________________ / जिन सूत्र भागः1 TRANSFERMA है-वे जीवन से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को। वे शास्त्र से भी महावीर तो सीधे पथ के वैज्ञानिक खोजी हैं। निचोड़ लेते हैं सत्य को। जो जागकर जीते हैं वे तो छाया से भी इन शब्दों को समझना, मनन करना। बन सके, थोड़ा-थोड़ा मूल को खोज लेते हैं क्योंकि छाया में भी—'कुछ मिटे-से उतारना। क्योंकि उतारोगे, तभी इनका अर्थ खुलेगा। इनका अर्थ नक्से-पा' कुछ धुंधले हो गये पैरों के चिह्न हैं। इनके पढ़ने और इनके सुन लेने में नहीं है। इनका अर्थ इनके अभागे हैं वे, जो जीवन से भी वंचित रह जाते हैं। साथ थोड़ी देर जीने में है। क्षणभर को भी अगर तुम इनके साथ सौभाग्यशाली हैं वे, जो कि शास्त्रों से भी खोज लेते हैं। जीये, तो तुम पाओगे इनकी सचाई, इनकी गहनता, इनकी इधर महावीर के वचनों पर हम चर्चा कर रहे हैं---इसलिए नहीं | गंभीरता। और क्षणभर भी तुम जीये तो ये सत्य तुम्हारी धरोहर कि तुम उन्हें मान लो। मानने से कभी कुछ हुआ नहीं। मानना तो हो जायेंगे; ये तुम्हारा हिस्सा हो जायेंगे। ये तुम्हारे खून, हड्डी, कमजोर की आदत है। मांस-मज्जा में समा जायेंगे। इन्हें समाने देना। वह कहता है, 'कौन चले, कौन झंझट करे! ठीक ही कहते। पहला सूत्र : 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक होंगे। हम पूजा करने को तैयार हैं। हम शास्त्र को फूल चढ़ा और कसाय को अल्प मानकर मत बैठ जाना। क्योंकि ये थोड़े देंगे। कहो, शोभा-यात्रा निकाल देंगे। लेकिन हमसे जीवन बढ़कर बड़े हो जाते हैं।' बदलने को मत कहो। वह जरा ज्यादा हो गया।' | 'ऋण को थोड़ा...।' जो भी आदमी ऋण लेता है. पहले पूजा हमारी तरकीब है शास्त्र से बचने की। मंदिर तुम्हारे धर्म थोड़ा ही मानकर लेता है और सोचता है: 'चका देंगे। के प्रतीक नहीं; धर्म के साथ तुमने जो चालाकी की है, उसके इतना-सा तो ऋण है। ब्याज भी कुछ ज्यादा नहीं है, चुका प्रतीक हैं। देंगे।' जो भी ऋण लेते हैं, इसी आशा में लेते हैं कि चुका देंगे। मन बड़ा चालाक है। ऋण चुकता नहीं मालूम होता फिर, बढ़ता जाता है। ब्याज घना मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने नौकर से कहा था कि मेरे जूतों पर होता जाता है। ब्याज ही नहीं चुकता, मूल का चुकाना तो बहुत पालिश कर दे। दूर। और यह साधरण जीवन के ऋण की बात तो छोड़ दो, जो 'अरे फजलू, इतनी देर हो गई और अभी तक मेरे जूतों पर जीवन का बहुत गहरा ऋण है, वह तो कभी चुकता नहीं मालूम पालिश भी नहीं हो पायी?' पड़ता। ले सभी लेते हैं, फंस जाते हैं। 'सरकार! यह दूसरा बूट हाथों में है।' महावीर कहते हैं, सभी ले लेते हैं तो जरूर मन में कोई कारण 'और पहला...?' होगा ले लेने का। सभी सोचते हैं, थोड़ा है। थोड़ा श्रम कर लेंगे, नौकर ने कहा, 'उसे इसके बाद हाथ में लूंगा सरकार।' चुक जायेगा। पहला! दूसरे के बाद! 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा...।' कितना ही छोटा घाव मन बहुत चालाक है। बड़ी तरकीबें खोजता है। ऐसी तरकीबें हो, यह सोच के कि छोटा है, क्या फिक्र करनी है, बैठ मत खोजता है कि दूसरे तो धोखा खाते ही हैं, खुद भी धोखा खा जाना, आश्वस्त मत हो जाना, क्योंकि घाव प्रतिपल बड़ा हो रहा जाता है। इस मन से थोड़े जागना। मन ही तुम्हें मनन नहीं करने है; जैसे छोटा-सा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। बीज को मिटा देता है। मन ही तुम्हें उतरने नहीं देता। जहां भी जाते हो, तुम्हारी देना बड़ा आसान था, वृक्ष को काटना बहुत मुश्किल हो गंदी छाया पड़ जाती है। शास्त्र पढ़ते हो, तुम्हारी छाया में शास्त्र जायेगा। तो जो जानकार हैं, वे ऋण लेते ही नहीं। वे कहते हैं, दब जाता है। शब्द सुनते हो, तुम्हारे पास तक पहुंचते-पहुंचते गरीबी में जी लेंगे लेकिन ऋण लेकर अमीर होने में कुछ सार उनका अर्थ रूपांतरित हो जाता है। नहीं, क्योंकि वह अमीरी ऊपर होगी, धोखे की होगी, भीतर ये महावीर के वचन बड़े बहुमूल्य हैं। आज के सूत्र तुम्हारे जलन होगी और भीतर दरिद्रता होगी। रूखी रोटी खाकर सो जीवन को बदल देनेवाले हो सकते हैं। ये तथ्यगत हैं। महावीर लेंगे, एक बार खा लेंगे, पर ऋण न लेंगे; क्योंकि ऋण बढ़ेगा। का कोई रस सिद्धांतों में नहीं है। महावीर कोई दार्शनिक नहीं हैं। शायद पेट में तो रोटी पड़ जायेगी, लेकिन प्राणों की शांति खो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org