Book Title: Aagam 27 BHAKT PARIGYAA Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] श्री भक्तपरिज्ञा (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "भक्तपरिज्ञा” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[२७], प्रकीर्णकसूत्र-[४] "भक्तपरिजा" मूल एवं संस्कृतछाया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं -]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया 'भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक(४) श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अर्थ-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। प्रकाशकः-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झबेरी-वेणीचंद सरचंद । इदं पुस्तकं मोहमव्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीथ्यां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । वीर सं० २४५३. विक्रम सं० १९८३. सन१९२७. विवर्ग रु.२-9-0. भक्तपरिज्ञा-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १७२+प्र०१ मूलांक: ००१ ०१२ गाथा पृष्ठांक मङ्गलं, ज्ञानमहत्ता ००४ आलोचना, प्रायश्चित् ००६ 'भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम पृष्ठांक: मूलांक: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... ००५ ०२४ गाथा शाश्वत, अशाश्वत सुखं व्रत- सामायिक आरोपणं ००५ ~2~ ००७ मूलांक: ००८ ०३४-१७३ दीप- अनुक्रमाः १७३ गाथा आगमसूत्र [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा' मूलं एवं संस्कृतछाया मरणस्य भेदानि आचरणा, क्षमापना आदि पृष्ठांक: ००८ ००९ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['भक्तपरिज्ञा' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया । ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा" - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [१] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. ..आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] “भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया महाप्रत्याख्यानं धिना. फलं १३ प्रत भक्तपरिज्ञा ॥१९॥ ४२-१ सूत्रांक ||१|| 6364240-%% अथ भत्तपरिणयं ॥४॥ नमिण महाइसयं महाणुभावं मुणिं महावीरं । भणिमो भत्तपरिणं निअसरणट्ठा परट्टा य ॥१॥२७॥ दीप अनुक्रम ॥१९॥ अथ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णकम् ।। नत्वा महातिशयं महानुभावं मुनि महावीरम् । भणामो भक्तपरिक्षा निजस्मरणार्थ पराई प॥१॥ भगवंत महावीरस्य वंदना ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) (२७) ---................-- मुलं [२] ..........--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत %ॐॐॐA% सूत्रांक ||२|| भवगहणभमणरीणा लहंति नियुइसुहं जमल्लीणा । तं कप्पदुमकाणणसुहयं जिणसासणं जयइ ॥२॥२७॥ मणुअसं जिणवपणं च दुल्लहं पाविऊण सप्पुरिसा! | सासयमुहिकरसिएहिं नाणवसिएहिं होअयं ॥ ३॥ ६॥२७८ ॥ जं अन्न सुहं भविणो संभरणीअंतयं भवे कल्लं । मग्गंति निरुवसरगं अपवग्गसुहं बहा तेणं ॥४॥ P॥२७९ ॥ नरविवुहे सरसुक्न दुकावं परमत्थओ तयं चिंति । परिणामदारुणमसासपं च जं ता अलं तेण ॥५॥ ४॥२८० ॥ जं सासयसुहसारणमाणाआराहणं जिर्णिदाणं । ता तीए जइअब जिणवयणविसुदबुद्धीहि ॥३॥ ॥२८१ ।। तं नाणदंसणाणं चारित्ततवाण जिणपणीआणं । जं आराहणमिणमो आणाआराहणं मिति ॥७॥ ॥२८२ ॥ पवजाए अम्भुजओऽवि आराहओ अहामुत्तं । अम्भुजअमरणेणं अविगलमाराहणं लहइ ॥८॥ ॥ २८३ ॥ तं अन्भुजुअमरणं अमरणधम्मेहि वन्निअंतिविहं । भत्तपरिना इंगिणि पाओवगमं च धीरेहिं ॥२॥ भवगहनभ्रमणभन्ना लभन्ते निभृतिमुख यदाश्रिताः । तत्कल्पदुमकाननसुखदं जिनशासनं जयति ॥ २ ॥ मनुजत्वं जिनवचन व दुर्लभं | प्राप्य सत्पुरुषाः! | शाश्वतमुखैकरसिकै ज्ञानावसितैर्भवितव्यम् ॥ ३ ॥ यदद्य सुखं भविनः स्मरणीयं तद्भवेत्कल्ये । मार्गयन्ति निरुपसर्ग-| मपवर्गमुखं दुधास्तेन ।। ४ ।। नरविवुधरसौख्यं दुःखं परमार्थनस्तद् ध्रुवते । परिणामदारुणमशाश्वतं च यत्तद् अलं तेन ॥ ५॥18 यत् शाश्वतमुखसाधनमामाया आराधनं जिनेन्द्राणाम् । तत्तयां यतितव्यं जिनवचन विशुद्धयुद्धिभिः ॥ ६ ॥ तत् शानदर्शनयोधारित्रतपसोः (१) जिनप्रणीतानाम् । यदाराधनमिदमाज्ञाया आगधनं त्रुबते ।। ७ ।। प्रत्रयायामभ्युदातोऽपि आराधको यथासूत्रम् । अभ्युरात-IN मरणेनाविकलामाराधनां लभते ॥८॥ नभ्युदानमरणममरणधर्मभिर्वणि विविधम । भरिक्षा इङ्गिनी पादपोपगमनं च (इति) धीरे ॥९॥ दीप अनुक्रम % F% Fathimirsiastiwom अत्र आज्ञा-आराधनं वर्ण्यते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) “भक्तपरिज्ञा" - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं संस्कृतछाया) ......... ........---- मूलं [९] ........--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९|| भक्तपरिज्ञा JA२८४ ॥ भत्तपरिनामरणं दुविहं सविआरमो य अविआरं। सपरकमस्स मुणिणो संलिहिअतणुस्स आज्ञारा सविआरं ॥१०॥२८५ ॥ अपरकमस्स काले अप्पहुप्पंतंमिजं तमविआरं । तमहं भत्तपरिन्नं जहापरिन्नं धनं सपभणिस्सामि ॥ ११ ॥ २८ ॥ धिइयलविअलाणमकालमचुकलिआणमकयकरणाणं । निरवजमज्जकालिअज-18| रिकर्मादि ईण जुग्गं निरुवस्सग्गं ॥ १२ ॥ २८७ ।। परम(पसम)मुहसप्पिवासो असोअहासो सजीविअनिरासो । विस-ट। यसुहविगयरागो धम्मुझमजायसंवेगो ॥ १३ ॥ २८८ ॥ निच्चिअमरणावत्यो चाहिग्यस्थो जई गिहस्यो| वा । भविओ भत्तपरिनाइ नायसंसारनिग्गुन्नो ॥ १४ ॥ २८९ ॥ पच्छायावपरद्धो पियधम्मो दोसदूसणस-18 यण्हो । अरहर पासत्थाई वि दोसदोसिल्लकलिओऽवि ॥ १५ ॥२९० ॥ वाहिजरमरणमयरो निरंतरुप्पत्तिनीरनिकुरंयो । परिणामदारुणदुहो अहो दुरंतो भवसमुद्दो ॥ १६ ॥ २९१ ।। इअ कलिउण सहरिसं गुरुपामूले-12 भक्तपरिज्ञामरणं द्विविधं सविचारमविचारं च । सपराक्रमस्य मुनेः संलिखिततनोः सविचारम् ॥ १० ॥ अपरिकर्मणः काले अप्रभवति यत्तदविचारम् । तमई भक्तपरिशं यथापरिझं भणियामि ॥ ११ ॥ धृतिबलविकलानामकाल मृत्युकलितानामकृतकरणानाम् । निरपद्यमयकालीनयतीनां योग्यं निरुपसर्गम् ॥ १२ ॥ परम(प्रशम)सुखसत्पिपासोऽशोकहासः स्वजीवितनिरासः । विषयसुखविगतरागो धर्मोप-12 मजातसंवेगः ।। १३ ॥ निश्चितमरणावस्यो व्याधिषस्तो यतिहखो वा । भव्यो भक्तपरिज्ञायां ज्ञातसंसारनैर्गुण्यः ॥ १४ ॥ प्रारब्धप-18 धात्तापः प्रियधर्मा दोपदूषणसतृष्णः । अहंति पार्श्वस्थादिरपि दोषदोपवत्कलितोऽपि ॥ १५॥ व्याधिजरामरणमकरो निरन्तरोत्पत्तिनीरनि- ॥२०॥ कुरुम्बः । परिणामदारुणदुःखोऽहो! दुरन्तो भवसमुद्रः ॥ १६ ॥ इति कलयित्वा सहर्ष गुरुपादमूलेऽभिगम्य विनयेन । भालतलमिलितफर-10 दीप अनुक्रम JAMEREMinimumesarDI द्विविधा भक्तपरिज्ञा प्रदर्श्यते ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) “भक्तपरिज्ञा" - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं संस्कृतछाया) --------------- मूलं [१७] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक |भिगम्म विणएणं । भालयलमिलिअकरकमलसेहरो वंदिउं भणइ ॥ १७ ॥ २९२ ॥ आरुहिअमहं सुपुरिस! भत्तपरिनापसत्ययोहित्थं । निजामपण गुरुणा इच्छामि भवनवं तरि ॥१८॥ २९३ ॥ कारुनामयनीसंदK- दरो सोऽवि से गुरू भणइ । आलोअणवयखामणपुरस्सरं तं पवजेसु ॥ १९॥ २९४ ॥ इच्छामुत्ति भणित्ता | भतीपटुमाणसुद्धसंकप्पो । गुरुणो विगयावाए पाए अभिवंदिउँ विहिणा ॥ २० ॥ २९५ ॥ सलं उद्धरिअ मणो संवेगुषे अतिषसद्धाओ। जे कुणइ सुद्धिहे सो तेणाराहओ होइ ।। २१ ॥ २९ ॥ अह सो आलोअ-1 गणदोसवजिअं उज्जुअं जहाऽऽयरिअं । बालुव यालकालाउ देह आलोअणं सम्मं ॥ २२ ॥ २९७ ।। ठविए पाय|रिछत्ते गणिणा गणिसंपयासमग्गेणं । सम्ममणुमन्निअ तवं अपावभावो पुणो भणइ ॥ २३ ॥ २९८ ॥ दासणदुहजलपरनिअरभीमभवजलहितारणसमत्थे । निप्पच्चवायपोए महबए अम्ह उक्खिवसु ॥ २४ ॥ २९९॥ ||१७|| दीप अनुक्रम [१७] कमलशेखरो बन्दित्वा भणति ॥ १७ ॥ आकाहं सुपुरुष ! भक्तपरिज्ञाप्रशस्तपोतम् । निर्यामकेन गुरुणा इच्छामि भवार्णवं तरीतुम् ॥१८॥ लकारुण्यामृतनिस्स्पन्दमुन्दरः सोऽपि तस्य गुरुर्भणति । आलोचनाव्रतक्षामणापुरस्सरं तत् प्रपद्यस्व ॥ १९ ॥ इच्छामीति भणित्वा भक्ति बहुमानशुद्धसङ्कल्पः । गुरोर्विगतापायौ पादावभिवन्द्य विधिना ॥ २० ॥ शल्यमुद्धर्तुमनाः संवेगोद्वेगतीप्रश्रद्धाकः । यत् करोति शुद्धिहेतोः स तेनाराधको भवति ।। २१ ॥ अथ स आलोचनाहोपवर्जितं जुकं यथाऽऽचीर्णम् । बाल इव बालकालारवायालोचनां सम्यक् ॥२२॥ यापिने प्रायशिने गणिना गणिसम्पन्ममप्रेण । गगनगा नपो ऽपापभावः पनर्भणति ॥ २३ ॥ दारुणदावजलपरनिकरमीमभवजल-141 JAMERadininamaina wamilterial अथ महाव्रतोत्क्षेपस्य वर्णनं क्रियते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [२५] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२५|| भक्तपरिज्ञा जहावि स खंडिअचंडो अखंडमहबओ जई जइवि । पञ्चजवउट्ठावणमुट्ठावणमरिहह तहावि ॥ २५ ॥ ३००11महानतोसाहपहुणो सुकयाणत्तिं भवा पचप्पिणंति जह विहिणा । जावजीवपइण्णाणतिं गुरुणो तहा सोऽपि ॥२६॥३०॥ रक्षेपः संघ है जो साइआरचरणो आउटिअदंडखंडिअवओ वा । तह तस्सवि सम्ममुवट्टि अस्स उट्ठावणा भणिआ ॥२७॥ पूजादि ॥ ३०२॥ तत्तो तस्स महषयपवयभारोनमंतसीसस्स । सीसस्स समारोबइ सुगुरूवि महबए विहिणा ॥२८॥ १७-३१ F॥३०३ ॥ अह हुज देसविरओ सम्मत्तरओ रओ अजिणधम्मे । तस्सवि अणुबयाई आरोविनंति सुद्धा M॥२९॥ ३०४ ॥ अनियाणोदारमणो हरिसवसविसकंचुयकरालो । पूएइ गुरूं संघं साहम्मिअमाइ भत्तीए ॥३०॥३०५॥ निअदबमपुत्वजिणिंदभवणजिणपियवरपइट्ठासु । विअरइ पसत्यपुत्थयसुतित्थतित्थयरपूआमु C॥३१॥ ३०६ ।। जइ सोऽवि सबविरईकयाणुराओ विसुद्धमइकाओ । छिन्नसपणाणुराओ विसयविसाओ। [धितारणसमर्थेन । निष्पत्यपायं महानतपोतेनास्मान् उरिक्षप ॥२४॥ यद्यपि स खण्डिवचण्डोऽखण्डमहानतो यतियद्यपि । प्रनयात्रतोपस्थापिन उत्थानमर्हति तथापि ॥ २५ ॥ प्रभोः सुकृताज्ञप्ति भृत्याः प्रवर्पयन्ति यथा विधिना । यावजीवप्रतिज्ञाऽऽज्ञप्तिं गुरोस्तथा सोऽपि ॥२६॥ यः सातिचारचरण आकुट्टीदण्डखण्डितातो वा । तथा तस्यापि सम्यगुपस्थितस्योपस्थापना भणिता ।। २७ ।। ततस्तथा महात्रतपर्वतभारावनमच्छीर्षस्य शीर्षे समारोपति मुगुरुरपि महावतानि विधिना ॥ २८ ॥ अथ भवेदेशविरतः सम्यक्त्वरतो रतश्च जिनवचने । तस्याप्यनुत्रतान्यारो प्यन्ते शुद्धानि ॥२९॥ अनिदानोदारमना हर्षवश विसर्पद्रोमाञ्चकञ्चुककरालः । पूजयति गुरुं सङ्घ साधर्मिकादि च भक्त्या ॥२१॥ ॥३०॥ निजद्रव्यमपूर्व जिनेन्द्रभवनजिनविम्ववरप्रतिष्ठासु । वितरति प्रशस्त पुस्तकसुतीर्थतीर्थकरपूजासु ॥ ३१ ॥ यदि सोऽपि सर्व दीप अनुक्रम [२५] JIHERadinamnaan jastiraman ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [३२] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३२|| |विरत्तो अ॥ ३२ ॥ ३०७ ।। संधारयपवळ पञ्चज्जइ सोऽवि निअम निरवजं । सवविरहप्पहाणं सामाइअचरित्तमारुहइ ॥ ३३ ॥ ३०८ ॥ अह सो सामाइअधरो पडिवन्नमहबओ अ जो साह । देसविरओ अ चरिमं पचक्खामित्ति निच्छइओ॥ ३४ ॥ ३०९ ।। गुरुगुणगुरुणो गुरुणो पयपंकय नमिअमत्यओ भणइ । भयवं| भत्तपरिनं तुम्हाणुमयं पवजामि ॥ ३५ ॥ ३१० ॥ आराहणाइ खेमं तस्सेव य अप्पणो अ गणिवसहो। विषेण निमित्तेणं पडिलेहद इहरहा दोसा ॥ ३६ ।। ३११ ।। तत्तो भवचरिमं सो पञ्चक्खाइत्ति तिविहमाहारं ।। |४|उकोसिआणि दवाणि तस्स सवाणि दंसिजा ॥ ३७॥ ३१२ ॥ पासित्तु ताई कोई तीरं पत्सस्सिमेहि कि |मझ । देसं च कोइ भुचा संवेगगओ विचिंतेइ-॥ ३८ ॥ ३१३ ॥ किं चत्तं नोवभुसं मे, परिणामासुई सुई। दीप अनुक्रम [३२] ४ विरतिकृतानुरागो विशुद्धमतिकायः । छिन्नखजनानुरागो विषयविषाद्विरक्तश्च ।। ३२ ॥ संसारकप्रवज्या प्रतिपद्यते सोऽपि नियमानिरव-18 द्याम् । सर्वविरतिप्रधानं सामायिकचारित्रमारोहति ॥ ३३ ॥ अथ स सामायिकधरः प्रतिपन्नमहात्रतत्र यः साधुः । देशविरतच चरम प्रत्यास्यामीति निभयवान ।। ३४ ।। गुरुगुणगुरोर्गुरोः पदपङ्कजे नतमस्तको भणति । भगवन् ! भक्तपरिज्ञा युप्माकमनुमतो प्रपये ॥३५॥ आराधनायो क्षेमं तस्यैव पात्मनभ गणिवृषभः । दिव्येन निमित्तेन प्रतिलिखतीतरथा दोषाः ॥ ३६ ।। ततो भवपरमं स प्रलापयाति इति | त्रिविधमाहारम । उत्कृष्टानि सर्वाणि द्रव्याणि नस्मै दर्शयेत् ।। ३७ ॥ दृष्ट्वा तानि कधिचीर प्राप्तस्यैभिः किं मम ? । देश व कश्रिद् भुक्त्वा संवेगगतो विचिन्तयेत् ।। ३८ ॥ मयोपभुतं मन् किं न त्यक्तं? शुन्यपि परिणामाशुचि । रएसारः सुखं ध्यायति चोटनेपाऽयमीदनः ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [३९] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३९|| भक्तपरिज्ञा दिवसारो सुहं झाइ, चोअणेसाऽवसीअओ ॥ ३९ ॥ ३१४ ॥ उअरमलसोहणट्ठा समाहिपाणं मणुनमेसो- द्रव्यदर्श वि । महरं पनेअपो मंदं च विरेपणं खमओ ॥ ४० ॥ ३१५ ॥ एलतयनागकेसरतमालपतं ससकारं दुद्धं 131 नादि ॥ २२॥ पाऊण कढिअसीअलसमाहिपाणं तओ पच्छा ॥४१॥ ३१६ ॥ महुरविरेअणमेसो कायदो फोफलाइदबेहि। प्रत्याख्या|निवाविओ अ अग्गी समाहिमेसो सुहं लहइ ॥ ४२ ॥ ३१७ ।। जावजीवं तिविहं आहारं थोसिरह इह 131 नम् |खवगो । निजयगो आयरिओ संघस्स निवेअणं कुणइ ॥ ४३ ॥ ३१८ ॥ आराहणपञ्चइ खमगस्स य निरु-161 दिवसग्गपञ्चइ । तो उस्सग्गो संघेण होइ सचेण कायद्यो॥ ४४ ॥ ३१९ ॥ पचक्खाविति तओ तं ते खमयं चउबिहाहारं । संघसमुदायमझे चिइवंदणपुषयं विहिणा ।। ४५ ॥ ३२०॥ अहवा समाहिहे सागारं चयइ2 तिविहमाहारं । तो पाणयंपि पछा वोसिरिअचं जहाकालं ॥ ४६॥ ३२१ ॥ तो सो नमंतसिरसंघडतकर-18 ॥ ३९ ॥ उदरमलशोधनार्थ समाधिपानं मनोशमेषोऽपि । मधुरं पातव्यः मन्दं च विरेचन क्षपकः ॥ ४० ॥ एलात्वग्नागकेशरतमालपत्रयुतं सशर्करं दुग्धम् । पाययित्वा कधितशीतलसमाधिपानं ततः पञ्चात् ।। ४१ ॥ मधुरविरेचनमेष कर्तव्यः पुंस्फलादिद्रव्यैः । निर्वा-18 पिताग्निश्च समाधिमेष सुखं लभते ॥ ४२ ॥ यावजी त्रिविधमाहार व्युत्सृजतीह क्षपकः । निर्यामक आचार्यः सचाय निवेदनं करोति | ॥ १३ ॥ आराधनाप्रलायं क्षपकस्य च निरुपसर्गप्रत्ययम् । तत उत्सर्गः सङ्ग्रेन भवति सर्वेण कर्त्तव्यः ॥ ४४ । प्रत्याख्यापयन्ति ततस्तं | ते क्षपकं चतुर्विधाहारम् । सङ्घसमुदायमध्ये चैत्यवन्दनपूर्वकं विधिना ॥ ४५ ॥ अथवा समापिहेतोः साकारं यजति त्रिविधमादारम् ॥२२॥ ततः पानकमपि पश्चाद् म्युत्स्रष्टव्यं यथाकालम् ॥ ४६ ॥ ततः स नमच्छिरःसंघटमानकरकमलशेखरो विधिना । क्षमयति सर्वसहं | Reck दीप अनुक्रम [३९] JIMEReatinatand आहारस्य व्युत्सर्जन एवं प्रत्याख्यानास्य वर्णनं ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक ॥४७॥ दीप अनुक्रम [४७] “भक्तपरिज्ञा" प्रकीर्णकसूत्र ४ ( मूलं संस्कृतछाया) मूलं [ ४७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया Ema - कमलसेहरो विहिणा । खामेह सबसंधं संवेगं संजणेमाणो ॥ ४७ ॥ ३२२ ॥ आयरिअ उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य। जे मे केइ कसाया सबै तिविशेण खामेमि || ४८ || ३२३ || सबे अवराहपए खामेह (मि) अहं खमेड मे भगवं । अहमवि खमामि सुद्धो गुणसंघायस्स संघस्स ॥ ४९ ॥ ३२४ ॥ इअ वंदणख मणगरिहणाहिं भवसयसमज्जिअं कम्मं । उवणे खणेण खयं मिआवई रामपत्तिव ॥ ५० ॥ ३२५ ॥ अह तस्स महवयसुट्ठिअस्स जिणवपण भावि अमइस्स । पचक्खायाहारस्स तिवसंवेगमुहयस्स ॥ ५१ ॥ ३२३ ॥ आराहणला भाओ कयत्थमप्पाणयं मुर्णतस्स । कलुसकलतरणलट्ठि अणुसट्ठि देइ गणिवसहो । ५२ ।। ३२७ ॥ कुग्गहपरूढमूलं मूला उच्छिद वच्छ मिच्छत्तं । भावेसु परमतत्तं सम्मत्तं सुत्तनीईए ॥ ५३ ॥ ३२८ ॥ भक्तिं च कुणसु तिवं गुणाणुराएण बीअरायाणं । तह पंचनमुकारे पवयणसारे रहे कुणसु ॥ ५४ ॥ ३२९ ॥ संवेगं संजनयन् ॥ ४७ ॥ आचार्योपाध्यायाः शिष्याः साधर्मिकाच कुलगणौ च ये मया केचित् कपायिताः सर्वान् त्रिविधेन क्षमयामि ॥ ४८ ॥ सर्वाण्यपराधपदानि भ्रमयाम्यहं क्षाम्यतु मयि भगवन्! अहमपि क्षमयामि शुद्धो गुणसङ्घातस्य सङ्घस्य ॥ ४९ ॥ इति वन्दन क्षामणागणैर्भवशतसमर्जितं कर्म । उपनयति क्षणेन क्षयं राजपत्नी मृगावतीव ॥ ५० ॥ अथ तस्य महाव्रतसुस्थितस्य जिनवचनभावि तमतेः । प्रत्याख्यातादारस्य तीव्रसंवेगमुखगस्य ॥ ५१ ॥ आराधनालाभात् कृतार्थमात्मानं मन्यमानस्य । कलुपफलतरणयष्टिमनुशास्लिं ददाति |गणिवृषभः ।। ५२ ।। कुमहप्ररूढमूलं मूलादुच्छिन्द्वि वत्स ! मिथ्यात्वम् । भावय परमतत्वं सम्यक सनी ५३ ॥ भक्तिच Far Plate the Oy भक्तपरिज्ञार्थे क्षमापनादि - कृत्यस्य वर्णनं ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [५५] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥२३॥ प्रत सूत्रांक ||५|| भक्तपरिज्ञा सुविहिअहिअनिज्झाए सज्झाए उजुओ सया होसु । निचं पंचमहत्वयरक्खं कुण आयपचक्खं ॥ ५५॥ नमस्का 15॥३३०॥ उज्झसु निआणसल्लं मोहमहलं सुकम्मनिरसल्लं । दमसु अ मुणिंदसंदोहनिदिए इंदिअमयंदे ॥१६॥ रादि ॥३३१ ॥ निवाणसुहावाए विइन्ननिरयाइदारुणावाए । हणमु कसायपिसाए विसयतिसाए सइसहाए ॥५७ मिथ्यात्व॥ ३३२ ॥ काले अपहुप्पंते सामन्ने सावसेसिए इम्हि । मोहमहारिउदारणअसिलहिं सुणसु अणुसहि ॥१८॥ त्यागः ॥३३३ ॥ संसारमूलबीअं मिच्छत्तं सबहा विवजेहि । सम्मत्ते दढचित्तो होसु नमुक्कारकुसलो अ॥ ५९॥16|४७-६० ॥ ३३४ ॥ मगतिण्हि आहि तो मन्नंति नरा जहा सतण्हाए । सुक्खाई कुहम्माओ तहेव मिच्छत्तमूढमणो ॥ ६०॥ ३३५ ॥ नवि तं करेद अग्गी ने विसं नेअ किण्हसप्पो अ । जं कुणइ महादोसं तिचं जीवस्स दीप अनुक्रम [१५] कुरु तीत्रां गुणानुरागेण वीतरागाणाम् । तथा पञ्चनमस्कारे प्रवचनसारे रतिं कुरु ॥ ५४ ॥ सुविहितहित (हृदय)निया॑ते स्वाध्याये उत्पतः सदा भव । नित्यं पत्रमहात्रतरक्षां कुर्यात्मप्रत्यक्षाम् ॥ ५५ ॥ उज्य निदानशल्यं मोहमहत्तर सुकर्मनिःशल्पम् । दाम्य च | मुनीन्द्रसन्दोहनिन्दितानिन्द्रियमृगेन्द्रान् ।। ५६ । निर्वाणसुखापायान् वितीर्णनरकादिदारुणापाताम् । अहि कषायपिशाचान विषयतृष्णायाः। सदा सहायान् ।। ५७ ।। कालेऽप्रभवति श्रामण्ये सावोपिते इदानीम् । मोहमहारिपुदारुणासियष्टिं शृण्वनुशास्तिम् ॥ ५८ ।। संसारमूलबीजं मिथ्यालं सर्वथा विवर्जय । सम्यक्त्वे हदचित्तो भव नमस्कारकुशलश्च ।। ५९ ।। मृगतृष्णासु तोयं मन्यते नरा यथा स्वतृष्णया । सौख्यानि कुधर्मान् तव मिथ्यात्वमूहमनाः ॥ ६० ॥ नैव तत्करोत्यग्निः नैव विपं नैव कृष्णसर्पश्व । यं करोति महादोष तीनं18 JAMERanavatmale नमस्कार एवं मिथ्यात्वत्यागस्य निवेदनम् ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [६१] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६१|| मिच्छतं ॥ ३१ ॥ ३३६ ॥ पावइ इहेब वसणं तुरुमिणिदत्तुव दारुणं पुरिसो । मिच्छत्तमोहिअमणो साहुप ओसाउ पावाओ॥ ६२ ॥ ३३७ ।। मा कासि तं पमायं सम्मत्से सबदुक्खनासणए । जं सम्मत्तपइट्ठाई नाणत-IN हवविरिअचरणाई ।। ६३ ।। ।। ३३८ ॥ भावाणुरायपेमाणुरायसुगुणाणुरापरत्तो अ । धम्माणुरायरत्तो अ होसु द्रजिणसासणे निचं ॥ ६४ ॥ ३३९ ।। सणभट्ठो भट्ठो न हु भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो । दसणमणुपत्सस्स हार परिअडणं नस्थि संसारे ॥ १५ ॥३४०॥ दंसणभट्ठो भट्ठो दसणभट्ठस्स नत्थि निवाणं । सिसंति चरणरहिआ दसणरहिआ न सिझंति ॥३६॥३४१|| सुद्धे सम्मत्ते अविरओऽवि अजेइ तित्थयरनाम ।जह आगमेसिभदा हरिकुलपहसेणिआईया ।। ६७ ॥ ३४२ ॥ कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विमुद्धसम्मत्ता । सम्मासणरयणं नs-| ग्घद ससुरासुरे लोग ॥ १८॥ ३४३ ॥ तेलुफस्स पहुसं लणवि परिवडंति कालेणं । सम्मत्तं पुण लद्धं अक्ख-| जीवस्य मिध्यात्वम् ।। ६१ ॥ प्राप्नोतीहैव व्यसनं तुरुमिणीदत्त इव दारुणं पुरुषः । मिध्यात्वमोहितमनाः साधुप्रद्वेषात् पापात् ।। ६२ ॥ मा कास्त्विं प्रमादं सम्यक्त्वे सर्वदुःखनाशके । यत्सम्यक्त्वप्रतिष्ठानि ज्ञानतपोवीर्यचरणानि ।। ६३ ।। भावानुराग-प्रेमानुराग-सुगुणानुरागरकच । धर्मानुरागरक्ता भव जिनशासने नित्यम् ॥ ६४ ।। दर्शनभ्रष्टो भ्रष्टो नैव भ्रष्टो भवति चरणप्रभ्रष्टः । दर्शनमनुप्राप्तस्य पर्य-| टनं नास्त्येव संसारे ।। ६५ ।। दर्शनभ्रष्टो भ्रष्टो भ्रष्टदर्शनस्य नास्ति निर्वाणम् । सिद्ध्यन्ति चरणरहिता वर्शनरहिता न सिध्यन्ति ।। ६६॥ शुद्ध सम्यकरवे ऽप्यविरतोऽप्यजयति तीर्थकरनाम । यथाऽऽगमिष्यद्वा हरिकुलप्रभुश्रेणिकादिकाः ॥ ६७॥ कल्याणपरम्परां लभन्ते जीवा |विशुद्धसम्यक्त्वाः । सम्पगदर्शनरत्रं नार्घति ससुरासुरे लोके ॥ ६८ ॥ त्रैलोक्यस्य प्रभुत्वं लब्ध्वाऽपि परिपतन्ति कालेन । सम्यक्त्वं RSS दीप अनुक्रम [६१] RAPHISpasathwON दर्शन/सम्यक्त्वस्य माहात्म्य-कथन ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक ||६९|| दीप अनुक्रम [६९] “भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र - ४ (मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [ ६९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥ २४ ॥ भक्तपरिज्ञा सुक्खं लहह मुक्खं ॥ ६९ ॥ ३४४ ॥ अरिहंतसिद्ध इयपवयणआयरिअसवसाहस्रं । तियं करेसु भत्तिं तिग रणसुद्वेण भावेणं ॥ ७० ॥ ३४५ || एगावि सा समत्था जिणभसी दुग्गई निवारे । दुलहा लहावेडं आसिद्धि परंपरसुहाई ॥ ७१ ॥ ३४६ ॥ विज्जावि भत्तिमंत्तस्स सिद्धिमुवया होइ फलया य। किं पुण निहुइविजा सिज्झिहिर अभत्तिमतस्स ॥ ७२ ॥ ३४७ ॥ तेसिं आराहणनायगाण न करिज्ज जो नरो भति । धणिअंपि उनमंतो सालिं सो ऊसरे बबइ ॥ ७३ ॥ ३४८ ॥ बीएण विणा सस्सं इच्छइ सो वासमन्भरण विणा। आराहणमिच्छतो आराहयभत्तिमकरंतो ॥ ७४ ॥ ३४९ ॥ उत्तमकुलसंपत्तिं सुहनिप्फत्तिं च कुणइ जिणभत्ती । मणियारसिट्टिजीवस्स ददुरस्सेव रायगिहे ॥ ७५ ॥ ३५० ॥ आराहणापुरस्सरमणन्नहियओ विसुद्धलेसाओ । संसारकखयकरणं तं मा मुंची नमुकारं ॥ ७६ ॥ ३५१ || अरिहंतनमुकारोऽवि हविल जो पुनर्लब्ध्वाऽक्षयसौख्यं लभते मोक्षम् ॥ ६९ ॥ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनाचार्य सर्वसाधुपु तीव्रां कुरु भकि त्रिकरणशुद्धेन भावेन ।। ७७ ।। एकाऽपि सा समर्थ जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम् । दुर्लभानि लम्भवितुं आसिद्धेः परम्परमुखानि ।। ७१ ।। विद्याऽपि भक्तिमतः सिद्धिमुपयाति भवति फलदा च किं पुनर्निर्वृतिविद्या सेत्स्यत्यभक्तिमतः ? ॥ ७२ ॥ तेपामाराधनानायकानां न कुर्याद् यो नरो भक्तिम् । | वाढमप्युच्छन् शालिं स ऊपरे वपति ॥ ७३ ॥ वीजेन विना शस्यमिच्छति स वर्षामभ्रकेण विना । आराधनामिच्छन् आराधकभक्तिमकुर्वन् ॥ ७४ ॥ उत्तमकुलसंप्राप्तिं सुखनिष्पत्तिं च करोति जिनभक्तिः । मणिकारश्रेष्ठिजीवस्य दर्दुरस्येव राजगृहे ।। ७५ ।। आराधनापुरस्सरमनन्यहृदयो विशुद्धलेश्याकः । संसारक्षयकरणं तं मा मुच्च नमस्कारम् ।। ७६ ।। अर्हनमस्कारो भवेदेकोऽपि यो मरणकाले Far Pate the Ony Jan Eatinimaisma अरिहंतादे: भक्तिः वर्ण्यते ~14~ सम्यक्तवं भक्तिश्च ६१-७६ ॥ २४ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक ||७७|| दीप अनुक्रम [७७] “भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र - ४ (मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ...आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प.स.५ Em मरणकाले । सो जिणवरेहिं दिट्टो संसारुच्छे अणसमत्थो ॥ ७७ ॥ ३५२ || मिठो किलिट्टकम्मो नमो जिणाणंतिसुकयपणिहाणो । कमलदलक्खो जक्खो जाओ चोरुत्ति सूलिहओ ॥ ७८ ॥ ३५३ ॥ भावनमुक्कारविवजिआई जीवेण अकपकरणा । गहियाणि अ मुकाणि अ अनंतसो दद्दलिंगाई ॥ ७९ ॥ ३५४ ॥ आराहणापागागणे हत्थो भवे नमोकारो । तह सुगहमग्गगमणे रहुब जीवस्स अप्पडिहो ॥ ८० ॥ ३५५ ॥ अन्नाणीsवि अ गोवो आराहिसा मओ नमुकारं । चंपाए सिट्टिसुओ सुदंसणो विस्सुओ जाओ ।। ८१ ।। ३५६ ।। विज्जा जहा पिसायं सुबत्ता करे पुरिसवसं । नाणं हिअयपिसायं सुदुवतं तह करेड् ॥ ८२ ॥ ३५७ ।। उवसमह किण्हसप्पो जह मंतण विहिणा पउसेणं । तह हिययकिण्हसप्पो सुह्वउत्तेण नाणेणं ॥ ८३ ॥ ३५८ ।। जह मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अच्छिउँ न सके । तह खणमवि मज्झत्थो विसएहिं विणा न होइ मणो ॥ ८४ ॥ ३५९ ॥ तम्हास उद्विमणो मणमक्कडओ जिणोवरसेणं । काउं सुत्तनिषद्धो रामेअवो सुहज्झाणे जिनवरैः स संसारोच्छेदनसमर्थो दृष्टः ॥ ७७ ॥ मेण्ठः टिष्टकर्मा नमो जिनेभ्य इति सुकृतप्रणिधानः । कमलदलायो यक्षो जातऔर इति शुलिहतः ॥ ७८ ॥ भावनमस्कारविवर्जितानि जीवेनाकृतकरणानि । गृहीतानि च मुक्तानि चाऽनन्तशो द्रव्यलिङ्गानि ॥ ७९ ॥ आराधनापताकामणे हस्लो भवेन्नमस्कारः । तथा सुगतिमार्गगमने रथ इव जीवस्याप्रतिहतः ॥ ८० ॥ अज्ञान्यपि च गोप आराध्य नमस्कारं सृतः । चम्पायां श्रेष्ठितः सुदर्शनो विश्रुतो जातः ॥ ८१ ॥ विद्या यथा पिशाचं सुपयुक्ता करोति पुरुषवशम् । ज्ञानं हृदयपिशाचं सुपयुक्तं तथा करोति ॥ ८२ ॥ उपशाम्यति कृष्णसर्पो दथा मत्रेण विधिना प्रयुक्तेन । तथा हृदयमः सुपयुकेन ज्ञानेन ॥१८३॥ Far Pal Pate the Ony अथ भक्तपरिज्ञा- आराधकस्य लघुकथारुप द्रष्टांतानि ---- ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [८६] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||८|| भक्तपरिक्षा ८५ ॥३६०॥ सूई जहा समुत्ता न नस्सई कयवरंमि पडिआवि। जीवोऽवि तह ससुत्तो न नस्सह गओवि नमस्कारः संसारे ॥ ८६ ॥ ३६१ ॥ खंडसिलोगेहि जवो जइ ता मरणाउ रक्खिओ राया । पत्तो अ सुसामन्नं किं पुण ॥२५॥ दया च ट्राजिणवत्तसुत्तेणं? ॥ ८७ ॥ ३६२ ।। अहवा चिलाइपुत्तो पत्तो नाणं तहाऽमरत्तं च । उवसमविवेगसंवरपयम-18 मरणमित्तसुअनाणो ॥ ८८ ॥ ३६३ ॥ परिहर छज्जीववहं सम्मं मणवयणकायजोगेहिं । जीवविसेसं नाउं जावजीवं पयत्तेणं ॥ ८९ ॥ ३६४ ॥ जह ते न पिअं दुक्खं जाणिअ एमेव सबजीवाणं । सवायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥९० ॥ ३६५ ।। तुंगं न मंदराओ आगासाओ चिसालयं नत्धि । जह तह जयंमि हजाणसु धम्ममहिंसासम नत्थि ।। ९१ ।। ३६६ ॥ सधेवि य संबंधा पत्ता जीवेण सबजीवेहिं । तो मारतो यथा मर्कटः क्षणमपि मध्यस्थः स्थातुं न शक्नोति । तथा अणमपि मध्यस्थं विषयेविना न भवति मनः ॥ ८४ ॥ तस्मात्स उत्थातुमना मनोमर्कटो जिनोपदेशेन । कृत्वा सूत्रनिबद्धो रमयितव्यः शुभे ध्याने ।। ८५ ।। शूची यथा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिताऽपि । जीवो-12 ऽपि तथा ससूत्रो न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥ ८६ ॥ खण्ड लोकैर्यवर्षियदि तावन्मरणाद्रक्षितो राजा । प्राप्तश्च सुआमण्यं किं पुनर्जिनोतसूत्रेण ? ||८७॥ अथवा चिलातीपुत्रो ज्ञानं प्रामसथाऽमरत्वं च । उपशमविवेकसंवरपदस्मरणमात्रभुतज्ञानः ॥ ८८ ।। परिहर पहजीववधंद सम्यग् मनोवचनकाययोगैः । जीवविशेष ज्ञात्वा यावजीवं प्रयझेन ।। ८५ ॥ यथा ते न प्रियं दुःखं ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानाम् । सर्यादरेणोपयुक्त आत्मीपम्येन कुरु दयाम् ॥ ५० ॥ तुझन मन्दरात आकाशाद्विशालं नास्ति । यथा तथा जगति जानीहि धर्मोऽहिंसासमो| दीप 46 अनुक्रम [८६] AMERARIA अथ अहिंसा, सत्य आदि पञ्चानां विशद वर्णनं क्रियते ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [९२] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९२|| जीवे मारइ संबंधिनो सवे ॥१२॥ ३६७ ।। जीववहो अपवहो जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सघजीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामेहिं ।। ९३ ।। ३६८ ॥ जावइआई दुक्खाई हुंति चउगइगयरस जीयस्स । सवाई ताई हिंसाफलाई निउणं विआणाहि ॥९४॥ ३६९ ।। किंचि सुहमुआरं पहुत्तर्ण पयइसुंदरं जं च । आरुग्गं| सोहग्गं तं तमहिंसाफलं सधं ॥ ९५ ॥ ७० ॥ पाणोऽवि पाडिहेरं पत्तो छुढोऽवि सुंसमारदहे । एगणवि४ *एगदिणऽजिएणहिंसावयगुणेणं ॥९६ ॥ ३७१ ॥ परिहर असचचयणं सर्वपि चउविहं पपत्तेणं । संजमवंतावि जओ भासादोसेण लिप्पंति ॥ ९७ ।। ३७२ ।। हासेण व कोहेण व लोहेण भएण वावि तमसचं । मा भण Kा भणसु सचं जीवहिअत्थं पसत्यमिणं ॥९८॥ ३७३ ।। विस्ससणिज्जो माया व होइ पुज्जो गुरुख लोअस्स। सपणुव नास्ति ।। ९१ ॥ सर्वेऽपि च सम्बन्धाः प्राप्ता जीवेन सर्वजीवैः । तन्मारयन् जीवान् मारयति सम्बन्धिनः सर्वान ।। ९२ ॥ जीववध | आत्मवधो जीवदयाऽऽत्मनो दया भवति । तत्सर्वजीवहिंसा परित्यक्ताऽऽत्मकामैः ।। ५३ ।। यावन्ति दुःखानि भवन्ति चतुर्गतिगतस्य | |जीवस्य । सर्वाणि तानि हिंसाफलानि निपुणं विजानीहि ॥ ९४ ॥ यत्किञ्चित्सुखमुदार प्रभुत्वं प्रकृति सुन्दर यत्र । आरोग्यं सौभाग्यं | | तत्तदहिसाफलं सर्वम् ।। ९५ ॥ चण्डालोऽपि प्रातिहार्य प्राप्तः क्षिप्तोऽपि सुंसुमारजदे। एफेनाऽप्येकदिनार्जितेनाहिंसात्रतगुणेन ।। ९६ ॥ परिह राऽसलवचनं सर्वमपि चतुर्विध प्रयत्नेन । संयमवन्तोऽपि यतो भाषादोषेण लिप्यन्ते ॥ २७ ॥ हास्येन वा फोयेन वा लोभेन भयेन | वाऽपि तदसत्यम् । मा भण भण सत्यं जीवहितार्थ प्रशस्तमिदम् ।। ९८ ॥ विश्वसनीयो मातेव भवति पूग्यो गुरुरिच लोकम्प । माजन || दीप अनुक्रम [९२ RarPROMISFlasiatheON ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [९९] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२९|| भक्तपरिज्ञा सञ्चवाई पुरिसो सबस्स होइ पिओ ॥ ९९ ॥ ३७४ ॥ होउ व जडी सिहंडी मुंडी वा वक्कली व नग्गो वादियामृषा लोए असचवाई भन्नइ पासंडचंडालो। १०० ॥ ३७५ ॥ अलिअं सइंपि भणिअं विहणइ बहुआई सबवय-12 दत्ता॥२६॥ Jणाई। पडिओ नरयंमि वसू इकेण असचवणेणं ॥ १०१ ॥ ३७६ ।। मा कुणसुधीर बुद्धि ! अर्घ व बहुं व दानानि परधणं चित्तुं । दंतंतरसोहणयं किलिंचमिर्त्तपि अविदिन्नं ॥ १०२॥ ३७७ ॥ जो पुण अत्थं अवहरइ तस्स सो जीविपि अवहरइ । जं सो अत्वकएणं उज्झइ जीन उण अत्यं ॥१०३ ॥ ३७८ ॥ तो जीवदयाप-10 रमं धम्म गहिऊण गिण्ह माऽदिन्नं । जिणगणहरपडिसिद्धं लोगविरुद्धं अहम्मं च ॥ १०४ ।। ३७९ ॥ चोरो परलोगंमिऽवि नारयतिरिएसु लहइ दुक्खाई । मणुअत्तणेचि दीणो दारिदोवदुओ होइ ॥ १०५ ॥ ३८॥ चोरिकनिवित्तीए सावयपुत्तो जहा सुहं लहई । किदि मोरपिच्छचित्तिअ गुट्ठीचोराण चलणेसु॥१०६॥ इव सत्यवादी पुरुषः सर्वस्य भवति प्रियः ।। ९९ ॥ भवतु वा जटी शिखावान् मुण्डो वा बल्कली वा नग्नो वा । लोकेऽसत्यवादी भण्यते पापण्डचाण्डालः ॥ १०॥ अलीक सकृदपि भणितं विहन्ति बहुकानि सत्यवचनानि । पतितो नरके वसुरेकेनासत्यवचनेन । १०१॥ मा कुरु धीर ! बुद्धिमल्प वा बहु वा परधनं प्रहीतुम् । दन्त्तान्तरशोधनकं शलाकामात्रमप्यविदत्तम् ।। १०२ ॥ यः पुनरर्थमपहरति तस्य 2 स जीवितमप्यपहरति । यत्सोऽर्थकते उज्झति जीवितं न पुनरर्थम् ॥ १०३ ॥ ततो जीवदयापरमं धर्म गृहीत्वा गृहाण माऽदत्तम् । जिन-18 गणधरपति पिद्धं लोकविरुद्धमधर्म च ॥ १०४ । चौरः परलोकेऽपि नारकतिर्यक्षु लमते दुःखानि । मनुजत्वेऽपि दीनो दारियोपदुतो भवति ।। १०५ ॥ चौर्यनिवृत्या आवकपुत्रो यथा सुखमलभत । किड्यामयूरपिच्छचित्रितेषु गोष्ठिकचौराणां चरणेषु ॥ १०६॥ 60-%95-%84%8264 दीप अनुक्रम [९९] JAMERIMinimmiaDI ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१०७] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१०७|| ॥ ३८१ ॥ रक्खाहि संभचेरै भगुत्तीहिं नवहिं परिसुद्धं । निश्चं जिणाहि कामं दोसपकामं विआणिशा ॥१०७॥ ३८२ ॥ जावइआ किर दोसा इहपरलोए दुहावहा हुंति । आवहइ से उ सधे मेहुणसम्रा मणू-I सरस ॥१०८॥ ३८३ ।। रइअरइतरलजीहाजुएण संकप्पउन्भडफणेणं । विसयविलवासिणा मयमुहेण विन्योअरोसेणं ॥ १०९ ॥ ३८४ । कामभुअंगेण दट्टा लज्जानिम्मोअदप्पदाढणं । नासंति नरा अवसा दुस्सहदुक्खा-12 यहविसेणं ॥ ११०॥ ३८५ ॥ लल्लकनिरयविअणाओं घोरसंसारसापरुबहण । संगच्छद न य पिच्छइ तुच्छ कामिअसुहस्स ॥१११ ॥ ३८६ ॥ बम्महसरसयविद्धो गिद्धो वणिउप रायपत्तीए । पाउक्खालयगेहे दुग्ग-131 घेणेगसो वसिओ ।। ११२ ॥ ३८७ ॥ कामासत्तो न मुणइ गम्मागम्मपि वेसिआणुव । सिट्ठी कुबेरदत्तो निअयसुआसुरयरहरत्तो॥ ११३ ॥ ३८८ ॥ पडिपिल्लिभ कामकलि कामग्घत्थासु मुअसु अणुवन्धं । महि-2 रक्ष ब्रह्मचर्य प्रमगुप्तिमिर्नवमिः परिशुद्धम् । नित्यं जय काम प्रकामदोषं विज्ञाय ॥ १०७ ।। यावन्तः किल दोषा इहपरलोकयोर्दु:खावहा भवन्ति । आवहति तास्तु सर्वान् मैथुनसशा मनुष्यस्य ॥ १०८ ॥ रत्यरतितरलजिहायुगेन सङ्कल्पोटफणेन । विषयविलवासिना मदमुखेन विब्बोकरोषेण ॥ १०९ ॥ कामभुजगेन दष्टा लनानिोकदर्पष्ट्रेण । नश्यन्ति नरा अवशा दुःसहदुःखाबहविषेण ॥ ११ ॥ सलकनरकवेदना घोरसंसारसागरोद्वहनम् । संगच्छते न च प्रेक्षते तुच्छर कामी (कामित) मुखस्य ॥ १११॥ मन्मयशरशतविडोज लगद्धो बणिगिव राजपल्याम् । पायुक्षालनगृहे दुर्गन्धेऽनेकश उषितः ॥ ११२ ॥ कामासक्तो न जानाति गम्यागम्यमपि वैश्यायन इव । भिठी कुवेरदत्तो निजमुनामुरतरतिरक्तः ।। ११३ ।। प्रतिप्रेय कामकलिं कामप्रस्तासु मुश्चानुबन्धम् । महिलामु दोषविषवाहीषु प्रकृति है। दीप अनुक्रम [१०७] JIMEReatinatandana ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) “भक्तपरिज्ञा" - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं संस्कृतछाया) ............------- मूलं [११४] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||११४|| भक्तपरिज्ञालासु दोसविसवल्लरीसु पयई नियच्छतो ॥ ११४ ॥ ३८९ ॥ महिला कुलं सुर्वसं पियं सुझं मायरं च पिअर ब्रह्मचर्यम् च । विसयंधा अगणंती दुक्खसमुहम्मि पाडेइ ॥ ११५ ॥ ३९॥ नीअंगमाहिं सुपओहराहिं उप्पिच्छम-17 ॥२७॥ धरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहि व गिरिवरगुरुआवि भिजंति ॥ ११६ ।। ३९१ ।। सुहृवि जिआसु सुहृवि पिआसु सुदुवि परूढपेमासु । महिलासु भुअंगीसु व वीसंभं नाम को कुणइ ? ॥ ११७ ॥ ३९२ ॥ वीसंभ-द निम्भरंपिहु उवयारपरं परूढपणयंपि । कयविप्पिअंपिअंमत्ति निति निहणं हयासाओ ॥ ११८ ॥ ३९३ ॥ ४ रमणीभदसणाओं सोमालंगीओ गुणनिषद्धाओ। नवमालइमालाउ व हरति हिअयं महिलिआओ ॥११९॥ || ३९४ ॥ किंतु महिलाण तासिं दंसणसुंदरजणिअमोहाणं । आलिंगणमइरा देह वज्झमालाण व विणासंद ॥१२० ।। ३९५॥ रमणीण दंसणं व सुंदरं होउ संगमसुहेणं । गंधुचिय सुरहो मालईइ मलणं पुण विणासो । नियच्छन् । ११४ । महिला कुलं सुवंशं प्रियं सुतं मातरं च पितरं च । विषयान्धाऽगणयन्ती दुःखसमुद्रे पातयति ॥ ११५ ।। नीचै र्गमामिः सुपयोधरामिरुत्प्रेक्ष्यमन्थरगतिमिः । महिलाभिर्निनगाभिरिव गिरिवरगुरुका अपि भिद्यन्ते ॥ ११६ ॥ सुष्टुपि जितासु सुपि एप्रियासु सुनुषि प्ररूतप्रेममु । महिलासु भुजङ्गीविव विनम्भ नाम कः करोति । ॥ ११७ ॥ विअम्भनिर्भरमपि उपकारपरं प्ररूढपणयमपि । कृतविधियं पति झदिति नयन्ति निधनं हताशाः ॥ ११८ ।। रमणीयदर्शनाः सुकुमालानयो गुणनिषद्धाः । नवमालतीमाला इव हरन्ति ||॥२७ हृदयं महिलाः ॥ ११९ ।। किन्तु महिलानां तासां दर्शनसौन्दर्यजनितमोहानाम् । आलिङ्गनमचिरादाति वध्यमालानामिव विनाशम् । दीप अनुक्रम [११४] FarmIISTANUMON ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१२२] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१२२|| ॐ4: 55 ॥ १२१ ॥ ३९० ॥ साकेअपुराहिवइ देवरई रज्जसुक्खपभट्ठो। पंगुलहेतुं छुढो बुढो अ नईइ देवीए ॥ १२२॥ ॥ ३९७ ॥ सोअसरी दुरिअदरी कवडकुडी महिलिआ किलेसकरी । बहरविरोअणअरणी दुक्खखणी सुक्खपरिवक्खा ॥ १२३ ।। ३९८ ॥ अमुणिमणपरिकम्मो सम्मं को नाम नासिउं तरह । वम्महसरपसरोहे विहिच्छोहे मयच्छीण ? ।। १२४ ॥ ३९९ ।। घणमालाओ व दूरुनमंतमुपओहराउ वढुति । मोहविसं महिलाओ3. अलकविसं व पुरिसस्स ॥ १२५ ॥ ४०० ॥ परिहरसु तओ तार्सि दिहि दिट्ठीविसस्स व अहिस्स । जं रम-1 गणिनपणयाणा चरिसपाणे विणासंति ॥ १२६ ।। ४०१॥ महिलासंसग्गीए अग्गी इव जं च अप्पसारस्स | मयणं व मणो मुणिणोऽविहंत सिग्घं चि विलाइ ॥ १२७ ॥ ४०२ ॥ जइवि परिचत्तसंगो तवतणुअंगो ॥ १२० ॥ रमणीनां दर्शनमेव सुन्दरं कृतं सामसुखेन । गन्ध एव सुरमिर्मालत्या मर्दनं पुनर्विनाशः ॥ १२१ ॥ साकेतपुराधिपतिदेवरती राज्यसुखपभ्रष्टः । पाहेतोः क्षिप्तो न्यूढच नद्या देव्या ।। १२२ ।। शोकसरित् दुरितदरी कपटकुटी महिला छेशकरी | रवि-15 रोचनाऽरणिर्दुःखखनिः सुखप्रतिपक्षा ॥ १२३ ॥ अज्ञातमन:परिकर्मा सम्यक् को नाम नंगुं शक्नोति । मन्मधशरप्रसरौघे दृष्टिक्षोभे मृगाझीणाम् ।।। १२४ ।। धनमाला इव दूरोन्नमत्सुपयोधरा वर्द्धयन्ति । मोह विष महिला अलकेविषवत्पुरुषस्य ।। १२५ ।। परिहर तत-12 तासो राष्टिं दृष्टिविषस्येवाहेः । यद् रमणीनयनबाणाचारित्रप्राणान् विनाशयन्ति ।। १२६ ॥ महिलासंसर्गेण अग्रेरिख यचालसारस्य । मदन-15 बन्मनो मुनेरपि हन्त ! शीघ्रमेव विलीयते ।। १२७ ।। यद्यपि परित्यक्तसङ्गस्तपसन्वङ्गस्नथाऽपि परिपतति । महिलासंसर्या कोशाभवनोषित दीप अनुक्रम [१२२] ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१२८] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१२८|| तपरिशातहावि परिवडा । महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिव रिसी ॥ १२८ ॥ ४०३ ॥ सिंगारतरंगाए विलास-INI ब्रह्मचर्य 8 वेलाइ जुवणजलाए । पहसिअफेणाइ मुणी नारिनईए न बुईति? ॥ १२९॥ ४०४ ॥ विसयजलं मोहकलं अपरिविलासविन्योअजलपराइन्नं । मयमयरं उत्तिन्ना तारुन्नमहन्नवं धीरा ॥१३०॥ ४०५ ॥ अम्भितरवाहिरए ग्रहता सबै संगे (गंधे) तुमं विवजेहि । कयकारिअणुमईहि कायमणोवायजोगेहिं ॥ १३१ ॥ ४०६॥ संगनिमित्त मारह भणइ अलीअं करेइ चोरिकं । सेवह मेहुण मुच्छं अप्परिमाणं कुणइ जीवो ॥१३२ ॥ ४०७ ॥ संगो महाभयं जं बिहेडिओ सावरण संतेणं । पुत्तेण हिए अत्थंमि मणिवई कुंचिएण जहा ॥ १३ ॥ ४०८ ॥ सबग्गंधविमुको सीईभूओ पसंतचित्तो अ । जं पावह मुत्तिसुहं न चकवट्टीवि तं लहइ ॥१३४ ॥ ४०९॥ निस्सल्लस्सेह महत्वयाई अक्खंडनिधणगुणाई । उवहम्मति अताई नियाणसल्लेण मुणिणोऽवि ।। १३५ ॥ ४१०॥ पिरिष ॥१२८।। ऋङ्गारतरकायां विलासवेलायां यौवनजलायां । के के जगति पुरुषा (प्रहसितफेणायां) मुनयः नारीनद्यां न शुद्धन्ति ? ॥१२९॥ | विषयजलं मोहकलं विलासविधोकजलचराकीर्णम् । मदमकरमुत्तीर्णास्तारुण्यमहार्णवं धीराः ॥ १३० ।। अभ्यन्तरवाशान् सर्वान् सङ्गान् | (पन्थान ) खं विवर्जय । कृतकारितानुमतिभिः कायमनोवागयोगः ॥ १३१॥ सननिमित्त मारयति भणयलीकं करोति चौर्यम् । सेवते | मथुन मूछामपरिमाणां करोति जीवः ।। १३२ ॥ सङ्गो महाभयं वदाधितः श्रावकेण सता । पुत्रेण हृतेऽर्थे मुनिपतिः कुचिकेन यथा| ॥२८॥ ६॥ १३३ ।। सर्वप्रन्यचिमुक्तः शीतीभूतः प्रशान्तचित्तश्च । यत्प्राप्नोति मुक्तिमुखं न चक्रवर्त्यपि तत् लभते ॥ १३४ ॥ निःशल्यस्येह महा-8 दीप अनुक्रम [१२८] + JIHERadinamina ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा" - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१३६] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१३६|| ! अह रागदोसगन्भं मोहग्गम्भं च तं भवे तिविहं । धम्मत्धं हीणकुलाइपत्धणं मोहगम्भं च ॥ १३६ ।। ४११॥ रागेण गंगदत्तो दोसेणं विस्सभूइमाईआ। मोहेण चंडपिंगलमाईआ हुति दिदंता ॥ १३७ ।। ४१२ ॥ अग-2 आणि जो मुक्खसुहं कुणइ निआणं असारसुहहेर्छ । मो कायमणिकएणं वेल्लिअमणि पणासेइ ॥ १३८॥ G४१३ ॥ दुक्खक्खय कम्मक्खय समाहिमरणं च बोहिलाभो अ। एअं पत्धेअयं न पत्थणिज्जं तओ अनंत M॥ १३९ ॥ ४१४ ॥ उज्झिअनिआणसल्लो निसिभत्तनिजत्तिसमिहगुत्तीहिं । पंचमहत्वयरक्खं कयसिवसुक्खं | पसाहेद ॥१४०॥ ४१५॥ इंदिअविसयपसत्ता पति संसारसायरे जीवा । पक्खिा छिन्नपक्खा सुसीलगुणपेहुणविद्रणा ॥ १४१ ॥ ४१६ ।। न लहइ जहा लिहंतो मुहिल्लिअं अद्विअं रसं सुणओ । सो तइ तालुप्रतान्यखण्डनिर्षणगुणानि । उपहन्यन्ते च तानि निदानशल्येन मुरपि ॥ १३५ ।। अथ रागद्वेषगर्भे मोहगर्भ च तद्भवेत्रिविधम् । धर्मार्थ हीनकुलावि प्रार्थनं मोहगर्भ प तत् ॥ १३६ ।। रागेण गणपतो द्वेषेण विश्वभूत्यादिकाः। मोहेन चण्डपिङ्गलाद्याः (निदानेषु) भवन्ति दृष्टान्ताः ॥१३७।। अगणयित्वा यो मोक्ष सुखं करोति निदानस्सारसुत्सद्देवोः। स काचमणिकृते वैदूर्यमणि प्रणाशयति॥१३८॥ समयः कर्मक्षयः समाधिमरणं च बोधिलाभश्च । एतत् प्रार्थयिनव्यं न प्रार्थनीयं ततोऽन्यत् ॥ १३९ ॥ उज्झितनिदानशल्यो निशाभक्तनिवृत्तिसमितिगुमिमिः । पञ्चमहावतरक्षां कृतशिवसौख्यां प्रसाधयति ।। १४०॥ इन्द्रियविषयप्रसक्ताः पतन्ति संसारसागरे जीवाः ।। अपक्षिण इस छिमपक्षाः सुशीलगुणपिच्छविहीनाः ।। १४११न लमते यथा लिन झाकाम्यो म था। रोगनालगं विलिहन दीप 4AC अनुक्रम [१३६] JAMERananathaiand wjanetarian ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१४२] ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१४२|| भक्तपरिज्ञा अरसि विलिहतो मन्नए सुक्खं ॥ १४२ ॥ ४१७॥ महिलापसंगसेवी न लहइ किंचिवि सुहं तहा पुरिसो। सो मन्नए वराओ सयकायपरिस्सम सुक्खं ॥ १४३ ॥ ४१८॥ सुदुवि मग्गिजतो कत्थवि केलीइ नस्थि जहा इन्द्रिय सारो । इंदिअविसएस तहा नस्थि सुहं सुहृवि गविलु ॥ १४४ ॥ ४१९॥ सोएण पवसिअपिआ चक्खूरा-181 है।एण माहुरो वणिओ । घाणेण रायपुत्तो निहओ जीहाइ सोदासो॥१४५ ॥ ४२० ॥ कासिदिएण दुट्ठो नहो । सोमालिआमहीपालो । इविकेणवि निहया किं पुण जे पंचसु पसत्ता? ॥१४६ ॥ ४२१ ॥ विसयाविक्खो निवडा निरविक्खो तरह दुत्तरभवोहं । देवीदेवसमागयभाउयजुअलं व भणिअंच ॥१४७॥४२॥ छलिआर है अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पचयणसारे निरावयक्खेण होअयं ॥१४८॥ ४२३ ॥ विसए अवियक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे । विसएसु निराविक्खा तरंति संसारकंतारं ॥ १४९॥ ४२४ ।।। ४ामन्यते सौग्यम् ॥१४२।। महिलाप्रसङ्गसेवी न लभते किश्चिदपि सुखं तथा पुरुषः । स मनुते बराक: खकावपरिश्रमं सौण्यम् ॥१४।।। सुष्टुपि मार्यमाणः कुत्रापि कदल्यां यथा नास्ति सारः । इन्द्रियविषयेषु तथा नास्ति सुखं सुष्वपि गवेषितम् ॥ १४४ ॥ श्रोत्रेण प्रोषितपिता पधुरागेण माथुरो वणिक् । प्राणेन राजपुत्रो निहतो जिलया सौदासः ॥ १४४ ॥ स्पर्शनेन्द्रियेण दुष्टो नः सुकुमालिकामहीपालः । एकैकेनापि निहताः किं पुन] पञ्चसु प्रसक्ताः ॥ १४६ ।। विषयापेक्षो निपतति निरपेक्षसरति दुस्तरभवौषम् । देवीदेवस-18 मागतभ्रातयुगलवद्भणितं च ।। १४७ ॥ छलिता अपेक्षमाणा निरपेक्षा गता अविनेन । तस्मात्प्रवचनसारे (लब्धे ) निरपेक्षेण भवित- ||२९ ।। व्यम् ॥ १४८ ॥ विषयानपेक्षमाणाः पतन्ति संसारसागरे घोरे । विषयेषु निरपेक्षासरन्ति संसारकान्तारम् ॥ १४९ ।। दीप अनुक्रम [१४२] JInthaatihaniindian ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) "भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र-४ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१५०] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र - [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१५०|| |ता धीर । पीपलेणं दुईते दमसु इंदिअमईदे । तेणुक्खयपडिवक्खो हराहि आराहणपडागं ॥ १५० ॥ ४२५ ॥ ताकोहाईण विवागं नाऊण य तेसि निग्गहेण गुणं । निम्गिण्ह तेण सुपुरिस ! कसायकलिणो पयसेणं ॥१५१॥ PI४२६ ॥ ज अइतिक्खं दुक्खं जं च मुहं उत्तमं तिलोईए। तं जाण कसायाण बुट्टिक्खपउ सर्व ॥१५२।। ॥ ४२७ ॥ कोहेण नंदमाई निहया माणेण फरसुरामाई। मायाइ पंडरवा लोहेणं लोहनंदाई ॥१५३॥४२८॥ इअ उयएसामयपाणएण पल्हाइअम्मि चित्तंमि । जाओ सुनिवओ सो पाऊण व पाणिअंतिसिओ ॥१५४।। ॥ ४२९ ॥ इच्छामो अणुसहि भंते ! भवपकतरणदढलहि । जं जह उत्तं तं तह करेमि विणओणओ भणइ7 ४।१५५ ॥ ४३०॥ जइ कहवि अमुहकम्मोदएण देहम्मि संभवे विअणा । अहवा तण्हाई आ परीसहा से दाउदीरिजा ॥ १५६ ।। ४३१ ॥ निद्धं महुरं पल्हायणिजहिअयंगम अणलिअंच। तो सेहावेअबो सो खवओ तद् धीर! भृतिबलेन दुर्दान्तान् दाम्येन्द्रियमृगेन्द्रान् । तेनोत्सातप्रतिपक्षो हराराधनापताकाम् ॥ १५० ॥ क्रोधादीनां विपाकं ज्ञात्वा च तेषां निप्रहेण गुणम् । निगृहाण तेन सुपुरुष! कषायकलीन प्रयनेन ॥ १५१ ॥ यतितीक्ष्णं दुःखं यच्च सुखमुत्तमं त्रिलोक्याम् । नजानीहि दकषायाणां वृद्विभयहेतुकं सर्वम् ।। १५२ ।। क्रोधेन नन्दाद्या निहता मानेन परशुरामाचाः । मायया पाण्दुगर्या लोभेन लोभनन्यादयः P॥१५३ ॥ इत्युपदेशामृतपानेन प्रहादिते चित्ते । जातः सुनिर्वृतः स पीत्वेव पानीयं तृषितः ॥ १५४ ॥ इच्छामोऽनुशासि भदन्त ! भिवपङ्कतरणदृढयष्टिम् । यद् यथोक्तं तत्तथा करोमि विनयावनतो भणति ।। १५५ ।। यदि कथमप्यशुभकर्मोत्येन देहे संभवेद् वेदना । | अथवा तूपाचाः परीपहास्तस्मोदीरयेयुः ॥ १५६ ।। निग्यं मधुरं प्रदादनीयं दृदयङ्गममनलीकं च। तदा शिवयितव्यः स क्षपकः । दीप अनुक्रम [१५०] JIMEReatinatandana अथ कषायानां सविपाकानां वर्णनं क्रियते ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक ॥ १५७ ॥ दीप अनुक्रम भक्तपरिज्ञा ॥ ३० ॥ Jan Einma “भक्तपरिज्ञा" प्रकीर्णकसूत्र ४ ( मूलं संस्कृतछाया) मूलं [१५] .. आगमसूत्र [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... पन्नते ॥ १५७ ॥ ४३२ ॥ संभरसु सुअण ! जं तं मज्झमि चविहस्स संघस्स । बूढा महापना अह आराहहस्सामि ॥ १५८ ॥ ४३३ ॥ अरिहंत सिद्ध केवलिपशक्वं सहसंघसक्खिस्स । पञ्चवाणस्स कयस्स भंजणं नाम को कुणइ ? ॥ १५९ ॥। ४३४ || भालुंकीए करुणं खचंतो घोरविअणत्तोवि । आराहणं पवन्नो | झाणेण अवंतिसुकुमालो || १६० || ४३५ || मुग्लिगिरिंमि सुकोसलोऽवि सिद्धत्थदइअओ भयवं । वधीए खज्जतो पडिवनो उत्तमं अहं ।। १६१ ।। ४३६ ।। गुट्टे पाओवगओ सुबंधुणा गोमए पलिविअम्मि । डज्झतो चाणक्को पडिवन्नो उत्तमं अहं ।। १६२ ।। ४३७ ॥ अवलंबिण सत्तं तुमंपि ता धीर धीरयं कुणसु । भावेसु अनेगुन्नं संसारमहासमुदस्स || १६३ || ४३८ जम्मजरामरणजलो अणाहमं वसणसावयाइन्नो । जीवाण दुक्खहेऊ कटुं रुद्दो भवसमुदो ॥ १६४ ॥ ४३९ ।। धन्नोऽहं जेण मए अणोरपारंमि भवसमुद्दम्मि । भवसयप्रज्ञापयता || १५७ ॥ स्मर सुजन ! तद् यत् चतुर्विधस्य सङ्घस्य मध्ये | अहमाराधविष्यामीति महाप्रतिज्ञा व्यूढा ॥ १५८ ॥ अईत्सि केवलिप्रत्यक्षं सर्वसङ्घसाक्षिणः । कृतस्य प्रत्याख्यानस्य भङ्गं को नाम करोति ? ।। १५९ ।। शिवया करुणं खाद्यमानो घोरवेदनातोंऽपि । आराधनां प्रतिपन्नो ध्यानेनावन्तीसुकुमालः ॥ १६० ॥ मात्यगिरौ सुकोशलोऽपि सिद्धार्थदयितो भगवान् व्याघ्या साथमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ॥ १६२ ॥ गोठे पादपोपगतः सुबन्धुना गोमये प्रदीप्ते दामानञ्चाणाक्यः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् ॥ १६२ ।। अवलम्ब्य सम्वं त्वमपि तद्वीर! धीरतां कुरु भावय च नैर्गुण्यं संसारमहासमुद्रस्य ॥ १६३ ॥ जन्मजरामरणजलोऽनादिमान् व्यस नश्वापदाकीर्ण जीवानां दुःखहेतुः कष्टं रुद्रो भवसमुद्रः ॥ १६४ ॥ धन्योऽहं येन मयाऽनर्वाकूपारे भवसमुद्रे भवशतसहस्रदुर्लभं 1 PPP Use Oy ... गाथा १६२ पश्चात् अत्र एक प्रक्षेप-गाथा वर्तते [१६३] रोहिडगम्मि सत्तीहओ वि कुंचेण अग्गिनिवदइओ | तं वेयणमहियासिय पडिवन्नो उत्तमं अट्ठे || प्र०-१ || रोहितके शक्तिहतोऽपि कुञ्चेन अग्निनृपदयित । तं वेदनमध्यासित प्रतिपन्न उत्तमं अर्थम् || ~26~ कषायजयः वेदनासहन ॥ ३० ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक || १६६ || दीप अनुक्रम [१६७ ] “भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र - ४ (मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [ १६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया सहस्सदुलहं लद्धं सद्धम्मजाणमिणं ॥ १६५ ॥ ४४० ॥ एअस्स पभावेण पालितस्स सह पयत्तेणं । जम्मंतरेऽवि जीवा पार्वति न दुक्खदोगचं ॥ १६६ ॥ ४४१ || चिंतामणी अडवो एअमपुत्रो अ कप्परुक्खुत्ति । एअं परमो मंतो एअं परमामयसरिच्छं ॥ १६७ ॥ ४४२ ॥ अह मणिमंदिर सुंदर फुरंत जिणगुणनिरंजणुजोओ। पं चनकारसमे पाणे पणओ बिसज्जेइ ॥ १६८ ॥ ४४३ ।। परिणामविसुद्धीए सोहम्मे सुरवरो महिडीओ। आ राहिऊण जाय भत्तपरिन्नं जहन्नं सो ॥ १६९ ॥ ४४४ ॥ उक्कोसेण गिहत्थो अनुअकष्पंमि जायए अमरो। निघाणमुहं पावद साहू सङ्घट्टसिद्धिं वा ॥ १७० ॥ ४४५ ।। इअ जोइसरजिणवीरभदभणिआणुसारिणीमिणमो भत्तपरिनं धन्ना पति निसुणंति भावेति ॥ १७१ ॥ ४४६ ।। सत्तरिसयं जिणाण व गाहाणं समयवित्तपन्नत्तं आराहंतो विहिणा सासयसुक्खं लहइ मुक्खं ॥ १७२ ॥ ४४७ ॥ इति भत्तपरितापयण्णं सम्मतं ॥ ४ ॥ धं सद्धर्मयानमिदम् ।। १६५ ।। एवस्य प्रभावेण पात्यमानस्य सकृत् प्रयमेन जन्मान्तरेऽपि जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदीगंत्यम् ॥ १६६ ॥ | चिन्तामणिरपूर्व एतदपूर्वञ्च कल्पवृक्ष इति । एतत् परमो मन्त्र एतत्परमामृतसदृक्षम् ।। १६७ || अथ मनोमन्दिरे सुन्दरकुरज्जिनगुणनिरञ्जनोद्योतः । पञ्चनमस्कारसमं प्राणान् प्रणतो विसर्जयति ।। १६८ ।। परिणामविशुद्धया सौधर्मे मुखरो महर्द्धिकः आराध्य जायते | भक्तपरिक्षां जघन्यां सः ॥ १६९ ॥ उत्कृष्टेन गृहस्थोऽयुतकल्पे जायतेऽमरः । निर्वाणसुखं प्राप्नोति साधुः सर्वार्थसिद्धिं वा ॥ १७० ॥ इति योगीश्वरजिन वीरभद्रभणितानुसारिणीमिमाम् । भक्तपरिज्ञां धन्याः पठन्ति शृण्वन्ति भावयन्ति ॥ १७१ ॥ जिनानां सप्ततं शतमिव गाथानां समयक्षेत्रे प्रज्ञप्तम् । तत् आराघवन् विधिना शाश्वतसौरूपं छमते मोक्षम् ।। १७२ ।। इति भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णकं समाप्तम् ॥ ४ ॥ Use y च. स. ६ Emation भक्तपरिज्ञा-आराधनायाः फलम् मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र २७) “भक्तपरिज्ञा" परिसमाप्तः ~27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः [27] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। ' "भक्तपरिज्ञा-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "भक्तपरिज्ञा” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~28M