Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
HP
.
४
जैन-विवाह-विधि ( जैन शास्त्रानुसार )
ROMon
:
मंग्रहकर्ता और प्रकाशकसुमेरचन्द जैन, अराइज़नवीस
(पानीपन निवासी)
देहली
वीर सम्बत २१६८
SRO
--
-
--
TO प्रथम संस्करण ५००
मुल्य ४)
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
कम गरया
पालन
ת
בין
1) नारायन लार ५८का बाचन (३) शाखोचारण (४) कन्यादान और पाणिग्रहण (५) हवनविधि
मुप्तपदी (७) गोथ धर्म का उपदेश (८) फेरे अर्थात् अग्नि की परिक्रमा (E) शान्ति पाठ
१०) विसर्जन (११) स्तुति
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक के दो शब्द
यो नो जैन समाज में "विवाह पद्धति" सम्बन्धी कितनी ही पुस्तकें आज तक प्रकाशित हो चुकी हैं, परन्तु वह सब ही बहुत
और जटिल हैं. ऐसी पुस्तकें फालतू समय में भव्यजन के लिये कितनी हो उपयोगी हों, परन्तु विवाह संस्कार के समय ऐसी पुस्तकें बड़ी ही कठिनता पैदा करने वाली हैं। ऐसे उतावली के समय में इनमें से उपयोगी विधान और पाठों का छांट निकालना सर्व साधारण के लिये आसान काम नहीं है इसलिये
f
सर्व साधारण के सुमति के लिये एक संक्षिप्त सरल और सुगम विवाद पद्धति का प्रकाशित होना बहुत जरूरी है, इसी कमी को महसूस करते हुये मैन जैन शास्त्र और मध्यभारत की प्रचलित रीति के अनुसार इस विवाह पद्धति को प्रकाशित कराने का
are किया है। यदि मेरे हम प्राम से fears संस्कार कराने वाले महानुभावों को कुछ भी सुभीता प्राप्त हुआ तो मैं अपने इस प्रयास को सफल समभुंगा ।
इस पुस्तक के संग्रह और प्रकाशन कराने में मुझे जैन हाईस्कूल पानीपत के उपसभापति धर्मवत्सल श्रीमान बाबू जयभगवान वकील, मैनेजर पंनिमुत्रनदास, संस्कृत अध्यापक - फुलजारीलाल शास्त्री, हिन्दी सत्यापक पंड गीपणाच देहली निवासी ला पन्नालाल जैन अग्रवाल व पं०जुगलकिशोर जी मुख्तार सरसावा से बहुत सहायता मिली है, इनके अतिरिक्त जिन महानुभावों ने
इसमें सहायता दी है उन सब का आभारी है। देही,
२
सुमेरचन्द जैन
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
II
प्राक्कथन विवाह का लक्षणः-- ___ पूर्व मंम्कारों के उदय से पैदा होने वाली कामवेदना की निवत्ति के लिये,जो समाज और राष्ट्र की रीति नीति के अनुसार, इष्टदेव, अग्नि, पण्डित और प्रतिष्ठित पुरुपों की साक्षी पूर्वक जो पुरुप और स्त्री का पारम्परिक पाणिग्रहण है वह विवाह है । विवाह का उद्देश्य:---
विवाह का उद्देश्य, विमूढ मन की कामुकता को गृहीत स्त्री वा पुरूप में कीलित करना है । उमकी लोलपता को दाम्यत्य जीवन मे सीमित करना है। उमकी उच्छृङ्खलता को गृहम्थ को मर्यादाओं से बांधना है। इस हालत मे उमे लौकिक अभ्युदय की निःमारता दिग्वाकर शनैः शनै: उमकी विमूढना को हरना है । उसकी बाहर में फैली हुई वृत्तियों को भीतर की ओर खींचना है। उसके चित्त को परमार्थ मे लगाना है। उसे शिव, शान्त, मुन्दर परमात्मपद को प्राप्त कराना है।
इम विवाह के करन में यहाँ मनुष्य को परम्पराम्प मे पर मात्म पद मिलता है। वहाँ माक्षात् रूप में उमे अभ्यदय पद भी मिलता है । इम विवाह के करने से जहाँ मनुष्य का व्यक्तिगत हित होता है, वहाँ समष्टिगन हित भी होता है। जहाँ इम करने से व्यनि.गत जीवन मे चरित्र बल बढ़ता है, उसमें प्रेम और मंयम, त्याग और सेवा, मदुता और मधुरना, उदारता और सहिष्णुता सरीखे उच्च भाव बढ़त हैं। वहाँ इसकं करने से ममाज * (अ) 'सद्वेध चारित्र महोदयाद मदन विवाह:
स्वामी अकलंकदेव-गजानिक ७.२८ (श्रा) "यक्तितो वरण विधानमग्निदेव द्विज माक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः” । श्री सोमदेवः--नानवाक्यामृत
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
III
में व्यवस्था पैदा होती है। राष्ट्र में मर्यादा स्थापन होती है, और लोक में शांति फैलती है इतना ही नहीं इस विवाह के करने से सदाचारी सन्तान पैदा होती है । जो मानव संस्कृति को, मनुष्य कल्याण के साधनों को, मनुष्य उद्धार के मार्गों को सदा जिन्दा रखती है इसी वास्ते धर्म गुरुओं ने विवाह को मंगल कहा है । विवाह समय पूजा और स्तुति:
यों तो हर शुभ कार्य के पहिले इष्ट को स्मरण करना जरूरी हैं, परन्तु इस विवाह मंगल के समय जितना भी इसके उद्देश्यों को याद रक्खा जाये, उन्हें भावनारूप भाया जाये, उन्हें पूर्णतया सिद्ध करने वाले महा पुरुषों का गुणानुवाद किया जाये, उनकी पूजा वन्दना की जाये, उतना ही थोड़ा है । यह स्मरण और स्तवन मनुष्य की दृष्टि को विशुद्ध रखता है, उसे इट की ओर लगाये रखना है, उसे भूलों में पड़ने से बचाये रखता है । इसी लिये शास्त्रकारों ने विवाह के हर स्थल पर उपर्युक्त उद्देश्यों को याद रखना, सिद्ध पुरुषों की स्तुति करना जरूरी ठहराया I
-
इसी आशय को दृष्टि में रखकर इस पुस्तक में उन भावनाओं और स्तुतिपाठों को संकलित किया गया है। जो विवाह के विविध अवसरों के समय मनन किये जाने जरूरी हैं ।
वास्तव में तो विवाह संस्कार उसी समय होता है, जब वर कन्या का पाणिग्रहण होता है, परन्तु प्रचलित प्रथा के अनुसार इस पाणिग्रहण से पहिले होते वाली लग्न आदि रीतियों को भी विवाह संस्कार का अंश समझ लिया गया है, इसलिये इन लग्न, मण्डप, घुड़चढ़ी, बरी आदि के अवसरों पर भी इस पूजा वन्दना का होना जरूरी है
1
यह पूजा विधान चार अवयवों वाला है । १. इदेव की स्थापना २. इष्टदेव की स्तुति, ३. इष्ट देव की वन्दना ४. इष्टदेव विमर्जन और शान्ति की भावना । इसी क्रम से यथावश्यक इस पूजा विधान का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है । यदि भव्यजन
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
चाहें तो इसी प्रकार के अन्य संस्कृत, प्राकृत या हिन्दी के पाठों को इन अवसरों पर पढ़ सकते हैं। इनके अतिरिक्त यदि समय इजाजत दे तो इन अवसरों पर आध्यात्मिक भजन और मांगलिक गीत भी गाने चाहिये। जयभगवान जैन,
वकील, ( पानीपत) पूजा विधान के लिये आवश्यक चीजें पूजा विधान के लिए निम्न चीजों को जरूरत होती है इन्हें पहिले से ही इकट्ठा कर लेना चाहिये । १ सिद्धयन्त्र-यह चान्दी या तांबेक पत्र पर बना हुआ होता है,यदि
चान्दी या तांबे का बना हुआ मिद्रयंत्र न मिल सके तो इस यन्त्र को किसी काबी पर लिखकर तैयार कर लेना चाहिये।
सिद्धयन्त्र की रचना
विनायक यंत्र
SEED
ManUw
PREM
YAN
पबंता सर
na
माग
-
मि
बेजा २रसा.
