Book Title: Tavesu va Janma Bambhachera
Author(s): Muditkumar
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 5
________________ स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ आचार्य नहीं चाहते थे कि वह मुनि देखादेखी से ऐसा करे। बार-बार गुरू के निषेध करने पर भी उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। अन्त में वही हुआ जो होना था । चातुर्मास बिताने के लिए वह कोशा के यहां पहुंच गया। कुछ दिन बीते । इन्द्रियविषयों की सुलभता । मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस आदि पांचों विषयों ने अपना प्रभाव डाला और उसकी कामवृत्ति जागृत हो गई। अब वह कोशा का सहवास पाने के लिए आतुर था। अवसर देखकर एक दिन अपनी भावना को कोशा के सामने रख दिया । कोशा तो पहले से ही संभली हुई थी। वह नहीं चाहती थी कि कोई मुनि उसके कारण संयम - भ्रष्ट बने । मुनि को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने मुनि से कहा - यदि आप मुझे पाना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी । नेपाल से रत्न - कम्बल को लाना होगा। काम भावना की अभीप्सा ने मुनि को नेपाल जाने के लिए विवश कर दिया। बरसात का मौसम । मार्गगत सैकड़ों कठिनाइयां और चातुर्मास के बीच विहार । जैसेतैसे अनेक कष्टों को सहकर मुनि नेपाल पहुंचा और रत्न कम्बल लेकर पुनः आ गया । भीतर ही भीतर वह बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि आज उसकी मनोभावना सफल होगी। मुनि ने रत्न कम्बल कोशा को दी। किन्तु कोशा ने मुनि के देखते-देखते कीचड़ से सने हुए पैरों को रत्न कम्बल से पौंछा और उसे नाली में फेंक दिया। इस घटना को मुनि विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया। उसके मन पर एक गहरी प्रतिक्रिया हुई कि कितने कष्टों को सहकर मैं इसे यहां लाया और उसका यह दुरूपयोग ! बात कुछ समझ में नहीं आई। अन्त में उसने कोशा से पूछ ही लिया - भद्रे ! तुमने यह क्या किया ? इस बहुमूल्य कम्बल का क्या यही उपयोग था ? कोशा ने व्यंग्य की भाषा में कहा- संयम रत्न से बढ़कर रत्नकम्बल कौनसी अमूल्य वस्तु है ? आपने तो तुच्छ कामभोगों के लिए संयमरत्न जैसी अनमोल वस्तु को भी छोड़ दिया । फिर रत्नकम्बल है ही क्या ? कोशा के इन वाक्यों ने मुनि के अन्तःकरण को बींध दिया। पुनः वह संयम में स्थिर हो गया। उसे आचार्य के 'महादुष्कर' कथन की भी स्मृति हो आई जिसके कारण उसने यह प्रचंग रचा था। अन्त में वह आचार्य के पास आया और कृत दोष की आलोचना कर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गया। - - अब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है। १. दिव्य – देवता संबंधी २. मानुषिक मनुष्य संबंधी ३. तिर्यगयौनिक - पशु-पक्षी संबंधी । इस त्रिविध मैथुन सेवन का तीन Jain Education International 2010_03 १५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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