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थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
शिवप्रसाद
प्राक् मध्ययुगीन एवं मध्यकालीन निर्ग्रन्थदर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में थारापद्रगच्छ का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । थारापद्र नामक स्थान (वर्तमान थराद, बनासकांठा मण्डल, उत्तर गुजरात) से इस गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ था। थारापद्रगच्छ के ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ के आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने चंद्रकुल के वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाया है, किन्तु इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा है। इस गच्छ में वादिवेताल शांतिसूरि, शालिभद्र अपरनाम शीलभद्रसूरि 'प्रथम', शांतिभद्रसूरि, पूर्णभद्रसूरि, शालिभद्रसूरि 'द्वितीय', नमिसाधु आदि कई प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हुए।
थारापद्रगच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है वि० सं० १०८४ / ई० स० १०२८ का रामसेन के आदिनाथ जिनालय स्थित प्रतिमाविहीन परिकर का लेख । पं० अम्बालाल शाह' ने उक्त लेख की वाचना इस प्रकार दी है:
"अनुवर्तमानतीर्थप्रणायकाद वर्धमान जिनवृषभात् । शिष्य क्रमानुयातो जातो वज्रस्तदुपमानः ॥१॥ तच्छाखायां जात [:] स्थानीय कुलोद्भूतो महामहिमः । चन्दकुलोद्भवस्ततो वटेश्वराख्यः क्रमबलः ॥२॥ थीरापद्रोद्भूतस्तस्माद् गच्छोऽत्र सर्वदिक्ख्यातः । शुद्धाच्छयशोनिकरैर्धवलितदिक चक्रवालोऽस्ति ॥३॥ तस्मिन् भूरिषु सूरिषु देवत्वमुपागतेषु विद्वत्सु । जातो ज्येष्ठाचार्यस्तस्याच्छ्रीशांतिभद्राख्य ॥४॥ तस्माच्च सर्वदेव: सिद्धान्तमहोदधिः सदागाहः । तस्माच्च शालिभद्रो भद्रनिधिर्गच्छगतबुद्धि ॥५॥ श्रीशांतिभद्रसूरौ वज्रपतिजा [ता] पूर्णभद्राख्यः । रघुसेना [भिधाने स्ति....... बुद्धीन् ।।६।। [व्यधा] पयादिदं बिंब नाभिसूनोर्महात्मनः । लम्याश्चंचलता ज्ञात्वा जीवतव्यंविशेषत: ।।७।। मंगलं महाश्रीः ।। संवत् १०८४ चैत्र पौर्णमास्याम्॥"
साधारणतया प्रतिमा लेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य या मुनि की परम्परा के एक या दो पूर्वाचार्यों का उल्लेख मिलता है, किन्तु इस लेख में थारापद्रगच्छ के सूरिवरों की लम्बी सूची दी गयी है, जो इस प्रकार है:
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शिवप्रसाद
वटेश्वर
।
ज्येष्ठाचार्य
[
शांतिभद्रसूरि ( प्रथम )
I
सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि
[
शालिभद्रसूरि ( प्रथम )
I
शांतिभद्रसूरि (द्वितीय)
I
पूर्णभद्रसूरि (वि० सं० १०८४ / ई० स० १०२८ में रामसेन स्थित जिनालय में उपर्युक्त प्रतिमा के प्रतिष्ठापक)
थारापद्रगच्छ से सम्बद्ध कालक्रम में द्वितीय प्रमाण है वि० सं० १९९० / ई० स० १०५४ में आचार्य पूर्णभद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित अजितनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख । वर्तमान में यह प्रतिमा अहमदाबाद में झवेरीवाड़ के एक जिनालय में है। मेहता ने लेख की वाचना इस प्रकार की है :
Nirgrantha
थारापद्रपुरीयगच्छगगनोद्योतक भास्वानभूत् सूरिः सागरसीम विश्रुतगुणः श्री शालिभद्राभिधः ।