पहलोप
मेगले
।
MINIमरा ५
POT
at
-
केरल
बर
सनमा
(लोगो
140ोनमा
Sam
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोट-बहुत से महानुभावों को सम्मति है कि इस यंत्र में नीचे
जहाँ पर 'माहु लोगोनमा' लिखा है यहाँ से 'ही' का वलय दकर 'अरहन मंगलं' नथा 'अ० मि' आदि को भी यहीं मे
वलयाकार में लिखना चाहिये। २ श्रष्ट मंगल द्रव्य-इनके नाम निम्न प्रकार हैं -भारी, पंम्बा
३ कलश, ४ ध्वजा,५ चमर, ६ ठोरणा, ७ छत्र, और ८ दपरण । यदि ये अष्ट मंगल द्रव्य न मिल सके तो एक थाल में या कई छोटी २ रकाबियों में केमर से इन के आकार बना लेने चाहिये।
झारी पंखा करूण ध्वजा चमर ठोणा छत्र दर्पण
३ वेदी-वेदी तीन कटनी वाली होनी चाहिए। यह आम तौर पर
लकड़ी की बनी-बनाई मिल जानी है, यदि न मिले तो इंटों की बना लेनी चाहिये। सिद्ध यन्त्र
शास्त्र
अष्ट मंगल द्रव्य
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ज ) हवन कुण्ड - यह ग्राम तौर पर तांबे का बना हुआ मिल जाता हैं, यह आकार में चौकोर होता है, यदि तांबे का बना हुआ न मिले तो ईंटों का बना लेना चाहिये या मिट्टी की कुडिया से काम लेना चाहिये ।
1
५ पूजा सामग्री - पूजा निम्न अष्ट द्रव्य द्वारा की जाती है। १. जल, चन्दन, ३. अक्षत, ४. पुष्प, ५. नैवेद्य, ६. दीप,
२
७. धूप,
और
८. फल ।
इन अष्ट द्रव्यों को तय्यार करने के लिये चावल, बादाम, छुवारे, गोला कैंसर की ज़रूरत होती है ।
६ हवन सामग्री:
हवन के लिये तीन प्रकार की सामग्री की ज़रूरत होती है - १. धूप, २. घो, ३. समिधा (लकड़ी)
धूप निम्न चीजों को कूट छान कर तय्यार की जा सकती है-चन्दन चुग, लौंग, देवदारु, काफूर, स्वाण्ड, बालछड़, गोला, इलायची (छोटी)
समिधा पाँच प्रकार की होती हैं- सफेद चन्दन की लकड़ी, लाल चन्दन की लकड़ी, पीपल की लकड़ी, आक की लकड़ी, ढाक की लकड़ी ।
७. पूजा के उपकरणः -पूजा के लिये निम्न उपकरण की जरूरत होती है -२ थाल, २ रकाबी, २ कलशियां, २ चमचयां, २ छोटी २ कटोरियाँ, धूपदान, २ छलने, और २ चौकियां ।
-00-00
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री वीतरागाय नमः
जैन- विवाह - विधि
मङ्गलाचरण
स्वस्ति श्रीकारकं नत्वा वर्द्धमानं जिनेश्वरं । गौतमादिगणाधीशान् वाग्देवीं च विशेषतः ॥ १॥ विवाहस्य विधिं वच्ये जैनशास्त्रानुगामिनीं । गृहिधर्मानुरोधेन संक्षेपेण हितां सतां ||२|| १ लग्न विधि
लग्न वाले दिन वर और कन्या दोनों को अपने २ मकान पर निम्न प्रकार मिद्धयन्त्र की स्थापना कर इष्ट देव की स्तुति और पूजा करनी चाहिये ।
सिद्धयन्त्र स्थापना
निम्न मन्त्र पढ़कर सिद्धयन्त्र की स्थापना करें । ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः । ॐ जय जय जय, रामोऽस्तु, रामोऽस्तु, रामोऽस्तु । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । ॐ ह्रीं अनादिमूलमन्त्राय नमः ।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुनः,
( २ )
ॐ ह्रीं पञ्च परमेष्टिवाचकाय ॐ मन्त्राय नमः |
(पुष्पांजलि क्षेपं)
श्लोक :
-
अपराजितमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मगलं मतः ॥ १ ॥ पुष्पं अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्यायेत् पञ्च नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते || २ || पुष्पं श्रकारं विन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः | कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः || ३ || पुष्पं इति यंत्र स्थापनं । पश्चान समये इम्तवनं पठेत ।
इष्टदेव - स्तुति
( इसके लिये निम्न पाठ पढ़ें)
त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविपयं, सालोकमालोकितम् । साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले, रेखात्रयं सांगुलिं ॥ रागद्वेषभयामयान्तकजरा, लोलत्वलोभादयो । नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते || १ || पुष्पं माया नास्ति जटा कपालमुकुटं चन्द्रो न मृद् ध्वावली' खट्वांगं न च वासुकि र्न च धनुः, शूलं न चोग्रं मुखं ॥ कामो यस्य न कामिनी न च वृषो, गीतं न पुनः । सोऽस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिः, सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः । २ । पुष्पं
"
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३ )
"
'खट्वाङ्ग' नैव हस्ते, न च हृदि रचिता, लम्बते रुण्डमाला | भस्माङ्ग नैव शूलं, न च गिरिदुहिता, नैव हस्ते कपालम् ॥ चन्द्रार्द्ध नै मूर्द्धन्यपि वृषगमनं नैव कण्ठे फणीन्द्रम् । तं वन्दे त्यक्तदोष, भवभयमथनं, ईश्वरं देवदेवम् ||३|| पुष्पं यो विश्व वेद वेद्यं, जननजलनिधेर्भङ्गिनः पारदृश्वा । पौर्वापर्य्याविरुद्ध, बचनमनुपमं, निष्कलंकं यदीयम् || तम्बन् साधुवन्द्य', सकलगुणनिधिं, ध्वस्तदोष द्विषन्तम् बुद्धं वा वर्द्धमानं, शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥ ४ ॥ पुष्पं रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहादस्त्रादिपरिवर्जनान्नच बुधैः, द्वेषोऽपि संभाव्यते ॥ तस्मात्साम्यपथात्मबोधनिरतो, जातः क्षयः कर्मणा । मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं मोऽर्हन्सदा पातुवः || ५|| पुष्पं जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो, मृत्युर्जराजर्जरा । जाता यत्र न कर्मकायघटना, नो वाग्न च व्याधयः || यत्रात्मैव परं चकास्ति विशदः, ज्ञानैकमृर्त्तिप्रभुः । नित्यं तत्पदमाश्रिता निरुपमा, मिद्धाः सदा पान्तुवः | ६ | पुष्पं जित्वा मोहमहाभयं भवपथे, दत्तोग्रदुःखाश्रमे । विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका, दीर्घे चरन्तः क्रमात् ॥ प्राप्ता ज्ञानधनाश्चिरादभिमताः, स्वात्मोपलम्भालयं । नित्यानन्द कलत्रसङ्गसुखिनो, ये तत्र तेभ्यो नमः ||७|| पुष्पं (इति पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत) इति इष्टदेवस्तुतिः समाप्ता
,
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावार्थ-जो सर्वज है जिमने तीन लोक और तीन काल को
साक्षात् कर लिया है । जिसने राग द्वेष आदि भीतरी कमजोरियों को विजय कर लिया है उस महादेव को मैं नमस्कार
करता हूँ॥१॥ २, ३-जो न किसी माया सं विलिन है, न जटा धारी है, न चन्द्र
धारी है, न रुड-मुंडों की माला पहने हुए है, न साँपों को लिपटाए हुए है, न धनुप और त्रिशूल धारी है, न किमी कामना वाला है, न किसी कामिनी को साथ रखता है, न बैल पर सवार है, न गाता और नाचता है, ऐसा निरंजन जिन पति शिव हम सब की रक्षा करे ॥ २ ॥ ३ ॥ ४---जो विश्वदर्शी है, जो ममदर्शी है, जिसका वचन पर्वापर
