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ध- ाशन
आशुकवि पं. रघुनन्दनजी शर्मा, आयुर्वेदाचार्य
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आज कल जिंतनी चिन्ता लौकिक शासन व्यवस्था के दृढ़ करने में है, उसका शतांश भी धार्मिक शासन व्यवस्था के लिए नहीं है। हमको स्मरण रखना चाहिए कि इस सुधार रूपी रथ के लौकिक शासन रूपी चक्र के समान दूसरा धार्मिक शासन भी एक चक्र ही है। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चल सकता तद्वत् केवल लौकिक शासन व्यवस्था से ही सुधार नहीं हो सकता। राजकीय सत्तास्थित महापुरुषों को यह कदापि न समझ बैठना चाहिए कि हमारी शासन व्यवस्था ही संसार की अव्यवस्था को रोक रही है। अप्रत्यक्षतः धार्मिक भावना धार्मिक शास्त्र और धार्मिक गुरु जितनी अव्यवस्था को मिटा रहे हैं राजकीय सत्ता उतनी नहीं । चोरी को ही लीजिए। यह धार्मिक भावना कि चोरी करना पाप है और इसका फल नरकादि घोर यातना है तथा इसका फल पुनर्जन्म में भी भोगना पड़ेगा न होतो तो आज का राज शासन असंख्य पुलिस के योग से भी चोर प्रवाह को नहीं रोक सकता था। कुछ धार्मिक भावना में शिथिलता आई है कि चोरों की बन आई है अपराध बढ़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों पुलिस में वृद्धि की जा रही है त्यों-त्यों चोर डाकू भी दिन प्रति दिन बढ़ते चले जा रहे हैं। वह कैसी चिकित्सा कि जिससे रोग बढ़ता हो। नये विधान में कुछ धर्म की अवहेलना की गई बतलाते हैं। बिना उसके लागू हुए भी इतना प्रभाव स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्बन्ध में पड़ा है कि अनेक प्रार्थना पत्र न्यायाधीशों के समीप इस विषय के ये हैं कि प्रार्थियों को इस विवाह बन्धन से मुक्त कर दिया जावे। बिना धर्म के भय से प्रत्येक पुरुष अपराधी बन जायगा, काश्चन और कामिनी को ही अपना लक्ष्य
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धर्म-शासन बनावेगा उनको प्राप्ति चाहे जिस रीति से होती हो। धर्म ने धन और कामिनो को ही पाप का मूल बताया है और इससे सदा बचे रहने का ही उपदेश दिया है। उसी का प्रताप है कि आज असंख्य पुरुष काम की कामना रखते हुए भी अप्सरः सन्तिभ परस्त्री को आँख उठाकर भी नहीं देखते। परधन से उसी प्रकार दूर बचते हैं कि जैसे काले नाग से। कुछ थोड़े से ही ऐसे जनाधम बचे रहे कि जिनपर धर्म की छाप नहीं पड़ी; उनके ही लिए पुलिस न्यायालय और कारागृह को आवश्यकता पड़ी। धर्म को छाप हृदय पर अङ्कित होती है। और उसी के अनुसार पुरुष स्वयमेव निर्दिष्ट और अकलङ्कित मार्ग पर चलता है, उसको चौराहे पर खड़े हुए सिपाही की तरह किसी मार्ग निर्देशक की आवश्यकता नहीं। विचार तो इस बात का हो गया है कि राज सत्ता अपनी पूर्ण सहायिका धर्म सत्ता को सपनी रूप से देखने लगी है ओर उसको मिटाने के लिए तुली हुई है। यह प्रयास अपने पैरों में हो कुठाराघात के समान हो सकता है। धर्म की उपेक्षा करना और फिर भी उस धर्म की जिसके कि महान् आचार्य गवर्नर जेनरल के समान बिना १०-२० हजार रुपये मासिक वेतन पाये और बिना वायुयान आदि से यात्रा फिये, केवल अन्न वस्त्र की साधारण प्राप्ति और पदाति यात्रा से ही अव्यवस्था के मूल को उखाड़ रहे हों, कल्पवृक्ष की और कामधेनु को उपेक्षा करना है।