तच्छिष्य समजन्यज्ञानवृजिनासंग: सतामग्रणीः सूरिः सर्वगुणोत्करैकवसतिः श्री पूर्णभद्राह्वयः ॥ तस्य श्री शालिभद्रप्रभु रलमकृतोच्चैः पदपुण्यमूर्तिः विद्वच्चूडामणेः स्वेशसि (शि) विस (श) दयशो व्यानशेवस्व विश्वम् । स्थाने तस्यापि सूरिः समजनि भुवनेऽनन्यसाधारणानां लीलागारं गुणानामनुपम महिमा पूर्णभद्राभिधानः ॥ श्री शालिसूरिनिजगुरुपुण्यार्थमिदं विधापित तेन । अजितजिनबिंबमतुलं नंदतु रघुसेन जिनभु (भ) वने ॥ संवत् १९१० चैत्र सुदि १३
इस लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य पूर्णभद्रसूरि का शालिभद्रसूरि के पट्टधर के रूप में उल्लेख है । लेख से ज्ञात होता है की यह प्रतिमा भी रामसेन स्थित राजा रघुसेन द्वारा निर्मित जिनालय में ही स्थापित की गयी थी । इस लेख के अनुसार गुर्वावली इस प्रकार है :
शालिभद्रसूरि
पूर्णभद्रसूरि (वि० सं० १११० / ई० स० १०५४ में राजा रघुसेन द्वारा निर्मित जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठापक)
साहित्य स्रोतों में देखा जाये तो थारापद्रगच्छ के नमिसाधु द्वारा प्रणीत दो कृतियाँ मिली हैं :
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धारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
१- षडावश्यक सूत्रवृत्ति (रचनाकाल वि० सं० ११२२ / ई० स० १०६५ )
२- काव्यालंकारटिप्पन' (रचनाकाल वि० सं० ११२५ / ई० स० १०६८)
Vol. I-1995
उक्त रचनाओं की प्रशस्तियों में ग्रन्थकार ने स्वयं को थारापद्रगच्छीय शालिभद्रसूरि का शिष्य बतलाया है।
शालिभद्रसूरि
I
नमिसाधु
(षडावश्यकसूत्रवृत्ति एवं काव्यालंकार - टिप्पन के प्रणेता)
इसी गच्छ के शालिभद्रसूरि अभिधानधारक एक और आचार्य ने वि० सं० ११३९ / ई० स० १०८३ में सटीक बृहत्संग्रहणीप्रकरण' की रचना की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुर्वावली इस प्रकार दी है -
शीलभद्रसूरि I
पूर्णभद्रसूरि 1
शालिभद्रसूरि (वि० सं० ११३९ / ई० स० १०८३ में
सटीक बृहत्संग्रहणीप्रकरण के रचनाकार)
I
रामसेन के ऊपरकथित लेख में उल्लिखित पूर्णभद्रसूरि तथा सटीकबृहत्संग्रहणीप्रकरण के कर्ता शालिभद्रसूरि के गुरु पूर्णभद्रसूरि सम्भवतः एक ही व्यक्ति हैं । रामसेन के उपर्युक्त लेख की मिति वि० सं० १११० तथा बृ० सं० प्र० की रचनामिति वि० सं० ११३९ के बीच २८ वर्षों का ही अन्तर है। इससे भी यह संभावना बलवत्तर होती है। ठीक इसी तरह वि० सं० ११२२ और वि० सं० ११२५ में क्रमशः षडावश्यकसूत्रवृत्ति और काव्यालंकारटिप्पन रचने वाले नमिसाधु के गुरु शालिभद्रसूरि भी उपर्युक्त बृ० सं० प्र० के कर्ता शालिभद्रसूरि से अभिन्न जान पड़ते हैं।
११
इसी गच्छ में वादिवेताल शांतिसूरि नामक एक प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हुए हैं। इनकी पांच कृतियां उपलब्ध हुई हैं, यथा :
१- उत्तराध्ययनसूत्र पर लिखी गयी पाइयटीका अपरनाम शिष्यहिताटीका
२- जीवविचारप्रकरण
३- चैत्यवन्दनमहाभाष्य
४- बृहद्शान्तिस्तव
५- जिनस्नात्रविधि
इनमें पाइयटीका और बृहदशान्तिस्तव अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। पाइयटीका की प्रशस्ति में टीकाकार ने थारापद्रगच्छ को चन्द्रकुल से समुद्भूत माना है, किन्तु रचना की तिथि एवं अपनी गुरु-परम्परा के बारे में वे मौन रहे हैं।
अपनी अन्य कृतियों की प्रशस्तियों में भी शांतिसूरि ने अपनी गुरु- परम्परा एवं रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है।
