मरुस्थल ही रहे; वह तुम्हारे भीतर श्वास हो जाये अहर्निश! पता हो न पता मरुस्थल, तो एक बात जान लेना कि तुमने लोभ के ढंग से ही हो, श्वास जैसे चलती रहती है, ऐसा प्रेम भी डोलता रहे! जीना सीखा है, तुम और कुछ नहीं जान पाये। लोभ, सब कुछ इस प्रेम की परम घटना के लिए महावीर ने अहिंसा नाम दिया नष्ट कर देता है। है। इस प्रेम को जीसस ने ईश्वर कहा है। प्रेम ईश्वर है। यह महावीर निदान कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, अगर तुम्हारी लोभ, सब कुछ नष्ट कर देता है। 'लोहो सव्वविणासणो!' जिंदगी में कोई रस-वर्षा न होती हो, तो दोष मत देना किसी लोभ और प्रेम विपरीत हैं। इसे समझो। लोभी व्यक्ति प्रेम को—इतना ही जानना कि तुम लोभ में बड़े गहरे उतर गये हो। नहीं कर पाता-कर ही नहीं सकता। क्योंकि प्रेम में बांटना तुमने लोभ की बड़ी गहरी सीढ़ियां पार कर ली हैं। तुम लोभ के पड़ता है, देना पड़ता है। लोभी कृपण होगा, बांटेगा कैसे? कुएं में डूब गये हो। तो ही ऐसा होता है कि सब नष्ट हो जाये। लोभ तो इकट्ठा करता है। लोभ तो जो इकट्ठा कर लेता है, उसकी उसने मंशाए-इलाही को मकम्मिल कर दिया रक्षा में लग जाता है उसमें से कोई एक पैसा खींच न ले! अपनी आंखों पर जिसने लिये मुहब्बत के कदम। इसलिए तो इस देश में कहावत है कि जब कोई लोभी मरता है, जिसने मैत्री सीखी, जिसने प्रेम सीखा, जिसने मैत्री के लिए | मरकर सांप हो जाता है; मंडली मारकर, कुंडली मारकर, बैठ माया छोड़ी, जिसने प्रेम के लिए क्रोध छोड़ा, जिसने विनय के | जाता है अपने खजाने पर। अब सांप कोई सोने को भोग नहीं लिए मान छोड़ा, और जिसने जीवन को सृजनात्मक गति देने के सकता–भोगने का सवाल भी नहीं है। लिए लोभ से विदा ली-उसने मंशाए-इलाही को मुकम्मिल लोभी बड़ा अदभुत आदमी है। जरा उसको समझो। क्योंकि कर दिया; उसने परमात्मा की आकांक्षा पूरी कर दी। वह सबके भीतर छिपा है, उसे समझना जरूरी है। लोभी बड़ा ..अपनी आंखों पर जिसने लिए मुहब्बत के कदम। अनूठा आदमी है। साधारण घटना नहीं है लोभी। लोभी उतनी -फिर उसकी आंखों पर मुहब्बत की छाया पड़ने लगी। फिर ही बड़ी असाधारण घटना है जितनी बड़ी असाधारण घटना प्रेमी उसके हृदय में मुहब्बत के कमल खिलने लगे। है। दोनों छोर हैं, अतियां हैं। लोभी भोगता नहीं, सिर्फ भोग की प्रेम परम घटना है। अब इसे हम समझें। आशा को भोगता है। धन इकट्ठा कर लेता है, उसे खर्च नहीं महावीर कहते हैं, लोभ से सब नष्ट हो जाता है और प्रेम से करता। खर्च में तो कम होगा। धन इकट्ठा कर लेने में ही उसका सब उपलब्ध हो जाता है। महावीर कहते हैं, 'मित्ति मे भोग है। धन तो सिर्फ संभावना है। तुम सोने की ईंट रखकर बैठे सव्वभुएषु।' सबसे मैत्री, सबसे प्रेम, सर्वभूतों से। क्योंकि रहो कि मिट्टी की ईंट रखकर बैठ लो, कुछ फर्क न पड़ेगा। फर्क महावीर कहते हैं, एक से ही प्रेम करने में इतने कमल खिलते हैं, | तो तब पड़ेगा जब तुम भोगने जाओगे; बिना भोगे तो मिट्टी की जरा सोचो, सबसे प्रेम! प्रेम तुम्हारा स्वभाव बन जाये। प्रेम ईंट और सोने की ईंट बराबर है। तुम्हारे खीसे में रुपया है या संबंध न रहे। ऐसा नहीं कि किसी से प्रेम और किसी से नहीं; | नहीं, इसका पता तो तभी चलेगा जब तुम भोगने जाओगे। जब क्योंकि ऐसे प्रेम में तो कुछ न कुछ कमी रह जायेगी। ऐसे प्रेम में बाजार में कुछ खरीदने जाओगे, तब पता चलेगा कि रुपया है या 2381 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMA अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की - नहीं; क्योंकि हो कैसे सकती थी? चीज तो प्रगट तब होती है नहीं। अगर खरीदने कभी गये ही नहीं तो खीसे में रुपया था या नहीं, बराबर है। लोभी बड़ा अदभुत आदमी है। वह रुपया तो इकट्ठा करता है, बंद, तो मर जाता है, होता ही नहीं। क्या फर्क पड़ता है कि तुम्हारे निर्धन ही होता है; क्योंकि धन का तो पता ही तब चलता है...। रही, तुम जीये तिजोड़ी के बाहर, मरे तिजोड़ी के बाहर। लाख रुपया धन थोड़े ही है। जिस क्षण तुम रुपये को खर्च करते हो, रुपया बंद था कि नहीं था बंद, क्या फर्क पड़ता है? कोई भी तो उस क्षण धन बनता है। फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ सकता था, अगर तुम बांटते। लोभी इसे थोड़ा समझना। तुम्हारे खीसे में एक रुपया पड़ा है। इसमें | | बांटता नहीं। बाहर के धन को ही नहीं, जब बाहर के धन को ही कई चीजें छिपी हैं: चाहो तो एक आदमी रातभर मालिश नहीं बांटता तो भीतर के धन को क्या खाक बांटेगा? जब क्षुद्र करे-इस एक रुपये में छिपा पड़ा है। अब एक आदमी को रुपये नहीं बांट सकता, तो जीवन की महिमा क्या बांटेगा? खीसे में रखकर चलो, बहुत वजन हो जायेगा, भारी पड़ेगा। ठीकरे नहीं बांट सकता, तो हृदय कैसे लुटायेगा? और प्रेम के चाहो तो गिलासभर दूध पी लो, इस रुपये में वह छिपा पड़ा है। लिए तो चाहिए हृदय लुटानेवाला, बांटनेवाला, देनेवाला। चाहो तो जाकर तीन घंटे फिल्म में बैठ जाओ। चाहो तो होटल में प्रेम है बांटने की कला। लोभ है इकट्ठा करने की कला। मगर भोजन कर लो। चाहो तो किसी को दान दे दो, किसी भूखे का | तुम जो इकट्ठा करते हो, वह व्यर्थ है। इसलिए लोभी से ज्यादा पेट भर जाये। हजार संभावनाएं हैं एक रुपये में। यही तो रुपये | दरिद्र कोई भी आदमी नहीं है। देखना, कभी देते वक्त उस पुलक की खूबी है। रुपया बड़ा अदभुत साधन है! क्योंकि अगर तुम्हें एक ही चीज देते हो! एक पैसा हो कि लाख रुपया हो, इससे कुछ फर्क नहीं पकड़नी हो....