Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 2
________________ व्यक्ति साधारण तौर पर भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक अंधा हो जाता है कि उसे पंचेन्द्रिय वासनाओं के दुष्फलों की ओर सोचने का भी बोध जागृत नहीं होता। वह काम, क्रोधादि विकारों में आपादमग्न रहता है और धर्म की वास्तविकता को पहचानने से इन्कार कर देता है। इस इन्कार की तस्वीर को बदलने के लिए पर्युषण पर्व जैसे आध्यात्मिक पर्व निश्चित ही अमोघ साधन का काम करते हैं। जैन संस्कृति में पर्युषण पर्व अथवा दशलक्षण पर्व का विशेष महत्त्व है। यह पर्व साधारणत्तः वर्षावास प्रारम्भ होने के ५० दिन •बाद प्रारम्भ होता है। वर्षा योग का प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर से हो जाता है और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में उसकी समाप्ति होती है। वर्षावास साधना और संस्कार को जाग्रत करने का एक सुनहरा अवसर है। जब साधक शान्तिपूर्वक एक स्थान पर रहकर जीवन सूत्र को संकलित करता है, अध्यात्मिक साधना का संयोजन करता है और पाता है उस जागरण को जो सुप्तावस्था में अभी तक पड़ा हुआ था। अन्तर में पड़ा हुआ तत्त्व ही संस्कार कहलाता है, जो सत्संगति से जाग्रत होता है। यह सत्संगति है तीर्थंकर महावीर जैसे महापुरुषों और साधकों की, जिन्होंने रत्नत्रय का पालन कर आत्मज्ञान पा लिया और साधकों को उसका उपदेश दिया। प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे ही उपदेशक, साधक वन्दनीय तीर्थंकर महावीर का जीवन चरित तथा उनके द्वारा प्रवेदित धर्म के उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दश लक्षणों का विवेचन किया गया है। पर्युषण पर्व पर अध्यात्मिक साधकों के लिए यह विवेचन उपयोगी सिद्ध होगा। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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