विरोध रहित है, नय और प्रमाण से सिद्ध है, जो अपने विविध गुणों के कारण बुद्ध, वर्धमान, ब्रह्मा, विष्णु, महेश
आदि नामों में विख्यात है उस निर्दोष गुणाधीश ईश्वर को
नमस्कार है॥४॥ ५---जो निःशस्त्र है, मोह का विजेता है, कर्मशत्रओं का नाश
करने वाला है, राग-द्वेष रहिन है, मान्यता से भरा है, आत्मरस में लीन है, परम आनन्दमय है, परम शान्त और
सुन्दर है, ऐसा अर्हन्न देव हमारी रक्षा करे ।। ५ ।। ६-जो जन्म-मरण रहित है, जो रोग और बुढ़ापे से दूर है
जो अशरीरी है, जो ज्ञान की मूर्ति है, निर्मलता की मूर्ति है,
ऐसे अनुपम सिद्ध भगवान हमारी रक्षा करें ।। ६ ।। ७-जिन्होंने मोह का मार्ग छोड़कर वैराग्य का मार्ग ले लिया है,
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिन्होंने विषय-वासना और धन-वैभव को छोड़कर समता का मार्ग लिया है, जिन्होंने अपनी सहनशीलता और तपश्चरण के बल से ज्ञान-धन और आत्मानन्द को प्राप्त किया है ऐसे साधुओं को बार बार नमस्कार है।
देव-पूजा इसके उपरान्त निम्न पाठ पढ़कर ( अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, माधु, जिनवाणी, जिनधर्म, जिन चैत्य, जिन चैत्यालय ) नव देव की पूजा करें।
नव देव पूजा पाठ इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिखा रत्नार्कभासानखश्रेणीतेक्षणविम्बशुभदलिभद्द गेल्लसत्पाटलम् । श्रीसांघ्रियुगं जिनस्य दधदप्याम्भोजमाम्यं रजःत्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु न श्चेतोऽर्पितं शर्मणे ॥१॥ ___ॐ ह्रीं श्रीसर्वज्ञवीतरागभगवदर्हत्परमेष्टिनं जनादिभिरर्चयामि । तत्सर्वप्रतिबन्धकप्रविगमनव्यक्तसम्यक्त्वविद् । दृग्वीयाण्यवगाहनागुस्लघुप्रध्वस्तवाधौद्धरम् ॥ संजानामि जपामि संततमभिध्यायामि गायामि तम् । संस्तौमि प्रणमामि यामि शरणं, सिद्धं विशुद्धं प्रभम् ।।२।।
ॐ ह्रीं सकलकर्मविमुक्तपरब्रह्मपरमेश्वराय श्रीसिद्ध परमेष्ठिनं जलादिभिरर्चयामि ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६ )
आचारवत्वादिगुणाष्टकाढ्यम् दशप्रकृष्टस्थितिकल्पदीप्तम् । द्विषट्तपः संभूतमातपभिदावश्यकं सूरिममुं नमामि ||३|| ॐ ह्रीं पट्त्रिंशद्गुणान्वित श्रीमदाचार्य परमेष्ठिनं जलादिभिरर्चयामि |
एकादशांगकचतुर्दशपूर्व सर्व
सम्यक्तेः पठन-पाठन - पाटवां यः ॥ कारुण्य पुण्य सरिदुद्धममुद्रचित्तः । तं पाठकं मुनिमुदारगुणं नमामि ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं पञ्चविंशतिगुणममन्वितश्रीमदुपाध्यायपरमेष्ठिनं जलादिभिरर्चयामि ।
अस्नानभूशयनलोचविचेल तैकभक्तोर्ध्वमुक्तयरदघर्पणशुद्धवृत्तम् ॥ पञ्चव्रतोद्यममितीन्द्रिय रोधपट्स
दावश्यकात्तमतरं प्रणमामि साधुम् ।। ५ ।। ॐ ह्रीं अष्टाविंशतिगुणसमन्वितश्री साधुपरमेष्ठिनं जलादिभिरर्चयामि ।
अर्हद्वक्त्रप्रसृतं गणधररचितं द्वादशाङ्ग विशालं । चित्रं बहर्थयक्तं मुनिगुणवृष धीरितं बुद्धिमद्भिः ॥ मोचाग्रद्वारभूतं व्रतचरणफलं, ज्ञेयभावप्रदीपम् । भक्त्या नित्यं वन्दे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ||६|| ॐ श्रीजिन मुखोत्पन्नभगवतीवाग्देव्यै जलादिभिरर्चयामि ।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मःसर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुधेश्चिन्वते । धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं, धर्माय तस्मै नमः ॥ धर्मान्नास्त्यपरः सुहृद्भवभूता, धर्मस्य मूलं दया । धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म ! मां पालय ॥७॥ ___ॐ ही सर्वज्ञवीतरागप्रणीतशास्वतधर्माय जलादिभिरर्चयामि। कृत्याकृत्रिमचारुचैत्यनिलयान्नित्यं त्रिलोकीगतान् । वन्दे भावनव्यन्तरान् द्युतिवरान्कल्पामरान्सर्वगान् । सद्गन्धाक्षतपुष्पचारुवरुभिर्दीपेश्च धूपैः फलैः । नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शान्तये ।।
ॐहीं त्रिलोकवर्तिश्रीजिनालयेभ्यो जलादिभिरर्चयामि । यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिःपरीत्य नमाम्यहम् ॥ __ॐहीं त्रिलोकवर्ति श्रीवीतरागप्रतिविम्बेभ्यो जलादिभिरर्चयामि ।
इति नवदेवपूजा समामा
अष्ट मंगल पाठ
( पूजा के पश्चात निम्न पाठ पढ़े) श्रीमन्नम्रसुगमुरेन्द्रमुकुटप्रद्योतरत्नप्रभाभास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनांभोधीन्दवः स्थायिनः ।। ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः । स्तुन्या योगिजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥१॥अर्घ
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यग्दर्शनबोधवत्तममलं रत्नत्रयं पावनं, मुक्तिश्रीनगराधिनाथजिनपत्युक्तोपवर्गप्रदः । धर्मः सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलंचैत्यालयश्चालयं, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥२।। अर्घ ये पंचौषधिऋद्धयः श्रुततपोवृद्धिं गताः पञ्च ये, ये चाष्टाङ्गमहानिमित्तकुशलाश्चाष्टी विधाश्चारिणः । पंचज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धि ऋद्धीश्वगः, सप्तैते सकलाश्च ते मुनिवराः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥३॥ अर्घ ज्योतिर्व्यन्तरभावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः, जम्बशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरी च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥४॥ अर्थ कैलाशे वृषभस्य निर्वतिमही वीरस्य पावापुरे, चम्पायां वसुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् । शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतः, निर्वाणावनयः प्रसिद्धमहिमाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।शा अर्घ यो गर्भावतरोत्सर्वप्यर्हतां जन्माभिषेकोत्सव, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञान भाक । या कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा सम्पादिता भाविता, कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥६॥ अर्घ
जायन्ते जिन-चक्रवर्तिबलभद्-भोगीन्द्रकृष्णादयो,
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
(&)
