Book Title: Uttaradhyayanani Part 03 And 04
Author(s): Bhavvijay Gani, Harshvijay
Publisher: Vinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
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उत्तराध्य
यनमूत्रम्
॥ २ ॥
-यो-थोरया य
मूलम् — अह केसरंमि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे । सज्झायाण संजुत्ते, धम्मज्भाणं क्रियायइ ॥ ४ अफोवमंडवंसि, झायइ झवित्रासवे । तस्सागए मिए पासं, वहेइ से नराहिवे ॥ ५ ॥
‘अथ' अनन्तरं केसरोद्याने अनगारस्तपोधनः स्वाध्यायध्यानसंयुक्तो यथावसरं तदासेवनात् श्रत एव धर्मध्यानं ध्यायति ॥ अफोव इति-वृक्षाद्याकीर्णः स चासौ मण्डपथ - नागकन्यादिसम्बन्धी अफोवमण्डपस्तस्मिन् ध्यायति धर्मध्यानमिति शेषः, पुनरस्याभिधानमतिशयद्योतकं, "वित्र" त्ति क्षपिता श्रश्रवाः हिंसादयो येन स तथा 'तस्य' मुनेः श्रागतान् मृगान् 'पाथ' समीपं "वहे" हिन्ति नराधिप इति सूत्राद्वयार्थः ॥ ४-५ ॥
मूलम् - ह सगो राया, खिप्पमागम्म सो तहिं । हए मिए उपासित्ता, अणगारं तत्थ पासई ॥६॥
व्याख्या–‘अथ' अनन्तरमश्वगतो राजा चिप्रमागम्य स ' तस्मिन् मण्डपे हतान् "मिए उ" त्ति मृगानेव न पुनमु निमित्यर्थः, दृष्टा नगरं तत्र पश्यति इति सूत्रार्थः || ६ || ततोऽसौ किं चकार १ इत्याह
मूलम् - हराया तत्थ संभंतो, अणगारो माह । मए उ मंदपुराणेणं, रसगिद्धे ण घरगुरणा ॥७॥ संविसज्जइत्ता, अणगारस्स सो निवो। विणणं वंदए पाए, भगवं एत्थ मे खमे ॥८॥ अह मोणेण सो भयवं, अणगारो भाणमस्ति । रायाणं न पडिमंतेइ, तो राया भयदुओ ॥६॥
अध्य० १८ ॥२॥

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