लौकिक शासन व्यवस्था जिसको कि राजकीय व्यवस्था भी कहते हैं का तो निर्माण हो गया है और होता जा रहा है उस शासन व्यवस्था का वह राजतन्त्र रूप जो कि किसी भयानक राक्षस रूप से कम नहीं था बदल दिया गया है और उसके स्थान में प्रजातन्त्र रूप जो कि किसी देव रूप से कम सम्भावित नहीं किया गया है स्थापित कर दिया है।
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धर्म-शासन
हमको तो केवल धर्म शासन व्यवस्था की ओर देखना है इसका पहिला ही रूप रहना चाहिए अथवा दूसरे की तरह इसमें भी परिवर्तन करना चाहिए। हां यह तो मानना ही पड़ेगा कि लोक शासन के राजाओं की तरह हमारे अधिकत: धर्म व्यवस्थापक भी उच्छृङ्खल हो गये हैं जिनके हो कारण धर्मसत्ता आज निर्बल हो रही है और अपना जीवन मरण राजसत्ता के ही हाथों में देख रही है। पुरातन समय में धर्मसत्ता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि राजसत्ता को सर्वदा उसकी अनुचरी रहना पड़ता था। कुछ एक समय में राजसत्ता इतनी निर्बल हो गई थी कि उसको धर्मसत्ता में ही विलोन होना पड़ा था जिसका कुछ कुछ रूप आजकल भो तिब्बत के दलाईलामा और कबायलो प्रदेश के फकीरों में पाया जाता है । वर्तमान समय में धर्मसत्ता राजसत्ता पर ही आश्रित है अतः धर्मसत्ता के पुनरुज्जीवन में पूर्णतया राजसत्ता को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकते। इस पर तो कोई विवाद ही नहीं हो सकता कि उन अयोग्य धर्म व्यवस्थापकों को जिनकी कि देख रेख में इस धर्म कल्पतरु का सिञ्चन तो दूर रहा प्रत्युत उनको घोर आतप से झुलसाया गया हो बदला जावे। राजसत्ता के व्यवस्थापकों की तरह धर्मसत्ता के भी व्यवस्थापक बदले जा सकते हैं, यह मत तो सर्वसम्मत है। परन्तु धर्मसत्ता का विधान जिसका कि निर्माण ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा हुआ है जिनके अगाध ज्ञान समुद्र की समानता वर्तमान काल के असंख्य व्यवस्थापकों का भी क्षुद्र ज्ञान पल्वल नहीं कर सकता-नहीं बदला जा सकता। हाँ उपविधान जिसका कि निर्माण समय-समय पर इतर इतर व्यवस्थापकों द्वारा होता रहता है, बदला जा सकता है।
विचारणीय विषय है व्यवस्थापकों का कैसे व्यवस्थापन हो । इसके लिये राजसत्ता के परिवर्तन की ओर देखना पड़ेगा और उसके तत्वों का भी विश्लेषण करना पड़ेगा। पहिली राजसत्ता एक ही राजा के
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धर्म-शासन नियन्त्रण में रहती थी यद्यपि राजा कुछ नाम मात्र के बन्धनों में आबद्ध था तथापि वे इतने ढीले ढाले थे कि उसको स्वच्छन्दता एवं उद्दण्डता को वे नहीं रोक सकते थे। हमारे विशाल भारत देश के कोटिशः सभ्य एवं असभ्य पुरुषों के भाग्य की बागडोर एक ही राजा के पाणि पल्लव में विराजती थी सो भो विदेशी के। एक तो गिलोय हो कड़वी थी दूसरे नीम पर और चढ़ गई। मिल सकते हैं पुरातन से भी पुरातन समय में ऐसे राजाओं के भी उदाहरण जिनका कि राज्यारोहण केवल प्रजाहित के लिये ही होता था। किन्तु निकट भूत और वर्तमान में हमको ऐसे ही राज राजेश्वरों का दर्शन मिला है जो रावण के सगे भाई नहीं तो पारिवारिक भाई तो थे ही। यह तो निश्चित ही था कि वर्तमान में ऐसे घोर पीड़ा विधायक राज रूपी ब्रणों का ऑपरेशन ही उचित है सो हो गया। राजतन्त्र पृथ्वी में समा गया। उसका स्थानापन्न अपरिचित प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र उपस्थित है और शासनारूढ़ है। उसको ही इस समय कायिक और आन्तरिक परीक्षा करनी है। हमारे सामने हो वह जन्मा है और बड़ा होकर राजसिंहासन पर विराज रहा है। इसकी उत्पत्ति वोट रूपी बीज से होती है। नये विधान में वोटों में और भी सुधार कर दिया गया है। वालिग सभी स्त्री पुरुष वोट के अधिकारी मान लिये गये हैं। छोटे से लेकर बड़े तक किसी एक व्यवस्थापक पद के लिये दो अथवा दा से अधिक अभिलाषी खड़े होते हैं। प्रत्येक दूसरे को विरोधी समझता है। वोट दाता लोग जिनमें पठित अपठित, न्यायी अन्यायो, कामी निष्कामी आदि सभी सम्मिलित हैं व्यवस्थापक की योग्यता का निर्णय कर देते हैं चाहे वोटाभिलाषो का एक क्षण भी वोट दाता से परिचय नहीं हुआ हो।
यदि इसो वोट पद्धति का धर्म सत्ता के व्यवस्थापकों के निर्णय में भी हम प्रयोग करें तो कुछ भय सन्मुख आ उपस्थित होते हैं। एक वोटदाता कामी अज्ञानी एवं दूसरा निष्कामी और ज्ञानी है इन दोनों के
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धर्म-शासन वोटों का हम एक हो मूल्म सममें तो हम कर्पर और कपास को एक ही तुला में तोलेंगे, काक और कोकिल को एक ही श्रेणी में रक्खेंगे। पुराने इतिहास सम्भावित समय में यदि लङ्का में राम और रावण के वोट लिये जाते तो रावण के ही वोटों की संख्या अधिक होती। राम अयोग्य ठहराये जाते और सीता की पुनः प्राप्ति के अधिकारी नहीं होते। कहा जाता है कि वोट-समुद्र के बिना और कहीं से पद-निर्णय रत्न नहीं निकल सकता, तो हम भी वोटाऽर्णव में गोता उसी प्रकार लगावें जैसे कि हमारे राजसत्ता के व्यवस्थापक लगा चुके हैं। भय है कि कहीं रत्न और अमृत के बदले में विष हो न हाथ लगे। प्रथमतः अभिलाषियों ( उम्मेदवारों) को वोटदाताओं के सम्मुख कुछ प्रलोभन देना पड़ेगा जैसे कि कांग्रेसियों ने जमीन्दारी उन्मूलन का, समाजवादियों ने बिना मुवाब्जा (अमूल्य) जमीन्दारी उन्मूलन का दिया था। यही हो सकता है कि एक धर्माचार्य पद के लिये मोक्ष प्राप्ति का दूसरा बिना जप तप आदि के ही मोक्षप्राप्ति का प्रलोभन दे। यह कितना कुत्तों का सा अप्रिय युद्ध हो जावेगा। यह कैसे सम्भव हो सकेगा कि जो धर्माचार्य आज तक अन्न वस्त्र की भिक्षा करते थे वे वोट भिक्षा के लिये उतारू हो जावेंगे और वोट भिक्षा का आगमों से भी तो प्रमाण दिखला न सकेंगे जैसे कि अन्न वस्त्र भिक्षा का शीघ्र ही दिखा देते हैं । वोटदाता जमीन्दारी आदि को तो कुछ २ समझते थे इस मोक्ष के गहन रहस्य को कैसे समझेंगे जिसके कि अध्ययन और अनुभव के लिये घोर परिश्रम करना पड़ता है। न वोटदाता ही दानी कहलाये जा सकते हैं न वोटाभिलाषी ही दान पात्र । जो धर्म सत्ता राग द्वेष के उन्मूलन के लिये जनमी है उसका ही उन्मूलन राग द्वेष द्वारा हो जावेगा। इस वोट बीज से उत्पन्न हुई धर्म सत्ता सुधार रूपी रथ की चक्र न बन कर उसको अटकाने वाला रोड़ा ही बन जावेगी। राजतन्त्र तो निकम्मा हो चुका । सम्भावित प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र भी इसके लिये अव्यवहार्य ही
