Book Title: Vartaman Sadhu aur Navin Manas
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 1
________________ वर्तमान साधु और नवीन मानस यूरोपमें गैलिलियो वगैरह वैज्ञानिकोंने जब विचारका नया द्वार खोला और ब्रूनो जैसे पादरी पुत्रोंने धर्म-चिन्तनमें स्वतन्त्रता दिखलाई, तब उनका विरोध करनेवाले वहाँके पोप और धर्मगुरु थे । बाइबिलकी पुरानी बातें जब विचारोंकी नवीनता और स्वतन्त्रता न सह सकीं तब जड़ता और विचारोंके बीचमें द्वन्द्व शुरू हुआ। अन्तमें जड़ताने अपना अस्तित्व सलामत रखनेके लिए एक ही मार्गका अवलम्बन किया। अर्थात् जब धर्मगुरुओं और पोपोंने अपने धर्मकी मर्यादा केवल बाइबिल के गिरि-प्रवचनमें और यथा-शक्य सेवाक्षेत्रमें सीमित देखी और विज्ञान और शिक्षाके नवीन बलको मार्गदर्शन करानेमें अपनेको असमर्थ पाया, तब उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र संकुचित करके नये जमानेकी बढ़ती हुई विचार-धाराका मार्ग रोकनेकी आत्म-घातक प्रवृत्तिसे हटकर अपने और नवीन विकासके अस्तित्वको बचा लिया। यूरोप में जो बात युगों पहले शुरू हुई थी और अन्तमें अपने स्वाभाविक मार्गको पहुँच गई थी, भारतमें भी आज हम उसका आरम्भ देख रहे हैं, खास करके जैन समाजमें । यहाँके और समाजोंको अलग रखकर केवल वैदिक या ब्राह्मण समाजको लेकर जरा विचार कीजिए । वैदिक समाज करोड़ोंकी संख्यामें है। उसमें गुरु-पदोंपर गृहस्थ ब्राह्मणोंके अलावा त्यागी संन्यासी भी हैं और वे लाखों हैं। जब नवीन शिक्षाका आरंभ हुआ, तब उनमें भी हलचल मच गई । पर उस हलचलसे भी ज्यादा तेजीसे नवीन शिक्षा फैलने लगी। उसने अपना मार्ग नये ढंगपर शुरू किया। जो ब्राह्मण-पंडित शास्त्रके बल और परम्पराके प्रभावसे चारों वर्गों के लिए गुरुतुल्य मान्य थे, जिनकी वाणी न्यायका काम करती थी और वर्ण और आश्रमोंकी पुरानी रूढ़ियोंके बाहर पैर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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