Book Title: Vibhinn Darshano me Yogajanya Shaktiyo ka Swarup
Author(s): Sanghmitrashreejiji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 6
________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५३ . __ काय रूप में संयम करने से योगी अन्तर्धान हो सकते हैं। यह एक प्रकार से दूसरों की संप्रसारित नयन ज्योति किरण का अथवा उसकी ग्राह्य शक्ति का स्तम्भन है। जिससे द्रष्टा की नयन ज्योति किरण योगी के शरीर का स्पर्श नहीं कर पाती। ग्राह्य शक्ति स्तम्भन की इस प्रक्रिया में प्रकाश शक्ति असंपृक्त रहने के कारण पास में खड़ा व्यक्ति भी योगी के शरीर को देख नहीं पाता। रूप की तरह अन्य विषयों में संयम करने से शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श- सभी दूसरों के लिये अप्राप्य बन जाते हैं।' विभूतिपाद के सूत्र में काय रूप का संकेत है। इसकी व्याख्या में उपलक्षण से शब्द आदि का ग्रहण किया गया है। सोपक्रम कर्म (जिसका फल प्रारम्भ हो चुका है) और निरुपक्रम कर्म (जिसका परिपाक नहीं हुआ है) में संयम करने से मृत्यु का ज्ञान हो जाता है । हाथी के बल में संयम करने से हस्तिबल, गरुड़ के बल में संयम करने से गरुड़ के तुल्य बल, वायु के बल में संयम करने से वायु के समान बल प्राप्त होता है।' विशोका ज्योतिष्मति प्रवृत्ति के प्रकाश प्रक्षेप से सूक्ष्म व्यवधान युक्त दूरस्थ वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। सूर्य में संयम करने से सकल लोक का ज्ञान हो जाता है । चन्द्रमा में संयम करने से तारागण का ज्ञान हो जाता है। ध्र वतारे में संयम करने से ताराओं की गति का ज्ञान हो जाता है।' नाभि में संयम करने से कायस्थिति का ज्ञान हो जाता है। कठंकूप में संयम करने से क्षुधा और पिपासा पर विजय हो जाती है। कूर्माकार नाड़ी में संयम करने से स्थिरता का विकास होता है ।१० मूर्धा की ज्योति में संयम करने से सिद्धात्माओं के दर्शन होते हैं।" प्रातिभ ज्ञान के प्रकट होने से बिना संयम के भी सब वस्तुओं ज्ञान हो जाता है ।१२ स्वात्मस्वरूप का बोध होने से प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता-ये छह सिद्धयाँ प्रकट होती हैं। - * १. कायरूपसंयमात् तद्ग्रा ह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुः प्रकाशासम्प्रयोगे अन्तर्धानम् ।-पा० वि० ३।२१. सोपक्रम नरुपक्रम च स तत्संयमादसपरान्त ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा।-पा०वि०३।२२. बलेषु हस्तिबलादीनि ।-पा० वि०३।२४. प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट ज्ञानम् ।-पा० वि०३।२५. भुवनज्ञानं सूर्यसंयमात् । -पा० वि०३।२६. चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ।-पा० वि० ३१२७. ६. ध्र वे चंद्रविज्ञानम् । -पा० वि० ३।२८. ___ नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ।-पा०वि० ३।२६. ८. कण्ठकूपे क्षुत्पिपासा निवृत्तिः । -पा० वि० ३।३०. कूर्मनाडेयां स्वस्थैर्यम् ।-पा० वि० ३।३१. १०. मूर्धज्योतिषि सिद्धिदर्शनम् ।-पा० वि० ३।३२. ११. प्रातिभावा सर्वम् ।-पा० वि० ३।३३. १२. तत: प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वदवार्ता जायन्ते ।-पा०वि० ३।३६. ; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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