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धर्म-शासन सिद्ध होगा। सुधरी हुई धर्म सत्ता ही अनेक चिन्ताओं से दबी हुई राजसत्ता को उठाने में समर्थ हो सकती है। अत: राजसत्ता को चाहिये कि अपना भार कम कराने के लिये धर्म सत्ता का स्वयं व्यवस्थापन करे। प्रथम तो यह जानने का प्रयत्न करे कि कौन कौन धर्म संस्थाएं उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रही हैं और कौन कौन अवनति के पथ पर। अपने ही दृष्टिकोण से उनकी उन्नति और अवनति की परीक्षा करे। प्रत्येक संस्था के अपने अपने साधु उपदेशक और अपने २ सोमित वा असोमित श्रद्धालु गृहस्थ होते हैं। देखे कि किस संस्था के साधु अधिक अन्न संग्रह करके अन्न वितरण में, अधिक वस्त्र संग्रह करके वस्त्र वितरण में, अधिक जमीन्दारी और अधिक मकानों पर आधिपत्य जमा कर कृषिकार और किरायेदारों पर अत्याचार कर के शान्ति स्थापन में गड़बड़ी फैला रहे हैं। किस संस्था के साधु न अन्न का संग्रह रखते हैं न राशन कार्ड बनवा कर राशन की दुकानों के धकों का अनुभव करते हैं जिनकी आहारवृत्ति अनेक गृहों से भिक्षा लाकर, भिक्षा भी उस भोजन की जो गृहस्थों की आवश्यकता से अवशेष हो और जो साधुओं के लिए न बनाया गया हो, होती है। और जो अपने स्वर्गवासी साधु के नाम पर किसी प्रकार का भण्डारा जिसमें सहस्रों मनुष्यों का भोजन हो और जिससे नियमित अतिथि भोजन के कानून का उल्लङ्घन होता हो, नहीं करते हैं। कौन नियमित अङ्गावरण से अधिक वस्त्र नहीं रखते हैं ? कौन अपने लिए झोंपड़ी भी नहीं बनाते हैं ? बड़ी २ जमीन्दारी और बड़े २ मकानों की जायदाद की बात तो दूर रही जिससे कि उनकी जायदादों के फैसले के लिए सरकार को अतिरिक्त न्यायाधीश बैठाने को आपत्ति न उठानी पड़े।
किस संस्था के साधु यातायात में गड़बड़ी फैलाते हैं। रेल यात्रा बिना टिकिट करते हैं और रेलयात्रा कम करने को सरकारी
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धर्म-शासन विज्ञप्ति होते हुए भी रेलों में भीड़ को बढ़ाते हैं। किस संस्था के साधु रेल, बस और साधारण गाड़ियों का मुख भी नहीं देखते और अपना बोम अपने कन्धों पर उठा कर पदाति ही यात्रा करते हैं।
किस संस्था के साधु वीक्षा के लिये बालकों को बहकाते हैं अथवा उनके अभिभावकों को धन देकर बालक को लेते हैं, कौन छल से दीक्षा देते हैं, किनकी दीक्षा में बड़ी बड़ी जायदादों के उत्तराधिकार के लोभ से दीक्षार्थी स्वयमेव प्रविष्ट होते हैं।
किस संस्था के आचार्य जिनके कि पास धन के नाम एक वराटिका भी नहीं है और भवन के नाम टूटी फूटो पर्णशाला भी नहीं है, अन्न संग्रह के नाम कल के लिये भो भोजन सामग्री नहीं है जहाँ साबुन तेल स्नानादि से शरीर का मार्जन नहीं होता है न वस्त्र धुलाये जाते हैं
और क्षौर कर्म के स्थान में जहाँ हाथ से ही केश उखाड़े जाते हैं-के पास शतशः दीक्षार्थी बाल युवा वृद्ध स्त्री पुरुष हाथ जोड़े तारयस्व नाथ ! वारयस्व नाथ !! यह कहते हुए प्रति दिन खड़े रहते हैं।
किस संस्था के उपदेशक साधु चढ़ावा आदि के रूप में गृहस्थों से अपने उपदेश का मूल्य प्राप्त करते हैं। किस संस्था के साधु अमूल्य उपदेश देते हैं और उच्चतम शिक्षा भी, जिसमें शब्द शास्त्र त अथवा समस्त दर्शन शास्त्र साहित्य इतिहास आदि सम्मिलित हों दी जाती है।
अस्तु किं बहुना-सरकार धर्म संस्थाओं के उनही प्रकारों को देखे जो कि राज सत्ता को आशातीत लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं और किसी भी रूप में कोई भी हानि न पहुंचाते हों।
जो धर्म संस्था राज शासन में सहायिका है उसको धर्म प्रचार के लिये स्वतन्त्र छोड़ दे और किन्हीं कानूनों के बन्धन से उसको न जकड़े अपितु उसको आपचि से बचाती रहे।