धर्मादेव दिगंगनांगविलसच्छश्वद्यशश्चन्दनाः । तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दुःखं सहन्ते ध्रुवं, स्वर्गात् सुखरामणीयकपदं कुर्वन्तु ते मंगलम् ||७|| अ सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते, संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः । देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किम्वा बहु ब्रूमहे, धर्मादेय नमोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु ते मंगलम् ||८|| अ इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपत्करम्, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणां मुखात् । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः धर्मार्थकामान्विता, लक्ष्मीराश्रयते व्यपायर हिता कुर्वन्तु तं मंगलम् ॥६॥ श्रघं
इनि मंगलाष्टकम | दीर्घास्तु शुभमस्तु सुकीर्तिरस्तु, सद्बुद्धिरस्तु धनधान्यसमृद्धिरस्तु । आरोग्यमस्तु विजयोस्तु महोस्तु, पुत्रपौत्राद्भवोस्तु तव सिद्धपतेः प्रसादात् ॥ इस पूजा पाठ के समाप्त होने पर गृहस्थाचार्य निम्न मन्त्र पढ़कर वर के तिलक और कन्या के टीकी लगावे । मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं !! सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याणकारकं । प्रधानं सर्व धर्माणां, जैनं जयतु शासनम् ॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-मण्डप वा मंढा विधिमण्डप वा मंढा बनाने वाले दिन, वर और कन्या दानों को अपने २ स्थान पर उपर्युक्त प्रकार से सिद्धयंत्र की स्थापना कर इष्टदेव की स्तुनि वन्दना पृष्ठ १ मे पृष्ठ ६ तक करनी चाहिये ।
३-घुड़चढ़ी की विधिघुड़चढ़ी वाले दिन, घुड़चढ़ी से पहिले, घर को उपयुक्त रीति से सिद्ध यन्त्र की स्थापना कर इष्टदेव की स्तुति और पूजा पृष्ट १ में पृष्ट : तक करनी चाहिये।
४-बटैरी की विधिबटैरी के पहुंचने पर उपर्युक्त रीति से मिद्ध-यंत्र की स्थापना कर इष्टदेव की स्तुति और पूजा पृष्ट र में पृष्ट ६ नक कर, तत्पश्चात् 'मंगलं भगवान् वीरो' आदि मंत्र पढ़कर वर के तिलक लगाये और उसे रुपया, आभूपण आदि भेट देन की रसम को किया जावे।
५-पाणिग्रहण विधानपाणिग्रहण के समय निम्न रीति से आठ प्रकार का विधान करना चाहिये।
१. पूजा विधान, २. मोड़ी बन्धन और पटका बन्धन, ३. शाखोच्चारण, ४. कन्यादान और पाणिग्रहण, ५. हवन, ६. मप्रपदि और गृहस्थ-धर्म का उपदेश, ७. फेरै व अग्नि की प्रदक्षिणा. और ८. शान्तिपाठ
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११ )
इस विधान के लिये बेटी वाले पक्ष को अपने स्थान में एक सुन्दर मण्डप बनाना चाहिये इसे स्तम्भों और फूलों मे मजाना चाहिये ।
इस सभा मण्डप के बीच में तीन कटनी वाजी वेदी बनानी चाहिये, या लकड़ी की बनी बनाई तीन कटनी वाली बंदी रखनी चाहिये। इस वेदी की प्रथम ऊपर की कटनी पर सिद्ध यंत्र, बीच की कटनी पर आर्प शास्त्र, और तीसरी नीचे की कटनी पर अष्ट मंगल द्रव्य की स्थापना करनी चाहिये ।
इस वेदी के आगे हवन के लिये चौकोर अग्नि कुण्ड ईंटों का बनाना चाहिये, या बना बनाया धातु का अग्निकुण्ड रखना चाहिये । इस कुण्ड के एक तरफ धर्मचक्र और दूसरी तरफ छत्र य रखने चाहियें ।
नोट - इस पूजा विधान के लिये जिन २ चीजों की जरूरत होती है, उनकी सूचीच. छ प्रष्ठों पर दी गई हैं।
१- पूजा विधान :
यह पूजा विधान मण्डप में बैठकर वर और कन्या दोनों को ही इकट्ठा करना चाहिये । इस विवान के समय वर का आसन बाई और, और कन्या का आसन दाई ओर होना चाहिये ।
ह
इस पूजा विधान के समय पूर्वोक्त रीति से पृष्ट १ से पृष्ट तक सिद्ध यन्त्र की स्थापनार्थ मन्त्र पढ़कर इष्टदेव की स्तुति और पूजा करनी चाहिये |
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२ )
२ मौड़ी बन्धन और पटका बन्धनः
पूजा विधान के उपरान्त लड़की के सिर पर रोली से बने स्वतिक चिह्नों से चिह्नित मौड़ी को बांधा जाये, तत्पश्चात बेटे वाले से पटका लेकर उसके दोनों सिरों पर रोली मे स्वस्तिका के निशान किये जायें, और उसके एक सिरे में दूब घाम, पीले चावल, एक टका - दो पैसे, हल्दी को गिराह और सुपारी बांधकर उसे लड़की के पौंचे के साथ बांध दिया जावे और पटके का दूसरा सिरा लड़के को दे दिया जावे ।
३ शाखोच्चारण:
तदुपरान्त शाखोच्चारगा होना चाहिये अर्थात पहिले निम्नरीति से वर पक्ष का शाखोच्चार और उसके बाद कन्या पक्ष का शाखोच्चार होना चाहिये |
बन्दू देव युगादि जिन, गुरु गौतम के पाय । सुमरूँ देवी शारदा, ऋद्धि सिद्धि वरदाय ॥ १ ॥ अब आदीश्वर कुमर को, सुनियो व्याह विधान । विधन विनाशन पाठ है, मंगल मूल महान ॥ २ ॥ इस ही भरत सुक्षेत्र में, आरज खण्ड मकार | सुख सों बीते तीन युग, शेष समय की बार ॥ ३ ॥ चौदह कुलकर अवतरे, अन्तिम नाभि नरेश । सब भूपन में तिलक सम, कौशल पुर परमेश ॥ ४ ॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३ )
मरु देवी राणी प्रगट, शुभ लक्षण आधार । तिन के तीर्थङ्कर ऋषभ, भये प्रथम अवतार ॥ ५ ॥ स्वामी स्वयम्भू परम गुरु, स्वयं बुद्ध भगवान | इन्द्र चन्द्र पूजत चरण, आदि पुरुष परमाण || ६ || तीन लोक तारण तरण, नाम विरद विख्यात ।
गुण अनन्त आधार प्रभु, जगनायक जगतात ॥ ७ ॥ जन्मत व्याह उछाह में, शुभ कारज की आदि । पहले पूज्य मनाइये, विनशैं विघन विषाद ॥ ८ ॥ मकल सिद्धि सुख सम्पदा, सब मन वांछित होय । तीन लोक तिहुँ काल में, और न मंगल कोय ॥ ६ ॥ इस मंगल की भूलि के, करें और से प्रीति । तं जान समझैं नहीं, उत्तम कुल की रीति ॥ १० ॥ नाभि नरेश्वर एक दिन, कियो मनोरथ सार । आदि कुमर परनाइये, बोले सुबुधि विचार ।। ११ । हो कुमर तुम जगत गुरु, जगत पूज्य गुणधाम | जन्म योग तैं लोक सब, कहैं हमें गुरु नाम ॥ १२ ॥ तातें नहीं उलंघन, मेरे वचन कुमार | व्याह करो आशा भरो, चलो गृहस्थाचार ॥ १३ ॥ सुनके वचन सु तात के, मुसकाये जिन चन्द | तब नरेश जानी सही, राजी ऋषभ जिनंद ॥ १४ ॥ बेटी कच्छ सु कच्छ की, नन्द सुनन्दा नाम ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ )
अतुल रूप गुण आगरी, मांगी बहु गुण धाम ||१५|| उभय पक्ष आनन्द भयो, सब जग बढ्यो उछाह । लग्न मुहूरत शुभ घड़ी, रोप्यो ऋषभ विवाह || १६ || खान पान सन्मान विधि, उचित दान परकाश | संतोषे पोषे सुजन, योग्य वचन मुख भाष ॥ १७ ॥ गज तुरंग चाहन विविध, बनी वरात श्रनृप । रथ में राजत ऋषभ जिन, संग बराती भूप ॥ १८ ॥ नाचें देवी अप्सरा, सब रस पोषै सार । मंगल गावैं किन्नरी, देव करें जयकार ॥ १६ ॥ मंगलीक बाजे बजैं, बहु विधिश्रवण सुहांहि । नर नारी कौतुक निरखि, हरपे अंग न मांहि ॥ २० ॥ आदि देव दुलहा जहां, पायक इन्द्र समान । तिस बरात महिमा कहन, समरथ कौन सुजान ॥ २१॥ आगे आये लेन को, कच्छ सुकच्छ नरेश । विविध भेट देकर मिले, उर आनन्द विशेष || २२ ॥ रतन पौल पहुंचे ऋषभ, तोरण घंटा द्वार । रतन फूल बरपे घने, चित्र विचित्र अपार ॥ २३ ॥ चौरी मण्डप जगमगें, बहु विधि शो ऐन । चारों दिश चलके खरे, कंचन कलश रु बैन ||२४|| मोती झालर भूमका, झलकें होरा होर । मानो आनन्द मेघ की, झड़ी लगी चहुँ ओर ||२५||