तो तुम्हें एक आदमी से अगर मालिश करवानी है पड़ता। वह रुपया न भी हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। तो आदमी रख लो, लेकिन फिर उस आदमी का तुम दूसरा | तुमने किसी का हाथ ही प्रेम से हाथ में ले लिया हो, तुम किसी के उपयोग न कर सकोगे। नाश्ता करना चाहो तो क्या करोगे? | पास ही दो क्षण गहरी सहानुभूति से बैठ गये हो। तुम एक फूल, सिनेमा देखने जाना चाहा तो क्या करोगे? रुपया बड़ी अनूठी जंगली फूल रास्ते के किनारे से तोड़कर किसी को दे दिये चीज है! मनुष्य की बड़ी गहरी ईजादों में एक ईजाद है रुपया। हो–उस घड़ी जरा जागकर देखना, क्या घटता है! जब तुम | इसमें सब चीजें समाई हैं। लेकिन अभी कोई भी चीज प्रत्यक्ष कछ देते हो, तब तम्हारे भीतर कैसा आविर्भाव होता है। कैसा नहीं है, सब अप्रत्यक्ष है। अभी कोई भी चीज वास्तविक नहीं है, प्रसाद ! कैसा बरसाव हो जाता है! सिर्फ संभावना है। इसलिए तो अनंत संभावनाएं रुपये में छिपी इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जब तुमसे कोई कुछ लेने को राजी हैं। इसलिए तो लोग रुपये के लिए इतने पागल हैं; क्योंकि हो जाये तो उसका धन्यवाद भी करना। उसे देना तो, साथ में रुपया तिजोड़ी में है तो अनंत संभावनाएं हाथ में हैं। दक्षिणा भी देना। दक्षिणा यानी धन्यवाद में भी कुछ देना। लेकिन रुपया बिलकुल खाली है, जब तक उसका उपयोग न क्योंकि अगर वह इनकार कर देता तो तुम्हारा धन, धन न हो करो-है ही नहीं रुपया। उसका कोई मतलब नहीं है। तिजोड़ी | पाता। तुमने एक पैसा जाकर किसी गरीब को दे दिया, उस में बंद है तो व्यर्थ है। रुपये की सार्थकता तभी है, जब वह तुम्हारे गरीब ने लेकर तुम्हारे पैसे को पैसा बनाया; उसके पहले वह हाथ से दूसरे हाथ में जाता है। बीच में रुपया धन होता है। देने में पैसा नहीं था। उस गरीब ने उसको धन बनाया। धन्यवाद कौन धन है। भोगने में धन है। रोकने में तो धन मिट्टी हो जाता है। किसका करे? और यह सारे जीवन के धन के संबंध में सही है। वही चीज पुराने शास्त्र कहते हैं कि तुम उसे धन्यवाद में भी अब कुछ तुम्हारे पास है जो तुम दे देते हो। यह बड़ा विरोधाभास लगेगा। देना, कि तेरी बड़ी कृपा, तू इनकार भी कर सकता था; तू कहता, जो तुम्हारे पास है और तुमने कभी भी न दी वह तुम्हारे पास थी ही नहीं लेते-फिर? 239 www.jainelibrary org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग Pos प्रेम की दुनिया में, जो लेनेवाला है वह भी कुछ दे रहा है। यही है, खूब दिया है। उनके पास खूब था, खूब है। हर रिश्तेदार को तो प्रेम का मजा है! जो लेनेवाला है वह भी कुछ दे रहा है। उन्होंने लखपति बना दिया है। हर मित्र को लखपति बना दिया देनेवाला ही नहीं दे रहा है, लेनेवाला भी दे रहा है। दोनों दे रहे है। जिसके साथ भी उनका संबंध रहा है, वह जल्दी ही लखपति हैं। और कोई घाटे में नहीं है। किसी ने धन दिया, किसी ने हो गया। लेकिन जिनने भी उनसे लिया, वे सब उनसे नाराज हैं। लिया: लेकर उसने उस धन की हंडी को स्वीकारा। अभी तक तो वे मुझसे कहने लगे, कि क्या हो गया। मेरा दुर्भाग्य कैसा हुंडी थी, अब धन हुई। उसने तुम्हें धनी बना दिया। तुम्हारी दया है? मैंने क्या कमी की, मेरा कसर क्या है? को स्वीकार करके तुम्हें दयालु बना दिया। तुम्हारे प्रेम को मैंने कहा, कसर तुम्हारा यह है, कि तुमने सिर्फ दिया और स्वीकार करके तुम्हें प्रेमी बना दिया। तुम्हारे हाथ से जब देने की उनको तुमने देने का कभी मौका नहीं दिया। तुम थोड़ा उनको भी घटना घटी, उस क्षण तुम्हारे हृदय में कोई फूल खिल गया। मौका देते। लेन-देन होता तो ठीक था। तुमने दिया ही दिया। देकर आदमी धन्यभागी होता है। और तुम अहंकारी हो। और तुम लेने पर राजी नहीं हो। तुम दाता लोभी प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम की यात्रा तो बिलकुल बने रहना चाहते हो।। उलटी है; वह बांटने की है और देने की है। लोभी सिर्फ रोकता तो अगर तुम दाता ही रहोगे तो जिसको तुमने दीन बना दिया है। लोभ एक तरह की कब्जियत है, बीमारी है। देकर, वह अगर नाराज हो तो आश्चर्य क्या? वह अगर तुम्हें लो भी, दो भी-जीवन लेना-देना है। क्षमा न कर सके तो आश्चर्य क्या? वह तुमसे बदला लेगा। अब एक और बात तुमसे कह देना चाहता हूं: कुछ लोगों को | तुमने उसके अहंकार को बड़ी चोट पहुंचा दी। ऐसी भ्रांति पकड़ जाती है या तो वे कहते हैं कि हम देंगे नहीं; मैंने कहा, कभी उनको भी मौका दो। धन की तुम्हें जरूरत या वे कहते हैं, हम लेंगे नहीं। लोभी हैं: पहले धन को पकड़ते नहीं; लेकिन हजार और चीजों की जरूरत है। जिस मित्र को थे; वे कहते थे कि हम देंगे नहीं। फिर समझ में आया कि यह तुमने लाखों दिये हैं, कभी उससे इतना ही कह दिये कि आज मुझे धन तो सब मिट्टी हुआ जा रहा है, यह तो पकड़ से ही मिट्टी हुआ | जरा कार की जरूरत है, भेज दो। वह कार तुम्हारी ही दी हुई है, जा रहा है, तो वे कहते हैं, हम देंगे, अब लेंगे नहीं। तुम ऐसे लेकिन उसे भी तो थोड़ा मौका दो कि तुम्हारे लिए कुछ कर सके। आदमी को धार्मिक कहते हो। यह आदमी धार्मिक नहीं है। यह पर वे कहने लगे, मुझे जरूरत ही नहीं है। मेरे पास ऐसे ही अधार्मिक आदमी है; क्योंकि यह किसी दूसरे को मौका नहीं देता काफी है। कि उसकी मिट्टी धन हो जाये। यह कैसी बात हुई ? परम 'कभी तुम बीमार पड़ते हो, किसी मित्र को फोन करके कहो धार्मिक तो वह है जो लेने-देने में कुशल है, दोनों में कुशल है। कि आओ, मेरे पास बैठ जाओ; तुम्हारा होना मुझे सुख देगा। यह तो धार्मिक न हुआ, अहंकारी हुआ। यह कहता है, हम तो यह भी तुमने कभी नहीं किया। तुम कुछ तो करो। तुम्हारे बेटे सिर्फ देंगे, हम ले नहीं सकते—मैं और लूं! की शादी हो तो अपने मित्रों को कहो कि आओ, तुम्हारे बिना एक बहुत बड़े धनी व्यक्ति हैं, मेरे मित्र हैं। एक दफा मेरे साथ शादी न हो सकेगी। कुछ तो करो। तुम बिलकुल पत्थर की तरह यात्रा पर गये तो अपने दिल की बातें खोलने लगे। काफी समय हो। तुम देते तो हो, लेकिन देना भी तुम्हारा अहंकार से भरा है; तक साथ था, तो छिपा न सके; कुछ-कुछ बातें