Book Title: Tin Gunvrato evam Char Shiksha Vrato ka Mahattva
Author(s): Manjula Bamb
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 14
________________ ||15,17 नवम्बर 20061 जिनवाणी 1657 ४. अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जितउच्चारप्रस्रवणभूमि - मलमूत्र विसर्जन के योग्य भूमि को रात में बिना प्रमार्जन किये मलमूत्र का विसर्जन करना तथा रात के समय खुली भूमि में शारीरिक शंका निवृत्ति के लिए जाना पड़े तब भी सिर को ढके बिना जाना। ५. पौषधोपवास का सम्यक् पालन न करना - पौषधोपवास व्रत का विधिपूर्वक स्थिरचित्त होकर पालन न करना। पौषधव्रत के उपर्युक्त पाँचों अतिचारों को टालना चाहिए। पौषधव्रत का आचरण करने वाले श्रावक को पौषध के अठारह दोषों से बचना चाहिए। तभी निर्दोष व्रत की आराधना होती है। शुद्ध पौषध के प्रभाव से आनन्द, कामदेव आदि श्रावक एक भवावतारी हुए हैं। ४. चौथा शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग' सर्वत्यागी पंचमहाव्रतधारी निर्ग्रन्थों को उनके कल्प के अनुसार-निर्दोष अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र,कम्बल, पादपोंछन (रजोहरण), पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध, भेषज, इन चौदह प्रकार की वस्तुओं में से आवश्यकतानुसार भक्तिपूर्वक संयम में सहायक होने की कल्याण कामना से अर्पण करना-अतिथि संविभाग व्रत है। अतिथि - जिनके आने का कोई नियत समय नहीं हो, जो पर्व उत्सव अथवा निर्धारित समय पर पहुँचने की वृत्ति को त्याग चुके हों (अर्थात् जो अचानक आते हों) वे अतिथि कहलाते हैं। यहाँ मुख्यतः साधु-साध्वी को ही अतिथि समझना चाहिए। संविभाग- उपर्युक्त निर्दोष अतिथि को अपने लिए बनाए हुए आहार में से निर्दोष विधि से देना। इस व्रत में तीन वस्तुओं का योग होता है - १. सुपात्र, २. सुदाता और ३. सुद्रव्य। सुपात्र - आगमों में इसे पडिगाह कहा जाता है-गाहकसुद्धेणं (विपाक २.१) अर्थात् शुद्ध पात्र । सुपात्र वह है, जो सभी प्रकार के आरम्भ, परिग्रह तथा सांसारिक सम्बन्धों का त्यागकर आत्मकल्याण के लिए अग्रसर हुआ है तथा जो अनगार है और केवल संयम-निर्वाह के लिए, शरीर को सहारा देने रूप आहार लेता है। जिसकी आहार लेने की विधि भी निर्दोष है। जो बिना पूर्व सूचना अथवा निमंत्रण के अचानक आकर निर्दोष आहार लेता है, वह सुपात्र है। सुदाता - शास्त्र में इसे दायगसुद्ध कहा जाता है। सुदाता वही है, जो सुपात्रदान का प्रेमी हो, सदैव सुपात्र दान की भावना रखने वाला हो। सुपात्र को देखकर जिसके हृदय में आनन्द की सीमा नहीं रहे। सुपात्र को देखकर उसे इतना हर्ष हो जाये कि जिससे आँखों से अश्रु निकल पड़ें। वह ऐसा समझे कि जैसे बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ आत्मीय मिला हो, अत्यन्त प्रिय वस्तु की प्राप्ति हो गई हो। इस प्रकार अत्यन्त उच्च भावों से युक्त दाता सुपात्र को दान देकर उन्हें आदरपूर्वक कुछ दूर तक पहुँचाने जाता हो और उसके बाद दूसरे दाताओं की अनुमोदना करता हो और पुनः ऐसा सुयोग प्राप्त होने की भावना रखता हो, ऐसा दाता सुदाता कहा जाता है। सुद्रव्य - दान की सामग्री निर्दोष हो, सुपात्र के अनुकूल एवं हितकारी हो। ऐसी वस्तु नहीं देनी चाहिए जो दूषित हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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