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धर्म-शासन नियन्त्रण में रहती थी यद्यपि राजा कुछ नाम मात्र के बन्धनों में आबद्ध था तथापि वे इतने ढीले ढाले थे कि उसको स्वच्छन्दता एवं उद्दण्डता को वे नहीं रोक सकते थे। हमारे विशाल भारत देश के कोटिशः सभ्य एवं असभ्य पुरुषों के भाग्य की बागडोर एक ही राजा के पाणि पल्लव में विराजती थी सो भो विदेशी के। एक तो गिलोय हो कड़वी थी दूसरे नीम पर और चढ़ गई। मिल सकते हैं पुरातन से भी पुरातन समय में ऐसे राजाओं के भी उदाहरण जिनका कि राज्यारोहण केवल प्रजाहित के लिये ही होता था। किन्तु निकट भूत और वर्तमान में हमको ऐसे ही राज राजेश्वरों का दर्शन मिला है जो रावण के सगे भाई नहीं तो पारिवारिक भाई तो थे ही। यह तो निश्चित ही था कि वर्तमान में ऐसे घोर पीड़ा विधायक राज रूपी ब्रणों का ऑपरेशन ही उचित है सो हो गया। राजतन्त्र पृथ्वी में समा गया। उसका स्थानापन्न अपरिचित प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र उपस्थित है और शासनारूढ़ है। उसको ही इस समय कायिक और आन्तरिक परीक्षा करनी है। हमारे सामने हो वह जन्मा है और बड़ा होकर राजसिंहासन पर विराज रहा है। इसकी उत्पत्ति वोट रूपी बीज से होती है। नये विधान में वोटों में और भी सुधार कर दिया गया है। वालिग सभी स्त्री पुरुष वोट के अधिकारी मान लिये गये हैं। छोटे से लेकर बड़े तक किसी एक व्यवस्थापक पद के लिये दो अथवा दा से अधिक अभिलाषी खड़े होते हैं। प्रत्येक दूसरे को विरोधी समझता है। वोट दाता लोग जिनमें पठित अपठित, न्यायी अन्यायो, कामी निष्कामी आदि सभी सम्मिलित हैं व्यवस्थापक की योग्यता का निर्णय कर देते हैं चाहे वोटाभिलाषो का एक क्षण भी वोट दाता से परिचय नहीं हुआ हो।
यदि इसो वोट पद्धति का धर्म सत्ता के व्यवस्थापकों के निर्णय में भी हम प्रयोग करें तो कुछ भय सन्मुख आ उपस्थित होते हैं। एक वोटदाता कामी अज्ञानी एवं दूसरा निष्कामी और ज्ञानी है इन दोनों के
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