करने लगे। एक क्योंकि लेने के लिए तुम्हारा हाथ कभी नहीं फैलता। इसलिए उन्होंने अपने बड़े दिल की, दुख की बात कही कि 'मैंने अपनी जिसको तुम देते हो, वही तुम पर नाराज है। जिसको तुम देते हो, जिंदगी में अपने सब रिश्तेदारों को खूब दिया, मित्रों को दिया। वही अनुभव कर रहा है कि तुमने उसे नीचे गिराया। तुमने हाथ और यह सच है, मैं जानता हूं, उन्होंने दिया। लेकिन कैसा मेरा सदा ऊपर रखा; दूसरों के हाथ सदा नीचे रखे।' अभाग्य है कि जिनको भी मैं देता हूं, वे कोई भी मुझसे प्रसन्न मेरे लिए धार्मिक आदमी वह है जो तुम्हें देता भी है और तुमसे नहीं!' और यह भी मैं जानता हूं कि जिनको भी उन्होंने दिया है, | लेता भी है-और लेन-देन बराबर रखता है। कोई क्षुद्र-सी वे सब उनसे नाराज हैं। और वे झूठ नहीं कह रहे हैं; उन्होंने दिया चीज तुमसे ले लेता है। मगर तुम्हें मौका देता है देने का भी। 240 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म प्रक्रिया हे जागरण की क्योंकि तुम भी तो खिलो! अगर देने से ही लोग खिलते हैं तो | मोतियों का हार मुझे पहनाकर वे अति प्रसन्न हो लिया। वह तुम भी तो खिलो! कोई छोटी-मोटी चीज। चीजों के मूल्यों का बार-बार मुझे धन्यवाद देने लगा कि मैं डरा हुआ था कि कहीं कोई सवाल नहीं है। कोई तुमसे इतना ही कह दे कि वह जो आप भी मना न कर दें। मैंने कहा, मैं किसी भी तरफ से कंजूस पत्थर पड़ा है, मेरे लिए उठाकर ला दो, और तुम्हें धन्यवाद दे दे, नहीं हूं। जो मेरे पास है, तुम्हें देता हूँ; जो तुम्हारे पास है, लेने को तो भी तुम भर जाओगे। क्योंकि जब भी तुम कुछ दे पाते हो, हमेशा तैयार हूं। यह बात तो जरा गलत है और अहंकार की है तभी तुम्हारी आत्मा भरती है और खिलती है। कि मैं सिर्फ दंगा, लंगा नहीं। मैं और लं। मैं और इतना छोटा हो तो मैं तुम्हारी एक भ्रांति को स्पष्ट कर देना चाहता हूं। प्रेम जाऊं कि तुमसे लूं! क्षुद्र सांसारिक पुरुषों से कुछ लूं! सिर्फ देना ही देना नहीं है। नहीं तो वह तो अहंकार हो जायेगा, मैंने कहा, तुम फिक्र छोड़ो; क्योंकि मेरे लिए कोई क्षद्र नहीं वह प्रेम नहीं होगा। प्रेम तो लेने-देने की छूट है। प्रेम तो देता भी है। परमात्मा ही दोनों तरफ बैठा है। अगर तुम्हें कुछ लगा है कि खूब है, लेता भी खूब है। प्रेम न तो इस तरफ कंजूस है, न उस मुझसे तुम्हें मिला है और तुम बेचैनी अनुभव करते हो बिना कुछ तरफ कंजूस है। प्रेम अकड़ा हुआ नहीं है। प्रेम विनम्र है। वह दिए-और ठीक है बेचैनी, अनुभव होनी चाहिए; जिसके कभी हाथ नीचे भी कर लेता है। वह कभी हाथ ऊपर भी कर देता भीतर भी धड़कता हुआ दिल है, अनुभव होगी तो तुम ले है। प्रेम लेने और देने को खेल मानता है। इस आवागमन में आना, तुम्हारे पास जो हो ले आना। मैं न तो भोगी ऊर्जा के आने-जाने में, जीवन ताजा रहता है। और खेल बड़ा हूं। मैं कृपण हूं ही नहीं। भोगी भी कृपण है, त्यागी भी कृपण महिमावान है, क्योंकि दोनों इस लेने-देने में निखरते हैं; दोनों है। एक ने भोग को पकड़ा है, एक ने त्याग को पकड़ा है। मैं बड़े होते हैं; दोनों खिलते हैं, विकसित होते हैं। सिर्फ जीवंत हूं। आओ, जाओ। तुमने मेरे लिए हृदय खोला है, सुनो! इसे गुनो! तुम त्यागियों जैसे अहंकारी मत बना जाना, | तो मेरा हृदय भी तुम्हारे लिए खुला है। और मैं तुम्हारे आंसू जो कहते हैं, हमने सब त्याग किया। ये लोभी हैं-शीर्षासन समझ सकता हूं। तुम कुछ और बड़ा लाना चाहते थे; तुम जानते करते हुए-जो कहते हैं, हम कुछ न लेंगे। | हो, कंकड़-पत्थर लाये हो। लेकिन क्या करो, तुम्हारी मजबूरी एक बड़ा अदभुत आदमी है बंबई में: रमणीक जौहरी। वह है! जो तुम्हारे पास था वही तुम लाये हो। लाने के भाव का मूल्य मेरे पास आया। वह एक मोतियों का हार बना लाया था। है; क्या तुम ले आये हो, यह थोड़े ही सवाल है! उसकी आंखों में आंसू थे। उसने मुझे हार पहनाया। उसने कहा खयाल रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि प्रेम का अर्थ कि आप मना मत करना। पर मैंने कहा, तुम रो क्यों रहे हो? होता है। बस दो। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, प्रेम का अर्थ होता वह कहने लगे, मैं खुशी से रो रहा हूं। मैंने कहा, 'तुम मुझे पूरी है: तुम भी बड़े होओ, दूसरे को भी बड़ा होने दो; तुम भी फैलो बात कहो।' दूसरे को भी फैलने दो। दो भी, लो भी। और तुम्हारे बीच वे जैन हैं, तेरापंथी जैन हैं। तो उसने कहा, मैं आचार्य तुलसी लेने-देने में एक संतुलन हो। ये दोनों पंख तुम्हें उड़ायें खुले का भक्त हूं। उसी घर में, उसी परंपरा में पैदा हुआ। उनको मैं | आकाश में। कुछ देना चाहता हूं, लेकिन वे तो कुछ ले नहीं सकते। इसलिए और जल्दी करो। लेन-देन कर लो। क्योंकि बाजार जल्दी ही मेरा कोई संबंध ही नहीं बन पाता। संबंध तो तब बनता है जब उठ जायेगा। दुकानें बंद होने का वक्त भी आ गया। सांझ होने दोनों तरफ से कुछ आदान-प्रदान हो। वे मुझसे कुछ ले ही नहीं लगी। लोग अपने-अपने पसारे इकट्ठा करने में लगे हैं। ऐसा न सकते; क्योंकि वे कहते हैं, वे त्यागी हैं। इसलिए आपसे मैंने हो कि पीछे तुम पछताओ-जब जा चुके बाजार, न कोई लेने प्रार्थना की। मैं किसी को, जो मुझसे बड़ा हो, कुछ देना चाहता को हो, न कोई देने को हो। हूं। क्योंकि उस देने में मैं भी बड़ा हो जाऊंगा, मैं भी कुछ शराबे-जीस्त अभी सेर हो के पी भी नहीं खिलूंगा। आप मना मत करना! कि सुन रहा हूं सदाए शिकस्त सागर की उस दिन जो आंसू उसकी आंखों से बहे, वे बड़े बहुमूल्य थे। | -अभी जीवन की मदिरा को तम पी भी तो नहीं पाये; लेकिन 241 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 देखो, मदिरा-पात्र के टूटने की आवाज आने लगी! के साथ एक युवक चल रहा था। उसने कहा, 'यह माजरा क्या शराबे-जीस्त अभी सेर हो के पी