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Nirgrantha
राजगच्छीय आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि द्वारा रचित प्रभावकचरित' (रचनाकाल वि० सं० १३३४ / ई० स० १२७८ ) में वादिवेताल शांतिसूरि का जीवनपरिचय प्राप्त होता है। उसके अनुसार इनके गुरु का नाम विजयसिंहसूरि था और परमार नरेश भोज ( ई० स० १०१० -१०५५ ) की सभा में उन्होंने वादियों को परास्त किया और वादिवेताल की उपाधि से विभूषित हुए । महाकवि धनपाल की तिलकमञ्जरी का भी इन्होंने संशोधन किया था। प्रभावकचरित के अनुसार वि० सं० १०९६ / ई० स० १०४० में इन्होंने सल्लेखना द्वारा उज्जयन्तगिरि पर अपना शरीर त्याग दिया ।
१२
अब शान्तिसूरि तथा उनके गुरु विजयसिंहसूरि का थारापद्रगच्छीय मुनिजनों की पूर्वप्रदर्शित तालिका के साथ समन्वय बाकी रह जाता है । इस सम्बन्ध में इस गच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों से प्राप्त मुनिराजों की नामावली से हमें महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । यद्यपि ये लेख १४वीं से १६वीं शती तक के हैं और उनकी संख्या भी स्वल्प ही है, फिर भी उनसे ज्ञात होता है, कि थारापद्रगच्छ की इस शाखा में सर्वदेवसूरि, विजयसिंहसूरि और शान्तिसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति होती रही है ।
विजयसिंहसूर और वादिवेताल शान्तिसूरि का आपस में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध तो हमें प्रभावकचरित से ज्ञात हो चुका है, अतः विजयसिंहसूरि के गुरु सर्वदेवसूरि नामके आचार्य रहे होंगे, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं। इस प्रकार अन्य उत्तरकालीन प्रतिमालेखों के आधार पर थारापद्रगच्छ के इस शाखा की गुरु-शिष्य परम्परा की निम्न प्रकार से तालिका बन सकती है :
शिवप्रसाद
(सर्वदेवसूरि) T
विजयसिंह सूरि
I
वादिवेताल शांतिसूरि
(सर्वदेवसूरि)
(विजयसिंहसूरि ) I
(शांतिसूरि )
I
(सर्वदेवसूरि) [
(विजयसिंहसूरि)
1 शांतिसूरि
( वि० सं० १०९६ / ई० स० १०४० में स्वर्गवास ) उत्तराध्ययन सूत्रपाइयटीका, बृहद्शान्तिस्तव, जीवविचारप्रकरण, चैत्यवन्दनमहाभाष्य आदि के कर्ता
( इनके अनुयायी श्रावक यशश्चन्द्र ने वि० सं० १२५९ / ई० स० १२०३ में पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा बनवायी)
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Vol. 1-1995
सर्वदेवसूरि
विजयसिंहसूर
|
विजयसिंहसूरि
I
शांतिसूर
विजयसिंह सूरि (वि० सं० १३१५ / ई० स० १२५९ ) प्रतिमालेख
'
सर्वदेवसूरि
( वि० सं० १४५० / ई० स० १३९४) प्रतिमालेख
( प्रतिमालेख अनुपलब्ध)
( वि० सं० १४७९-१४८३ / ई० स० १४२३-१४२७) प्रतिमालेख
( प्रतिमालेख अनुपलब्ध)
(सर्वदेवसूरि)
[
विजयसिंहसूरि
शांतिसूर
धारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
रामसेन के वि० सं० १०८४ / ई० स० १०२८ के परिकरलेख में थारापद्रगच्छ के आचार्यों की जो गुरु-परम्परा मिलती है, उसमें सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि का भी नाम मिलता है। समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर इन्हें बादिवेताल शान्तिसूरि के प्रगुरु सर्वदेवसूरि से अभिन्न माना जा सकता है । इस प्रकार थारापद्रगच्छ के मुनिजनों के गुरु परम्परा की एक नवीन तालिका बनती है, जो इस प्रकार है :
वटेश्वरसूरि
ज्येष्ठाचार्य 1
शांतिभद्रसूरि
!
