Book Title: Vastusara Prakaran
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 9
________________ [११] विषय इसमें अपूर्ण था, वह मैंने दूसरे ग्रंथ जो इसके योग्य थे, उनमें से ले कर रख दिया है। तथा ग्रंथ को समाप्ति के बाद मैंने परिशिष्ट में वज्रलेप जो प्राचीन समय में दीवाल आदि के ऊपर लेप किया जाता था, जिससे उन मकानों की हजारों वर्ष की स्थिति रहती थी। उसके पीछे जैन धर्म के तीर्थकर देव और उनके शासन देव देवी तथा सोलह विद्यादेवी, नवग्रह, दश दिगपाल इत्यादि का सचित्र स्वरूप मूल ग्रंथ के साथ दिया गया है । तथा अंत में प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुहूर्त भी लिख दिया है । इत्यादि विषय लिखकर सर्वाग उपयोगी बना दिया है। भाषान्तर में निम्न लिखित ग्रंथों से मदद ली है १ अपराजीत, २ ज्ञानप्रकाश का आयतत्त्वाधिकार, ३ क्षीरार्णव १५अध्ययन, ४ दीपार्णव का जिनप्रासाद अध्ययन, ५ प्रासादमंडन, ६ रूपमंडन, ७ प्रतिमा मान लक्षण, ८ परिमाण मंजरी, ९ मयमतम् १० शिल्परत्र, ११ राजवल्लभ, १२ शिल्पदीपक, १३ समरांगण सूत्रधार, १४ युक्ति कल्पतरु, १५ विश्वकर्म प्रकाश, १६ लघु शिल्प संग्रह, १७ विश्वकर्म विद्या प्रकाश, १८ जिन संहिता, १९ बृहत्संहिता अ० ५२ से ५९, २० सुलभ वास्तु शास्त्र, २१ बृहत् शिल्प शास्त्र, इन शिल्प ग्रन्थों के अतिरिक्त-२२ निर्वाण कलिका, २३ प्रवचन सारोद्धार, २४ आचार दिनकर, २५ विवेक पिलास, २६ प्रतिष्ठा सार, २७ प्रतिष्ठा कल्प, २८ आरंभ सिद्धि, २९ दिन शुद्धि, ३० लन शुद्धि, ३१ मुहूर्त चिन्तामणि, ३२ ज्योतिष रत्नमाला, ३३ नारचंद्र, ३४ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, ३५ पद्मानंद महाकाव्य चतुर्विंशतिजिनचरित्र, ३६ जोइस हीर, ३९ स्तुति चतुर्विंशतिका स्टीक ( बप्पभट्टी शोभनमुनि और मेरुविजय कृत)। प्रस्तुत ग्रंथ की हस्त लिखित प्रतिर निम्नलिखित ठिकाने से कोपी करने के लिये मिली थी २ शासनसम्राट् जैनाचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वर ज्ञान भंडार, अहमदाबाद । २ श्वेताम्बर जैन ज्ञान भंडार, जयपुर । १ इतिहास प्रेमी मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज से प्राप्त । १ मुनि श्री भक्तिविजयजी ज्ञान भंडार, भावनगर से मुनि श्री जसविजयजीमहाराज द्वारा प्राप्त । १ जयपुर निवासी यतिवर्य पं. श्यामलालजी महाराज से प्राप्त । उपरोक्त सातों ही प्रति बहुत शुद्ध न थीं जिससे भाषान्तर करने में बड़ी मुश्किल पड़ी, जिससे कहीं २ गाथा का अर्थ भी छोड़ा गया है विद्वान सुधार कर पढे और मेरे को भूल की सूचना करेंगे तो आगे सुधार कर दिया जायगा । मेरी मातृभाषा गुजराती होने से भाषा दोष तो अवश्य ही रह गये होंगे, उनको सजन उपहास न करते हुए सुधार करके पढ़ें। किमधिकं सुझेषु । सं० १९९२ मार्गशीर्ष । अनुवादकशुक्ला २ गुरुवार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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