भी नहीं है? इस आदमी ने तुम्हें चोट पहुंचाई; तुम उलटे उसकी लकड़ी -अभी मन भरकर पी भी नहीं पाये जीवन के मधु को, | उसको उठाकर दे रहे हो? तुम कुछ कहे ही नहीं?' कि सुन रहा हूं सदाए शिकस्त सागर की। उसने कहा, 'अब कहना क्या है ? रास्ते से गुजर रहा हूं, और -और यह तो मधु-पात्र के टूटने की आवाज आने लगी। एक वृक्ष से शाखा गिर पड़े और मेरा सिर तोड़ दे, तो क्या जन्म के साथ ही तो मधु-पात्र के टूटने की आवाज आने लगती कहूंगा? कुछ भी नहीं कहूंगा। यह क्या कहने की बात है? है। इसके पहले कि मधु-पात्र टूट जाये, पीयो, पिलाओ। लो, संयोग की बात है कि वृक्ष की शाखा ट्टने को थी और हम दो। मिलो-जुलो। फैलो, दूसरों को फैलने दो। गतिमान, | गुजरते थे। हो गया मिलन आकस्मिक, अब कहना क्या है? गत्यात्मक हो तुम्हारा जीवन! कहीं भी जकड़ा न हो; न इस इस आदमी को मारना था किसी को, हम मिल गये। वृक्ष की किनारे न उस किनारे। उठने दो लहरें इस किनारे से उस किनारे शाखा टूटी, समय पर सिर पर पड़ गई। इससे कहना क्या है? तक! आने दो लहरें उस किनारे से इस किनारे तक! तुम दोनों | और यह जो कर सकता था, वही इसने किया है; न कर सकता किनारों के बीच का फैलाव बनो! तब तुम्हारे जीवन में सम्यक होता तो करता ही क्यों? जो इसके भीतर हो सकता था, हुआ धर्म का उदय होता है। है। मैं कौन हं?' 'क्षमा से क्रोध को हरें, क्षमा से क्रोध का हनन करें, नम्रता से यह संसार मेरी अपेक्षा से चले, इससे ही तो क्रोध पैदा होता मान को जीतें, ऋजुता से माया को, और संतोष से लोभ को।' है। जिस-जिस को तुमने अपनी अपेक्षा से चलाना चाहा, उसी 'क्षमा से क्रोध को...।' जब तुम क्रोध करते हो तो क्या कर पर क्रोध होता है। इसलिए जिनसे तुम्हारी जितनी ज्यादा अपेक्षा रहे हो? क्रोध तुम्हारा एक दृष्टिकोण है। क्रोध तुम्हारा ऐसा | होती है, उनसे तम्हारा उतना ही क्रोध होता है। पत्नी पति पर दृष्टिकोण है जो तुमसे कहता है : जो नहीं होना चाहिए था वह | आग-बबला हो जाती है: हर किसी पर नहीं होती हुआ है। किसी ने कुछ कहा, क्रोध का अर्थ है : तुम यह कहते हो | पर होने का सवाल ही कहां है? अपेक्षा ही नहीं है। जिससे कि नहीं यह कहना चाहिए था। तुम्हारी कुछ और अपेक्षा थी। अपेक्षा है...। बाप बेटे पर क्रोधित हो उठता है अपेक्षा है। क्रोध के पीछे अपेक्षा छिपी है। अगर एक कुत्ता आकर भौंक बड़ी आशाएं बांधी हैं इस बेटे से और यह सब तोड़े दे रहा है। जाये तो तुम नाराज नहीं होते; क्योंकि तुम जानते हो कुत्ता है, | सोचा था, यह बनेगा, वह बनेगा, बड़े सपने देखे थे और यह भौंकेगा। लेकिन आदमी आकर भौंक जाये तो तुम नाराज हो सब उलटा ही हुआ जा रहा है। जाते हो। आदमी है तो तुम्हारी बड़ी अपेक्षा थी। __ जिससे तुम्हारी अपेक्षा है, ध्यान रखना वहीं-वहीं क्रोध पैदा क्षमा का अर्थ है : तुम्हारी कोई अपेक्षा नहीं; जो दूसरा कर रहा | होता है। जिनसे तुम्हारे कोई संबंध नहीं हैं, कोई क्रोध पैदा नहीं है, वही कर सकता था, इसलिए कर रहा है। जो गाली दे सकता होता। पड़ोसी का लड़का भी बर्बाद हो रहा है, वह भी शराब था, गाली दे रहा है। जो गीत गा सकता था, गीत गा रहा है। पीने लगा है-मगर इससे तुम्हें चिंता नहीं होती। क्षमा एक दृष्टिकोण है। क्षमा का यह अर्थ है कि हमारी कोई सुना है मैंने एक यहूदी अपने धर्मगुरु के पास गया और उसने अपेक्षा नहीं; हम हैं कौन, जो तुमसे अपेक्षा करें। मैं हूं कौन, जो | कहा, 'मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। मेरा लड़का अमरीका गया तुमसे अपेक्षा करूं कि तुम ऐसा व्यवहार करो तो ठीक, ऐसा न था, लौटकर आया तो वह ईसाई हो गया। मेरा लड़का और करोगे तो मैं क्रोधित हो जाऊंगा! ईसाई! और हम परंपरा से बड़े रूढ़िवादी यहदी हैं। यह बर्दाश्त एक झेन फकीर राह से गुजर रहा था, एक आदमी आकर नहीं हो रहा। आत्महत्या करने का मन होता है।' उसको लट्ठ मार दिया। घबड़ाहट में वह आदमी भागने को था, धर्मगुरु ने कहा, 'बहुत चिंता न करो। मेरी तो सुनो। तुम्हारा उसकी लकड़ी भी हाथ से छूट गई, तो उस फकीर ने लकड़ी तो एक लड़का है। हो गया, कोई बात नहीं है। फिर तुम कोई उठाकर उसको दे दी और कहा, भाई लकड़ी तो ले जा। फकीर धर्मगुरु नहीं हो, मैं धर्मगुरु हूं। मेरे लड़के के साथ भी यही 242 ain Education International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JRAILER अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की - LEARNER हुआ। वह भी अमरीका गया, वहां से बिगड़कर आ गया। वह अलग है। महावीर जब कहते हैं, क्षमा करो, तो वे इतना ही कह भी ईसाई हो गया। और मैं धर्मगुरु हैं। कम से कम मेरा लड़का | रहे हैं: समझो कि तुम हो कौन गलती और सही का निर्णय तो होना ही नहीं चाहिए।' करनेवाले? अपेक्षा मत करो और क्षमा आ जायेगी। तो उन दोनों ने कहा, अब क्या करें? उन्होंने कहा, हम क्षमा क्रोध के विपरीत नहीं है क्षमा क्रोध का अभाव है। परमात्मा से प्रार्थना करें, और क्या कर सकते हैं। उन दोनों ने इसलिए क्षमा करनी नहीं पड़ती; अपेक्षा के गिरते ही हो जाती प्रार्थना की जाकर सिनागाग में, कि हे प्रभु! यह क्या दिखला रहे है। हो? मेरा लड़का...मैं प्राचीन परंपरा से यहूदी हूं, मेरा लड़का | 'क्षमा से क्रोध का हनन करें, नम्रता से मान को जीतें...।' ईसाई हो गया। दूसरे ने कहा, मैं धर्मगुरु हूं। तुम्हारा प्रतिनिधि हूँ | नम्रता का क्या अर्थ है?