Book Title: Tin Gunvrato evam Char Shiksha Vrato ka Mahattva
Author(s): Manjula Bamb
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 13
________________ 164 जिनवाणी 15.17 नवम्बर 2006 काष्ठ,' ५. बाह्यपुद्गल प्रक्षेप - नियत की हुई अवधि से बाहर का कार्य उपस्थित होने पर उसकी सिद्धि के लिए कंकर, तृण आदि फेंककर बुलाने का संकेत करना या अपना अभिप्राय समझाना बाह्य पुद्गल प्रक्षेप कहलाता है । उक्त पाँचों अतिचार केवल देश की मर्यादा सम्बन्धी ही हैं, किन्तु इस व्रत में उपभोग की मर्यादा भी की जाती है और १४ नियम तथा दयाव्रत और दस प्रत्याख्यान भी इसी व्रत में सम्मिलित हैं। सरल शब्दों में यों कहा जा सकता है कि जिस प्रकार अणुव्रतों का क्षेत्र सीमित करने के लिए दिग्व्रत है, इसी प्रकार उनका परिमित काल तक अधिक संकोच करने के लिए देशावकाशिक व्रत है। दिन-प्रतिदिन आवश्यकताओं संकोच करना इस व्रत का मुख्य फल है, क्योंकि यावज्जीवन के लिए किये जाने वाले हिंसा आदि के प्रमाण उतने संकुचित नहीं होते जितने एक मुहूर्त, एक दिन या सर्वाधिक समय के लिए हो सकते हैं। यावज्जीवन १००० कोस के उपरान्त जाकर हिंसा आदि दोषाचरण को त्यागने वाला व्यक्ति परिमित काल एक दो दिन के लिए १०-२० या ५० कोस के आगे उनका त्याग सहज ही कर सकता है। इस व्रत के पालने से दिनचर्या को अधिक विशुद्धि के पथ पर लाया जा सकता है। जीवन के प्रत्येक पल को सफल बनाने के लिए यह अमोघ मंत्र है। ३. तीसरा शिक्षाव्रत 'पौषधोपवास व्रत " धर्म को पुष्ट करने वाले नियम विशेष का नाम पौषध है। एक अहोरात्र के लिए सचित्त वस्तुओं का, शस्त्र का, पाप व्यवहार का, भोजन-पान का तथा अब्रह्मचर्य का परित्याग करना पौषधव्रत है। आत्मा के निजगुणों का शोषण करने वाली सावद्य प्रवृत्तियों का पोषण करने वाले गुणों के साथ रहना, समतापूर्वक ज्ञान, ध्यान और स्वाध्यायादि में रत रहना पौषधोपवास व्रत है। संसार के प्रपंचों से सर्वथा अलग रहकर, एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिंतन आदि धार्मिक क्रियाएँ करते हुए जीवन को पवित्र बनाना इस व्रत का लक्ष्य है। जैसे भोजन से शरीर तृप्त करते हैं वैसे ही इस व्रत से शरीर को भूखा रखकर आत्मा को तृप्त किया जाता है। इस तीसरे शिक्षा व्रत के पाँच अतिचार हैं जो श्रावक के लिए जानने योग्य हैं। वे इस प्रकार है - १. अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित- शय्या संस्तारक जिस स्थान पर पौषध व्रत किया हो, उस स्थान को ओढनेबिछौने के वस्त्रों को तथा पाट चौकी आदि को सूक्ष्म दृष्टि से पूरी तरह देखे बिना काम में लेवे तथा हलन चलन करते, शयनासन करते, गमनागमन करते समय भूमि या बिछौने को न देखे या भली-भाँति न देखे तो अतिचार लगता है । २. अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित - शय्या संस्तारक पौषधयोग्य शय्या आदि की सम्यक् रूप से प्रर्माजना न करना तथा बिना पूँजे हाथ-पैर पसारना, पार्श्व करवट बदलना, अन्य स्थान को प्रमार्जित करना अन्य स्थान में हाथ पैर रखना आदि । ३. अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित उच्चारपस्रवणभूमि शरीर धर्म से निवृत्त होने के लिए अर्थात् मल-मूत्र के लिए भूमि का प्रतिलेखन न करना अथवा विधिपूर्वक न करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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