Book Title: Tin Gunvrato evam Char Shiksha Vrato ka Mahattva
Author(s): Manjula Bamb
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 12
________________ ||15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी ३. कायदुष्प्रणिधान - सामायिक में चंचलता रखना। शरीर से कुचेष्टा करना। बिना कारण शरीर को फैलाना और समेटना। अन्य किसी प्रकार की सावद्य चेष्टा करना आदि। ४. स्मृत्यकरण - सामायिक की स्मृति न रखना, ठीक समय पर न करना । मैंने सामायिक की है, इस बात को ही भूल जाना । सामायिक कब ली और वह कब पूरी होगी, इस बात का ध्यान नहीं रखना अथवा समय पर सामायिक करना ही भूल जाना। ५. अनवस्थितता - सामायिक को अस्थिरता से या शीघ्रता से करना, निश्चित विधि के अनुसार न करना। सामायिक की साधना से ऊबना, सामायिक के काल के पूर्ण हुए बिना ही सामायिक पार लेना। सामायिक के प्रति आदर-बुद्धि न रखना आदि। २. दूसरा शिक्षाव्रत देशावगासिक व्रत' श्रावक के बारह व्रतों के क्रम में यह दसवाँ व्रत है तथा शिक्षाव्रतों में से यह दूसरा शिक्षाव्रत है। छठे व्रत में जीवन भर के लिए दिशाओं की मर्यादा की थी उस परिमाण में कुछ घंटों के लिए या कुछ दिनों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना अर्थात् उसको संक्षिप्त करना देशावकाशिक व्रत है। देशावकाशिक व्रत में देश और अवकाश ये दो शब्द हैं जिनका अर्थ है स्थान विशेष। क्षेत्र मर्यादाओं को संकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोग रूप अन्य मर्यादाओं को भी सीमित करना इस व्रत में गर्भित है। साधक निश्चित काल के लिए जो मर्यादा करता है इसके बाहर किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता। दैनिक जीवन को वह इस व्रत से अधिकाधिक मर्यादित करता है। श्रावक के लिए सचित्त, द्रव्य, विगय, उपानह आदि की मर्यादा से सम्बद्ध १४ नियमों का भी विधान है। देशावगासिक व्रत की प्रतिज्ञा हर रोज की जाती है। प्रतिदिन क्षेत्र आदि की मर्यादा को कम करते रहना चाहिए। जैन धर्म त्याग-लक्ष्यी है। जीवन में अधिक से अधिक त्याग की ओर झुकना ही साधना का मुख्य ध्येय है। इस व्रत में इस ओर अधिक ध्यान दिया गया है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं। वे इस प्रकार हैं - १. आनयन प्रयोग - मर्यादित भूमि के बाहर रहे हुए सचित्तादि पदार्थ किसी को भेजकर अंदर मँगवाना अथवा समाचार मँगवाना आनयन प्रयोग है। २. प्रेष्यबल प्रयोग - मर्यादा से बाहर की भूमि में किसी दूसरे के द्वारा कोई पदार्थ अथवा संदेश भेजना प्रेष्यबल प्रयोग है। ३.शब्दानुपात - मर्यादा के बाहर की भूमि से सम्बन्धित कार्य के आ पड़ने पर मर्यादा की भूमि में रहकर, शब्द के द्वारा चेता कर, चुटकी आदि बजाकर, दूसरे को अपना भाव प्रकट कर देना, जिससे वह व्यक्ति बिना कहे ही संकेतानुसार कार्य कर सके। यह शब्दानुपात कहलाता है। ४. रूपानुपात - मर्यादित भूमि के बाहर का यदि कार्य आ पड़े तो शरीर की चेष्टा करके आँख का इशारा करके या शरीर के अन्य किसी अंग के संकेत से दूसरे व्यक्ति को अपना भाव प्रकट करना रूपानुपात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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