Book Title: Tavesu va Janma Bambhachera Author(s): Muditkumar Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 6
________________ दर्शन दिग्दर्शन करण और तीन योग से यावज्जीवनार्थ परित्याग करने पर ब्रह्मचर्य के 343 43 = 27 भंग बन जाते हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल वस्ति-नियमन ही नहीं केवल दैहिक भोग से विरमण नहीं, उसकी पूर्णता ब्रह्यआत्मा में रमण करने से होती है। इस साधना के लिए मन पर नियंत्रण और भावों का परिष्कार अपेक्षित होता है। जिसने यह साधना सिद्ध कर ली, वह उत्तम तपस्वी है। प्रतिकूल स्थितियों को सहना अपेक्षाकृत सरल है किन्तु मनोनुकूल स्थितियों में मन का संयम न रखना कठिन होता है। अब्रह्मचर्य से शक्तिक्षय और ब्रह्मचर्य से शक्तिसंचय होता है, शक्ति की रक्षा होती है। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों में वीर्यवत्ता आवश्यक होती है आरै ब्रह्मचर्य से वह सुचारू रूप में प्राप्त होती है। इसलिए ब्रह्मचर्य को उत्तम तप की संज्ञा देना सार्थक प्रतीत होता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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