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर कन्या बैठे जहाँ, देखत उपजै प्रीत । पिकवनी मुगलोचनी, कामिनि गावे गीत ।। २६ ॥ कन्यादान विधान विधि, और उचित आचार । यथा योग्य व्यवहार सब, कीनों कुल अनुमार ।। २७ ॥ इह विधि विविध उछाहसों, भये मंगलाचार । सज्जन कीनी वीनती, शोभा दिपे अपार ॥ २८ ॥ हर्षे नाभि नरेश मन, हरषे कच्छ सुकच्छ । मरु देवी आनन्द भयो, हरपे परिजन पक्ष ॥ २६ ॥ यह विवाह मंगल महा, पढ़त सुनत आनन्द । सबको सुख सम्पति करें, नाभिराय कुल चन्द ॥ ३० ॥ वंश बेल बाई सुखद, बढ़े धर्म माद । वर कन्या जीवें सुचिर, ऋषभ देव परसाद ।। ३१ ॥
इति शुभम् नोट--शाखोच्चार के पश्चान वंशावली पढ़नी चाहिये ।
धर्ममति धर्मावतार शाहनपति शाह जैनधर्म परायण अमुक ( गांव का नाम ) गात्रोद्भव श्रीमान् ला०
जी प्रपौत्राय नेम धर्म चौबीसी म्वामी पार्श्वनाथजी सदा महाय । धर्ममूर्ति धर्मावतार शाहनपति शाह जैनधर्म परायण अमुक ( गोत्र का नाम) गोत्रोद्भव श्रीमान ला०
जी पौत्राय नम धर्म चौबीमी स्वामी पार्श्वनाथ जी सदा सहाय ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्ममूर्ति धर्मावतार शाहनपति शाह जैन धर्म परायण अमुक ( गोत्र का नाम ) गोत्रोद्भव श्रीमान् ला०
जी पुत्राय नेम धर्म चोचीसी स्वामी पार्श्वनाथ जी सदा सहाय ।
पश्चात बेटी वाले की ओर मे शा बोच्चार व बंशावली निम्न प्रकार से पढ़नी चाहिये
धर्ममूर्ति धर्मावतार शाहनपति शाह जैनधर्म परायण अमुक ( गोत्र का नाम ) गोत्रोद्भव श्रीमान् ला०
जी प्रपौत्रीय नम धर्म चौबीसी स्वामी पार्श्वनाथजी सदा सहाय । धर्ममूर्ति धर्मावतार शाहनपति शाह जैनधर्म परायण अमुक (गोत्र का नाम) गोत्रोद्भव श्रीमान् ला०
जी पोत्रीय नेम धर्म चौबीसी स्वामी पार्श्वनाथ जी सदा सहाय । धर्ममूर्ति धर्मावतार शाहनपति शाह जैन धर्म परायण अमुक ( गोत्र का नाम ) गोत्रोद्भव श्रीमान् ला.
जी पत्रीय नेम धर्म चौबीमी स्वामी पार्श्वनाथ जी सदासहाय ।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुंदकँदायो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ॥ ये श्लोक पढ़ कर वर कन्या पर पुष्प क्षेपण कर देने चाहिये ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
४-कन्यादान और पाणिग्रहण-- इसके पश्चात् कन्या का पिता कन्या का दायां हाथ पीले चन्दन से विलपित करके उसका अंगठा चावल, १) रुपया और जल सहित अपने हाथ में लेकर निम्न मंकल्प पढ़ कर वर के हाथ में पकड़ाद और रुपया वर को दे दे । वर से रुपया लेकर वर का पिता थेली में डाल लेवे।
अस्मिन् जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्य खण्डे अमुक देश (देश का नाम ) अमुक नगरे ( नगर का नाम ) अमुक संवत्सरे ( संवत् का नाम ) अमुक मास (महीने का नाम) अमुक पक्षे (पक्ष का नाम ) अमुक शुभ तिथौ ( तिथि का नाम) अमुक वासरे (वार का नाम) शुभ वेलायाम् मण्डप सन्निधानं अमुक ( लड़की के पिता का गोत्र ) गोत्रोत्पन्नोऽहं ( नाम लड़की के पिता का) इमां स्वकीयकन्यां सालंकारां स्वर्ण जटितमणिमाक्तिकविद्रमहरितरक्तधीतकोशेयवत्रशोभितां कन्यां अमुक ( लड़के का गोत्र ) गोत्राय भा वर ! शुभाननाय तुभ्यं ददामि अस्याः ग्रहणं कुरु कुरु ।
५-हवन विधिपाणिग्रहण के बाद वर कन्या दोनों निम्न मन्त्र पढ़ कर इकट्ठा हवन करें।
धूपैः सन्धपितानेक-कर्मभिधू पदायिनः । अर्चयामि जिनाधीश--सदागम-गरून गुरून
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ ही श्रीमज्जिन-श्रुत-गुरुभ्यो नमः धूपम् । सुरभीकृतदिग्वातः धूपधुमैर्जगप्रियः । यजामि जिन-सिद्धेश-सूर्युपाध्याय-मद्गुरून् । ॐ हीं पञ्चपरमेष्ठिभ्यो धूपम् । मदग्निसंगमसमुच्छलितोरुधूमैः । कृष्णागुरुप्रभृतिसुन्दरवस्तुधूपैः ! प्रीत्या नटद्भिरिव ताण्डवनृत्यमुच्चैः । कर्मारिदारुदहनं जिनमर्चयामि ।। ॐ ही अर्हत्परमेष्ठिने धूपम् । गोत्रदयसंभवसंततसंभवसद्गुरु लघुतारू पपरं । सर्गमसर्गमपीतमनक्षणमुज्झितसग्र्गासर्गभगम् ॥ कृष्णागुरुधूपैः सुरभितभूय मैः स्पृष्टहरिद्रुपैः । यायज्मः सिद्ध सर्वविशुद्ध बुद्धमरुद्धं गुणरुद्धम् ।।
ॐ हीं सिद्धपरमेष्ठिने धूपम् । हुत्वा स्वमप्यगुरुभिः सुग्भीकृताशेरग्नी समुच्छलितसंभृतवृन्दधूमः ।। मंधूपयामि चरणं शरणं शरण्यम् । पुण्यं भवभ्रमहरं गणिनां मुनीनाम् । ॐ हीं प्राचार्यपरमेष्ठिने धूपम् संधपिताखिलदिशेर्घनशंकयेह । बर्हिवजस्वनटनादिव नर्तयद्भिः ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
मदग्निसङ्गतिततागरुधूपधुमैः ॥ श्रीपाठकक्रमयुगं वयमामहामः । ॐ ह्रीं उपाध्याय-परमेष्ठिने धूपम् ।। स्वमग्नौ विनिक्षिप्य दोर्गन्ध्यबन्धं । दशाशास्यमुच्चः करोति त्रिमन्ध्यम् । तदुद्दामकृष्णागुरुद्रव्यध
यजे साधु साधु नटद्-व्यक्तरूपैः ।।
__ॐ हीं माधुपरमेष्ठिने धृपम् । यंन स्वयं बोधमयेन लोका आशामिता केचन वृत्तिकायें । प्राधिता केचन मोक्षमार्गे तमादिनाथं प्रणमामि नित्यम् ।१
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथाय धूपम् । इन्द्रादिभिः क्षीर-समुद्रतोयः मंम्नापितो मेरुगिरी जिनेन्द्रः। यः कामजेता जनसौख्यकारी तं शुद्धभावादजितं नमामि।२
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथाय धूपम् ध्यानप्रबन्धप्रभवेन येन निहत्य कर्मप्रकृतीः समस्ताः । मुक्ति स्वरूपा पदवी प्रपेदं तं शम्भवं नौमि महानरागात् ॥३
ॐ ह्रीं श्रीशम्भवनाथाय धूपम् । स्वप्नं यदीया जननी क्षपायर्या गजादिवन्यन्तमिदं ददर्श । यत्तात इत्याह गुरुः परोऽयं नौमि प्रमोदादभिनन्दनं तम् ।।४
ॐ हीं श्रीअभिनन्दननाथाय धूपम् ॥ कुवा दिवादं जयता महान्तं नयप्रमाणैर्वचनैर्जगत्सु ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनं मतं विस्तरितं च येन तं दवदेवं मुमतिं नमामि ॥५
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथाय धूपम् यस्यावतारे सति पितृधिष्ण्यं ववर्ष रत्नानि हरेनिंदंशात । धनाधिपः परणवमासपूर्व पद्मप्रभं तं प्रणमामि साधुं ।
