Book Title: Vrushabhdev tatha Shiv Samabandhi Prachya Manyataye
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 10
________________ ६१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय इसी सूक्त के अन्य मन्त्र में कहा है'-'हे मरुतो, तुम्हारी जो निर्मल औषधि है, उस औषधि को हमारे पिता मनु (स्वयं ऋषभनाथ) ने चुना था, वही सुखकर और भयविनाशक औषधि हम चाहते हैं.' विशुद्ध आत्म-तत्वज्ञान ही यह औषधि है, जिसे प्राप्त कर रुद्रभक्त संसारजयी और सुखी होने की कामना करता है. प्रस्तुत सूक्त के तृतीय मंत्र में उसकी जीवन-साधना देखिए. वह प्रार्थना करता है: 'हे वज्रसंहनन रुद्र, तुम उत्पन्न हुए समस्त पदार्थों में सर्वाधिक सुशोभित हो, सर्वश्रेष्ठ हो और समस्त बलशालियों में सर्वोत्तम बलशाली हो. तुम मुझे पापों से मुक्त करो और ऐसी कृपा करो, जिससे मैं क्लेशों तथा आक्रमणों से युद्ध करता हुआ विजयी रहूँ.' एक सूक्त में रुद्र का सोम के साथ आह्वान किया गया है और अन्यत्र सोम को वृषभ की उपाधि दी गई है. रुद्र को अनेक बार अग्नि कहा गया है और एक स्थल पर उन्हें “मेधापति' की उपाधि से भी विभूषित किया गया है.६ एक स्थान पर "द्विवर्हा" के रूप में भी उल्लेख किया गया है, जिसका सायण ने अर्थ किया है-"अर्थात् जो पृथ्वी तथा आकाश में परिवृद्ध हैं." ऋग्वेद के उत्तर भाग के एक सूक्त में कहा गया है कि रुद्र ने केशी के साथ विषपान किया. इसी सूक्त के प्रथम मंत्र में कहा गया है कि केशी इस विष (जीवनस्रोत-जल) को उसी प्रकार धारण करता है, जिस प्रकार पृथ्वी और आकाश को. यद्यपि सायण ने केशी का अर्थ सूर्य किया है, परन्तु केशी का शाब्दिक अर्थ जटाधारी होता है और इस सूक्त के तीसरे तथा बाद के मन्त्रों में केशी की तुलना उन मुनियों से की गई है जो अपनी प्राणोपासना द्वारा वायु की गति को रोक लेते हैं और मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (परमानन्द सहित) वायुभाव (अशरीरी वृत्ति) को प्राप्त होते हैं और सांसारिक मर्यंजनों को जिनका केवल पार्थिव शरीर ही दिखलाई देता है.६ अथर्ववेद में भी रुद्र का व्याधि-विनाश के लिये आह्वान किया गया है. कुछ मन्त्रों में रुद्र को 'सहस्राक्ष' भी कहा गया है." इसी वेद के पन्द्रहवें मण्डल में रुद्र का व्रात्य के साथ उल्लेख किया गया है और सूक्त के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि 'वात्य महादेव बन गया, व्रात्य ईशान बन गया है.१२ तथा यह भी लिखा है कि "वात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी.१३ सायण ने व्रात्य की व्याख्या करते हुए लिखा है : १. या वो मेषजः मरुतः शुचोनि या शान्तमा वृपणों या मयोमु. यानि मनुवृणीता पिता नस्ताशंच योश्च रुद्रस्य वश्मि.-वहो २,३३, १३. २. श्रेष्ठो जातस्य रुद्र : श्रियासि तवस्तमस्तवसां वज्रवाहो. पर्षिणः पारमहंसः स्वस्ति विश्वा अभीति रपसो युयोधि. वही २, ३३, ३. ३. ऋग्वेद : ६. ७४. ४. वही : ६, ७,३. ५. वही: २,१,६ ३, २, ५. ६. वही: १,४३, ४. ७. बही: १,११४, ६. ८. ऋग्वेद: १,१७२, १:१, ६४, ८ तथा ६, ५, ३३, ५, ५, ६१, ४ आदि. १. ऋग्वेदः १०,१३६, २-३. १०. अथर्ववेद : ६,४४, ३, ६, ५७, १,१६,१०, ६. ११. वही : ११, २, ७... १२. वही:१५, १, ४, ५. १३. व्रात्य आसी दीपमान एव स प्रजापति समैश्यत. -अथर्ववेद १५, १. AAJ wwwण्य 010101olololol atstolo Iloil ololololololol Jain Eduation International resuTUS www.jainelibry.org मम्म्म्म्म्म

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