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धर्म-शासन वोटों का हम एक हो मूल्म सममें तो हम कर्पर और कपास को एक ही तुला में तोलेंगे, काक और कोकिल को एक ही श्रेणी में रक्खेंगे। पुराने इतिहास सम्भावित समय में यदि लङ्का में राम और रावण के वोट लिये जाते तो रावण के ही वोटों की संख्या अधिक होती। राम अयोग्य ठहराये जाते और सीता की पुनः प्राप्ति के अधिकारी नहीं होते। कहा जाता है कि वोट-समुद्र के बिना और कहीं से पद-निर्णय रत्न नहीं निकल सकता, तो हम भी वोटाऽर्णव में गोता उसी प्रकार लगावें जैसे कि हमारे राजसत्ता के व्यवस्थापक लगा चुके हैं। भय है कि कहीं रत्न और अमृत के बदले में विष हो न हाथ लगे। प्रथमतः अभिलाषियों ( उम्मेदवारों) को वोटदाताओं के सम्मुख कुछ प्रलोभन देना पड़ेगा जैसे कि कांग्रेसियों ने जमीन्दारी उन्मूलन का, समाजवादियों ने बिना मुवाब्जा (अमूल्य) जमीन्दारी उन्मूलन का दिया था। यही हो सकता है कि एक धर्माचार्य पद के लिये मोक्ष प्राप्ति का दूसरा बिना जप तप आदि के ही मोक्षप्राप्ति का प्रलोभन दे। यह कितना कुत्तों का सा अप्रिय युद्ध हो जावेगा। यह कैसे सम्भव हो सकेगा कि जो धर्माचार्य आज तक अन्न वस्त्र की भिक्षा करते थे वे वोट भिक्षा के लिये उतारू हो जावेंगे और वोट भिक्षा का आगमों से भी तो प्रमाण दिखला न सकेंगे जैसे कि अन्न वस्त्र भिक्षा का शीघ्र ही दिखा देते हैं । वोटदाता जमीन्दारी आदि को तो कुछ २ समझते थे इस मोक्ष के गहन रहस्य को कैसे समझेंगे जिसके कि अध्ययन और अनुभव के लिये घोर परिश्रम करना पड़ता है। न वोटदाता ही दानी कहलाये जा सकते हैं न वोटाभिलाषी ही दान पात्र । जो धर्म सत्ता राग द्वेष के उन्मूलन के लिये जनमी है उसका ही उन्मूलन राग द्वेष द्वारा हो जावेगा। इस वोट बीज से उत्पन्न हुई धर्म सत्ता सुधार रूपी रथ की चक्र न बन कर उसको अटकाने वाला रोड़ा ही बन जावेगी। राजतन्त्र तो निकम्मा हो चुका । सम्भावित प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र भी इसके लिये अव्यवहार्य ही
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