Book Title: Vilasvaikaha
Author(s): Sadharan, R M Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 304
________________ तराअ-कम्म- ११.१६ ७ (अंतराय-कर्म) कर्मनी आठ प्रकृति(प्रकार)मां अन्तिम कर्म, जेना द्वाग जीवने दानादिमां विघ्न (अंतगय) उपस्थित थाय छे. अजिग- ११.३१.१२ (अजिन)- जिन न होय अर्थात् तीर्थकर न होय अने सिद्ध थया होय ते. अजीव- ११.२०.३ (अजीव) - नव तत्वोमां बजु, अजीव एटले अचेतन पदार्थ. १. धर्मास्तिकाय. २, अधर्ना स्तकाय अने ४. पुद्गलास्तिकाय ए चार अस्तिकाय अने ५. काळ. ए पांचे अजीव गणाय छे. अणपण- ११.३७.७ (अनशन)- मर्यादित वखत माटे के जोवनना अंत सुधो सर्वे प्रकारना आहारनो त्याग करवो ते अनशन अणुव्वय- ९.६.५ (अणुव्रत)- श्रावको माटेना अहिंसा आदि व्रत, महाव्रतनुं संपूर्ण। पणे पाला करवू श्रावक (गृहस्थ) माटे शक्य न होवाथी अहिंसादि पांचे महाव्रतर्नु आंशिक पालन ते पांच अणुव्रत छे. अगुप दठ-११.३५.९ ( अनुशिष्टि)शिखामण अरहंत-११.३१.१३ ( अर्हत् )-तीर्थकर, जिन भगवान अववाय-१.५.८ (अपवाद)-व्रतोमा मूकवामां आवेली छूटछाटो-अपवाद. आगार-९.५.८ ( आकार )-प्रत्याख्यानमां राखवामां आवेली छूटछाटो-अपवाद आयरिय - १.१.१२,११.३२.१७ (आचार्य) -समुदायना नायक मुख्य साधु पंच परमेठिमां त्रीजा आभि ११ २८.५ ( आरम्भ )-हिंता, पाप कारी गणाती प्रवृत्ति. आलो यगा-९.५.५ ( आलोचना )-आलोय णा -गुरु समक्ष निखालसपणे पोतानी भूल प्रकट करवो ते. प्रायश्चित्तनो अक प्रकार. आसव-११.२०.३ (आस्रव )-आस्रव एट ले कर्मनुं प्रवशेदार, मन, वचन, अने काया नी प्रवृत्ति योग कहेवाय छे. अने तेना लीधे ज आत्मने कर्मनो संबंध थाय छे. तेथी योग ए ज आ व छे. उज्झाय-१.१.१२,११.३२ २५(उपाध्याय)पंच परमेष्ठिमा चोथा, आचार्य पछीन पद धरावनार, शास्त्र भणावनार साधु उत्तर-गुण-वयाई-९.९.३ ( उत्तर-गुणव्रत)-गृहस्थना पांच अणुव्रतो मूलभूत एटले के प्रथम पायारूपे होवाथी 'भूल गुण' के 'मूल व्रत' कहेवाय छे. ए मूल व्रतोनी पुष्टि अर्थे बीजा पण केटलाक व्रत छ जे उत्तर व्रत तरीके प्रसिद्ध छे. तेमां त्रण गुणवतो अने चार शिक्षाव्रतो मळी सात व्रतोनो समावेश थाय छे. उवओग-६.३१.११,४.१२.१ ( उपयोग ) आत्माना बोधरूप व्यापार-ज्ञान अनें दर्शनने अयोग कहेवामां आवे छे. उववास-७.२.२ ( उपवास )-आहारनो त्याग उवसम-८.२०.१२,९.५.७ ( उपशम ) कषायोने दबाववा ते उवसम दंसण-११.१७.१२ ( उवशम-दर्शन) -दर्शन - मोहनीय कर्मना उपशमथी प्रगट थतुं सम्यग् दर्शन. ओहि-११.२०.११ ( अवधि)-अवधि-ज्ञान, ज्ञानना पांच प्रकारोमा त्रीजं. इन्द्रियोनी सहाय विना आत्मप्रकाशथी रूपो पदार्थोनुं ज्ञान. कम्मासय-५.२८.१७ ( कर्माशय )-कर्म बंध कल्लाणअ-११.३.१० (कल्याणक)-तीर्थकरो ना च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवळज्ञान अने मोक्ष-प्रादिनरूप पांच मांगलिक अवसगे कल्या णक कहेवाय छे. कसाय-६.१९.४.११.१२.१२ ( कषाय ) जीवना शुद्ध स्वभावने कर्मरूप मेल लगाडी मलीन करे अने संसार-भव-भ्रमण-नी वृद्धि करे ते क्रोध, मान, माया अने लोभ चार कषाय छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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