ॐ ह्रीं श्रीपद्म प्रभनाथाय धूपम् नरेन्द्रमर्पश्वरनाकनाथैवाणी भवंती जगह स्वचित्ते । यस्यात्मबोधः प्रथितः सभायामहं सुपाखें ननु तं नमामि ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथाय धूपम् मत्प्रातिहार्यातिशयप्रपन्नो गुणप्रवीणो हतदोषमंगः । यो लोकमोहान्धतमः प्रदीपश्चन्द्रप्रभ नं प्रणमामि भावात ॥
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभनाथाय धूपम् गप्तित्रयं पंच महाव्रतानि पंचोपदिष्टा समितिश्च येन । बमाण यो द्वादशधा तपांसि तं पुष्पदन्तं प्रणमामि देवं ।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तनाथाय धूपम् ब्रह्मव्रतान्तो जिननायकनात्तमक्षमादिर्दशधापि धर्मः । येन प्रयुक्तो व्रतबंधबुद्धया तं शीतलं तीर्थकरं नमामि ॥१०
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथाय धूपम् गणे जनानन्दकरे धगन्ते विध्वस्तकोपे प्रशमैकचित्ते यो द्वादशाङ्गश्रुतमादिदेश श्रेयांसमानौमि जिनं तमीशं
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथाय धूपम् मुक्त्यंगनायै रचिता विशाला रत्नत्रयी शेखरता च येन ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
यत्कण्ठमासाद्य बभूव श्रेष्ठा तं वासुपूज्यं प्रणमामि वेगात् ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथाय धूपम् ज्ञानी विवेकी परमस्वरूपी ध्यानी व्रती प्राणिहितोपदेशी मिथ्यात्वघाती शिवसौख्यभोगी बभूव यस्तं विमलं नमामि
ॐ हीं श्रीविमलनाथाय धूपम् अभ्यन्तरं बाह्यमनेकधा यः परिग्रहं सर्वमपाचकार । यो मार्गमुद्दिश्य हितं जनानां बंदे जिनं तं प्रणमाम्यनंतम् ।।
ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथाय धूपम् सार्द्ध पदार्था नव सप्ततत्त्वैः पंचास्तिकायाश्च न कालकायाः पद्रव्यनिर्णीतिरलोकयुक्तिर्येनोदिता तं प्रणमामि धर्मम्
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथाय धूपम् यश्चक्रवर्ती भुवि पंचमोऽभच्छीनंदनो द्वादशमो गुणानां । निधिप्रभः षोडशमो जिनेन्द्रस्तं शान्तिनाथं प्रणमामि भावात्
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथाय धपम् प्रशंसितो योन विभर्ति हर्ष विरोधितो यो न करोति रोषम् शीलवताद् ब्रह्मपदं गतो यस्तं कंथुनाथं प्रणमामि हर्षात
__ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथाय धूपम् यः संस्तुतो यः प्रणतः सभायां यः सेवितोऽन्तर्गणपरणाय यदच्युतैः केवलिभिर्जिनैश्च देवाधिदेवं प्रणमाम्यरं तम् ॥
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथाय धूपम् रत्नत्रयं पर्वभवान्तरे यो वृतं पवित्रं कृतवानशेष ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ce
)
कायेन वाचा मनमा विशुद्धया तं मल्लिनाथं प्रणमामि भक्त्या ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथाय धूपम्
ब्रुवन्नमः सिद्धपदाय वाक्यमित्यग्रहीद्यः स्वयमेव लांचं । लौकांतिकेभ्यः स्तवनं निशम्य वंदे जिनेशं मुनिसुव्रतं तं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथाय धूपम् विद्यावत तीर्थकराय तस्मायाहारदानं ददतो विशेषात् । गृहे नृपस्याजनि रत्नवृष्टिः स्तौमि प्रणामान्नयतो नमिं तम् ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथाय धूपम्
राजीमती यः प्रविहाय मोक्षे स्थितिं चकारापुनरागमाय । सर्वेषु जीवेषु दयां दधानस्तं नेमिनाथं प्रणमामि भक्त्या ॥ ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथाय धूपम्
सर्पाधिराजः कमठारितोयैर्ध्यानस्थितस्यैव फरणावितानैः । यस्योपसर्ग निवर्तयत्तं नमामि पार्श्व महतादरंग || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथाय धूपम् भवार्णवं जन्तुसमूहमेनमाकर्षयामास हि धर्मपोतान । मज्जंतमुद्वीक्ष्य य एनमापि श्रीवर्द्धमानं प्रणमाम्यहं तम् || ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमाननाथाय धूपम् पीठिका के मन्त्र
ॐ मत्यजाताय नमः || १ || ॐ अर्हज्जाताय नमः ||२|| ॐ परम जाताय नमः ||३|| ॐ अनुपमजाताय नमः ||४|| ॐ स्वप्रधानाय नमः ||५|| ॐ चलाय नमः ||६||
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ ) ॐ अक्षयाय नमः ॥७॥ ॐ अव्यावाधाय नमः ॥८॥ ॐ अनंतज्ञानाय नमः ।।६।। ॐ अनंतदर्शनाय नमः ॥१०॥ ॐ अनंतवीर्याय नमः ॥११॥ ॐ अनंतसुखाय नमः॥१२॥ ॐ नीरजसे नमः ॥१३॥ ॐ निर्मलाय नमः ॥१४॥ ॐ अच्छंद्याय नमः ॥१५॥ ॐ अभेद्याय नमः ॥१६॥ ॐ अजराय नमः ॥१७॥ ॐ अमराय नमः ॥१८॥ ॐ अप्रमेयाय नमः ॥१६॥ ॐ अगर्भवासाय नमः ॥२०॥ ॐ अक्षाभ्याय नमः ॥२१।। ॐअविलीनाय नमः ॥२२॥ ॐ परमधनाय नमः ॥२३॥ ॐ परमकाष्ठायोगरूपाय नमः ॥२४॥ ॐ लोकारवासिने नमोनमः ॥२५॥ ॐ परमसिद्वेभ्योनमानमः ॥२६।। ॐ अर्हन्मिद्धेभ्यो नमो नमः॥२७|| ॐ केवलिमिटेभ्यो नमो नमः । २८॥ ॐ अंतःकृत्सिद्वेभ्यो नमो नमः ॥२६॥ ॐ परंपरामिद्धेभ्यो नमो नमः ॥३०॥ ॐ अनादिपरंपरासिद्वेभ्यो नमो नमः ॥३१॥ ॐ अनाद्यनुपममिद्धेभ्यो नमो नमः ॥३२॥ ॐ सम्यग्दृष्टे २ आमन्नभव्य२ निर्वाणपूजार्ह २ अग्नीन्द्र२ स्वाहा ॥३३॥
इस तरह ३३ मंत्र पढ़ पाहूति देकर फिर नीच लिग्वा आशीर्वाद सूचक मंत्र पढ़ पाहूति देव और पुष्प ले अपने सर्व पास बैठने वालों के ऊपर डाले। सेवाफलं षट्पमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । समाधिमरणं भवतु ।।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ )
अथ जातिमंत्र ॐ सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि ॥१॥ ॐ अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि ॥२॥ ॐ अर्हन्मातुःशरणं प्रपद्यामि ॥३॥ ॐ अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि ॥४॥ ॐ अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि ॥५॥ ॐ अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि ॥६॥ ॐ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि ॥७॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वति सरम्बति स्वाहा ॥८॥
इम तरह जानिमंत्र पढ़ पाठ आहूति देकर आशीर्वाद-मूचक नीचे लिखा मंत्र पढ़ आहूति दे पुष्प क्षेपे । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमत्युविनाशनं भवतु । समाधिमरणं भवतु ।
अथ निस्तारकमंत्र । ॐ सत्यजाताय स्वाहा ॥१॥ ॐ अर्हजाताय स्वाहा ॥२॥ ॐ षटकर्मणे स्वाहा ॥३॥ ॐ ग्रामपतये म्वाहा ॥४॥ ॐ अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा।।५॥ ॐ स्नातकाय स्वाहा।।६ ॐ श्रावकाय स्वाहा ॥७॥ ॐ देवब्राह्मणाय स्वाहा ॥८॥ ॐ सुब्राह्मणाय स्वाहा ॥8॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥१०॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा ॥११॥
