Book Title: Tran Chauvisi Viharman Jin Stavan
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ त्रण चउवीसी - विहरमाण-जिन स्तवन लक्ष्मीसागरसूरिशिष्यकृत - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय तपगच्छनायक आचार्य श्री लक्ष्मीसागरसूरिजीनो शासनकाल सोलमां सैकानी पहेली पच्चीशी छे. तेओना शिष्ये रचेल बे - गुजराती लघुकृति अत्रे आपवामां आवे छे. तेनी बे पानांनी एक प्रति मारा गुरुजीना संग्रहनी छे, तेना आधारे यथामति संपादन कर्तुं छे. प्रतिमां लेखकनाम के संवत् नथी, छतां लेखनशैली जोतां १६मा शतकमां ज-कदाच कर्तानी पोतानी-लखेल होय तेम अनुमान थाय छे. २४ + २४ + २४ + २० ९२ तीर्थंकरोनी स्तुति रूपे रचायेल आ रचना अप्रगट जणायाथी अहीं प्रस्तुत करी छे. गुरु आज्ञा थवाथी करेल प्रथम प्रयासमां बालसुलभ क्षति जणाय तो तेनी क्षमा प्रार्थी छु. २८ मी कडीनो त्रुटित अंश जोडेल छे जे [ मां छे. सरसति सामिणी वीनवउं ए पणमीय गोयमपाय तु । जासु पसाय जिण गायसिइउं ए, हीइ धरि बहु भाय (व) तु ॥ १ अतित अनागत वरतता ए, बहुत्तरि जिणवर जाणि तु । विहरमाण वीसह साहिय, बाणु जिन मनि आणि तु ॥ २ (वस्तु) गोयम गणहर, गोयम गणहर, पाय पणमेवि । सरसति सामिण मनि धरीय, भणिसु भावि श्रीसुगुरु सानिधि | जासु नामि रिधि वृति हुई, अलिय विघन सवि दूरि जाई || अतीत अनागत वरतता, जाणीय जिणवर सार । विहरमाण वीसह सहिय, बाणू गणी अ जुहारि ॥ ३ (प्रथम भाषा) अतीत चउवीसी जिणवर जाणी पिहलउं पणमउं केवलनाणी, नम निरवाणी हेव । त्रीजउ जिणवर सागरसामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5