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________________ नध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की मैक्यावली। इसलिए महावीर को समझना हो तो मैक्यावली को | सकते हैं। मित्र के सामने तो हम अपना कलुष, अपना पाप, भी समझना उपयोगी होता है। मैक्यावली ने लिखा है : मित्र से अपना अपराध, सभी प्रगट कर सकते हैं। क्योंकि हम जानते हैं, भी ऐसी बात मत कहना जो तुम शत्रु से न कहना चाहते होओ; प्रेम का भरोसा है। उस प्रेम की छाया में सब स्वीकार है। क्योंकि कौन जाने, जो आज मित्र है कल शत्रु हो जाये। फिर तुम क्योंकि मित्र ने हमें चाहा है किन्हीं कारणों से नहीं; अकारण पछताओगे कि अच्छा होता, इससे यह बात न कही होती। चाहा है। तो किन्हीं कारणों से टूटेगी नहीं मैत्री। ऐसा नहीं है कि मैक्यावली यह कह रहा है कि तुम मित्र के साथ भी ऐसा ही मित्र देख लेगा कि अरे, तुमने और ऐसा पाप किया। दोस्ती व्यवहार करना, जैसा तुम शत्रु के साथ करते हो; क्योंकि मित्र खतम! नहीं, मित्र तुम्हारे पाप के प्रति भी करुणा का भाव यहां शत्रु भी हो जाते हैं। महावीर से पूछो तो महावीर कहेंगेः रखेगा। वह कहेगा, सभी से होता है, मनुष्य मात्र से होता है। मित्र की तो बात ही छोड़ो, तुम शत्रु के साथ भी ऐसा व्यवहार | मित्र तुम्हें समझने की कोशिश करेगा। मित्र तुम्हारी निंदा नहीं करना जैसा मित्र के साथ करते हो; क्योंकि कौन जाने जो आज करेगा। जरूरत होगी तो आलोचना करेगा, निंदा नहीं। लेकिन शत्रु है, कल मित्र हो जाये। तो ऐसी कुछ बातें मत कह देना जो आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि श्रेष्ठतर का आगमन हो कल फिर लौटाना बड़ी मुश्किल हो जाये। फिर थूके को चाटने सके। आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि तुम और बड़े होने जैसा होगा। जिससे दुश्मनी है, उसको हम ऐसी बातें कहने को हो, तुम अभी और खुलने को हो; यह कली इतने ही होने को लगते हैं जो बिलकुल अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। कहते हैं, राक्षस है। नहीं, तुम्हारी नियति और बड़ी है। कल तक नर में छिपा नारायण था, आज राक्षस! लेकिन कल मित्र अगर तुम्हारी आलोचना भी करेगा तो उसमें गहन प्रेम अगर यह मैत्री फिर बनी, तो फिर कहां मुंह छुपाओगे? फिर होगा। और शत्रु अगर तुम्हारी प्रशंसा भी करता है तो उसमें भी कैसे लौटाओगे? फिर कैसे कहोगे कि यह नर में नारायण, फिर | व्यंग्य होता है; उसमें भी कहीं गहरी निंदा का स्वर होता है, कहीं राक्षस नहीं है। कटाक्ष होता है। महावीर कहते हैं: मैत्री को तुम आधार मानकर चलना। जो मैत्री तो संभव है तभी, जब माया बीच में न हो। इसलिए आज मित्र है, वह तो मित्र है ही; जो आज नहीं है, वह भी हो दुनिया में मैत्री धीरे-धीरे खोती गई है। लोग नाममात्र को मैत्री सकता है कल मित्र हो जाये। जो आज शत्रु है वह भी मित्र हो कहते हैं; उसे परिचय कहो, बस ठीक है; इससे ज्यादा नहीं। सकता है। और महावीर की बात मानकर जो चलेगा, धीरे-धीरे दुनिया से मैत्री का फूल तो करीब-करीब खो गया है। क्योंकि पायेगाः उसके शत्रु मित्र हो गये। और मैक्यावली की जो मैत्री के फूल के लिए सरलता चाहिए, निष्कपटता चाहिए। मानकर चलेगा, वह पायेगा : उसके मित्र धीरे-धीरे शत्रु हो गये; कपट, माया अगर बीच में आई तो मैत्री समाप्त हो जाती है। क्योंकि तुमने कभी उनसे मित्र जैसा व्यवहार ही नहीं किया। अगर गणित बीच में आया तो मैत्री समाप्त हो जाती है। मैत्री तो अगर मित्र से भी छिपाना पड़े, इसी को महावीर माया कहते हैं। एक काव्य है-गणित नहीं, तर्क नहीं। मित्र के सामने हम 'माया, मैत्री को नष्ट करती है...।' | अपने को वैसा ही प्रगट कर देते हैं जैसे हम हैं। इसलिए तो मित्र माया का अर्थ है: सच न होना। माया का अर्थ है: धोखे के पास राहत मिलती है। कम से कम कोई तो है जिसके पास देना। माया का अर्थ है : जो तम नहीं हो, वैसे दिखाना। माया जाकर हमें झूठ नहीं होना पड़ता; नहीं तो चौबीस घंटे झूठ। का अर्थ है : प्रामाणिक न होना। माया का अर्थ है : प्रवंचना। पत्नी है तो उसके सामने झूठ। दफ्तर है, मालिक है, तो उसके माया का अर्थ है: दिखावा, धोखा; आंख में आंसू भरे थे, सामने झूठ। बाजार में संगी-साथी हैं, उनके साथ झूठ। सब लेकिन मुस्कुराने लगे, तो यह मैत्री न हुई। मित्र के सामने तो हम तरफ झूठ है। तो तुम कहीं खुलोगे कहां? तुम बंद ही बंद मर रो भी सकते हैं। और किसके सामने रोओगे? अगर मित्र के | जाओगे। हवा का झोंका, सूरज की किरणें तुममें कहां से प्रवेश सामने भी नहीं रो सकते तो फिर और कहां रोओगे? मित्र के करेंगी? तुम कब्र बन गये। कहीं कोई तो हो कहीं, जहां तुम सामने तो हम अपना दुख, पीड़ा, दैन्य, सभी कुछ प्रगट कर शिथिल होकर लेट जाओ; जहां तुम जैसे हो वैसे ही होने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340111
Book TitleJinsutra Lecture 11 Adhyatma Prakriya Hai Jagran Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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