Book Title: Yogdarshan Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Sukhlal Sanghavi View full book textPage 5
________________ (२) विषयमें सांख्य और जैन शास्त्रका मत-भेद है तथा जिस जिस विषयमें मतभेद न होकर सिर्फ वर्णन-पद्धति या सांकेतिक शब्द मात्रका भेद है उस उस विषयके वर्णनवाले सूत्रोंके ऊपर ही वृत्तिकारने वृत्ति लीखी है, और उसमें भाष्यकारके द्वारा निकाले गये सूत्रगत आशयके ऊपर जैन प्रक्रियाके अनुसार या तो आक्षेप किया है या उस आशयके साथ जैन मन्तव्यका मिलान किया है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि यह वृत्ति योगदर्शन तथा जैन दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तोंके विरोध और मिलानका एक छोटा सा प्रदर्शन है । यही कारण है कि प्रस्तुत वृत्ति सव योगसूत्रोंके ऊपर न हो कर कतिपय सूत्रोंके ऊपर ही है। योगसूत्रों की कुल संख्या १९५ की है और वृत्ति सिर्फ २७ सूत्रोंके ऊपर ही है । सव सूत्रोंकी वृत्ति न होने पर भी प्रस्तुत पुस्तकमें हमने सूत्र तो सभी दे दिये हैं पर भाष्य तो सिर्फ उन्हीं सूत्रोंका दिया है जिन पर वृत्ति है। ऐसा कर'नेके मुख्य दो कारण हैं (१) सूत्रोंका परिमाण वडा नहीं है 'और (२) वृत्ति पढनेवालेको कमसे कम मूल सूत्रोंके द्वारा भी संपूर्ण योगप्रक्रियाका ज्ञान करना हो तो इसके लिए अन्य 'पुस्तक ढूँढनेकी आवश्यकता न रहे। इसके विपरीत भाष्यका परिमाण बहुत बड़ा है और वह कई जगह अच्छे ढंगले छप भी का है । यद्यपि वृत्ति पढनेवालेको योगदशनके मौलिक सिद्धान्त जानने हों तो उसका वह उद्देश्य भाष्य विना देखे भी सिद्ध हो सकता है । फिर भी वृत्तिवाले सूत्रोंका उपयोगी भाष्य उस उस सूत्रके नीचे इस लिए दिया है कि वृत्ति समझने में पाठकॉको अधिक सुभीता हो, क्योंकि वृत्तिकारने भाष्यकारके आशयको ध्यानमें रख कर ही अपनी वृत्तिमें अर्थ चक.मतभेद और ऐकमत्य दिखाया है। केवल जैन दर्शनको जाननेवाले संकुचित दृष्टिके कारण यह नहीं जानतेPage Navigation
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