Book Title: Vrushabhdev tatha Shiv Samabandhi Prachya Manyataye
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 19
________________ Jain EduG डॉ० ० राजकुमार जैन : वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताएं : ६२७ आदिदेव [वृषभनाथ ] शिवगति प्राप्त हो जाने से 'शिव' इस लिंग [चिह्न] से प्रकट हुए - - अर्थात् जो शिव पद प्राप्त होने से पहले 'आदिदेव' कहे जाते थे, वे अब शिवपद प्राप्त हो जाने से 'शिव' कहलाने लगे. उत्तर तथा दक्षिण प्रान्त की यह विभिन्नता केवल कृष्ण पक्ष में ही रहती है, पर शुक्ल पक्ष के सम्बन्ध में दोनों ही एक मत हैं. जब उत्तर भारत में फाल्गुन कृष्णपक्ष चालू होगा तब दक्षिण भारत का वह माघकृष्ण पक्ष कहा जायगा. जैनपुराणों के प्रणेता प्रायः दक्षिण भारतीय जैनाचार्य रहे हैं, अतः उनके द्वारा उल्लिखित माघकृष्णा चतुर्दशी उत्तरभारतीय जन की फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी ही हो जाती है. कालमाधवीय नागर खण्ड में प्रस्तुत मासवैषम्य का निम्न प्रकार समन्वय किया गया है' : 'माघ मासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुणस्य च । कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता ।' अर्थात् दक्षिणात्य जन के माघ मास के शेष अथवा अन्तिम पक्ष की और उत्तरप्रान्तीय जन के फाल्गुन के प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी 'शिवरात्रि' कही गई है. गंगावतरण उत्तरवैदिक मान्यता के अनुसार जब गंगा आकाश से अवतीर्ण हुई तो दीर्घ काल तक शिवजी के जटाजूट में भ्रमण करती रही और उसके पश्चात् वह भूतल पर अवतरित हुई. यह एक रूपक है, जिसका वास्तविक रहस्य यह है कि जब शिव अर्थात् भगवान् ऋषभ देव को असर्वज्ञदशा में जिस स्वसंवित्तिरुपी ज्ञान गंगा की प्राप्ति हुई उसकी धारा दीर्घकाल तक उनके मस्तिष्क में प्रवाहित होती रही और उनके सर्वज्ञ होने के पश्चात् वही धारा उनकी दिव्य वाणी के मार्ग से प्रकट होकर संसार के उद्धार के लिये बाहर आई तथा इस प्रकार समस्त आर्यावर्त को पवित्र एवं आप्लावित कर दिया. गंगावतरण जैन परंपरानुसार एक अन्य घटना का भी स्मारक है. वह यह है कि जैन भौगोलिक मान्यता में गंगानदी हिमवान् पर्वत के पद्मनामक सरोवर से निकलती है. वहाँ से निकल कर वह कुछ दूर तक तो ऊपर ही पूर्वदिशा की ओर बहती है, फिर दक्षिण की ओर मुड़ कर जहाँ भूतल पर अवतीर्ण होती है, वहाँ पर नीचे गंगाकूट में एक विस्तृत चबूतरे पर आदि जिनेन्द्र वृषभनाथ की जटाजूट वाली अनेक वज्रमयी प्रतिमाएँ अवस्थित हैं, जिन पर हिमवान् पर्वत के ऊपर से गंगा की धारा गिरती है. विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के महान् जैन आचार्य यतिवृषभ ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रस्तुत गंगावतरण का इस प्रकार वर्णन किया है : 'आदिजपडिमा तायो जन-सेरखाओ। पडिमोरिम्स गंगा अभिवितुमया व सा पढद अर्थात् गंगाकूट के ऊपर जटारूप मुकुट से शोभित आदि जिनेन्द्र ( वृषभनाथ भगवान् ) की प्रतिमाएं हैं. प्रतीत होता है कि उन प्रतिमाओं का अभिषेक करने की अभिलाषा से ही गंगा उनके ऊपर गिरती है. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी प्रस्तुत गंगावतरण की घटना का निम्न प्रकार चित्रण किया है : सिरगिसीसांजसिंहास जियमभिषिन्तुमा वा चोदिया सत्य गंगा ।' अर्थात् श्री देवी के गृह के शीर्ष पर स्थित कमल की कणिका के ऊपर सिंहासन पर विराजमान जो जटारूप मुकुट १. कालमाधवीय नागर खण्ड. २. त्रिलोकप्रज्ञप्ति : ४, २३०. ३. त्रिलोक सार ५६०, गाथा संख्या. www.adfary.org

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