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धर्म-शासन सिद्ध होगा। सुधरी हुई धर्म सत्ता ही अनेक चिन्ताओं से दबी हुई राजसत्ता को उठाने में समर्थ हो सकती है। अत: राजसत्ता को चाहिये कि अपना भार कम कराने के लिये धर्म सत्ता का स्वयं व्यवस्थापन करे। प्रथम तो यह जानने का प्रयत्न करे कि कौन कौन धर्म संस्थाएं उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रही हैं और कौन कौन अवनति के पथ पर। अपने ही दृष्टिकोण से उनकी उन्नति और अवनति की परीक्षा करे। प्रत्येक संस्था के अपने अपने साधु उपदेशक और अपने २ सोमित वा असोमित श्रद्धालु गृहस्थ होते हैं। देखे कि किस संस्था के साधु अधिक अन्न संग्रह करके अन्न वितरण में, अधिक वस्त्र संग्रह करके वस्त्र वितरण में, अधिक जमीन्दारी और अधिक मकानों पर आधिपत्य जमा कर कृषिकार और किरायेदारों पर अत्याचार कर के शान्ति स्थापन में गड़बड़ी फैला रहे हैं। किस संस्था के साधु न अन्न का संग्रह रखते हैं न राशन कार्ड बनवा कर राशन की दुकानों के धकों का अनुभव करते हैं जिनकी आहारवृत्ति अनेक गृहों से भिक्षा लाकर, भिक्षा भी उस भोजन की जो गृहस्थों की आवश्यकता से अवशेष हो और जो साधुओं के लिए न बनाया गया हो, होती है। और जो अपने स्वर्गवासी साधु के नाम पर किसी प्रकार का भण्डारा जिसमें सहस्रों मनुष्यों का भोजन हो और जिससे नियमित अतिथि भोजन के कानून का उल्लङ्घन होता हो, नहीं करते हैं। कौन नियमित अङ्गावरण से अधिक वस्त्र नहीं रखते हैं ? कौन अपने लिए झोंपड़ी भी नहीं बनाते हैं ? बड़ी २ जमीन्दारी और बड़े २ मकानों की जायदाद की बात तो दूर रही जिससे कि उनकी जायदादों के फैसले के लिए सरकार को अतिरिक्त न्यायाधीश बैठाने को आपत्ति न उठानी पड़े।
किस संस्था के साधु यातायात में गड़बड़ी फैलाते हैं। रेल यात्रा बिना टिकिट करते हैं और रेलयात्रा कम करने को सरकारी
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