-अपनी स्थिति को जानना। यह इस पृथ्वी पर। कम से कम मेरा तो कुछ खयाल रखते! मेरा कोई साधना नहीं है, सिर्फ अपने तथ्य को पहचानना H क्या है लड़का भी ईसाई हो गया। मेरी स्थिति? सांसों में अटका हूं। सांस बंद हो गई, समाप्त हो और कहते हैं, ऊपर से आवाज आई कि 'तुम बकवास क्या जाऊंगा। स्थिति क्या है? आज हूं, कल नहीं हो जाऊंगा। कर रहे हो? मेरी तो सोचो। मेरा लड़का ईसा मसीह मैंने भेजा अभी जमीन पर चल रहा हूं, कल जमीन मेरे ऊपर होगी। अभी था, वह भी...।' सबके सिर पर बैठने की कोशिश की है, कल इन्हीं के चरण मेरे अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं। ‘और मैं ईश्वर हूं। तुम तो ऊपर पड़ेंगे। धर्मगुरु ही हो।' नम्रता का अर्थ है: अपनी वास्तविक स्थिति को जानना कि जहां अपेक्षा है, वहां क्रोध है। क्षमा का अर्थ है : तुमने अपेक्षा | हमारा होना ही क्या है? अहंकार किस बलबूते पर? अपने को छोड़ दी। तुम हो कौन? माना, बेटा तुमसे पैदा हुआ है, लेकिन | 'मैं' कहना भी किस बलबूते पर? एक तरंग है, आई-गई! तुम हो कौन? तुम एक रास्ते थे जिससे बेटा आया। तुमने जगह | 'नम्रता से मान को जीतें, ऋजुता से माया को...।' दी आने की। तुमने बेटा बनाया थोड़े ही है, बनानेवाला कोई __ ऋजुता का अर्थ है : सरलता, प्रामाणिकता, सीधा-सादापन। और है। तुम तो केवल माध्यम थे, निमित्त थे। तुम निर्णायक तुम्हारे साधु भी तिरछे हैं, वे भी ऋजु नहीं हैं। ऋजुता का तो अर्थ थोड़े ही हो। है : बच्चे जैसा भोला-भालापन। साधु तो तुम्हारे बहुत अऋजु जो हो जाये, अपेक्षा-शून्य व्यक्ति स्वीकार कर लेता है। उसी हैं, बहुत उलटे हैं। ऋजु नहीं हैं, इरछे-तिरछे हैं, बड़े जटिल हैं। स्वीकार में क्षमा है। एक-एक बात को गणित से कर रहे हैं। अगर उपवास रखा है तो अब इसे समझना। हिसाब भी रखा है साथ में कि उपवास किया है। इस साल साधारणतः धर्मगुरु तुम्हें समझाते हैं कुछ ऐसी बात समझाते कितने उपवास किये, वह भी हिसाब है। यह परमात्मा के सामने हैं जिससे लगता है क्षमा क्रोध के उलटी है। वे ऐसा समझाते हैं | पूरे खाते-बही लेकर मौजूद होंगे। इनकी जिंदगी में सरलता नहीं कि तुम क्रोध मत करो, क्षमा कर दो इस आदमी को; इसने पाप है। इनकी जिंदगी में बड़ा गणित है। अगर क्रोध छोड़ा है, किया, क्रोध मत करो, क्षमा कर दो! लेकिन मानते वे भी हैं कि माया-मोह छोड़ा है, तो स्वर्ग पाने की आकांक्षा में छोड़ा है; इसने पाप किया; नहीं तो क्षमा क्या खाक करोगे? जब इसने | लेकिन कुछ पाने की आकांक्षा है। यह छोड़ना सीधा, साफ, कुछ गलती ही नहीं की तो क्षमा क्या करना है? क्षमा तो गलत सरल नहीं है। हो गया, तभी की जाती है। तो फिर क्रोध और क्षमा में एक बात ऋजुता बड़ा बहुमूल्य शब्द है-सीधी लकीर की तरह। दो तो समान रही कि इसने गलती की है। कोई क्रोध करता है गलती | बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, निकटतम दूरी है वह पर, कोई क्षमा करता है गलती पर; लेकिन गलती दोनों स्वीकार लकीर है। निकटतम! अगर जरा लंबा किया तो इरछा-तिरछा कर लेते हैं। | हो जायेगा। दो व्यक्तियों के बीच जो निकटतम दूरी है, वह मेरी क्षमा का अर्थ और महावीर की क्षमा का अर्थ बिलकुल ऋजुता है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, वह लकीर 243 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः 1 THIRUCHAR hindi है, पंक्ति है, रेखा है। दो बिंदुओं के बीच जो सीधी रेखा है, वही ऋजुता है। जो जब कोई व्यक्ति तुमसे कुछ पूछता है, तब तुम दो तरह का कहना है, जो करना है, जो चाहना है—वही कहो। जो कहते हो व्यवहार कर सकते हो : या तो इरछे-तिरछे जाओ, गली-कूचों वही हो जाओ: ऋजुता का अर्थ है। नहीं तो उलटा होता है। तुम से घूमो, सीधे न जाओ, सीधी बात न करो, चालबाजी चलो; जाते हो किसी के पास, तुम कहते हो...। तुम हंस रहे हो इस | कुछ कहना चाहते हो, कुछ कहो; कुछ बताना चाहते हो, कछ बात पर, लेकिन अगर खोजोगे तो इस उलटी खोपड़ी को हर बताओ। खोपड़ी में छिपा हुआ पाओगे। तुम किसी के पास जाते हो, तुम कहते हैं, मुल्ला नसरुद्दीन बचपन से ही उलटी खोपड़ी था। कहते हो कि आप के चरण की धूल हूं, मैं तो कुछ भी नहीं! तुम उलटी खोपड़ी यानी उससे जो भी कहो, वह उससे उलटा चाहते यह हो कि वह कहे, 'अरे आप और चरण की धूल! करेगा। तो मां-बाप समझ गये थे। क्या करोगे, अब उलटी आप बड़े महापुरुष हैं।' अब समझो कि वह दूसरा आदमी कहे खोपड़ी है...। तो उसको वे वही कहते जो वे चाहते थे कि वह न कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, चरण की धूल तो हैं ही, करे। और जो वे चाहते कि वह करे, उससे उलटा कहते। जैसे इसमें कहने का क्या है! तो आप नाराज हो जायेंगे कि हद्द हो अगर उनको चाहिए कि वह चुप बैठे तो वे कहते, 'बेटा! जरा गई; इस आदमी को शिष्टाचार भी नहीं आता! शोरगुल कर।' तो वह चुप बैठ जाता। समझ गये एक दफे तुम जरा खयाल करना, तुम्हारी जिंदगी में यह उलटी खोपड़ी गणित, तो वे वैसे ही चलते। काफी समायी हुई है। तुम चाहते कुछ और हो, कहते कुछ और एक दिन बाप बेटे के साथ लौट रहा था, नदी पार कर रहे थे। हो। यह धोखा फैला चला जाता है। गधे पर शक्कर के बोरे लादे हुए थे। बीच नदी में बाप ने देखा महावीर कहते हैं, 'ऋजुता से माया को...।' वह जो कपट कि बोरे बाईं तरफ झुके जा रहे हैं। नसरुद्दीन के गधे पर जो बोरे है, तिरछापन है, उसको ऋजुता से जीत लो। क्योंकि जितने तुम थे वे बाईं तरफ झुके जा रहे हैं। तब वह चाहता था कि बेटा उन्हें कपट से भरते जाओगे, उतनी जीवन में उलझन होगी; उतना दाईं तरफ थोड़ा सरकाये। लेकिन वैसा कहो कि दाईं तरफ | तुम्हारा जीवन पांखों में कट जायेगा। सरकाओ तो तो वह कभी सरकायेगा नहीं। तो उसने कहा, सरल व्यक्ति शांत होता है। देखा तुमने! जब भी तुम झूठ 'बेटा, बोरों को जरा बाईं तरफ सरका।' बाईं तरफ वे खुद ही बोलते हो, तभी अशांति होती है। क्योंकि फिर याद रखना पड़ता सरक रहे थे। मगर उस दिन चकित होकर बाप को देखना पड़ा | है झूठ को कि किससे क्या बोले। जो आदमी झूठ ही बोलता कि बेटे ने उनको बाईं तरफ ही सरका दिया। सब बोरे नदी में गिर रहता है सबसे, उसका जरा हिसाब तो समझो। एक बात तो