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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः
आगम-२६
महाप्रत्याख्यान आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-२६
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र - ३, 'महाप्रत्याख्यान'
क्रम
१
२
३
आगमसूत्र - २६- 'महाप्रत्याख्यान’
पयन्नासूत्र - ३- हिन्दी अनुवाद
विषय
मंगल
वोसिराना और खामणा
निन्दा-गर्दा इत्यादि
कहां क्या देखे ?
पृष्ठ क्रम
०५
०५
०५
४
५
६
भावना
विषय
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(महाप्रत्याख्यान)” आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद”
सूत्र
पृष्ठ
०६
मिथ्यात्त्वत्याग,आलोचना, प्रायश्चित्त ०६ विविध धर्मोपदेश इत्यादि
०७
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्र
४५ आगम वर्गीकरण
सूत्र क्रम
क्रम
आगम का नाम
आगम का नाम
सूत्र
०१ | आचार
अंगसूत्र-१
२५ | आतुरप्रत्याख्यान
पयन्नासूत्र-२
०२ सूत्रकृत्
अंगसूत्र-२
२६
०३
स्थान
अंगसूत्र-३
२७
| महाप्रत्याख्यान
भक्तपरिज्ञा | तंदुलवैचारिक संस्तारक
पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५
०४
समवाय
अंगसूत्र-४
२८
०५
अंगसूत्र-५
२९
पयन्नासूत्र-६
भगवती ज्ञाताधर्मकथा
०६ ।
अंगसूत्र-६
पयन्नासूत्र-७
उपासकदशा
अंगसूत्र-७
पयन्नासूत्र-७
अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा
अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९
३०.१ | गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ | गणिविद्या
देवेन्द्रस्तव वीरस्तव
पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९
३२ ।
१० प्रश्नव्याकरणदशा
अंगसूत्र-१०
३३
अंगसूत्र-११
३४
| निशीथ
११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक
पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२
उपांगसूत्र-१
बृहत्कल्प व्यवहार
राजप्रश्चिय
उपांगसूत्र-२
छेदसूत्र-३
१४ जीवाजीवाभिगम
उपागसूत्र-३
३७
उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५ उपांगसूत्र-६
छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६
४०
उपांगसूत्र-७
१५ प्रज्ञापना १६ सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति
| जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ निरयावलिका
कल्पवतंसिका २१ | पुष्पिका
| पुष्पचूलिका २३ वृष्णिदशा
दशाश्रुतस्कन्ध ३८ जीतकल्प ३९ महानिशीथ
आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ | पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४
नन्दी अनुयोगद्वार
मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२
उपागसूत्र-८
उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१
मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२
| चतुःशरण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(महाप्रत्याख्यान)” आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र - ३, 'महाप्रत्याख्यान'
क्र 1
4
मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य
आगम साहित्य
साहित्य नाम
मूल आगम साहित्य:
5
- 1- आगमसुत्ताणि मूलं print
-2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net
10
2 आगम अनुवाद साहित्य:
-3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत)
-4- खागमसूत्र सटीक गुठराती अनुवाह
-5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print 3 आगम विवेचन साहित्य:
-1- આગમસૂત્ર ગુજરાતી અનુવાદ | -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net -3- AagamSootra English Trans.
