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आगम सूत्र २६, पयन्नासूत्र-३, 'महाप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र-१०६
जिस से वैराग हो वो, वह कार्य सर्व आदर के साथ करना चाहिए । जिस से संवेगी जीव संसार से मुक्त होता है और असंवेगी जीव को अनन्त संसार का परिभ्रमण करना पड़ता है। सूत्र - १०७ ___जिनेश्वर भगवानने प्रकाशित किया यह धर्म मैं सम्यक् तरीके से त्रिविधे श्रद्धा करता हूँ। (क्योंकि) यह त्रस और स्थावर जीव के हित में है और मोक्ष रूपी नगर का सीधा रास्ता है। सूत्र- १०८, १०९
मैं श्रमण हूँ, सर्व अर्थ का संयमी हूँ, जिनेश्वर भगवान ने जो जो निषेध किया है वो सर्व एवं-उपधि, शरीर और चतुर्विध आहार को मन, वचन और काया द्वारा मैं भाव से वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र-११०
__ मन द्वारा जो चिन्तवन के लायक नहीं है वह सर्व मैं त्रिविध से वोसिराता (त्याग करता) हूँ। सूत्र-१११,११२
असंयम से विरमना, उपधि का विवेक करण, (त्याग करना) उपशम, अयोग्य व्यापार से विरमना, क्षमा, निर्लोभता और विवेक- इस पच्चक्खाण को बीमारी से पीड़ित मानव आपत्तिमें भाव द्वारा अंगीकार करता हआ
और बोलते हुए समाधि पाता है। सूत्र-११३
उस निमित्त के लिए यदि कोइ मानव पच्चक्खाण कर के काल करे तो यह एक पद द्वारा भी पच्चक्खाण करवाना चाहिए। सूत्र - ११४-११९
मुझे अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत और धर्म मंगलरूप हैं, उस का शरण पाया हुआ मैं सावध (पापकर्म) को वोसिराता हूँ।
अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधु मेरे लिए मंगलरूप हैं और अरिहंतादि पाँचों मेरे देव स्वरूप हैं, उन अरिहंतादि पाँचों की स्तुति कर के मैं मेरे अपने पाप को वोसिराता हूँ। सूत्र-१२०
सिद्धों का, अरिहंतों का और केवली का भाव से सहारा ले कर या फिर मध्य के किसी भी एक पद द्वारा आराधक हो सकते हैं। सूत्र- १२१,१२२
और फिर जिन्हें वेदना उत्पन्न हुई है ऐसे साधु हृदय से कुछ चिन्तवन करे और कुछ आलम्बन करके वो मुनि दुःख को सह ले।
वेदना पैदा हो तब यह कैसी वेदना? ऐसा मान कर सहन करे, और कुछ आलम्बन कर के उस दुःख के बारे में सोचे सूत्र-१२३
प्रमाद में रहनेवाले मैंने नरक में उत्कृष्ट पीड़ा अनन्त बार पाई है। सूत्र-१२४
अबोधिपन पाकर मैंने यह काम किया और यह पुराना कर्म मैंने अनन्तीबार पाया है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(महाप्रत्याख्यान)” आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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