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( ११७ ) एकत्वता रे, निर्मल श्रात्माचारो रे ॥ मु० ॥ ७ ॥ श्रुक्लध्यान श्रुतलंबनी रे, ए पण साधन दाव ॥ व स्तुधर्मबरंगमें, गुण गुणी एक खजावो रे ॥ मु० ॥८॥ पर सहाय गुणवर्त्तना रे, वस्तुधर्म न कहाय ॥ साध्यरसी तो किम ग्रहे रे, साधु चित्त सहायो रे ॥ मु० ॥ ए ॥ श्रात्मरुचि श्रात्मालयी रे, ध्याता तत्त्व अनंत ॥ स्याद्वाद ज्ञानी मुनिरे, तत्त्वरमण उपशांतो रे ॥ मु० ॥ १०॥ नवि छापवादरुचि कदा रे, शिवरसिया अणगार ॥ शक्ति यथागम सेवतां रे, निंदे कर्मप्रचारो रे ॥ मु० ॥ ११ ॥ शुद्ध सिद्ध निज तत्त्वता रे, पूर्णानंदसमाज ॥ देवचंद्र परसाधता रे, नमियें ते मुनिराजो रे ॥ मु० ॥ १२ ॥ इति ॥ ६ ॥ ॥ अथ सप्तम वचनगुप्ति सद्याय ॥ ॥ प्रारंभः ॥
॥ समिति सदा ए दिलमें धरो ॥ ए देशी ॥ श्र थवा हमिरियानी देशी ॥ वचनगुप्ति सूधी धरो, वचन ते कर्मसहाय ॥ सलूऐ ॥ उदयाश्रित जे चे तना, निश्चें तेह अपाय ॥ सलू ॥ वचन गुप्ति सूधी धरो ॥ १ ॥ एांकणी ॥ वचन अगोचर यात मा, सिद्ध ते वचनातीत ॥ स० ॥ सत्ता अस्तिस्व
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