- 1- आगमसूत्र सटीकं
-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1 -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2
4- आगम चूर्णि साहित्य
5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि - 1
| -6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि - 2
-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि
आगम कोष साहित्य:
1- आगम सद्दकोसो
-2- आगम कहाकोसो
1-3- आगम-सागर-कोषः
-4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु)
आगम अनुक्रम साहित्य:
-1 आगम विषयानुभ- (भूज)
- 2- आगम विषयानुक्रम (सटीकं)
-3- आगम सूत्र - गाथा अनुक्रम
बूक्स क्रम
147 6
[49]
[45]
[53]
165
[47]
[47]
[11]
[48]
[12]
171
आगम साहित्य
साहित्य नाम
11
[05] 12
[04]
09
02
04
03
आगम अन्य साहित्य:
-1- आगम थानुयोग
-2- आगम संबंधी साहित्य
- 3 - ऋषिभाषित सूत्राणि
4- आगमिय सूक्तावली
आगम साहित्य- कुल पुस्तक
अन्य साहित्य:
1
[46]
2
[51]
3
વ્યાકરણ સાહિત્ય
[09]
4
વ્યાખ્યાન સાહિત્ય
[09]
5
જિનભક્તિ સાહિત્ય
[40]
6
વિધિ સાહિત્યઆરાધના સાહિત્ય
[08] 7
[08] 14
8 પરિચય સાહિત્ય
9
પૂજન સાહિત્ય
[04] 10 तीर्थं४२ संक्षिप्त हर्शन
[01]
प्रडीए साहित्य
તત્ત્વાભ્યાસ સાહિત્યસૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય
દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક
सूत्र
1- आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 2-आगमेतर साहित्य (कुल दीपरत्नसागरजी के
कुल प्रकाशन
મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્ય
[डुल पुस्तक 516]
| मुनि हीयरत्नसागरनुं खागम साहित्य 2 મુનિ દીપરત્નસાગરનું અન્ય સાહિત્ય [हुल पुस्तs 85]
3
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्र
२६ महाप्रत्याख्यान पयन्नासूत्र-३- हिन्दी अनुवाद
सूत्र-१
अब मैं उत्कृष्ट गतिवाले तीर्थंकर को, सर्व जिन को, सिद्ध को और संयत (साधु) को नमस्कार करता हूँ। सूत्र -२
सर्व दुःख रहित ऐसे सिद्ध को और अरिहंत को नमस्कार हो, जिनेश्वर भगवान ने प्ररूपित किए हुए तत्त्वों, सभी की मैं श्रद्धा करता हूँ और पाप के योग का पच्चक्खाण करता हूँ। सूत्र-३
जो कुछ भी बूरा आचरण मुझ से हुआ हो उन सब की मैं सच्चे भाव से निन्दा करता हूँ, और मन, वचन, काया इन तीन प्रकार से सर्व आगार रहित सामायिक अब मैं करता हूँ। सूत्र-४
बाह्य उपधि (वस्त्रादिक), अभ्यंतर उपधि (क्रोधादिक), शरीर आदि, भोजन सहित सभी को मन, वचन, काया से त्याग करता हूँ। सूत्र-५
राग का बंध, द्वेष, हर्ष, दीनता, आकुलपन, भय, शोक, रति और मद को मैं वोसिराता हूँ। सूत्र-६
रोष द्वारा, कदाग्रह द्वारा, अकृतघ्नता द्वारा और असत् ध्यान द्वारा जो कुछ भी मैं अविनयपन से बोला हूँ तो त्रिविधे त्रिविधे मैं उसको खमाता हूँ। सूत्र -७
सर्व जीव को खमाता हूँ । सर्व जीव मुझे क्षमा करो, आश्रव को वोसिराते हुए मैं समाधि (शुभ) ध्यान को मैं आरंभ करता हूँ। सूत्र-८
जो निन्दने योग्य हो उसे मैं निन्दता हूँ, जो गुरु की साक्षी से निन्दने को योग्य हो उसकी मैं गर्दा करता हूँ और जिनेश्वरने जो निषेध किया है उस सर्व की मैं आलोचना कर सूत्र-९
उपधी, शरीर, चतुर्विध आहार और सर्व द्रव्य के बारेमें ममता इन सभी को जान कर मैं त्याग करता हूँ। सूत्र-१०
निर्ममत्व के लिए उद्यमवंत हुआ मैं ममता का समस्त तरह से त्याग करता हूँ । एक मुझे आत्मा का ही आलम्बन है; शेष सभी को मैं वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र-११
मेरा जो ज्ञान है वो मेरा आत्मा है, आत्मा ही मेरा दर्शन और चारित्र है, आत्मा ही पच्चक्खाण है । आत्मा ही मेरा संयम और आत्मा ही मेरा योग है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(महाप्रत्याख्यान)” आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान' सूत्र - १२
