Book Title: Updesh Tarangini
Author(s): Ratnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek Samiti

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Page 204
________________ १९६ उपदेशतरंगिणी. वहारथी धर्म थाय ने, जरतचक्री तथा चंजावतंसनी पेठे जावथी धर्म थाय बे, कीर्तिधर, सुकोशील, श्रादिकनी पेठे कुलाचारथी धर्म थाय ने, जंबूस्वामी, धनगिरि, वज्रस्वामी, प्रसन्नचंड तथा चिलातिपुत्रादिकनी पेठे वैराग्यथी धर्म थाय ने. क्षमाने विषे गजसुकुमाल, कुरगमुकमुनि, वीरप्रनु, पार्श्वप्रनु, खंधकमुनि आदिकनां दृष्टांतो जाणवां. शीलविषे सुदर्शन श्रेष्ठी, मही प्रनु, नेमिनाथजी, स्थूलनजी, सीता, प्रौपदी, राजीमती आदिकनां दृष्टांतो जाणवां. सम्यक्त्वविषे श्रेणिकराजा, नारायण, तथा विक्रमराजा श्रादिकनां दृष्टांतो जाणवां. प्रनाविकपणाविषे श्री हेमचंत्राचार्य, जीवदेवसूरि, कालिकाचार्य, जिनप्रनसूरि, विष्णुकुमार, यशोदेवसूरि, आर्यखपुटाचार्य, बप्पनट्टीसूरि, पादलिप्तसूरि, धर्मघोषसूरि, मानदेवसूरि, मानतुंगसूरि, हरिलप्रसूरि विगेरेनां दृष्टांतो जाणवां, वधारे शुं कहे ? सर्व प्रकारथी करेलो धर्म महालानकारी थाय ने. कडुं ने के, धर्मः श्रुतोऽपि दृष्टोऽपि, कृतो वा कारितोऽपि च ॥ अनुमोदितोऽपि राजेंड, पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥१॥ अर्थ- हे राजेंज! सांजलेलो, दीलो, करेलो, करावेलो भने अनुमोदेलो एवो पण धर्म बेक सात पेहेमी सुधि पवित्र करे ले. फलं च पुष्पं च सुतरुस्तनोति, वितं च तेजश्व नृपप्रसादः ॥ शाई प्रसिधि ननुते सुपुत्रो, नुक्तिं च मुक्तिं च जिनेधर्मः॥१॥ अर्थ- उत्तम वृक्ष फल अने पुष्पने विस्तारे , राजानी कृपा धनने अने तेजने वधारे , उत्तम पुत्र धन श्रने प्रशंसाने विस्तारे , अने जिनधर्म नुक्ति अने मुक्तिने विस्तारे जे. आंबा, दाडिम आदिक उत्तम वृदो स्वादिष्ट तथा मनोहर

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