Book Title: Tharapadragaccha ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ Vol. I-1995 धारापद्रगच्छ का संक्षिप्त... सर्वदेवसूरि [वि० सं० १४५० / ई० स० १३९४] प्रतिमालेख [प्रतिमालेख अनुपलब्ध] विजयसिंहसूरि शांतिसूरि [वि० सं० १४७९-१४८३ / ई० स०१४२३-१४२७) प्रतिमालेख सर्वदेवसूरि . [प्रतिमालेख अनुपलब्ध] विजयसिंहसूरि [वि० सं० १५०१-१५१६ / ई० स०१४४५-१४६०] प्रतिमालेख] शांतिसूरि [वि० सं०१५२७-१५३२/ ई० स० १४७१-१४७७] प्रतिमालेख] थारापद्रगच्छीय मुरु-शिष्य परम्परा की पूर्वप्रदर्शित तालिकाओं में सर्वप्रथम आचार्य वटेश्वर का नाम आता है। उनके कई पीढ़ियों बाद ही ज्येष्ठाचार्य से इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा प्रारम्भ होती है। अब हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वटेश्वर नामक कोई आचार्य हुए हैं ? यदि हुए हैं तो कब हुए हैं? दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा [रचनाकाल शक सं० ७०० / ई० स० ७७८] की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परम्परा की नामावली दी है, इसमें सर्वप्रथम वाचक हरिगुप्त का नाम आता है, जो तोरराय (हुणराज तोरमाण) के गुरु थे। उनके पट्टधर कवि देवगुप्त हुए, जिन्होंने सुपुरुषचरिय अपरनाम त्रिपुरुषचरिय की रचना की। देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्रगणिमहत्तर हुए, जिनके नाग, वृन्द, दुर्ग, मम्मट, अग्निशर्मा और वटेश्वर ये ६ शिष्य थे। वटेश्वर क्षमाश्रमण ने आकाशवप्रनगर [अम्बरकोट/अमरकोट में जिनमंदिर का निर्माण कराया। वटेश्वर के शिष्य तत्त्वाचार्य हुए। कुवलयमालाकहा के रचनाकार दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि इन्हीं तत्त्वाचार्य के शिष्य थे। इस बात को प्रस्तुत तालिका से भली-भांति समझा जा सकता है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15