गये। बाप ने कहा, 'यह तेरा व्यवहार आज कुछ संगत नहीं!' माननी पड़ेगी, उसकी स्मृति की दाद देनी पड़ेगी। याददाश्त तो उसने कहा, 'अट्ठारह साल का हो गया; अब मैं भी समझने देखो! याद रखना पड़ता है। सत्य को याद रखने की कोई भी लगा तरकीब। अब तो तुम जो कहोगे, उसके उलटा न करूंगा; जरूरत नहीं है। जो व्यक्ति सचाई से जीता है, उसे याददाश्त की अब तो तुम जो चाहते हो, उसके उलटा करूंगा।' जरूरत ही नहीं है; क्योंकि सच हमेशा वही का वही है। लेकिन लेकिन बाप भी आखिर नसरुद्दीन का बाप! उसने भी तरकीब तुमने एक से कुछ कहा, दूसरे से कुछ कहा, तीसरे से कुछ निकाल ली। अब बात और भी तिरछी हो गई। कहा-फिर हिसाब रखना पड़ता है, पहले से क्या कहा, दूसरे अगर बाप को चाहिए कि बोरे दाएं तरफ सरकाये जाएं, तो से क्या कहा, तीसरे से क्या कहा। पहले तो वह कहता था कि बाएं तरफ सरकाओ; अब अगर दाएं मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था। बहुत कम लोग हैं तरफ ही सरकवाना हो तो कहना पड़ता है कि दाएं तरफ | जो एक स्त्री के प्रेम में हों। द्वैत हमारा सभी जगह होता है। तो सरकाओ। क्योंकि बेटा सोचेगा, यह बाएं तरफ सरकवाना एक स्त्री से कहता है कि तुझसे सुंदर इस जगत में कोई भी नहीं; चाहता है, इसलिए दाएं तरफ सरकवायेगा। अब और तिरछी हो। | दूसरी से भी यही कहता है कि तुझसे सुंदर इस जगत में कोई गई बात। गणित और उलझ गया। नहीं। दोनों बातें झूठ थीं। कम से कम एक तो झूठ थी ही। एक 244 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की दिन संयोग की बात, दोनों स्त्रियां साथ मिल गईं और दोनों को सार क्या! अगर जंगल में जाकर राजा हो गये, जहां कोई आदमी शक तो था ही। उन्होंने नसरुद्दीन से पूछा, 'अब कहो कि कौन नहीं, तो जंगली जानवरों के बीच राजा होने का सार क्या! इससे स्त्री दुनिया में सबसे ज्यादा सुंदर है?' तो डिप्टी कलेक्टर होना अच्छा, पुलिस इंसपेक्टर होना अच्छा, नसरुद्दीन थोड़ा झिझका। उसने कहा कि तुम एक-दूसरे से | पटवारी होना अच्छा लेकिन कम से कम अपने गांव में! जहां ज्यादा सुंदर हो! कोई जानता है, पहचानता है, वहीं अकड़ का मजा होता है। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर! आदमी तरकीब निकाल ही लेता उन्हीं के सामने तो हम सदा सिद्ध करना चाहते हैं कि देखो, तुम है। लेकिन हम झूठ बोलते चले जाते हैं। जाल उलझता चला वहीं के वहीं रह गये, हम कहां पहुंच गये, जिनके साथ हमने जाता है। धीरे-धीरे तो बहुत बार झूठ बोलकर ऐसी हालत आ | यात्रा शुरू की थी! अब अर्जुन इन्हीं के साथ बड़ा हुआ, यही जाती है कि हमें भी लगता है कि शायद यही सच होगा; क्योंकि भाई-बंधु, इन्हीं के साथ जिंदगी का दांव था, इन्हीं के साथ सारी इतने दिन से बोल रहे हैं, याद भी नहीं आती कि कब शुरू किया स्पर्धा थी बचपन से लेकर अब तक, यही सब खतम हो था। बहुत बार बोलने से, बहुत बार पुनरुक्त होने से झूठ स्वयं जायेंगे-फिर सिंहासन पर भी बैठ जाओगे, तो आसपास गिद्ध को भी सच जैसा मालूम पड़ने लगता है। तब तुम अऋजु हो बैठे होंगे, सियार आवाज कर रहे होंगे और अजनबी साधरण-से गये। तब तुम अर्जुन हो गये-अऋजु! लोग होंगे जिनसे तुम्हारी कोई झंझट ही न थी, कोई प्रतिस्पर्धा न कृष्ण की पूरी चेष्टा गीता में, इरछे-तिरछे अर्जुन को सीधा थी, जिनका होना न होना बराबर होगा। तो अर्जुन के मन में उठी करने की है। नाम 'अर्जुन' का बड़ा सार्थक है। कृष्ण की पूरी तो है असल में अहंकार की बड़ी गहरी पकड़, बड़ा मोह। इन्हीं चेष्टा यही है कि तू सीधा-साफ हो; क्षत्रिय है, क्षत्रिय की बात के सामने तो सिद्ध करने का मजा है। दुर्योधन रहे, और हम बोल। अचानक, यह अर्जुन कभी भी अहिंसा की बात नहीं जीतें। भीष्म पितामह रहें, और देखें कि अर्जुन सिंहासन पर है। बोला था, आज अचानक अहिंसा बोलने लगा। और अहिंसा और ये सारे कर्ण, और ये सारे संबंधी पराजित खड़े हों, तो ही इसकी सच्ची नहीं है। क्योंकि अगर ये इसके प्रियजन न होते, मजा है। नहीं तो मजा क्या है? उठा तो यह था, लेकिन बात संबंधी न होते, भाई-भतीजे, गुरु, पितामह, चचेरे, सब तरह के, | उसने दसरी की। उसने कहा कि मैं मारना नहीं चाहता, हिंसा तं मौसी, मामा के रिश्तेदार, सब इकट्ठे थे—अगर ये इसके अपने बड़ा पाप है! आज तक हिंसा ही करता रहा, मांसाहारी; आज न होते, अपनों को देखकर यह जरा डरा। इसने कहा कि यह तो अचानक अहिंसक हो गया! कृष्ण को धोखा देना संभव न था। सब अपनों को ही मार डालूंगा। | वे अर्जन को खींच-खींचकर सीधा करने लगे। अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। अर्जन को सवाल उठा कि | गीता पूरी की पूरी अर्जुन को ऋजु बनाने की चेष्टा है। वे आदमी धन भी कमाता है, पद भी कमाता है, सिंहासन पर भी| उसको पकड़-पकड़कर सीधा कर रहे हैं कि जरा अकल ला, बैठता है, तो मजा तो तभी आता है जब अपने देखने को मौजद वापिस लौट, कहां की बातें कर रहा है? संन्यास तुझे सोहता हों। तुम अगर दूसरे किसी गांव में जहां तुम्हें कोई भी नहीं नहीं। यह तेरे भीतर की बात नहीं। अन्यथा इतने दिन तक कौन जानता, सम्मानित भी हो जाओ तो तुम्हें वह मजा न आएगा जो तुझे रोकता था संन्यास लेने से? आज अचानक युद्ध के मैदान अपने गांव में सम्मानित होकर आयेगा। दूसरे गांव में जहां कोई | पर संन्यास की भाषा उठने लगी है। इस संन्यास में कहीं कुछ जानता ही नहीं, वहां सम्मानित भी हो गये तो क्या खाक | और छिपा है। सम्मान! तुम्हारी इच्छा उस दूसरे गांव में यह होगी कि अपने तुम अपने भीतर ऋजुता को खोजना। जब भी तुम कुछ कहो नाये कि कैसा सम्मान मिल रहा है, कैसी तो जरा गौर से देखना, तुम यही कहना चाहते हो? यही तुम्हारी प्रतिष्ठा मिल रही है! अगर तुम्हें ऐसा कुछ हो कि तुम दुनिया के गहनतम आकांक्षा है या इससे विपरीत? तो जो