मूलगुण और उत्तरगुण की मैंने प्रमाद से आराधन न कि हो तो उन सब अनाराधक भाव की अब मैं निन्दा करता हूँ और आगामी काल के लिए होनेवाले उन अनाराधन भाव से मैं वापस लौटता हूँ। सूत्र - १३
___ मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और मैं भी किसी का नहीं हूँ ऐसे अदीन चित्तवाला आत्मा को शिक्षीत करें सूत्र-१४
जीव अकेला उत्पन्न होता है और अकेला ही नष्ट होता है । अकेले को ही मृत्यु को प्राप्त करता है और अकेला ही जीव कर्मरज रहित होकर मोक्ष पाता है (मुक्त होता है ।) सूत्र-१५
अकेला ही कर्म करता है, उस के फल को भी अकेले ही भुगतान करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है और परलोक में उत्पन्न भी अकेला ही होता है। सूत्र-१६
ज्ञान, दर्शन, लक्षणवंत अकेला ही मेरा आत्मा शाश्वत है; बाकी के मेरे बाह्य भाव सर्व संयोगरूप हैं। सूत्र-१७
जिस की जड संयोग है ऐसे दुःख की परम्परा जीव पाता है उन के लिए सर्व संयोग सम्बन्ध को त्रिविधे वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र - १८
असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व और जीव एवं अजीव के लिए जो ममत्व है उसकी मैं निन्दा करता हूँ और गुरु की साक्षी से गर्दा करता हूँ। सूत्र-१९
मिथ्यात्व को अच्छे तरीके से पहचानता हूँ। इसलिए सर्व असत्य वचन को और सर्वथा से ममता का मैं त्याग करता हूँ और सर्व को खमाता हूँ। सूत्र - २०
जो-जो स्थान पर मेरे किए गए अपराध को जिनेश्वर भगवान जानते हैं, सभी तरह से उपस्थित हआ मैं उस अपराध की आलोचना करता हूँ। सूत्र - २१
उत्पन्न यानि वर्तमानकाल की, अनुत्पन्न यानि भावि की माया, दूसरी बार न करूँ, इस तरह से आलोचन, निंदन और गर्दा द्वारा उन का मैं त्याग करता हूँ। सूत्र - २२
जैसे बोलता हुआ बच्चा कार्य और अकार्य सबकुछ सरलता से कह दे वैसे माया और मद द्वारा रहित पुरुष सर्व पाप की आलोचना करता है। सूत्र - २३
जिस तरह घी द्वारा सिंचन किया गया अग्नि जलता है वैसे सरल होनेवाले मानव को आलोचना शुद्ध होती है और शुद्ध होनेवाले में धर्म स्थिर रहता है और फिर परम निर्वाण यानि मोक्ष पाता है।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र - २४
शल्य रहित मानव सिद्धि नहीं पा सकता, उसी तरह पापरूप मैल रखनेवाले (वीतराग) के शासन में कहा है; इसलिए सर्व शल्य उद्धरण कर के क्लेश रहित हुआ ऐसा जीव सिद्धि पाता है। सूत्र - २५
बहुत कुछ भी भाव शल्य गुरु के पास आलोचना कर के निःशल्य हो कर संथारा (अनशन) का आदर करे तो वो आराधक होता है। सूत्र - २६
वो थोड़ा भी भावशल्य गुरु पास आलोचन न करे तो अतिज्ञानवंत होने के बावजूद भी आराधक नहीं होता सूत्र - २७
बूरी तरह इस्तमाल किया गया शस्त्र, विष, दुष्प्रयुक्त वैताल, दुष्प्रयुक्त यंत्र और प्रमाद से कोपित साँप वैसा काम नहीं करता । (जैसा काम भाव शल्य से युक्त होनेवाला करता है।) सूत्र- २८,२९
जिस वजह से अंतकाल में नहीं उद्धरेल भावशल्य दुर्लभ बोधीपन और अनन्त संसारीपन कहता है- उस वजह से गारव रहित जीव पुनर्भव समान लता की जड़ समान एक जैसे मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और नियाण शल्य का उद्धरण करना चाहिए। सूत्र - ३०
जिस तरह बोज का वहन करनेवाला मानव बोज उतारकर हलका होता है वैसे पाप करनेवाला मानव आलोचना और निन्दा करके बहोत हलका होता है। सूत्र- ३१, ३२
मार्ग को जाननेवाला गुरु उस का जो प्रायश्चित्त कहता है उस अनवस्था के (अयोग्य) अवसर के डरवाले मानव को वैसे ही अनुसरण करना चाहिए- उसके लिए जो कुछ भी अकार्य किया हो उन सबको छिपाए बिना दस दोष रहित जैसे हुआ हो वैसे ही कहना चाहिए । सूत्र- ३३, ३४
