Book Title: Vitrag aur Sthitpragya Ek Vishleshan Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण /८९ इन चार घनघाति कर्मों का क्षय होने के पश्चात् मुक्ति (मोक्ष) सुनिश्चित है । मुक्ति का सुख अक्षय एवं अव्याबाध होता है । उस सुख का कभी नाश नहीं होता तथा पुनः दुःख नहीं पाता । अतः उत्तराध्ययन में इसे एकान्तसुख शब्द दिया गया है रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं । राग एवं द्वेष का पूर्णतः (मूलत:) विनाश होने से वीतराग साधक मोक्ष रूप एकान्तसुख को प्राप्त करता है। वीतरागता वीतराग की भाववाचक संज्ञा वीतरागता है । वीतराग की वीतरागता ही साधक का लक्ष्य होती है। वीतरागता की साधना से ही वीतराग बना जा सकता है। वीतरागता प्राप्त होती है राग-द्वेष-कषायों के त्याग से । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में प्रश्न किया गया हैकसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ हे भगवन् ! कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने में जीव क्या लाभ प्राप्त करता है ? तो भगवान् उत्तर देते हैं-कसायपच्चक्खाणणं वीयरागभावं जणयइ, वीयरागभावं पडिवण्णे वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ।११ अर्थात् कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने से जीव वीतरागभाव को प्राप्त करता है। वीतराग भाव प्राप्त हो जाने पर जीव सुख दुःख में सम (समान) हो जाता है। वीतरागभाव की प्राप्ति से और भी अनेक लाभ होते हैं, उनको अधोलिखित प्रश्नोत्तर में स्पष्ट किया गया है वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणबंधणाणि य वोच्छिंदइ मणुण्णामणुण्णेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ ।१२। हे भगवन् ! वीतरागता से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान् उत्तर देते हैंवीतरागता से जीव राग (स्नेह) के अनुबंधनों एवं तृष्णा के अनुबंधनों को काट देता है तथा मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधादि से विरक्त हो जाता है। वीतरागता का सहभावी परिणाम राग का विनाश होना है। प्राकृत में नेह (स्नेह) शब्द राग अथवा आसक्ति का पर्याय है। इनमें मोह विद्यमान रहता है। पुत्र, पौत्र, कलत्रादि के प्रति जो स्नेह होता है वह मोहरूप होता है। वीतरागता के साथ ही इस मोह का क्षय (विनाश) हो जाता है और मोह का नाश होते ही वैषयिक सुखभोग की तृष्णा (प्यास) भी समाप्त हो जाती है, वैषयिक सुखों के प्रति रागी अथवा मूढ (मोही) व्यक्ति का ही चित्त चलता है। निर्मोही व्यक्ति सुखभोग की तृष्णा से हीन, समभावी बन जाता है। कहा भी है'मोहो हो जस्स ण होइ तण्हा' ।' वीतरागता की साधना समता की साधना है। समता में जो स्वाभाविक प्रानन्द की प्राप्ति होती है, वह विषमचित्त में कदापि संभव नहीं। समता में शान्ति,स्वाधीनता एवं अव्याबाध सुख का अनुभव होता है, विषमता में विकारों की अग्नि धधकती रहती है, जो मनुष्य के विवेक का नाश करती है। समता में विवेक जाग्रत होता है, मिथ्यात्व का हनन होता है, सम्यकत्व की प्राप्ति होती है तथा मुक्ति (दुःख-मुक्ति) का अनुभव होता है । धम्मो दीतो संसार समुद्र में ਬਸ ਡੀ ਵੱਧ Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwww.jaimeliorary.orgPage Navigation
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