सिद्धान्तमहोदधि- सर्वदेवसूरि
(वि० सं० १२८८ / ई० स० १२३२)
प्रतिमा लेख. ( महामात्य वस्तुपाल द्वारा वि० सं० १२९८ / ई० स० १२४२ में शत्रुञ्जयमहातीर्थ पर उत्कीर्ण कराये गये शिलालेख में उल्लिखित थारापद्रगच्छीय सर्वदेवसूरि संभवतः यही सर्वदेवसूरि हो सकते हैं)
(वि० सं० १५०१-१५१६ / ई० स० १४४५ - १४६०) प्रतिमालेख
(वि० सं० १५२७-१५३२ / ई० स० १४७१-१४७६ ) प्रतिमालेख
[ प्रथम ]
शालिभद्रसूरि [ प्रथम ]
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
शांतिभद्रसूरि [द्वितीय]
वादिवेतालशांतिसूरि
[उत्तराधयनसूत्रपाइयटीका, बृहदशान्तिस्तव, जीवविचारप्रकरण, चैत्यवन्दनमहाभाष्य आदि के कर्ता वि० सं० १०९६ / ई० स० १०४० में मृत्यु
(सर्वदेवसूरि)
(विजयसिंहसूरि)
पूर्णभद्रसूरि वि० सं०१०८४/ ई० स०१०२८
एवं वि० सं० १११० / ई० स० १०५४ में रामसेन स्थित जिनालय
में प्रतिमा प्रतिष्ठापक शालिभद्रसूरि [द्वितीय वि० सं०११३९/
ई० स०१०८३ में सटीकबृहत्संग्रहणीप्रकरण के
रचनाकार नमिसाधु [वि० सं० ११२२/ ई० स०१०६५
में षडावश्यकसूत्रवृत्ति एवं वि० सं० ११२५ / ई० स० १०६८ में काव्यालंकारटिप्पन के रचनाकार
शांतिसूरि
(सर्वदेवसूरि)
(विजयसिंहसूरि)
(शांतिसूरि)
[इनके अनुयायी श्रावक यशश्चन्द्र ने वि० सं०१२५९/ ई० स०१२०३ में पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा बनवायी]
सर्वदेवसूरि
[वि० सं० १२८८ / ई० स० १२३२] प्रतिमालेख [महामात्य वस्तुपाल द्वारा वि० सं० १२९८ / ई० स० १२४२ में शत्रुञ्जय महातीर्थ पर उत्कीर्ण कराये गये शिलालेख में उल्लिखित सर्वदेवसूरि संभवत: यही हैं]
विजयसिंहसूरि
[वि० सं० १३१५ / ई० स० १२५९] प्रतिमालेख
.
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Vol. I-1995
धारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
सर्वदेवसूरि
[वि० सं० १४५० / ई० स० १३९४] प्रतिमालेख [प्रतिमालेख अनुपलब्ध]
विजयसिंहसूरि
शांतिसूरि
[वि० सं० १४७९-१४८३ / ई० स०१४२३-१४२७) प्रतिमालेख
सर्वदेवसूरि .
[प्रतिमालेख अनुपलब्ध]
विजयसिंहसूरि
[वि० सं० १५०१-१५१६ / ई० स०१४४५-१४६०] प्रतिमालेख]
शांतिसूरि
[वि० सं०१५२७-१५३२/ ई० स० १४७१-१४७७] प्रतिमालेख]
थारापद्रगच्छीय मुरु-शिष्य परम्परा की पूर्वप्रदर्शित तालिकाओं में सर्वप्रथम आचार्य वटेश्वर का नाम आता है। उनके कई पीढ़ियों बाद ही ज्येष्ठाचार्य से इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा प्रारम्भ होती है। अब हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वटेश्वर नामक कोई आचार्य हुए हैं ? यदि हुए हैं तो कब हुए हैं?
दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा [रचनाकाल शक सं० ७०० / ई० स० ७७८] की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परम्परा की नामावली दी है, इसमें सर्वप्रथम वाचक हरिगुप्त का नाम आता है, जो तोरराय (हुणराज तोरमाण) के गुरु थे। उनके पट्टधर कवि देवगुप्त हुए, जिन्होंने सुपुरुषचरिय अपरनाम त्रिपुरुषचरिय की रचना की। देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्रगणिमहत्तर हुए, जिनके नाग, वृन्द, दुर्ग, मम्मट, अग्निशर्मा और वटेश्वर ये ६ शिष्य थे। वटेश्वर क्षमाश्रमण ने आकाशवप्रनगर [अम्बरकोट/अमरकोट में जिनमंदिर का निर्माण कराया। वटेश्वर के शिष्य तत्त्वाचार्य हुए। कुवलयमालाकहा के रचनाकार दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि इन्हीं तत्त्वाचार्य के शिष्य थे। इस बात को प्रस्तुत तालिका से भली-भांति समझा जा सकता है :
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
वाचक हरिगुप्त
[तोरमाण के गुरु]
कवि देवगुप्त
सूपुरुषचरिय के रचनाकार]
शिवचन्द्रगणिमहत्तर
नाग
वृन्द
दुर्ग
मम्मट
अग्निशर्मा
वटेश्वर क्षमाश्रमण [आकाशवप्रनगर/अम्बरकोट/ अमरकोट में जिनमंदिर के निर्माता
तत्त्वाचार्य
दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि [शक सं० ७०० / ई० स०७७८ में कुवलयमालाकहा के रचनाकार]
कृष्णर्षिगच्छ के आचार्य जयसिंहसूरि ने वि० सं० ९१५ / ई० स० ८५९ में धर्मोपदेशमालाविवरण की रचना की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा का परिचय इस प्रकार दिया है
वटेश्वर क्षमाश्रमण
तत्त्वाचार्य
।
यक्षमहत्तर
कृष्णर्षि
जयसिंहसूरि [वि० सं०९१५ / ई०स०८५९ में
धर्मोपदेशमालाविवरण के रचनाकार] उक्त दोनों प्रशस्तियों की गुरु-परम्परा की तालिकाओं के समायोजन से उद्योतनसूरि और जयसिंहसूरि की गुरु-परम्परा की जो संयुक्त तालिका बनती है, वह इस प्रकार है:
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Vol. 1-1995
नाग
वृन्द
धारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
बाचक हरिगुप्त [किसी वैराग्यप्रधान कृति के कर्त्ता, तोरमाण के गुरु, मृत्यु प्रायः ई० स० ५२९]
कवि देवगुप्तसूरि [सुपुरुषचरिय के रचनाकार ]
1
शिवचन्द्रगणिमहत्तर [भिल्लमाल में स्थिरवास]
दुर्ग मम्मट
अमिशर्मा
दाक्षिण्यचिहन उद्योतनसूरि [वि० सं० ८३५ ई० स० ७७८ / शक सं० ७०० में] कुवलयमालाकहा के रचनाकार
बटेश्वर क्षमाश्रमण [आकाशवप्रनगर में जिनमंदिर के निर्माता ]
तत्त्वाचार्य
यक्षमहत्तर
कृष्णर्षि
जयसिंहसूर
[वि० सं० ९९५ / ई० स० ८५९ में धर्मापदेशमालाविवरण के
रचनाकार ]
उक्त आधार पर वटेश्वर क्षमाश्रमण का समय प्रायः ई० स० ६७५ ७२५ के बीच मान सकते हैं। चूंकि वे अपने समय के एक प्रभावक आचार्य रहें होंगे, अतः ११ वीं शती के प्रारम्भ में थारापद्रगच्छीय पूर्णभद्रसूरि द्वारा उन्हें अपने पूर्वज के रूप में स्मरण करना यही सूचित करता है कि बटेश्वर क्षमाश्रमण के ही किसी शिष्य की परम्परा आगे चलकर थारापद्रगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई, जिसमें बाद में प्रायः ५वीं पीढ़ी के करीब ज्येष्ठाचार्यादि हुए होंगे।
धारापद्रगच्छ से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों का वर्गीकरण १. प्रतिमालेख, २. शिलालेख
इसमें जनप्रतिमालेखों को दो भागों में बांटा जा सकता है -
क. थारापद्रगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें एवं उन पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण
१७
ख. थारापद्रगच्छीय मुनिजनों की प्रेरणा से इस गच्छ के श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें एवं उन पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण
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१८
१.