सभी जीव का आरम्भ, सर्व असत्यवचन, सर्व अदत्तादान, सर्व मैथुन, सर्व परिग्रह का मैं त्याग करता हूँ ।
सर्व अशन और पानादिक चतुर्विध आहार और जो (बाह्य पात्रादि) उपधि और कषायादि अभ्यंतर उपधि उन सबको त्रिविधे वोसिराता हूँ। सूत्र-३५
जंगल में, दुष्काल में या बड़ी बीमारी होने से जो व्रत का पालन किया है और न तूटा हो वह शुद्धव्रत पालन समझना चाहिए।
सूत्र-३६
राग करके, द्वेष करके या फिर परिणाम से जो-पच्चक्खाण दूषित न किया हो वह सचमुच भाव विशुद्ध पच्चक्खाण जानना चाहिए। सूत्र - ३७
इस अनन्त संसार के लिए नई नई माँ का दूध जीवने पीया है वो सागर के पानी से भी ज्यादा होता है।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्र - ३८
उन-उन जातिमें बार-बार मैंने बहुत रुदन किया उस नेत्र के आँसू का पानी भी समुद्र के पानी से ज्यादा होता है ऐसा समझना ।
सूत्र
सूत्र ३९
ऐसा कोई भी बाल के अग्र भाग जितना प्रदेश नहीं है कि जहाँ संसारमें भ्रमण करनेवाला जीव पैदा नहीं हुआ और मरा नहीं ।
सूत्र - ४०
लोक के लिए वाकईमें चोराशी लाख जीवयोनि है । उसमें हर एक योनिमें जीव अनन्त बार उत्पन्न हुआ है सूत्र- ४१
उर्ध्वलोक के लिए, अधोलोक के लिए और तिर्यग्लोक के लिए मैंने कई बाल मरण प्राप्त किये हैं इसलिए अब उन मरण को याद करते हुए मैं अब पंड़ित मरण मरूँगा ।
सूत्र - ४२
मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरी बहन, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, उन सब को याद करते हुए (ममत्व छोड़ के) में पंड़ित मौत मरूँगा ।
सूत्र - ४३
संसार में रहे कई योनिमें निवास करनेवाले माता, पिता और बन्धु द्वारा पूरा लोक भरा है, वो तेरा त्राण और शरण नहीं है ।
सूत्र ४४
.
जीव अकेले कर्म करता है, और अकेले ही बूरे किए हुए पापकर्म के फल को भुगतता है, तथा अकेले ही इस जरामरणवाले चतुर्गति समान गहन वनमें भ्रमण करता है।
सूत्र - ४५-४८
नरक में जन्म और मरण ये दोनों ही उद्वेग करवानेवाले हैं, तथा नरक में कईं वेदनाएं हैं; तिर्यंची गतिमें भी उद्वेग को करनेवाले जन्म और मरण है, या फिर कईं वेदनाएं होती हैं; मानव की गति में जन्म और मरण है या फिर वेदनाएं हैं;... देवलोक में जन्म, मरण उद्वेग करनेवाले हैं और देवलोक से च्यवन होता है इन सबको याद करते हुए मैं अब पंड़ित मरण मरूँगा ।
सूत्र ४९
एक पंड़ित मरण कईं सेंकड़ों जन्म को (मरण को) छेदता है । आराधक आत्मा को उस मरण से मरना चाहिए कि जिस मरण से मरनेवाला शुभ मरणवाला होता है (भवभ्रमण घटानेवाला होता है ।)
सूत्र - ५०
जो जिनेश्वर भगवान ने कहा हुआ शुभ मरण - यानि पंड़ित मरण है, उसे शुद्ध और शल्य रहित ऐसा मैं पादपोपगम अनशन ले कर कब मृत्यु को पाऊंगा ?
सूत्र - ५१
सर्व भव संसार के लिए परिणाम के अवसर द्वारा चार प्रकार के पुद्गल मैंने बाँधे हैं और आठ प्रकार के (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय इत्यादि) कर्म का समुदाय मैंने बाँधा है।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान' सूत्र -५२
संसारचक्र के लिए उन सर्व पुद्गल मैंने कईं बार आहाररूप में लेकर परीणमाए तो भी तृप्त न हुआ । सूत्र-५३
आहार के निमित्त मैं सर्व नरकलोक के लिए कई बार उत्पन्न हुआ और सर्व म्लेच्छ जाति में उत्पन्न हुआ हूँ सूत्र-५४
आहार के निमित्त से मत्स्य भयानक नरक में जाते हैं। इसलिए सचित्त आहार मन द्वारा भी प्रार्थे सूत्र- ५५
तृण और काष्ठ द्वारा जैसे अग्नि या हजारों नदियाँ द्वारा जैसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता वैसे यह जीव कामभोग द्वारा तृप्त नहीं होता। सूत्र - ५६