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धर्म-शासन - उदाहरण के रूप में एक धर्म संस्था को लीजिए कि जिसका नाम
जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ है। (१) यह अहिंसा पर आश्रित है राग द्वेष को सक्रिय मिटा रही है।
इसने हिन्दू मुसलमानों के साम्प्रदायिक झगड़ों में अपने साधु साध्वी और श्रावक श्राविकाओं को जो कि लक्षों की संख्या में हैं वेदाग बचाये रक्खा। सरकार अपना रिकार्ड देखे इनके सम्बन्ध में सरकार को एक भी पैसा नहीं खर्चना पड़ा न एक भी पुलिस का सिपाही भेजना पड़ा न इनका एक भी इस विषय का केस सुनने के लिए बाध्य होना पड़ा। इनके एक ही आचार्य श्री तुलसी हैं। उनके प्रभाव से इस संस्था का एक भी प्राणी सम्प्रदाय के दलदल में नहीं फँसा । अतः यह संस्था असाम्प्रदायिक कांग्रेस सरकार को
असाम्प्रदायिकता को सहायता देती है। १२) इस संस्था के साधु साध्वी अन्न संग्रह तथा वस्त्र संग्रह नहीं करते
सरकार को अन्न वितरण में, वस्त्र वितरण में इनके लिए कोई भी प्रबन्ध नहीं करना पड़ता। (क) ये रात्रि में प्रकाश नहीं करते अतः विजली और किरासिन
तेल के सरकारी वितरण में कमी कराते हैं। (ख) ये अपने लिए भवन नहीं बनवाते सरकार को इंट सीमेन्ट
लोह काष्ठ आदि की बचत में सहायता देते हैं। (ग) यह संस्था अपनी शिक्षा का स्वयं प्रबन्ध करती है अतः इसके
साधु साध्वियों को स्कूल कालेजों में कहीं भी स्थान नहीं देना
पड़ता। : (घ) ये रेल बस आदि किसी सवारी में भी नहीं चढ़ते रेल की भीड़
बढ़ने में कमी करते हैं।
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धम-शासन
(७) इनके कोई भी दीवानी, माल तथा फौजदारी के केस अदालतों
में नहीं जाते सरकार को कितना अवकाश देते हैं और लाभ
पहुंचाते हैं। (च) यह संस्था सक्रिय मद्य मांस का अवरोध करके सरकार के
शराब बन्दी आन्दोलन में सहायता पहुंचाती है।
यह संस्था बालिग और नाबालिग सभी स्त्री पुरुषों को ब्रह्मचर्य की सक्रिय शिक्षा देती है बहुत से नाबालिग भी ब्रह्मचर्य और त्याग की शिक्षा में इतने लवलीन हो जाते हैं कि संसार से छुटकारा पाने को
आचार्य देव से पुनः २ दीक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। आचार्यवर इनकी प्रार्थना को अस्वीकृत कर उनको साधु प्रसङ्ग के नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव सुनाते हैं । वे विरागता में इतने आसक्त हो जाते हैं कि अनशन आदिक महान् कष्ट सहकर के अपने माता पिता आदिक अभिभावकों को दीक्षा दिलाने के लिए विवश करते हैं। माता पिता भी जब यह जान लेते हैं कि हमारी सन्तति अब गृही बनने वाली नहीं है आचार्यवर्य से विनय करते हैं दीक्षा के लिए आज्ञा पत्र जो कि विधि विधान सहित है लिखते हैं और पुनः २ प्रार्थना करते हैं कि गुरुवर ! हमारा पुत्र अथवा पुत्री ( माता पिता के अभाव में ) हमारा भाई तथा हमारा पति एवं हमारी पनी दीक्षा के लिए पूर्णतया उद्यत हो गये हैं। हमारी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये हैं। शतशः आवरण होते हुए भी अब ये ढके नहीं रह सकते, इनकी आत्मा निर्मल हो गयी है, इनको घर की गन्ध भी नहीं सुहाती, अस्तु इनको दीक्षा देकर अनुगृहीत कीजिए। आचार्य अन्तर्हित रूप से की हुई अपनी परीक्षा में भी जब इनको उत्तीर्ण समझते हैं तब सहस्रशः मनुष्यों के समारोह में दीक्षित करते। है उसमें भो आचार्य यदि अभिलाषी की शिक्षा में कुछ कमी समझते हैं तो पारमार्थिक शिक्षण संस्था-जो कि सब्रह्मचर्य सविधि शिक्षा-दीक्षार्थियों
