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________________ जिन सत्र भागः से लोभ जीत लिया जाता है। जो तुम्हारे पास हो, उसमें -अब तो रास्ते पर गुबार भी नहीं है। काफिलों के बीत जाने आनंदित, उसमें मग्न होना। संतोष का अर्थ है : इतना मिला है, के बाद जो थोड़ी गुबार उठती रहती है, वह भी नहीं है। दो! इतना मिला है, अनुग्रह तो मानो! आंखें ध्यान रखना, भोग जब बीत जाता है तो त्याग की गुबार रह हैं कि तुम रोशनी देख सके, कि सूरज में खिले फूल देख सके, जाती है। भोग का काफिला तो निकल जाता है, तब त्याग की कि वृक्षों की यह हरियाली देख सके। जरा सोचो तो, अंधे भी हैं धूल रह जाती है। लेकिन परम शांति तभी मिलती है, जब भोग दुनिया में, जिन्हें रंग नहीं दिखाई पड़े! और जिन्होंने रंग न जाना, | भी गया, त्याग भी गया। उन्होंने क्या खाक दुनिया जानी! जिन्हें रूप न दिखाई पड़ा, जिन्हें काफिले या मिट गए या बढ़ गए चेहरा और आंखों में जो परमात्मा प्रगट होता है उसकी कोई अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। झलक न मिली...! तुम्हारे पास कान हैं, तुम गहनतम संगीत | तब एक परम तृप्ति, एक अहर्निश शांति की वर्षा होने लगती | को सुनने में समर्थ हो, पक्षियों का नाद, नदी की कलकल, सागर है। तब तुम पहली दफा पाते होः जीवन क्या है! और कितने में उठे तूफानों की दहाड़, बादलों की गड़गड़ाहट! जरा सोचो तो | अहोभागी हैं कि हम हैं। तब होना मात्र ही इतनी बड़ी संपदा है कि जिनके पास कान नहीं हैं, उनका जीवन कैसा खाली-खाली, | कि और कुछ चाहने की बात ही नादानी है। सना-सूना होगा। जहां कोई ध्वनि नहीं गूंजी, कैसा मरुस्थल 'जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, | जैसा होगा! कितना तुम्हें मिला है। इन पांचों इंद्रियों से कितनी वैसे ही मेधावी परुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।' वर्षा तुम पर हुई है। इस भीतर के बोध से कितने आनंद के द्वार अध्यात्म यानी जागरण की प्रक्रिया; आत्मवान होने का खुले हैं, खुलते रहे हैं! एक बंद हुआ है तो दूसरा खुला है! शास्त्र। जैसे कछुआ सिकोड़ लेता है अपनी इंद्रियों को; लेकिन नहीं, लोभी कहता है, इसमें क्या धरा है? तिजोड़ी! जहां-जहां पाता है भय है, जहां-जहां पाता है चिंता है, वहीं धन! जो मिला है उसकी तो फिक्र नहीं करता; जो नहीं मिला है भीतर सिकुड़ जाता है, अपनी गहरी सुरक्षा में डूब जाता है-ऐसे उसकी दौड़ में, आपाधापी में नष्ट होता है। ही जहां-जहां तुम्हें लगे भय है, दुख है, पीड़ा है, असंतोष है, महावीर कहते हैं, संतोष से लोभ को जीत लो। जरा देखो जो अभाव है. चिंता है. संताप है. वहां-वहां से अपने चैतन्य को मिला है। उस पर नजर लाओ जो मिला है। हटा लेना। और अंतरात्मा की गहनता में सब है जो तुम पाना दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक-जिनकी नजर उसको ही चाहते हो। देखती है, जो नहीं मिला है। वे लोभी हैं। दूसरे—जिनकी नजर यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब वही देखती है, जो मिला है। वे संतोषी हैं। और संतोषी को बहुत बका तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। मिलता है। क्योंकि मिलने पर उसकी नजर होती है, तो और होश को सम्हालो! यहां भरोसा मत करो। यहां बड़े धोखे भरे मिलता है। और लोभी को कुछ भी नहीं मिलता, क्योंकि न पड़े हैं। यहां अब तक तुम जिन चीजों में डोले ह्ये, सभी में धोखा मिलने पर उसकी नजर होती है। न मिलना ही बढ़ता जाता है। है। यहां जिंदगी की तो बात छोड़ो, मौत भी धोखा दे जाती है। बढ़ता है। संतोष से और संतोष बढ़ता है। क्योंकि मौत भी कहां मौत सिद्ध होती है, फिर पैदा हो जाते हो! जो थोड़ा संतोष में डूबेगा वह पायेगा यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब काफिले या मिट गए या बढ़ गए बका तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। यह सब फरेब है नजरे-इम्तियाज का वे जो वासनाओं के, असंतोष के, अतृप्तियों के, लोभ के, दुनिया में वरना कोई भी अच्छा-बुरा नहीं। कामनाओं के काफिले थे—काफिले या मिट गए या बढ़ न यहां कुछ अच्छा है, न बुरा है। अच्छा तुमने समझा गए—या तो मिट गये, या कहीं और हट गये। कुछ-मोह पैदा हुआ, राग पैदा हुआ। बुरा समझा कुछ-द्वेष अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। पैदा हुआ, विराग पैदा हुआ। यहां न कुछ अच्छा है, न बुरा है। 246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340111
Book TitleJinsutra Lecture 11 Adhyatma Prakriya Hai Jagran Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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