क थारापद्रगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें एवं उन पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण
१०८४ चैत्र पूर्णिमा शांतिभद्रसूरि के
पट्टधर पूर्णभद्रसूरि
२. १९१० चैत्र सुदि १३ शालिभद्रसूरि के पट्टधर पूर्ण भद्रसूरि
३. [११] फाल्गुन वदि १ सोमवार
१२
४. ११५७ वैशाख सुदि
१०
५. ११५७
37
६. १२६५ आषाढ़ सुदि ५
७. १२९८ ... शुक्रवार
33
33
शिवप्रसाद
शालिभद्रसूरि
१- प्रतिमालेख
सर्वदेवसूरि
आदिनाथ की प्रतिमा के परिकर
का लेख
अजितनाथ की प्रतिमा का लेख
शालिभद्रसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा आदिनाथ जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, का लेख जिनालय, भाग-२, सं० मुनि माणेकचौक, बुद्धिसागर, लेखाङ्क १०१२ खंभात
सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ जिनालय रामसेन (उत्तर
गुजरात)
महावीर की प्रतिमा लेख
शिलालेख
अजितनाथ
जिनालय, झवेरीवाड़,
अहमदाबाद
जैन मंदिर रांतेज
""
मोतीसा का मंदिर, रतलाम
Nirgrantha
अम्बालाल प्रेमचंद शाह, जैन तीर्थसर्वसंग्रह, खंड १,
भाग १, पृष्ठ ३९
N. C. Mehta, "A Mediaeval Jain Image of
Ajitanath", Indian
Antiquary Vol LVI, 1927, P. 72-74
प्राचीन जैनलेखसंग्रह, भाग-२, सं० मुनि जिनविजय, लेखाङ्क ४६६
वही, लेखाङ्क ४६७
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, सं० विनयसागर, लेखाइ ४८
U.P. Shah, "A Documentary from mount Shatrunjay", Journal of The Royal Asiatic Society of Bombay, Vol. xxx, pt. 1,
pp. 100-113
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Vol. I-1995
थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
८.१३०४ वैशाख सुदि
पुरुषोत्तमसूरि
चौबीसी । धर्मनाथ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, जिन-प्रतिमा का | जिनालय, | भाग २, लेखाङ्क ९५५ लेखमाणेक चौक,
खंभात
. १३०९
मदनचन्द्रसूरि
चैत्र वदि ९ ।। शुक्रवार
चिन्तामणि वही, भाग २, लेखाङ्क ५४९ पार्श्वनाथ जिनालय,
खंभात
१०. १३१५) वैशाख सुदि
विजयसिंहसूरि
| जिनप्रतिमा का | शांतिनाथ | बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग लेख जिनालय २, लेखाङ्क ७३५
खंभात
पूर्णचन्द्रसूरि
....दि ४ शुक्रवार
| संभवनाथ की चिन्तामणि ! नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क प्रतिमा का लेख | जिनालय,
३८५ खंभात
| १२. १४४० पौष सुदि १२ शीलभद्रसूरी के संभवनाथ की सुमतिनाथ शुक्रवार | उपदेश से श्रीसूरि चौबीसी प्रतिमा का जिनालय,
लेख रतलाम
विनयसागर, पूर्वोक्त,
लेखाङ्क १६६
१३. १४५० माघ वदि ९,
सोमवार
सर्वदेवसूरि
| वासुपूज्य की | संभवनाथ राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, पंचतीर्थी प्रतिमा का जिनालय, | सं० मुनि विशालविजय,
राधनपुर लेखाङ्क ८२
लेख
१४. १४७९
__शांतिसूरि
चैत्र वदि २ | गुरुवार