सीधा-साफ हो, सम्राट हो जाओगे, लेकिन तुम्हें जाननेवाले सब मर जायेंगे, तो उसी को धीरे-धीरे साधना। तुम भी अर्जुन की हालत में खड़े हो जाओगे। तुम भी सोचोगे, | ऋजुता से जटिलता कट जाती है, माया हार जाती है। संतोष 245 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः से लोभ जीत लिया जाता है। जो तुम्हारे पास हो, उसमें -अब तो रास्ते पर गुबार भी नहीं है। काफिलों के बीत जाने आनंदित, उसमें मग्न होना। संतोष का अर्थ है : इतना मिला है, के बाद जो थोड़ी गुबार उठती रहती है, वह भी नहीं है। दो! इतना मिला है, अनुग्रह तो मानो! आंखें ध्यान रखना, भोग जब बीत जाता है तो त्याग की गुबार रह हैं कि तुम रोशनी देख सके, कि सूरज में खिले फूल देख सके, जाती है। भोग का काफिला तो निकल जाता है, तब त्याग की कि वृक्षों की यह हरियाली देख सके। जरा सोचो तो, अंधे भी हैं धूल रह जाती है। लेकिन परम शांति तभी मिलती है, जब भोग दुनिया में, जिन्हें रंग नहीं दिखाई पड़े! और जिन्होंने रंग न जाना, | भी गया, त्याग भी गया। उन्होंने क्या खाक दुनिया जानी! जिन्हें रूप न दिखाई पड़ा, जिन्हें काफिले या मिट गए या बढ़ गए चेहरा और आंखों में जो परमात्मा प्रगट होता है उसकी कोई अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। झलक न मिली...! तुम्हारे पास कान हैं, तुम गहनतम संगीत | तब एक परम तृप्ति, एक अहर्निश शांति की वर्षा होने लगती | को सुनने में समर्थ हो, पक्षियों का नाद, नदी की कलकल, सागर है। तब तुम पहली दफा पाते होः जीवन क्या है! और कितने में उठे तूफानों की दहाड़, बादलों की गड़गड़ाहट! जरा सोचो तो | अहोभागी हैं कि हम हैं। तब होना मात्र ही इतनी बड़ी संपदा है कि जिनके पास कान नहीं हैं, उनका जीवन कैसा खाली-खाली, | कि और कुछ चाहने की बात ही नादानी है। सना-सूना होगा। जहां कोई ध्वनि नहीं गूंजी, कैसा मरुस्थल 'जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, | जैसा होगा! कितना तुम्हें मिला है। इन पांचों इंद्रियों से कितनी वैसे ही मेधावी परुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।' वर्षा तुम पर हुई है। इस भीतर के बोध से कितने आनंद के द्वार अध्यात्म यानी जागरण की प्रक्रिया; आत्मवान होने का खुले हैं, खुलते रहे हैं! एक बंद हुआ है तो दूसरा खुला है! शास्त्र। जैसे कछुआ सिकोड़ लेता है अपनी इंद्रियों को; लेकिन नहीं, लोभी कहता है, इसमें क्या धरा है? तिजोड़ी! जहां-जहां पाता है भय है, जहां-जहां पाता है चिंता है, वहीं धन! जो मिला है उसकी तो फिक्र नहीं करता; जो नहीं मिला है भीतर सिकुड़ जाता है, अपनी गहरी सुरक्षा में डूब जाता है-ऐसे उसकी दौड़ में, आपाधापी में नष्ट होता है। ही जहां-जहां तुम्हें लगे भय है, दुख है, पीड़ा है, असंतोष है, महावीर कहते हैं, संतोष से लोभ को जीत लो। जरा देखो जो अभाव है. चिंता है. संताप है. वहां-वहां से अपने चैतन्य को मिला है। उस पर नजर लाओ जो मिला है। हटा लेना। और अंतरात्मा की गहनता में सब है जो तुम पाना दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक-जिनकी नजर उसको ही चाहते हो। देखती है, जो नहीं मिला है। वे लोभी हैं। दूसरे—जिनकी नजर यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब वही देखती है, जो मिला है। वे संतोषी हैं। और संतोषी को बहुत बका तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। मिलता है। क्योंकि मिलने पर उसकी नजर होती है, तो और होश को सम्हालो! यहां भरोसा मत करो। यहां बड़े धोखे भरे मिलता है। और लोभी को कुछ भी नहीं मिलता, क्योंकि न पड़े हैं। यहां अब तक तुम जिन चीजों में डोले ह्ये, सभी में धोखा मिलने पर उसकी नजर होती है। न मिलना ही बढ़ता जाता है। है। यहां जिंदगी की तो बात छोड़ो, मौत भी धोखा दे जाती है। बढ़ता है। संतोष से और संतोष बढ़ता है। क्योंकि मौत भी कहां मौत सिद्ध होती है, फिर पैदा हो जाते हो! जो थोड़ा संतोष में डूबेगा वह पायेगा यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब काफिले या मिट गए या बढ़ गए बका तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। यह सब फरेब है नजरे-इम्तियाज का वे जो वासनाओं के, असंतोष के, अतृप्तियों के, लोभ के, दुनिया में वरना कोई भी अच्छा-बुरा नहीं। कामनाओं के काफिले थे—काफिले या मिट गए या बढ़ न यहां कुछ अच्छा है, न बुरा है। अच्छा तुमने समझा गए—या तो मिट गये, या कहीं और हट गये। कुछ-मोह पैदा हुआ, राग पैदा हुआ। बुरा समझा कुछ-द्वेष अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। पैदा हुआ, विराग पैदा हुआ। यहां न कुछ अच्छा है, न बुरा है। 246 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की सब दृष्टि की बात है। तुम दृष्टि को भीतर मोड़ लो, एक गहन याद रखोगे; रखोगे, रखोगे, धीरे-धीरे याद पकेगी, मजबूत संतुलन पैदा होता है, जहां बुरा और अच्छा सब मिट जाता है, न होगी। फिर बीज से ही वह जो गलत है, तुम्हारे भीतर प्रवेश न कोई मित्र न कोई शत्रु। कर पायेगा। 