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धर्म-शासन को देती है में प्रथम शिक्षा प्राप्त करने के लिए कहते हैं। अशिक्षित, अधर्मशील, लोभी, घर के दुखिया, उदरम्भरि आदिक कभी भी इस संस्था की दीक्षा नहीं पा सकते चाहे वे बालिग हों अथवा नाबालिग।
अब तक सहस्रशः इस संस्था में दीक्षाएँ हुई होंगी सरकार अपना रिकार्ड उठा कर देख सकती है एक भी दीक्षा की दीक्षितों के अभिभावकों की ओर से तथा दीक्षित की ओर से शिकायत नहीं आई होगी। सरकार नाबालिग दीक्षा निरोध बिल को कानून का रूप देने के लिए सुसज्जित हुई विदित होती है और ऐसी संस्थाओं को भो जिनमें से एक उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है इस नियन्त्रण से मुक्त नहीं करना चाहती तो हंस को भी जो क्षीर-नीर विवेचन में अपनी एक अद्भुत ही शक्ति रखता है मछलियों के ताक में बैठे हुए समाधि छलधारी बगुलाओं की श्रेणी में गिनना चाहती है। सेतु वहीं बान्धना चाहिए जहां जल प्रवाह उमड़ रहा हो जहाँ जल की बिन्दु भी न हो वहाँ वह अनावश्यकीय है। तेरापन्थ संस्था की अपनी ही कानून दीक्षा की अव्यवस्था को रोकने के लिए अति पर्याप्त है जो कि मनसा वाचा कर्मणा पूर्ण रूप से पाली जाती है । रही नाबालिगों की दीक्षा कि जिसका नाम ही सुन कर सरकार चौंक उठती है क्या हिताहित कर रही है यह मनन करने के योग्य है। यद्यपि नाबालिग बालिगों का-सा अनुभव नहीं रखता तथापि जो तत्व खिले हुए रूप में बालिगों में विद्यमान हैं वे ही मुकुलित अवस्था में नाबालिगों में भी मिलेंगे। विद्वानों का कर्तव्य है कि वे बालकों के मस्तिष्क की परीक्षा करें जिस कार्य के करने की योग्यता के तत्व उनमें विद्यमान हों उसी कार्य में उनका प्रवेश करे जैसे कि कोई बालक गणित-विद्या में कोई साहित्य रसिकता में कोई गान विद्या में अथच कोई शिल्पकला में पूर्ण होने की विशेष शक्ति रखता है तो अध्यापकों का कर्तव्य है कि नाबालिग अवस्था में ही उसको उसी में प्रविष्ट करे । जिस बालक के मस्तिष्क
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धर्म-शासन में शिल्प कला के तत्व विद्यमान हों उसको बालिग होने की अवस्था तक गणित विद्या में घसीटना उसको उभयतः भ्रष्ट करना है। गणित का तो वह विशेषज्ञ हो नहीं सकता, शिल्प कला के शिक्षा की जो वाल्यावस्था थी वह भी उसके हाथ से निकल जाती है।
यही बात-सांसारिक बालक और पारलौकिक बालक में घटती है जिस बालक के मस्तिष्क में पारलौकिक तत्व विद्यमान हैं जिनकी कि परीक्षा वैज्ञानिक आचार्य भले प्रकार कर सकते हैं बालकों को संसार के विवाहादि बन्धनों में जकड़-दिया जावे तो वह संसारी तो बन ही नहीं सकता अपनी समस्त बालायु को भी धर्म शिक्षा से वश्चित रखता है। देखा गया है कि जो पुरुष स्वभाव से ही वैराग्यवान् थे और विवाह बन्धन से जकड़ दिए गये हैं बड़े छटपटाते हैं। पत्नी स्वभाव से संसार में आसक्त हैं पति अनासक्त है यह पेमेल जोड़ा आयु भर दुःख पाता
है।
शक्का होती है बालक (नाबालिग ) ही दीक्षित क्यों किये जाते हैं। देखिए शिक्षा बालावस्था में ही होती है युवावस्था में शिक्षा का अपूर्ण भाग पूर्ण होता रहता है और शिक्षा के आनन्द के अनुभव का श्रीगणेश हो जाता है। वृद्धावस्था में केवळ निर्मलाऽऽनन्द का ही आस्वादन किया जाता है।