तृण और काष्ठ द्वारा जैसे अग्नि या हजारों नदियों द्वारा जैसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता वैसे यह जीव द्रव्य द्वारा तृप्त नहीं होता। सूत्र-५७
तृण और काष्ठ द्वारा जैसे अग्नि या हजारों नदियों द्वारा जैसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता वैसे जीव भोजन विधि द्वारा तृप्त नहीं होता। सूत्र -५८
वड़वानल जैसे और दुःख से पार पाए ऐसे अपरिमित गंध माल्य से यह जीव तृप्त नहीं हो सकता। सूत्र-५९
अविदग्ध (मूरख) ऐसा यह जीव अतीत काल के लिए और अनागत काल के लिए शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श कर के तृप्त नहीं हुआ और होगा भी नहीं। सूत्र - ६०
देवकुरु, उत्तरकुरु में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष से मिले सुख से और मानव, विद्याधर और देव के लिए उत्पन्न हुए सुख द्वारा यह जीव तृप्त न हो सका। सूत्र-६१
खाने या पीने के द्वारा यह आत्मा बचाया नहीं जा सकता; यदि दुर्गति में न जाए तो निश्चय से बचाया हुआ कहा जाता है। सूत्र-६२
देवेन्द्र और चक्रवर्तीपन के राज्य एवम् उत्तम भोग अनन्तीबार पाए लेकिन उनके द्वारा मैं तृप्त न हो सका। सूत्र-६३
दूध, दहीं और ईक्षु के रस समान स्वादिष्ट बड़े समुद्र में भी कईं बार मैं उत्पन्न हुआ तो भी शीतल जल द्वारा मेरी तृष्णा न छीप सकी। सूत्र - ६४
मन, वचन और काया इन तीनों प्रकार से कामभोग के विषय सुख के अतुल सुख को मैंने कईं बार अनुभव किया तो भी सुख की तष्णा का शमन नहीं हआ।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र - ३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्र - ६५
किसी प्रार्थना मैंने राग-द्वेष को वश हो कर प्रतिबंध से कर के कई प्रकार से की हो उस की मैं निन्दा करता हूँ और गुरु की साक्षी में गर्हता हूँ ।
सूत्र - ६६
मोहजाल को तोडके, आठ कर्म की शृंखला को छेद कर और जन्म-मरण समान अरहट्ट को तोड के तूं संसार से मुक्त हो जाएगा।
सूत्र - ६७
पाँच महाव्रत को त्रिविधे त्रिविधे आरोप के मन, वचन और कायगुप्तिवाला सावध हो कर मरण को आदरे । सूत्र ६८-७०
क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष का त्याग करके अप्रमत्त ऐसा मैं एवं... कलह, अभ्याख्यान, चाडी और पर की निन्दा का त्याग करता हुआ और तीन गुप्तिवाला मैं एवं ;- पाँच इन्द्रिय को संवर कर और काम के पाँच (शब्द आदि) गुण को रूंधकर देव गुरु की अतिआशातना से डरनेवाला मैं महाव्रत की रक्षा करता हूँ । सूत्र ७१, ७२
—
सूत्र
—
...
कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और आर्त्त रौद्र ध्यान को वर्जन करता हुआ गुप्तिवाला और उसके सहित- ... तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान को आदरते हुए और उसके सहित पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ।
सूत्र - ७३
मन द्वारा, मन सत्यपन से, वचन सत्यपन से और कर्तव्य सत्यपन से उन तीनों प्रकार से सत्य रूप से प्रवर्तनेवाला और जाननेवाला मैं पंच महाव्रत की रक्षा करता हूँ ।
सूत्र ७४
सात भयरहित, चार कषाय रोककर, आठ मद स्थानक रहित होनेवाला मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ । सूत्र - ७५
तीन गुप्ति, पाँच समिति, पच्चीस भावनाएं, ज्ञान और दर्शन को आदरता हुआ और उन के सहित मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ।
सूत्र ७६
इसी प्रकार से तीन दंड़ से विरक्त, त्रिकरण शुद्ध, तीन शल्य से रहित और त्रिविधे अप्रमत्त ऐसा मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ ।
सूत्र - ७७
सर्व संग को सम्यक् तरीके से जानता हूँ । माया शल्य, नियाण शल्य और मिथ्यात्व शल्य रूप तीन शल्य को त्रिविधे त्याग कर के, तीन गुप्तियाँ और पाँच समिति मुझे रक्षण और शरण रूप हो ।
सूत्र- ७८, ७९
