Book Title: Vitrag aur Sthitpragya Ek Vishleshan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ उत्तराध्ययनसूत्र एवं 'भगवद्गीता' के परिप्रेक्ष्य में वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण धर्मचन्द जैन । 'उत्तराध्ययनसूत्र' जैनदर्शन का प्रमुख प्रागम ग्रन्थ है तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' वैदिकदर्शन का प्रतिनिधि अध्यात्मग्रन्थ । दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मिक संस्कृति एवं साधना का प्रतिपादन है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' प्राकृत में निबद्ध है एवं 'श्रीमद्भगवद्गीता' संस्कृत में विरचित । एक निवृत्तिप्रधान है, दूसरा प्रवृत्तिप्रधान गीता में कृष्ण अर्जुन को युद्ध कार्य करते रहने की शिक्षा देते हैं, ' उत्तराध्ययन में अपने श्राप से युद्ध करने के लिए कहा गया है । गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का विधान है, उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना वर्णित है । दोनों ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के होते हुए भी, उनमें अनेक स्थानों पर साम्य है । गीता में जिस प्रकार श्रात्मा को अज, नित्य, शाश्वत, अच्छेद्य, श्रदाह्य, अक्लेद्य, प्रशोष्य आदि कहा गया है उसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में भी श्रात्मा की प्रविनश्वरता स्वीकार की गयी है एवं उसे इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य बतलाया गया है । गीता में पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जिस प्रकार स्वीकार किया गया है, उत्तराध्ययन में भी उसे उसी प्रकार स्थापित किया गया है । प्रस्तुत लेख में उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित वीतराग एवं भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के स्वरूप में विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जा रहा है । गर्भित साम्य एवं वैषम्य का जैनदर्शन में वीतराग जैनदर्शन में वीतराग शब्द का प्रयोग राग-द्वेषादि से रहित साधक के लिए किया जाता है। यह वीतरागता ग्यारहवें ( उपशान्तमोहनीय) गुणस्थान से लेकर चौदहवें (प्रयोगकेवली ) गुणस्थान तक प्रकट होती है । इनमें ग्यारहवें गुणस्थान की वीतरागता मोहकर्म के उपशम होने से प्रकट होती है तथा शेष तीन गुणस्थानों की वीतरागता मोहकर्म के क्षय (सम्पूर्ण नाश) होने से प्रकट होती है । उपशान्तमोह गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता अस्थायी होती है, क्योंकि इस गुणस्थान का साधक पुनः सराग हो जाता है किन्तु क्षीणमोहनीय गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता सदा के लिए हो जाती है। ऐसी वीतरागतासम्पन्न वीतराग ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म का भी क्षय कर अरिहन्त बन · जाता है, तथा अंत में चार अघाति कर्मों ( वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र ) का भी नाश कर सिद्ध (मुक्त) बन जाता है । मोहकर्म से राग-द्वेष का गहरा सम्बन्ध । राग-द्वेष को पृथक् रूप उदय होता है, तब तक राग-द्वेष का भी नाश हो नहीं गिना गया है । किन्तु जब तक मोह का पाते रहते हैं और मोहकर्म का नाश होते ही Jain Education International For Private & Personal Use Only से कर्म प्रकृतियों राग-द्वेष भी सत्ता जाता है । जिसके धम्मो दोवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप हैं www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10