इस तरह ११ श्राहूति दे फिर वही "संवाफलं षट् परम स्थान
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ )
भवतु अपमृत्युविनाशनं भवतु । समाधिमरणं भवतु" | मंत्र पढ़कर आहूति दे पुष्प क्षेपे । अथ ऋषिमंत्र |
ॐ सत्यजाताय नमः ||१|| ॐ अर्हज्जाताय नमः || २ || ॐ निर्ग्रन्थाय नमः ||३|| ॐ वीतरागाय नमः || ४ || ॐ महाव्रताय नमः || ५ || ॐ त्रिगुप्ताय नमः ||६|| ॐ महायोगाय नमः ||७|| ॐ विविधयोगाय नमः ||८|| ॐ विविधर्द्धये नमः ॥६॥ ॐ अंगधराय नमः || १० || ॐ पूर्वधराय नमः ||११|| ॐ गणधराय नमः || १२ || ॐ परमर्षिभ्यो नमो नमः || १३ || ॐ अनुपमजाताय नमो नमः ||१४|| ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा ||१५||
ऐसी १५ आहुति देकर वही निम्नलिखित आशीर्वाद सूचक मंत्र पढ़ आहुति दे पुष्प क्षेपे । "मेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु | अपमृत्युविनाशनं भवतु । समाधिमरणं भवतु ॥ "
अथ सुरेन्द्र मंत्र |
ॐ सत्यजाताय स्वाहा || १ || ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ||२|| ॐ दिव्यजाताय स्वाहा ||३|| ॐ
दिव्यार्चिर्जाताय
ॐ सौधर्माय
स्वाहा ||४|| ॐ नेमिनाथाय स्वाहा स्वाहा || ६ || ॐ कल्पाधिपतये स्वाहा ॥७॥ ॐ अनचराय
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
स्वाहा ||८|| ॐ परंपरेन्द्राय स्वाहा ||६|| ॐ अहमिन्द्राय स्वाहा ||१०|| ॐ परमार्हताय स्वाहा ॥ ११ ॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ||१२|| ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्त्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन
स्वाहा ||१३||
इस तरह १३ आहूति दे वही पहिले लिखित आशीर्वाद सूचक मंत्र पढ़ आहूति दे पुष्प क्षेपे ।
अथ परमराजादि मंत्र ।
ॐ सत्यजाताय स्वाहा || १ || ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ||२|| ॐ अनपमेन्द्राय स्वाहा || ३ || ॐ विजयार्च्यजाताय स्वाहा ||४|| ॐ नेमिनाथाय स्वाहा ||५|| ॐ परमजाताय स्वाहा || ६ || ॐ परमार्हताय स्वाहा ||७|| ॐ अनुपमाय स्वाहा || || ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेज: दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नमिविजय स्वाहा ॥६॥
इस तरह ६ आहूति दे वही आशीर्वाद सूचक मंत्र पढ़ आहूति है पुष्प क्षेपे ।
अथ परमेष्ठिमंत्र |
ॐ सत्यजाताय नमः || १ || ॐ अर्हज्जाताय नमः ||२|| ॐ परमजाताय नमः || ३|| ॐ परमार्हताय नमः ||४||
ॐ परमरूपाय नमः ॥ ५॥ ॐ
परमतेजसे नमः ||६||
परमगुणाय नमः ||७|| ॐ परमस्थानाय नमः ||८||
ह
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७ )
ॐ परमयोगिने नमः || || ॐ परमभाग्याय नमः ॥ १०॥ . ॐ परमर्द्धये नमः ||११| ॐ परमप्रसादाय नमः || १२ || ॐ परमकांक्षिताय नमः || १३|| ॐ परमविजयाय नमः || १४ || ॐ परमविज्ञानाय नमः || १५|| ॐ परमदर्शनाय नमः || १६ || ॐ परमवीर्याय नमः || १७ || ॐ परमसुखाय नमः || १८ || ॐ परमसर्वज्ञाय नमः || १६|| ॐ अर्हते नमः || २० || ॐ परमेष्ठिनं नमो नमः || २१ || ॐ परमनेत्रे नमो नमः ||२२|| ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रैलोक्यविजय त्रैलोक्यविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा ||२३||
इस प्रकार २३ आहूति देकर वही आशीर्वाद सूचक मंत्र पढ़ आहूति दे पुष्प क्षेपे । ૐ
इस तरह ( ३३+८+११+१५+१३+६+२३ ) ११२ आहूति और आहूति आशीर्वाद की ऐसी १२० आहूति दे होम पूर्ण करं ।
ये सात प्रकार पीठिका के मंत्र हैं ।
६- सप्तपदी -
हवन करने के बाद, सुख और सन्तोष के साथ जीवन निर्वाह करने के लिये. वर और कन्या दोनों एक दूसरे को निम्न प्रकार सात २ प्रतिज्ञायें दिलाते हैं । पहिले वर कन्या को सात प्रतिज्ञायें दिलाता है । फिर कन्या वर को सात प्रतिज्ञायें दिलाती है ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८ )
वर के सात वचन १-मम कुटुम्बजनानां यथायोग्यं विनयशुश्रुषा कर
णीया ( मरे कुटम्बियों की यथायोग्य सेवा विनय
आदर सत्कार करना) २-मम आज्ञा न लोपनीया । (मेरी आज्ञा को कभी
भंग मत करना) ३-कटु निष्ठुरवाक्यं न वक्तव्यम् ( कड़वा और मर्म
भेदी वचन न बोलना) ४-सत्पात्रादिजनभ्यां गहागतभ्यः आहारादि दाने
कलुषितं मनो न कार्यम् (सत्पात्रादि-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका आदि के घर आने पर दान देने
में अपने मन को कलषित न करना । ५-रात्री परगहे न गन्तव्यम् ( रात को दुसरं के घर पर
मत जाना) ६-बहुजनसंकीर्णेम्थाने न गन्तव्यम् ( जहां बहुत मे
आदमी एकत्र हो रहे हों ऐसे स्थान पर मत जाना) ७--कुत्मिताधर्मिमद्यपायिनां गहे न गन्तव्यम् (जिनका
आचरण और धर्म खगव है ऐसे मद्यादि पीने वालों के घर पर नहीं जाना चाहिये) एतानि मदुक्तानि वचनानि यदि स्वीकरोषि तदा
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २ ) मम बामाङ्गी भव । (अर्थात् यदि मेरी इन सात शर्तों को म्वीकार करो तो मेरी वामांगी हो सकती हो । तब वधू कहे कि 'भगवन्तः कल्याणं करिष्यन्ति' अर्थात् ये समस्त प्रतिज्ञायें मुझे स्वीकार हैं।
कन्या क सात वचन १ ---अन्यस्त्रीभिः सह क्रीडा न करणीया (अन्य स्त्रियों
के साथ क्रीडा मत करना) २-वंश्यागृह न गन्तव्यम् (वेश्यादि खराब स्त्रियों के घर
पर मत जाना) ३-~-बूतक्रीडा न कार्या (जत्रा मत खेलना) -सदद्योगात् द्रव्यमुपायं वस्त्राभरणैः ममरक्षाकरणीया (न्यायानुकूल उद्योगधन्धों में धन कमाकर मेरी रक्षा
करना) ५-~-धर्मस्थानगमने न वर्जनीया (मन्दिर, तीर्थ क्षेत्रादि
धर्म स्थान पर जाने से मुझे मत रोकना) ६----गुप्तवार्ता न रक्षणीया ( कोई बात मुझ से गुप्त मत
करना) ७----मम गुप्तवार्ता अन्याये न कथनीया (मेरी गुप्त बात
मरे के आगे प्रकाशित मत करना । 'भगवन्तः कल्याणं करिष्यन्ति' इति वरोवदेत अर्थात् वर कहे कि ये सातों प्रतिज्ञायें मुझे स्वीकार हैं।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
10 )
७- गृहस्थ धर्म का उपदेश :
-
सप्तपदी होने के बाद गृहस्थाचार्य को चाहिये कि समाज और देश की स्थिति के अनुसार गृहस्थ जीवन चलाने के लिये वर और कन्या को निम्न बातों पर प्रकाश डालने हुए सदुप देश दे ।
(अ) विवाह संस्था का इतिहास - विवाह की प्रथा कैसे ओर कब से प्रचलित हुई ? विवाह के भेद और उनमें ब्राह्मी विवाह की विशेषता ।
(श्री) ब्राह्मी विवाह का लक्षण
(इ) विवाह के उद्देश्य, गृहस्थ का स्वरूप.