जिस तरह समुद्र का चक्रवाल क्षोभ होता है तब सागर के लिए रत्न से भरे जहाज को कृत करण और बुद्धिमान जहाज चालक रक्षा करते हैं
वैसे गुण समान रत्न द्वारा भरा, परिषह समान कल्लोल द्वारा क्षोभायमान होने को शुरु हुआ तप समान जहाज को उपदेश समान आलम्बनवाला धीर पुरुष आराधन करते हैं (पार पहुँचाता है) ।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र-८०
यदि इस प्रकार से आत्मा के लिए व्रत का भार वहन करनेवाला, शरीर के लिए निरपेक्ष और पहाड़ की गुफामें रहे हुए वो सत्पुरुष अपने अर्थ की साधना करते हैं। सूत्र - ८१, ८२
यदि पहाड़ की गुफा, पहाड़ की कराड़ और विषम स्थानकमें रहे, धीरज द्वारा अति सज्जित रहे वो सुपुरुष अपने अर्थ को साधते हैं ।- तो किस लिए साधु को सहाय देनेवाले ऐसे अन्योअन्य संग्रह के बल द्वारा यानि वैयावच्च करने के द्वारा परलोक के अर्थ से अपने अर्थ की साधना नहीं कर सकते क्या ? सूत्र-८३
अल्प, मधुर और कान को अच्छा लगनेवाला, इस वीतराग का वचन सुनते हुए जीव साधु के बीच अपना अर्थ साधने के लिए वाकई समर्थ हो सकते हैं। सूत्र-८४
धीर पुरुष ने प्ररूपित किया हुआ, सत्पुरुष ने सेवन किया हुआ और अति मुश्किल ऐसे अपने अर्थ को शीलातल उपर रहा हुआ जो पुरुष साधना करता है वह धन्य है। सूत्र-८५
पहले जिसने अपने आत्मा का निग्रह नहीं किया हो, उसको इन्द्रियाँ पीड़ा देती है, परीषह न सहने के कारण मृत्युकाल में सुख का त्याग करते हुए भयभीत होते हैं। सूत्र-८६
पहले जिसने संयम योग का पालन न किया हो, मरणकाल के लिए समाधि की ईच्छा रखता हो और विषय में लीन रहा हुआ आत्मा परीषह सहन करने को समर्थ नहीं हो सकता। सूत्र - ८७
पहले जिसने संयम योग का पालन किया हो, मरण के काल में समाधि की ईच्छा रखता हो और विषय सुख से आत्मा को विरमीत किया हो वो पुरुष परीषह को सहन करने को समर्थ हो सकता है। सूत्र-८८
पहले संयम योग की आराधना की हो, उसे नियाणा रहित बुद्धि से सोचकर, कषाय त्याग कर के, सज्ज हो कर मरण को अंगीकार करता है। सूत्र-८९
जिन जीव ने सम्यक् प्रकार से तप किया हो वह जीव अपने क्लिष्ट पापकर्मों को जलाने समर्थ हो सकते हैं सूत्र-९०
एक पंड़ित मरण का आदर कर के वो असंभ्रांत सुपुरुष जल्द से अनन्त मरण का अन्त करेंगे। सूत्र - ९१
एक पंडित मरण! और उस के कैसे आलम्बन कहे हैं ? उन सब को जान कर आचार्य दूसरे किस की प्रशंसा करेगा? सूत्र - ९२
पादपोपगम अनशन, ध्यान, भावनाएं आलम्बन हैं, वह जान कर (आचार्य) पंड़ितमरण की प्रशंसा करते हैं
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र - ३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्र - ९३
इन्द्रिय की सुखशाता में आकुल, विषम परीषह को सहने के लिए परवश हुआ हो और जिसने संयम का पालन नहीं किया ऐसा क्लिब (कायर) मानव आराधना के समय घबरा जाता है ।
सूत्र
सूत्र - ९४
लज्जा, गारव और बहुश्रुत के मद द्वारा जो लोग अपना पाप गुरु को नहीं कहते वो आराधक नहीं बनते। सूत्र - ९५
दुष्कर क्रिया करनेवाला हो, मार्ग को पहचाने, कीर्ति पाए और अपने पाप छिपाए बिना उस की निन्दा करे इस के लिए आराधना श्रेय-कल्याणकारक कही है ।
सूत्र ९६
तृण का संधारा या प्राशुक भूमि उस की (विशुद्धि की वजह नहीं है लेकिन जो मनुष्य की आत्मा विशुद्ध हो वही सच्चा संधारा कहा जाता है।
सूत्र ९७
जिनवचन का अनुसरण करनेवाली शुभध्यान और शुभयोग में लीन ऐसी मेरी मति हो; जैसे वह देश काल में पंड़ित हुई आत्मा देह त्याग करता है।
सूत्र ९८
जिनवर वचन से रहित और क्रिया के लिए आलसी कोइ मुनि जब प्रमादी बन जाए तब इन्द्रिय समान चोर (उस के) तप संयम को नष्ट करते हैं।
सूत्र ९९
जिन वचन का अनुसरण करनेवाली मतिवाला पुरुष जिस समय संवर में लीन हो कर उस समय बंटोल के सहित अग्नि के समान मूल और डाली सहित कर्म को जलाने में समर्थ होते हैं ।
