Book Title: Vibhinn Darshano me Yogajanya Shaktiyo ka Swarup Author(s): Sanghmitrashreejiji Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५१ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. .. .-. -.-.-.-. -.-.-.-. -. -. -.-. -.-.-. चक्रवर्ती- चौदह रत्न, नवनिधि एवं भरतक्षेत्र में छह खण्ड के स्वामी होते हैं। वासुदेव-ये तीन खण्ड के स्वामी होते हैं । बीस लाख अष्टापद जितना इनका बल होता है । बलदेव--वासुदेव से इसमें आधा बल होता है। गणधर-सर्वाक्षरसन्निपातिलब्धि से सम्पन्न चार ज्ञान एवं चौदह पूर्व के धारक होते हैं । ये अन्तर्मुहुर्त में त्रिपदी के आधार पर द्वादशांगी की रचना करने में समर्थ होते हैं।' पूर्वधर-इनके पास पूर्वो का ज्ञान होता है । ये लब्धियाँ नारी समाज के लिए अप्राप्य हैं। इनके अभाव में मुक्ति द्वार अबरुद्ध नहीं है । वह नारी और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से खुला है। पौराणिक साहित्य में लब्धि के स्थान में सिद्धि का प्रयोग हुआ है । सिद्धियों के अठारह प्रकार हैं। (१) अणिमा, (२) महिमा, (३) लघिमा ये तीन शारीरिक सिद्धियाँ हैं । इन्द्रियों की सिद्धि का नाम "प्राप्ति" है । श्रुत और दृष्ट पदार्थों को इच्छानुसार अनुभव कर लेना "प्राकाम्य" नामक सिद्धि है । माया के कार्यों को प्रेरित करना 'ईषिता' सिद्धि है। प्राप्त भोगों में आसक्त न होना 'वशिता' है । अपनी इच्छानुसार सुख की उपलब्धि 'कामावसायिता' है। क्षुधा और पिपासा की सहज उपशान्ति, दूर स्थित वस्तु का दर्शन, मन के माथ शरीर का गमन करना, इच्छानुसार रूप का निर्माण, परकाय प्रवेश, इच्छामृत्यु, अप्सरा सहित देव क्रीड़ा का दर्शन, संकल्प सिद्धि, निर्विघ्न रूप से सर्वत्र सबके द्वारा आदेश पालन-ये दस प्रकार की सिद्धियाँ सत्त्व गुण के विकास का परिणाम हैं। इन अठारह सिद्धियों के अतिरिक्त पाँच सिद्धियाँ और भी हैं। १. त्रिकालज्ञत्व-भूत, भविष्य और वर्तमान की बात को जानना । २. अद्वन्द्वस्व-शीत-उष्ण, सुख-दु:ख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से पराजित न होना। ३. परचित्त-अभिज्ञान-दूसरों के चित्त को जान लेना। ४. प्रतिष्टम्भ-अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना। ५. अपराभव-किसी से पराभूत नहीं होना। ये सिद्धियाँ योगियों को प्राप्त होती हैं । सिद्धि प्राप्ति के प्रकार-जो अत्यन्त शुद्ध धर्ममय भगवत्-हृदय की धारणा करता है वह भूख, प्यास, जन्ममृत्यु, शोक, मोह-इन छह उर्मियों से मुक्त हो जाता है। जो भगवत् स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिन्तन करता है वह 'दूरश्रवण' सिद्धि को प्राप्त होता है। १. भगवती, शतक १.१. २. श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध ११, अ०१५, श्लोक ३. श्रीमद्भागवत महापुराण, ११।१५, ४, ५. ४. वही, ११।१५। ६, ७. ५. त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वपरचित्तायभिज्ञता । अग्न्यम्बुिविषादीनां प्रतिष्टम्भो पराजयः ।। -वही, ११।१५।८. ६. वही, ११।१५।१८. ३. श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11