(ई) सद्गृहस्थ के लक्षण,
( उ ) गृहस्थ के पट् श्रावश्यक धर्म,
(ऊ) गृहस्थ के कुल और जाति, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य, गृहस्थ समस्त श्राश्रमों का आधार है 1
८ फेरे अर्थात् अग्नि को परिक्रमाः
सदुपदेश सुनने के बाद वर और कन्या जीवन-यात्रा के लिये एक दूसरे के साथी बन कर उपस्थित जनता के सामने हवनकुण्ड की अग्नि के गिर्द सात परिक्रमा देवें ।
गृहस्थाचार्य को परिक्रमा के समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते रहना चाहिये ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१ )
आयुः पुष्टिं करोतु प्रहरतु दुरितं मंगलानांधिनोतु | सौभाग्यं वृद्धिमुचैर्नयतु वितरताद्वैभवं संचिनोतु । रामा पद्माभिरामारमयतु सुयशः स्पष्टयित्वा तनोतु । पुत्रं पौत्रं प्रतापं प्रथयतु भवतामर्हतां भक्तिरुचैः ।
इसके पश्चात् कन्या को वर की बांई ओर बैठना चाहिये । इस विधान के अन्त में सब को मिलकर निम्न शान्ति पाठ पढना चाहिये ।
शान्ति पाठ
शास्त्रोक्त विधि पूजा महोत्सव सुरपती चक्री करें, हम सारिखे लघु पुरुष कैम यथा विधि पूजा करें । धन क्रिया ज्ञान रहित न जानें रीति पूजन नाथजी, हम भक्ति वश तुम चरण आगे जोड़ दीनं हाथ जी । दुखहरण मंगलकरण आशाभरण जिनपूजा सही, यह चित्त में सरधान मेरे शक्ति है स्वयमेव ही । तुम सारिखे दातार पाये काज लघु जाचूँ कहा, मुझे आप समकर लेहु स्वामी यही इक बांछा महा । संसार भीषण विपिन में वसुकर्म मिलि श्रातापियो, तिस दाहतें श्राकुलित चित्त है शान्तिथल कहूँ ना लियो । तुम मिले शान्तिस्वरूप शान्ती करण समरथ जगपती, वसु कर्म मेरे शान्त करदो शान्ति मय पञ्चम गती ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ )
जबलों नहीं शिवलहों तबलों देहु यह धन पावना, सतसंग शुद्धाचरण श्रुत-अभ्यास आतम भावना | तुम बिन अनन्तानन्त काल गयो रुलत जगजाल में, अब शरण आयो नाश दुख कर जोड़ नावत भाल मैं । कर प्रमाण के मान तैं, गगन नपे किंह भन्त, त्यों तुम गुण वरणन करत, कवि नहिं पावें अन्त । विसर्जन
सम्पूर्ण विधि कर वीनऊँ हम परम पुजन पाठ में, अज्ञानवश शास्त्रोक्त विधितें चक कीनो पाठ में । सो होउ समस्त विधिवत् तुम चरण की शरण हैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़ के उद्धार जन्मन मरण तें । आहाननं स्थापन तथा सन्निधिकरण विधान जी, पूजन विसर्जन यथा विधि जानों नहीं गुण खान जी । जो दोष लागो सो नशां सब तुम चरण की शरण तैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़के उद्धार जन्मन मरण तैं । तुम रहित श्रावागमन श्राहानन कियो निज भाव में, विधि यथाक्रम निज शक्ति सम पूजन किया चित चाव मैं । सो होउ पूर्ण समस्त विधिवत् तुम चरण की शरण तैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़ के उद्धार जन्मन मरण तैं 1 तीन लोक तिहुँ काल में, तुम सा देव न और । सुख कारण संकट हरण, नमूं युगल कर जोड़ ॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३३ )
शान्ति पाठ: -
सब मनुज नाग सुरेन्द्र जाके छत्रत्रय ऊपर क कल्याण पंचक मोदमाला पाय भवभ्रम तम हरें । दर्शन अनन्त अनन्त ज्ञान अनन्त सुख वीरज भरें । जयवंत ते अरिहंत शिवतियकंत मो उर संचरें ॥१॥ धर ध्यान रूप कमान बान सुतान तुरत जलादिये । युतमान जन्म जरा मरणमय त्रिपुर फेर नहीं भये । अविचल शिवालय धाम पायो स्वगुणतें न चलें कदा | ते सिद्ध प्रभु विरुद्ध मेरे शुद्ध ज्ञान करो सदा ||२|| जे पंच विधि आचार निर्मल पंच अग्नि साधते । वर द्वादशाङ्ग समुद्र अवगाहत सकल भ्रम वाधते । धन सूरि सन्त महन्त विधिगण हरण को अति दक्ष हैं । ते मोक्ष लक्ष्मी देहु हमको जाहिं नाहिं विपक्ष हैं ॥ ३ ॥
जे भीम भव कानन कुटवी पाप पंचानन जहां |
·
diaण सकल जन दुःखकारण जामके नखगण महा । तहँ भ्रमत भूले जीव को शिवमग बतावें सर्वदा । तिन उपाध्याय मुनीन्द्र के चरणारविन्द नमं सदा ||४|| विन-संग उग्र अभंगतपतें अंग में अति क्षीण हैं । नहिं हीन ज्ञानानन्द ध्यावत धर्मशुक्ल प्रवीण हैं |
श्रति तपो कमला कलित भासुर सिद्ध पद साधन करें ।
ते
साधु जयवंत सदा जे जगत के पातक हरें ॥ ५ ॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४ ) शिवपुर अनुपम गस जिस अभिलाष अहमिन्द्रन प्रतें । तिस पंथ भ्रमतम विकट हग छयो मोह-पटलहिते ।। वन्दों जिनेन्द्रवचन-अमल-मणि-दीप जो न प्रकाशतो। गुरु वैद्य किं मिलतो न दृग खुलतो न शिवपथ भासतो।६ परिवर्तपंच महांधद्रह में पड़े विलख रहे सदा । अनिवार मोह महान रिपु निर्दक न उबरन दे कदा ॥ सो अरि प्रहरि तिम दहउवर सुख धरै मोइ धरम है। स्वाधीन शास्वत शान्तिरसमय भजो सुकृत परम है ॥७॥ संसार में जिय को सु हित है मोक्ष सो विधिनाश तें। विधि नाश आत्म उजास करि सुप्रकाश प्रकृति उदास तैं ।। सो कर्म रिपु नाशत सुजिन प्रतिमा चितार विलोकतै । बिन वस्त्र भूषण-शस्त्र बंदू, तीन लोक कृताकतें ॥८॥ इस जगत में नव इष्ट जियके पंच पद वृष भगवती । जिनबिम्ब जिनगह जान पान अनिष्ट कल्पित दुरमती । तिन नवन.को आश्रय उदोतक निमित जिनगृह परिमिते । सुर-नर-असुर-पति प्रोष पूज्य पवित्र बंदं जग-हिते ।।६।। ये परम नव मंगल जगात्तम परमशरण जगत्त्रये । ये ही परम हित अहितहर इनते हि मनवांछित थये । ये करहु मंगल वरसुकन्या मातु पितु हित सर्वदा । पुर अपरजन तुम हम सबनके नंदवृद्धि रहो सदा ॥१०॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
वोर सेवा मन्दिर
पुस्तकालय
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिलने का पता -
१-दिगम्बर जैन शाम भंडार
पानीपत
२- पन्नालाल जैन अग्रवाल
३--मुन्शी सुमेरचन्न जन्न अ
नवीय ना नामद, बेला
tandonon-aur
-Rom
MINI
मैन्द्रल इन्डिया प्रेम, कोथ मर्कन देहली मछपा
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
_