सूत्र - १००
जैसे वायु सहित अग्नि हरे वनखंड के पेड़ को जला देती है, वैसे पुरुषाकार (उद्यम) सहित मानव ज्ञान द्वारा कर्म का क्षय करते हैं।
सूत्र २०१
अज्ञानी कईं करोड़ सालमें जो कर्मक्षय करते हैं वे कर्म को तीन गुप्तिमें गुप्त ज्ञानी पुरुष एक श्वासमें क्षय
कर देता है ।
सूत्र - १०२
वाकई में मरण नीकट आने के बावजूद बारह प्रकार का श्रुतस्कंध ( द्वादशांगी) सब तरह से दृढ एवं समर्थ ऐसे चित्तवाले मानव से भी चिन्तवन नहीं किया जा सकता है।
सूत्र - १०३-१०५
वीतरागशासनमें एक भी पद के लिए जो संवेग किया जाता है, वो उस का ज्ञान है, जिस से वैराग्य पा सकते हैं । ..... वीतराग के शासन में एक भी पद के लिए जो संवेग किया जाता है, उस से वह मानव मोहजाल का अध्यात्मयोग द्वारा छेदन करते हैं। ....... वीतराग के शासन में एक भी पद के लिए जो संवेग करता है, वह पुरुष हमेशा वैराग पाता है। इसलिए समाधि मरण से उसे मरना चाहिए।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र-१०६
जिस से वैराग हो वो, वह कार्य सर्व आदर के साथ करना चाहिए । जिस से संवेगी जीव संसार से मुक्त होता है और असंवेगी जीव को अनन्त संसार का परिभ्रमण करना पड़ता है। सूत्र - १०७ ___जिनेश्वर भगवानने प्रकाशित किया यह धर्म मैं सम्यक् तरीके से त्रिविधे श्रद्धा करता हूँ। (क्योंकि) यह त्रस और स्थावर जीव के हित में है और मोक्ष रूपी नगर का सीधा रास्ता है। सूत्र- १०८, १०९
मैं श्रमण हूँ, सर्व अर्थ का संयमी हूँ, जिनेश्वर भगवान ने जो जो निषेध किया है वो सर्व एवं-उपधि, शरीर और चतुर्विध आहार को मन, वचन और काया द्वारा मैं भाव से वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र-११०
__ मन द्वारा जो चिन्तवन के लायक नहीं है वह सर्व मैं त्रिविध से वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र-१११,११२
असंयम से विरमना, उपधि का विवेक करण, (त्याग करना) उपशम, अयोग्य व्यापार से विरमना, क्षमा, निर्लोभता और विवेक- इस पच्चक्खाण को बीमारी से पीड़ित मानव आपत्तिमें भाव द्वारा अंगीकार करता हआ
और बोलते हुए समाधि पाता है। सूत्र-११३
उस निमित्त के लिए यदि कोइ मानव पच्चक्खाण कर के काल करे तो यह एक पद द्वारा भी पच्चक्खाण करवाना चाहिए। सूत्र - ११४-११९
मुझे अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत और धर्म मंगलरूप हैं, उस का शरण पाया हुआ मैं सावध (पापकर्म) को वोसिराता हूँ।
अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधु मेरे लिए मंगलरूप हैं और अरिहंतादि पाँचों मेरे देव स्वरूप हैं, उन अरिहंतादि पाँचों की स्तुति कर के मैं मेरे अपने पाप को वोसिराता हूँ। सूत्र-१२०
सिद्धों का, अरिहंतों का और केवली का भाव से सहारा ले कर या फिर मध्य के किसी भी एक पद द्वारा आराधक हो सकते हैं। सूत्र- १२१,१२२
और फिर जिन्हें वेदना उत्पन्न हुई है ऐसे साधु हृदय से कुछ चिन्तवन करे और कुछ आलम्बन करके वो मुनि दुःख को सह ले।
वेदना पैदा हो तब यह कैसी वेदना? ऐसा मान कर सहन करे, और कुछ आलम्बन कर के उस दुःख के बारे में सोचे सूत्र-१२३
प्रमाद में रहनेवाले मैंने नरक में उत्कृष्ट पीड़ा अनन्त बार पाई है। सूत्र-१२४
अबोधिपन पाकर मैंने यह काम किया और यह पुराना कर्म मैंने अनन्तीबार पाया है।
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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र-१२५
उस दुःख के विपाक द्वारा वहाँ वहाँ वेदना पाते हुए फिर भी अचिंत्य जीव कभी पहेले अजीव नहीं हुआ है सूत्र - १२६
अप्रतिबद्ध विहार, विद्वान मनुष्य द्वारा प्रशंसा प्राप्त और महापुरुष ने सेवन किया हआ वैसा जिनभाषित जान कर अप्रतिबद्ध मरण अंगीकार कर ले। सूत्र-१२७