पारलौकिक जैसी कठिन शिक्षा के लिए केवल बुद्दों को ही भर्ती किया जावे तो क्या बूढ़े तोते पढ़ सकते हैं। पहिले सोपान दण्ड को छोड़ कर दूसरे पर कैसे चढ़ा जा सकता है। विद्या बालकों को ही पढ़ाई जा सकती है न कि वृद्धों को।
___ कानून अव्यवस्था को रोकने के लिए है उक्त तेरापन्थ संस्था बाल दीक्षा देकर क्या अव्यवस्था करती है।
बालक अपने उत्कट भाव से माता पिता आदिकों की आज्ञा से और आचार्यवर्य की कृपा से दीक्षा ग्रहण कर लेता है पुरातन
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धर्म-शासन
गुरुकुलों को रीति के अनुसार भिक्षा वृत्ति से जिसमें कि सूक्ष्माति सूक्ष्म भी प्राणो की हिंसा न होती हो निर्वाह करता है शब्द शाख, दर्शन शास्त्र भादि का सम्यक् तथा अध्ययन करता है। पूर्ण अहिंसक होने की, पूर्ण ब्रह्मचारी और पूर्ण परिग्रह त्यागी होने की प्रतिज्ञा करता है। संसार के किसी प्रपत्र में भाग न लेकर सरकार के ऊपर अपना किचिन्मात्र भी भार नहीं डालता । यही नहीं सरकार के बड़े से बड़े काम में हाथ बटाता है। अर्थात् चोरी, झूठी गवाही, चूत क्रीडा मचादि व्यसन आदिक जो महान् से महान् अपराध हैं जिनके लिए कि पुलिस और न्यायाधीश बढ़ाने पड़ते हैं-को उपदेश देकर प्रतिज्ञा करा कर सक्रिय मिटाता है। घर का एक सामान्य व्यक्ति न रह कर समस्त विश्व रूपी एक नगर का उत्तम नागरिक बन जाता है। बताइये बालदीक्षा अव्यवस्थाजनक हुई या अव्यवस्था विध्वंसक। दीक्षा ने बालक का उसके परिवार का और संसार का तथा राज्य का क्या अहित किया। दीक्षा से बालक कहीं लोक से बाहर तो चला हो नहीं जाता उस बाल तपस्वी का दर्शन करने के लिए उसका उपदेश सुनने के लिए उसके परिवार वाले उसके पास आते जाते ही रहते हैं। परिवार से फिर वह छिना गया कैसे समझा जाता है । पहिले वह केवल अपने परिवार का ही काम करता था अब वह इतना शक्तिशाली बन गया है कि अपने परिवार के साथ और अनेकों परिवारों का उपकार करता है। अतः ऐसी बाल दीक्षाओं के निरोध के लिए कानून बनाना धर्म का गला घोंटना है।
जिन धर्म संस्थाओं की बड़ी २ जायदादें हैं उनके उत्तराधिकार के लिए जहाँ बाल दीक्षाएँ होतो हों, जहाँ दीक्षित केवल अनाचार और अव्यवस्था के ही पृष्ठ पोषक हों वहाँ बाल दोक्षाएँ निरुद्ध होनी अत्यापश्यकीय है।
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धर्म-शासन
धर्म संस्थाओं पर राज सत्ता का नियन्त्रण तो आवश्यकीय है। जिससे अधर्म संस्थाएं धर्म संस्था का रूप न धारण कर सकें और सच्ची धर्म संस्थाओं पर आक्रमण न कर सकें। परन्तु सभी धर्म संस्थाओं की कार्य विधि में हस्तक्षेप करना अनुचित हो नहीं अपितु हानिदायक है। भारत देश धर्म प्रधान है धर्म के ही प्रभाव से यहां रूस का साम्यवाद 'पल्लवित नहीं हो पाया है। समझ लीजिए साम्यवाद आपकी अर्थ नीति से नहीं पछड़ सकता । आपको अर्थ नीति से साम्यवाद की अर्थ नोति अधिकतर लोकप्रिय है। साम्यवाद गजेन्द्र को तो पछाड़ने वाला एक ही धर्म केशरी है इसकी उपेक्षा न कीजिए किन्तु पूर्णतया इसका पालन कीजिए। धर्म भारत का प्राण है। राजसत्ता का यही एक आपत्काल का मित्र है। इति शुभम् ।
यतो धर्मस्ततो जयः।
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