आदिनाथ की वीर जिनालय, श्री प्रतिमालेखसंग्रह, प्रतिमाका लेख | थराद, दौलत सिंह लोढा,
लेखाङ्क २०६
.१४८३ ज्येष्ठ सुदि ९
मंगलवार
आदिनाथ की | शांतिनाथ | वही, लेखाङ्क २६८ धातुकी चौबीसी चैत्य, सुथार प्रतिमा का लेख | सेरी, थराद
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२०
१६. १५०१ पौष वदि ६
बुधवार
१७. १५०५ वैशाख सुदि ३
शुक्रवार
१८. १५१२ ज्येष्ठ सुदि ५
रविवार
१९. १५१६ पीव वदि ५
गुरुवार
२१. १५३२ वैशाख सुदि १३ शनिवार
सर्वदेवसूरी के पट्टधर विजयसिंहसूरि
विजयसिंहमूरि
""
२०. १५२७ कार्तिक वदि ५ विजयसिंह के पट्टधर सोमवार
शांतिसूरि
शांतिसूरि
77
२२. १५३३ कार्तिक सुदि ५ विजयसिंहमूर के पट्टधर शांतिसूरि
गुरुवार
शिवप्रसाद
श्रेयांसनाथ की वीर जिनालय, प्रतिमा का लेख
थराद
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की चौबीसी प्रतिमा का लेख
अजितनाथ की प्रतिमा का लेख
वीर जिनालय
थराद,
श्रेयांसनाथ की वीर जिनालय, चौबीसी प्रतिमा का लेख
धराद
""
विमलनाथ
चैत्य देसाईसेरी, धराद,
93
Nirgrantha
वही, लेखा ६५
वही, लेखाङ्क १४२
वही, लेखाइ २२९
वही, लेखाङ्क ६१
वही, लेखा १६५
वही, लेखाइ १७२
शांतिनाथ की शेठ केशरीमला नाहर, पूर्वोक्त, लेखा प्रतिमा का लेख
२४६४
का देरासर जैसलमेर।
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Vol. 1-1995
थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त...
ख. थारापद्रगच्छीय मुनिजनों की प्रेरणा से इस गच्छ के श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें एवं उन पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण
क्रमांक
संवत् । तिथि | प्रतिमालेख | प्रतिष्ठा स्थान
संदर्भ ग्रन्थ
१.
| १११८ |
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विमलवसही,- आबू प्राचीनजैन लेख संग्रह, भाग २,
सं० मुनि जिनविजय, लेखाङ्क १५४
एवं अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, आबू, भाग २, सं० मुनि जयन्तविजय,
लेखाङ्क ६३
पार्श्वनाथ की पीतलकी प्रतिमा
का लेख
"राष्ट्रीय संग्रहालय की कतिपयधातु प्रतिमायें" जैन सन्देश शोधाङ्क, भाग ४१, अगरचन्द नाहटा, वर्ष ४२,
पृष्ठ २४२-२४६
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
विमलवसही,
आबू
मुनि जयन्तविजय, पूर्वोक्त,
लेखाङ्क ७४
|
४. । ११३९ । मार्ग० सुदि
अजितनाथ जिनालय प्रतिष्ठालेखसंग्रह, सं० विनयसागर, सिरोही
लेखाङ्क ९
११६१
शीतलनाथ की पार्श्वनाथ जिनालय, प्रतिमाका लेख आरासणा,
मुनि जिनविजय, पूर्वोक्त,
लेखाङ्क २९७
११९१ मार्ग० वदि ५
एकतीर्थी जिनप्रतिमा का
लेख
अनुपूर्तिलेख,
आबू
मुनि जयन्तविजय, पूर्वोक्त,
लेखाङ्क ५१०
१२१० फाल्गुन सुदि पार्श्वनाथ की शांतिनाथ जिनालय, अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह, ११ । प्रतिमाका लेख | नांदिया आबू, भाग ५, सं० मुनि जयन्तविजय,
लेखाङ्क ४५४
८.
