Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ वास्तु चिन्तामणि गुरु गरिमा तरूवर फल नहि खात हैं, नदिय न पीवे नीर। परोपकार के कारणे, संतन धरा शरीर।। वास्तव में सन्तों का जीवन परोपकार के लिए ही होता है। परमोपकारी, पात्सल्य मूर्ति, ज्ञान के अथाह सागर, परमपूज्य गुरुवर ज्ञानयोगी, प्रज्ञाश्रमण आचार्य 108 देवनन्दि जी महाराज में वास्तु चिन्ता व्रन्थ लिखकर श्रावकों के लिए महान उपकार किया है। वे अल्पायु में ही जैनेश्वरी मुनि दीक्षा ग्रहण करके ध्यान, अध्ययन करते हुए तथा अपने आवश्यक कार्यों को संभालते हुए भी सदैव आत्म कल्याण तो करते ही हैं, पर हित में भी संलग्न रहते हैं। मन, वचन, काय पूर्वक सदैव सेवा एवं वैयावृत्ति के कार्य में तत्पर रहते हैं। आपके द्वारा जिनधर्म की महती प्रभावना हो रही है। आप स्व एवं पर दोनों का कल्याण कर रहे हैं। आप वात्सल्य, वैयावृत्ति, गुणग्राहकता, विनय आदि गुणों से विभूषित हैं। संघ का कुशल संचालन करते हुए तथा अपने आवश्यक कार्यों को करते हुए भी आपने समय निकालकर अनेकों अनेकों पुस्तकें लिखीं जिससे जिनवाणी माता की सेवा के साथ ही साथ जन-कल्याण भी हो रहा है। आपकी विलक्षण बुद्धि तर्क, प्रतिभा, विनय, क्षमाशील स्वभाव किसी को भी आपको अपना बना लेते हैं। आपने अनेकों दीक्षाएं दी हैं तथा समाधियां संपन्न कराई हैं। कचनेर चातुर्मास में पूज्य मुनि श्री 108 धर्मकीर्ति जी एवं पूज्य मुनि श्री 108 चारित्रसागर जी महाराज की सफलतापूर्वक सल्लेखना समाधि आपके ही आचार्यत्व में सम्पन्न हुई है। __ जिनधर्म के प्रसार के साथ ही आप मानव उद्धार का कार्य भी कर रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ वास्तुचिन्तामणि की रचना ऐसा ही कार्य है। इसका सदुपयोग करके पाठक अपनी चिन्ताओं को दूर कर शांति को प्राप्त करेगा। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे ऐसे महान गुणी गुरुवर का शिष्यत्व मिला। गुरुवर इसी भांति जिनधर्म की प्रभावना एवं स्वपर कल्याण करते हुए जगत में धर्म-ध्वजा फहराएं, यही कामना है। आर्यिका कांतिश्री श्री क्षेत्र कचनेर, दिनांक 20 जनवरी 96

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 306