Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ को समझने वाले आप भी हैं। उनकी नास्ति नहीं हुई, नास्ति हो भी कैसे सकती है ? समय-समय पर प्रबुद्ध श्रमण समुदाय अपनी प्रतिभा से अनेक दिव्य, अमूल्य ग्रन्थों का, सर्जन करता रहा है । वर्तमान के कतिपय श्रमणों से समाज को बहुत आशाएं हैं । वक्ता अपनी शैली में समाज की संरचना करता है । चिंतक अपनी रीति से समाज की चिन्ता करता है। विद्वान् अपनी अनुपम विचार शक्ति से समाज का संचालन करता हैं । संयमी अपने संयम के तेजस् से ही समाज के दुर्गुणों को अपगत करता है । लेखक समय की आवश्यकता के अनुरूप अपनी लेखनी चलाता है । तथा कवि ! वह तो निरंकुश होता है, जो चाहे बना डाले । कवय: निरंकुशाः । वक्ता तथा लेखक का समाज के प्रति महान दायित्व होता है। वक्ता इंगित करता है । लेखक उपाय भी प्रस्तुत कर देता है । लेखक का कर्तव्य यही है कि वह समाज-हितार्थ लिखे । उसे २-४ व्यक्ति नहीं, एक समाज नहीं, एक राष्ट्र नहीं, समस्त विश्व पढ़े । इस प्रकार से लेखक का दायित्व भो महान् है तथा उस का क्षेत्र भी विस्तृत है। प्रस्तत ग्रंथ हेमचन्द्राचार्य का योग विषयक ग्रन्थ है। इसके विवरण एवं विवेचन कर्ता हैं विद्वद्रत्न, वक्ता मुनि श्री यशोभद्र विजय जी। ___ जब इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिए तैयारी प्रारम्भ की गई 'तो मुनि श्री जी के मधुर स्मित से ऐसा अनुभव हुआ कि यह ग्रंथ महज जिम्मेदारी की भावना से ही हमें नहीं सौंपा गया । सम्भवतः कार्यकर्ताओं की शक्ति को परखने का भी यह एक माध्यम था। सत्यं भी है । पहले परखो ! मुनि जी का स्मित यह कह रहा था कि कार्य करो, बाद में हास्य का श्री गणेश होगा और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 330