१२३४ माघ सुदि १०महावीर की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३६
बुधवार | का लेख न सिरोही
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२२
(i)
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१२५१
१२५९
१२५९ ज्येष्ठ सुदि ३
१२९४ वैशाख सुदि ८ शुक्रवार
शिवप्रसाद
ज्येष्ठ सुदि पार्श्वनाथ की प्रतिमा
१५
का लेख
१३३४ माघ सुदि १० रविवार
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
चिन्तामणि जिनालय, चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर
जिनप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
पार्श्वनाथ जिनालय, माणकचौक खंभात
शांतिनाथ जिनालय, जैन धातुप्रतिमा लेख संग्रह, भाग कटाकोटडी, खंभात २, सं० मुनि बुद्धिसागर, लेखाङ्क ६०९
चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर
Nirgrantha
बीकानेर जैन लेख संग्रह, सं० अगरचंद नाहटा, लेखाइ १०३
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग २ लेखाइ २८
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखा १३३
सुविधिनाथ की जैन मंदिर, शंखेश्वर जिनविजय, पूर्वोक्त, लेखा ४९८ प्रतिमा का लेख
२. शिलालेख
महामात्य वस्तुपाल द्वारा शत्रुञ्जय महातीर्थ पर उत्कीर्ण कराये गये शिलालेख की प्राचीन नकल में (जिसका पूर्व में उल्लेख आ चुका है) अन्य गच्छों के आचार्यों के साथ साथ धारापद्रगच्छ के आचार्य सर्वदेवसूरि और पूर्णभद्रसूरि का भी उल्लेख है।
लेख के मूलपाठ के लिये द्रष्टव्य UP Shah "A Forgotten Chapter In The History of Svetambara Jaina Church" JASB Vol. 30, Part 1, 1955, pp. 100-113.
वि० [सं०] १३३३ का शिलालेख, जिसमें चाहमान नरेश चाचिगदेव के राज्य में स्थित महावीर जिनालय को धारापद्गच्छ
के आचार्य पूर्णभद्रसूरि के उपदेश से दान देने का उल्लेख है।
द्रष्टव्य- प्राचीन जैन लेखसंग्रह, भाग २, सं० मुनि जिनविजय, लेखाङ्क ४०२.
घोषाकी जैन प्रतिमा निधि की दो जिन प्रतिमायें इस गच्छ से सम्बन्ध हैं। इन पर वि० सं० १२५९ और वि० सं० १५१४ के लेख उत्कीर्ण हैं, किन्तु इनके मूलपाठ हमें प्राप्त नहीं हो सके हैं, अतः इनके सम्बन्ध में विशेष विवरण दे पाना कठिन है।
संदर्भ- मधुसूदन ढांकी और हरिशंकर शास्त्री, "घोघानो जैन प्रतिमा निधि", फार्बस गुजराती सभा त्रैमासिक, जनवरी मार्च अंक, ई० स० १९६५.
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________________ Vol. I-1995 थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त... संदर्भसूची:१. अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह, जैनतीर्थसर्वसंग्रह, खंड 1, भाग 1, अहमदाबाद 1953, पृ० 39. 2. N. C. Mehta, "A Mediaeval Jaina Image of Ajitanath", Indian Antiquary, Vol LVI, 1927, pp.72-74. 3. Ibid., Pp. 73-74. 4. Muni Punyavijaya, New Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts: Jesalmer Collection, L. D. series No. 36, Ahmedabad 1972, pp. 43. H.D. Velankar - Jinaratnakosha, Government Oriental Series class C No.4, Pune 1944, p. 37. 4. Muni Punyavijaya, Ibid., p. 140. 6. Ibid., pp. 69-70. 1. Muni Punyavijaya, Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss in the Shanti Natha Jaina Bhandar, Cambay,G.O.S. Vol 135,149 part I, II, Baroda 1961-1966, pp. 109-112. 8. "वादिवेताल शांतिसूरिचरितम्", प्रभावकचरित, सं० मुनि जिनविजय, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क 13, बम्बई 1941, पृ० 133-137. 9. कुवलयमालाकहा, सं० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क 45, बम्बई 1959, पृ० 282-284; एवं अपभ्रंशकाव्यत्रयी, सं० पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, गायकवाड़ प्राच्य ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ 37, द्वितीय संस्करण, बडोदरा 1967, भूमिका, पृ० 90-91. 10. धर्मोपदेशमालाविवरण, सं० पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थार 28, बम्बई 1959, पृ० 228-230.