Book Title: Tin Gunvrato evam Char Shiksha Vrato ka Mahattva
Author(s): Manjula Bamb
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 10
________________ | 15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी मकान, वस्त्र, आभूषण, पकवान आदि को देखकर कहना कि बहुत अच्छा बनाया है। कृपण का धन चोर ने चुरा लिया, मकान जल गया या दिवाला निकल गया सो अच्छा ही हुआ। वह दुष्ट, पापी, अन्यायी, पाखण्डी या साँप, बिच्छू, खटमल, मच्छर आदि मर गये तो अच्छा ही हुआ, उनका मर जाना ही अच्छा था। यह सब और ऐसे ही अन्य वचन हिंसा की प्रशंसा रूप होने से तथा हिंसा की वृद्धि वाले होने के कारण बोलने योग्य नहीं हैं। ___ इसी प्रकार हिंसा जनक अन्य वचन बोलना भी अनर्थदण्ड ही है, जैसे- फूल-फल, धान्य आदि सभी सस्ते हैं इन्हें खरीद लो, वर्षा का मौसम आ गया है अपना घर सुधरवा लो, खेत सुधार लो, सर्दी बहुत पड़ रही है तो अलाव जलाकर ताप लो, पानी का छिड़काव करो, पुराना घर गिरा दो, नया घर बनवा लो आदि-आदि। इस प्रकार निरर्थक हिंसाकारी वचन बोलने से, वृथा ही पाप को उत्तेजना देने से पाप का भागी बनना पड़ता है। दूसरा ऐसे काम करता है तो अपने प्रयोजन से करता है, किन्तु उसकी सराहना या उसके लिए उत्तेजना करने वाले के हाथ कुछ नहीं आता है। व्यर्थ ही आत्मा पर कर्मो का बोझ बढ़ता है। इसी प्रकार तलवार, बन्दूक आग आदि हिंसा के उपकरण दूसरों को देने से वृथा ही पाप कर्म का बंध होता ४. पापकर्मोपदेश - पापकर्म का उपदेश देना । जिस उपदेश से पापकर्म में प्रवृत्ति हो, पाप कर्म की अभिवृद्धि हो, उपदेश सुनने वाला पाप कर्म करने लगे, वह उपदेश अनर्थदण्ड रूप है, जैसे - खटमल, मच्छर, साँप, बिच्छू आदि क्षुद्र जानवरों को मारने के लिए उपदेश देना, भैरव आदि देवों के लिए भैंसा, बकरा, मुर्गा आदि जीवों को भोग देने की सलाह देना आदि। इसी तरह लड़ाई झगड़े का, दूसरों को फंसाने का, झूठा मुकदमा चलाने का, झूठी गवाही देने का, चोरी करने का उपदेश देना भी पापकर्मोपदेश है। ऐसे उपदेश को सुनकर मनुष्य जिस पापकर्म में प्रवृत्ति करता है, उस पापकर्म का भागी उपदेश दाता भी होता है। इससे मिथ्या धर्म-कर्म की वृद्धि होने से अनेक आत्माओं का अहित होता है। उपदेश देने वाले को कुछ भी लाभ नहीं होता है। अतएव ऐसे दण्ड से अपनी आत्मा को दण्डित करना श्रावक के लिए उचित नहीं है। इस गुणव्रत के मुख्य पाँच अतिचार हैं - १. कन्दर्प - विकारवर्धक वचन बोलना या सुनना या वैसी चेष्टाएँ करना। २. कौतकुच्य - भांडों के समान हाथ-पैर मटकाना। नाक, मुँह आँख आदि से विकृत चेष्टाएँ करना! ३. मौखर्य - बिना प्रयोजन के अधिक बोलना, अनर्गल बातें करना, व्यर्थ की बकवास करना और किसी की निंदा चुगली करना। ४. संयुक्ताधिकरण - बिना आवश्यकता के हिंसक हथियारों एवं घातक साधनों का संग्रह करके रखना। जैसे तलवार, चाकू, छुरी, मूसल, डण्डा, लोढी आदि वस्तुओं का अधिक तथा निष्प्रयोजन संग्रह करके रखना। ५. उपभोग परिभोगातिरिक्त - मकान, कपड़े, फर्नीचर आदि उपभोग और परिभोग की सामग्री का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना । जो मर्यादा में रखे हैं, उनमें अत्यन्त आसक्त रहना, उनका बार-बार उपभोग करना, उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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