Book Title: Vitrag aur Sthitpragya Ek Vishleshan Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 2
________________ १. RAMMARTH AS HAR T .COVE SONG meenames Jamromansi SA SHARMA चतुर्थ खण्ठ / ८६ natyang NE KEE Kina ANTRA राग, द्वेष एवं मोह का नाश हो जाता है उसे ही वीतराग कहा जाता है। वीतराग शब्द , में स्थित 'राग' से द्वेष एवं मोह आदि विकारों का भी उपलक्षण से ग्रहण हो जाता है । व्याकरण-शास्त्र की दष्टि से 'वीतराग' शब्द में बहुव्रीहि समास है। संस्कृत में अचमाचम समास-विग्रह होगा-'वीत:-अपगतः रागः यस्मात् स वीतरागः' अथवा 'वीतः नष्टः रागः . यस्यासौ वीतरागः' अर्थात् जिसका राग नष्ट हो गया है वह वीतराग है। दिगम्बर जैन ग्रन्थ धवला ' एवं लब्धिसार में भी इसी प्रकार से विग्रह किया गया है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वीतराग उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन 'अप्रमाद स्थान' में वीतराग के स्वरूप का सरल किन्तु सारगर्भित निरूपण है । उसमें पाँच इन्द्रियों एवं एक मन के विषयों के प्रिय होने पर जो उनमें राग नहीं करता, तथा उनके अप्रिय होने पर द्वेष नहीं करता, अपितु सम रहता है उसे वीतराग कहा गया है, यथा चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेलं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ अ.३२ गा.२२. सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ ३२/३५ घाणस्य गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ३२/४८ जिन्माए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेलं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। ३२/६१ कायस्स फासं गहणं बयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ३२/७४ मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स तु वीयरागो ।। ३२/८७ अर्थात् आँखों का विषय रूप है, मनोज्ञ (प्रिय) रूप राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है। ३२/२२ कानों का विषय शब्द है, मनोज्ञ (प्रिय) शब्द राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) शब्द द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/३५ नाक का विषय गंध है, मनोज्ञ (प्रिय) गंध राग का कारण होती है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) गंध द्वेष का कारण होती हैं; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/४८ जीभ का विषय रस है, मनोज्ञ (प्रिय) रस राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रस द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/६१ काया का विषय स्पर्शन है, मनोज्ञ (प्रिय) स्पर्श राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रस द्वेष का कारण होता है; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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