Book Title: Vrushabhdev tatha Shiv Samabandhi Prachya Manyataye Author(s): Rajkumar Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 7
________________ डॉ० राजकुमार जैन : वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताएँ : ६१२ के समान अविनाशी अमरपद के अधिकारी हो जाते हैं. ' प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि अथर्वन द्वारा बतलाई गई याज्ञिक प्रक्रिया के अनुसार अज (जौ), अक्षत ( चावल ), तथा घृत - इनका प्रयोग आहुति के लिये किया जाता था और पूजा के समय भगवान् वृषभ का सान्निध्य बनाये रखने के लिए 'वषट्' शब्द का और उनके अर्थ आहुति देते समय उन द्वारा घोषित स्वात्म महिमा को ध्यान में रखने के लिये 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग आवश्यक था. क्योंकि 'वषट्' उच्चारण द्वारा भौतिक अग्नि की स्थापना करते हुए उपासक जन वास्तव में वृषभ भगवान् की ही स्थापना करते हैं. और 'स्वाहा' शब्द द्वारा भौतिक अग्नि में आहुति देते हुए भी अपनी आत्म- महिमा को ही जागृत करते हैं. वषट् शब्द का उच्चारण किये बिना अग्नि की उपासना भौतिक अग्नि की ही उपासना है. ठः ठः जैन पूजाग्रंवों तथा उनके दैनिक पूजा-विधानों में वौषट् (इति आह्वाननम्) ङ (दति स्थापनम् और वषट् ), [इति सन्निधीकरणम् ] - इन तीन शब्दों द्वारा भगवान् का आह्वान, स्थापन तथा सन्निधीकरण किया जाता है. उक्त बीजमंत्रों के कोष्ठकों में दिये गये अर्थ जैन परम्परा में अत्यन्त प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जो भगवत्पूजा के लक्ष्य के सम्बन्ध में भी भक्तजन को एक नवीन दृष्टि का दान करते हैं, इस प्रकार अग्नि द्वारा पूजा विधि की परम्परा उतनी ही प्राचीन निश्चित होती है जितना भगवान् वृषभ देव का काल. वृषभ के विविधरूप और इतिवृत्त जन्म में सर्वार्थसिद्धि विमान में एक महान् ऋद्धिधारी देव थे. नाभिराय की रानी मरुदेवी के गर्भ में अवतरण किया. इनके कुबेर के द्वारा हिरण्य की वृष्टि से भरपूर कर दिया गया. अतः हुए. गर्भावतार के समय भगवान् की माता ने स्वप्न में एक अतः इनका नाम वृषभ रक्खा गया. जन्म से ही यह मति, श्रुत, जैन परम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभदेव अपने पूर्व आयु के अंत में उन्होंने वहां से चय कर अयोध्यानरेश गर्भ में आने के छह माह पूर्व से ही नाभिराय का भवन जन्म लेने के पश्चात् यह हिरण्यगर्भ के नाम से प्रसिद्ध सुन्दर बैल को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा था, अवधि इन तीन ज्ञानों से विशिष्ट थे, अतः इनकी जातवेदस् नाम से प्रसिद्धि हुई. बिना किसी गुरु की शिक्षा के ही अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे, इन्होंने जन्म-मृत्यु से अभिव्याप्त संसार में स्वयं सत्, ऋत, धर्म एवं मोक्षमार्ग का साक्षात् - भोगयुग की समाप्ति पर इन्होंने ही प्रजा को कृषि, अतः यह विधाता, विश्वकर्मा एवं प्रजापति नामों से तथा भोगों से निर्विण्ण हुए तथा संयम एवं स्वाधीनतानामों से प्रसिद्ध हुए. - कार किया था, अतः वह स्वयंभू तथा सुकृत नामों से प्रसिद्ध हुए. पशुपालन तथा विविध शिल्प उद्योगों की शिक्षा प्रदान की थी, विख्यात हुए. ये ही अपनी अन्त: प्रेरणा से संसार - शरीर पथ के पथिक बनकर प्रव्रजित हुए, अतः वशी, यति एवं व्रात्य इन्होंने अपनी उम्र तपस्या, श्रमसहिष्णुता और समवर्तना द्वारा अपने समस्त दोषों को भस्मसात् किया, अतः यह रुद्र, श्रमण आदि संज्ञाओं से विख्यात हुए. इन्होंने अज्ञानतमस् का विनाश करके अपने अन्तस् में सम्पूर्ण ज्ञान सूर्य को उदित किया, भव्य जीवों को धार्मिक प्रतिबोध दिया और अन्त में देह त्याग कर सिद्ध लोक में अक्षय पद की प्राप्ति की. जैन परम्परा में जो वृत्त गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण के नाम से प्रसिद्ध है और जिन्हें लोक-कल्याणी होने से कल्याणक की संज्ञा दी गई है. वैदिक परम्परा में वही [१] हिरण्यगर्भ [२] जातवेदस्, अग्नि, विश्वकर्मा, प्रजापति, [२] रुद्र, पुरुष, बाय, [४] सूर्य, आदित्य, अर्क, रवि, विवस्वत, ज्येष्ठ, ब्रह्मा, वाक्पति, ब्राह्मणस्पति गृहस्यति, [५] निगूढपरमपद, परमेष्ठीपद, साध्यपद आदि संज्ञाओं से प्रसिद्ध है. Jain Education Internations १. अथर्ववेद ४, ११, १२. २. "अजैर्यष्टके. " जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, २७, ३८, १६४. , www.jainelibrary.orgPage Navigation
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