'जान या अजान में कोई अधर्मकार्य हो जाये तो अपनी आत्मा उसके चक्कर में दुबारा तो मैं आने का नहीं को तुरंत उससे हटा लेना चाहिए। फिर दूसरी बार वह कर्म न ढूंढती फिरती है क्यों गर्दिशे-दौरां मुझको। किया जाये।' -अब संसार के चक्कर में दुबारा आने का नहीं है। एक बार जान या अजान में अधर्मकार्य हो जाये तो तुरंत, उसे पूरा भी | होश सम्हला, फिर कितना ही ढूंढे संसार की विपत्तियां तुम्हें, मत करना! अगर क्रोध करने के क्षण में आधा वचन बोले थे फिर कितना ही लोभ के विषय तुम्हारे चारों तरफ खड़े रहें, और गाली का और याद आ जाये तो आधा ही बोलना और क्षमा मांग कामवासना के लिए कितनी ही अप्सराएं तुम्हें निमंत्रण देती लेना; उसे पूरा भी मत करना। रहें-नहीं, फिर तुम न जा सकोगे। जो जागने लगता है, होश अगर वासना में एक कदम उठ गया था और दूसरा उठने को करने लगता है, अपने जीवन की स्थिति को जांचने-परखने था और याद आ जाये तो जो नहीं उठा है, उसे मत उठाना; जो लगता है, स्वाभाविक है कि जहां आग है वहां से हाथ खींच ले। उठ गया है, उसे वापिस मोड़ लेना। इश्क बाबस्तए-जंजीरे-जुनूं कब है 'रविश' बहुत सम्हलकर चलोगे तो ही पहुंच पाओगे। रास्ता बड़ा _हस्ने-खुदबी की तमन्ना है तो खद होश में आ। कंटकाकीर्ण है, चढ़ाव भारी है और तुम्हारी आदत उतरने की, / तुम्हारी अंतरात्मा, तुम्हारा गहन हृदय किसी जंजीर में बंधा फिसलने की है। तुम तो धर्म से भी फिसलने का उपाय खोज | हुआ नहीं है। तुम्हारा प्रेम कारागृह में बंद नहीं है। सिर्फ तुम लेते हो। बेहोश हो। अगर वास्तविक सौंदर्य का अनुभव करना है तो बस एक व्यक्ति ने डाक्टर से पूछा, 'आखिर मझे हआ क्या है?' / एक काम कर लो'आप बहुत अधिक खाते हैं', कहा डाक्टर ने, 'बहुत शराब हुस्ने-खुदबी की तमन्ना है तो खुद होश में आ। पीते हैं, और सुस्त हैं, महाकाहिल, महासुस्त हैं। यही आपकी | -बस होश में आ जाओ। बेहोशी ही तुम्हारा कारागृह है। बीमारी है।' वही तुम्हारी जंजीरें हैं। उस आदमी ने कहा, 'डाक्टर साहिब! कृपा करके इसे अपनी महावीर का सर्वाधिक जोर होश पर है। बेहोशी पाप है, होश डाक्टरी भाषा में लिख देंगे, जिससे मैं दफ्तर से एक महीने की पुण्य है। छुट्टी प्राप्त कर सकू!' 'संपूर्ण परिग्रह से मुक्त, शांतिभूत, शीतिभूत, प्रसन्नचित्त सुस्त है, शराब पीता है, अतिशय खाता है उसमें से भी एक श्रमण जैसा मुक्ति-सुख पाता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं महीने की छुट्टी निकालने की आशा रखता है, तो और सुस्ती मिलता।' येगा, और पीकर पड़ा रहेगा। लेकिन डाक्टरी अगर तम सम्राट भी हो जाओ सारे संसार के, छहों द्वीप के भाषा में लिख दें, क्योंकि सुस्ती से तो बात चलेगी नहीं। चक्रवर्ती हो जाओ, तो भी तुम उस सुख को न पा सकोगे जो उस शास्त्र तुम्हारे लिए डाक्टरी भाषा सिद्ध होते हैं। तम उनमें से भिक्ष को मिलता है, उस श्रमण को, या उस ब्राह्मण को जो अपना मतलब निकाल लेते हो। उनसे भी फिसल जाते हो। परिग्रह से मुक्त, लोभ से मुक्त, शीतिभूत, भीतर शांत हुआ, जान या अजान में कोई अधर्मकार्य हो जाये तो अपनी आत्मा | न मकाइ अधमकाय हो जाये तो अपनी आत्मा | शीतल हुआ, प्रसन्नचित्त! को तुरंत उससे हटा लेना चाहिए। फिर दूसरी बार वह कार्य न ये सारे सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं। जीवन में तुमने अभी गर्मी जानी किया जाये। और एक बार जहां भल दिखाई पड़ गई हो, आधे में | है, शीत नहीं जानी। जीवन का तमने एक ही काल जाना दिखाई पड़ी हो, तो वहीं से लौट आना चाहिए। और फिर दुबारा | है-ऊष्ण; अभी शीतल क्षण नहीं जाने। अभी तुम उबले हो, स्मरण रखना चाहिए कि इस यात्रा पर दुबारा कदम न उठे। ऐसा | जले हो, शांत नहीं हुए, ठंडे नहीं हुए। धीरे-धीरे अपने को 247 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः शीतल करो, शांत करो। जो-जो चीज तुम्हें उबालती हो, ईंधन कहते हैं। तो उन्होंने जितनी जिंदगी के खिलाफ बातें कही हैं, बनती हो तुम्हारी वासना में, तुम्हें जलाती हो, उससे धीरे-धीरे हमेशा याद रखना, तुम्हारी जिंदगी के खिलाफ कही हैं। जिंदगी जागो और दूर हटो। तो तुम उस शांति को, उस मुक्ति-सुख को | जो कहीं गलत हो गई, जहर हो गई; जिंदगी जो कहीं रोग हो पाने में समर्थ हो जाओगे, जो सारे संसार का मालिक भी कोई हो गई; जिंदगी जो कहीं विक्षिप्त हो गई उसके खिलाफ कही हैं। जाये तो नहीं पाता। अपने मालिक होकर ही पाया जाता है वह। | और इसीलिए खिलाफ कही हैं, ताकि असली जिंदगी की तलाश कहीं से ढूंढ़ कर ला दे हमें भी ऐ गुलेतर! | में तुम निकल सको। इसीलिए कही हैं, ताकि तुम्हें अगर तुम्हारी वोह जिंदगी, जो गुजर जाए मुस्कुराने में। जिंदगी दुख मालूम पड़े, तो तुम जागो। लेकिन किसी से मांगने से वह जिंदगी न मिलेगी। वह जिंदगी दुख जगाता है। दुख की याद आने लगे, समझ आने लगे, तो तो तुम खोजोगे तो ही, बनाओगे तो ही। तुम वही पाओगे, जो फिर सुख की दिशा की खोज पैदा होती है। महावीर बना लोगे। आत्मा तुम्हारा निर्माण है, तुम्हारा सृजन है। जीवन-विपरीत नहीं, विरोध में नहीं। महावीर महाजीवन के कौन कहता है ख्वाबे-रायगां है जिंदगी पक्षपाती हैं। खोटे सिक्कों के विरोध में हैं, क्योंकि असली ऐ अमीने होश! कैफे-जाविदां है जिंदगी सिक्के मौजूद हैं और तुम खोटे सिक्कों से अपने को भरमाये चले जादा पैमा, कारवां-दर-कारवां है जिंदगी जाते हो। जागो! जिंदगी मौजे-रवां, जए-रवां, बहरे-रवां -किसने कहा कि जीवन व्यर्थ है। आज इतना ही। कौन कहता है ख्वाबे-रायगां है जिंदगी। किसने कहा कि जिंदगी सपना है! होशवाले! थोड़ा होश को सम्हाल! ऐ अमीने होश! कैफे-जाविदा है जिंदगी। जिंदगी तो परम आनंद है, स्थायी आनंद है। जादा पैमां, कारवां-दर-कारवां है जिंदगी! यह तो एक यात्री-दल है जीवन-यात्रा पर निकला, प्रतिक्षण गतिमान। जिंदगी मौजे-रवां, जूए-रवां, बहरे-रवां। जीवन आनंद की लहर है! आनंद की सरिता है! आनंद का सागर है। लेकिन उनके लिए ही, जिन्होंने अपने को कछए की भांति सिकोड़ लिया; उनके लिए ही, जिन्होंने अपने को जगा लिया। और जिनको जीने का यह ढंग नहीं आता, वे जीवन के विपरीत बातें करने लगते हैं; उनसे सावधान रहना! महावीर जीवन के विपरीत नहीं हैं। महावीर तुम्हारे तथाकथित जीवन के विपरीत हैं, ताकि तुम असली जीवन को पा सको। न आया जिसे शेवए-जिंदगी वही जिंदगी से खफा हो गया। और जिसको भी जिंदगी जीने का ढंग न आया, वही नाराज हो गया। नाराजगी धर्म नहीं है-समझ, होश। महावीर महासुख के पक्षपाती हैं। उस महासुख को ही वे मोक्ष 248