जैसे अंतिम काल में अंतिम तीर्थंकर भगवान ने उदार उपदेश दिया वैसे मैं निश्चय मार्गवाला अप्रतिबद्ध मरण अंगीकार करता हूँ। सूत्र-१२८-१३०
बत्तीस भेद से योग संग्रह के बल द्वारा संयम व्यापार स्थिर कर के और बारह भेद से तप समान स्नेहपान करके- संसार रूपी रंग भूमिका में धीरज समान बल और उद्यम समान बख्तर को पहनकर सज्ज हुआ तू मोह समान मल का वध कर के आराधना समान जय पताका का हरण कर ले (प्राप्त कर) | और फिर संथारा में रहे साधु पुराने कर्म का क्षय करते हैं। नए कर्म को नहीं बाँधते कर्म व्याकुलता समान वेलड़ी का छेदन करते हैं। सूत्र-१३१
आराधना के लिए सावधान ऐसा सुविहित साधु सम्यक् प्रकार से काल करके उत्कृष्ट तीन भव का अतिक्रमण करके निर्वाण को (मोक्ष) प्राप्त करे। सूत्र-१३२
उत्तम पुरुष ने कहा हुआ, सत्पुरुष ने सेवन किया हआ, बहोत कठीन अनशन कर के निर्विघ्नरूप से जय पताका प्राप्त करे। सूत्र-१३३
हे धीर ! जिस तरह वो देश काल के लिए सुभट जयपताका का हरण करता है उसी तरह से सूत्रार्थ का अनुसरण करते हुए और संतोष रूपी निश्चल सन्नाह पहनकर सज्ज होनेवाला तुम जयपताका को हर ले । सूत्र-१३४
चार कषाय, तीन गारव, पाँच इन्द्रिय का समूह और परिसह समान फौज का वध कर के आराधना समान जय पताका को हर ले। सूत्र-१३५
हे आत्मा ! यदि तू अपार संसार समान महोदधि के पार होने की ईच्छा को रखता हो तो मैं दीर्घकाल तक जिन्दा रहूँ या शीघ्र मर जाऊं ऐसा निश्चय करके कुछ भी मत सोचना । सूत्र - १३६
यदि सर्व पापकर्म को वाकई में निस्तार के लिए ईच्छता है तो जिनवचन, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और भाव के लिए उद्यमवंत होने के लिए जागृत हो जा। सूत्र - १३७
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ऐसे आराधना चार भेद से होती है, और फिर वो आराधना उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन भेद से होती है।
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सूत्र
आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान' सूत्र-१३८
पंडित पुरुष चार भेदवाली उत्कृष्ट आराधना का आराधन कर के कर्म रज रहित होकर उसी भव में सिद्धि प्राप्त करता है, तथासूत्र - १३९
चार भेद युक्त जघन्य आराधना का आराधन करके सात या आठ भव संसार में भ्रमण करके मुक्ति पाता है सूत्र - १४०
मुझे सर्व जीव के लिए समता है, मुझे किसी के साथ वैर नहीं है । मैं सर्व जीवों को क्षमा करता हूँ और सर्व जीवों से क्षमा चाहता हूँ । सूत्र-१४१
धीर को भी मरना है और कायर को भी यकीनन मरना है। दोनों को मरना तो है फिर धीररूप से मरना ज्यादा उत्तम है। सूत्र-१४२
सुविहित साधु यह पच्चक्खाण सम्यक् प्रकार से पालन करके वैमानिक देव होता है या फिर सिद्धि प्राप्त करता है।
(२६) महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक-३ का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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________________ आगम सूत्र 26, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान' सूत्र नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાલ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: 26 XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX महाप्रत्याख्यान आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] वेबसाईट:- (1) (2) deepratnasagar.in भेला ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोजा 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(महाप्रत्याख्यान)” आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 16