Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Tikaye Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 3
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं ३९ १ आचार्य विद्यानंद उक्त मंगल श्लोक को सूत्रकार का स्वीकार करते हुए आप्तपरीक्षा के प्रारम्भ में लिखते हैं 'किं पुनस्तत्परमेष्टिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते ।' आप्तपरीक्षा का उपसंहार करते हुए वे पुनः उसी तथ्य को दुहराते हैंश्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् । विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ॥१२३ ।। प्रकृष्ट सम्यद्गर्शनादिरूपी श्लोकों की उत्पत्ति के स्थान भूत श्रीमत्तत्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्र की रचना के आरम्भ काल में महान मोक्ष पथ को प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्र को शास्त्रकारों ने समस्त कर्ममल का भेदन करने के अभिप्राय से रचा है और जिसकी स्वामी (समन्तभद्र आचार्य) ने मीमांसा की है उस स्तोत्र के सत्य वाक्यार्थ की सिद्धि के लिए विद्यानन्द ने अपनी शक्ति के अनुसार किसी प्रकार निरूपण किया है ॥१२३॥ इसी तथ्य को उन्होंने पुनः इन शब्दों में स्वीकार किया है-- इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा। प्रणीताप्तपरीक्षयं विवादविनिवृत्तये ॥ १२४ ॥ इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्र के प्रारम्भ में मुनीन्द्र के स्तोत्र को विषय करनेवाली यह आप्तपरीक्षा विवाद को दूर करने के लिए रची गई है ॥ १२४ ॥ आप्त परीक्षा के ये उल्लेख असंदिग्ध हैं । इनसे विदित होता है कि आचार्य विद्यानन्द के समय तक उक्त मंगल श्लोक सूत्रकार की कृति के रूप में ही स्वीकार किया जाता था । ___२. एक और आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नामक विस्तृत भाष्य लिखकर भी उसके प्रारम्भ में इस मंगल श्लोक की व्याख्या नहीं की और दूसरी ओर वे आप्तपरीक्षा में उसे सूत्रकार का स्वीकार करते हैं। इससे इस तर्क का स्वयं निरसन हो जाता है कि तत्त्वार्थ सूत्र के वृत्ति, भाष्य और टीकाकारों ने उक्त मंगल श्लोक की व्याख्या नहीं की, इसलिए वह सूत्रकार का नही है । स्थिति यह है कि स्वामी समन्तभद्र द्वारा तत्त्वार्थसूत्र के उक्त मंगल श्लोक की स्वतन्त्र व्याख्या के रूप में आप्त मीमांसा लिखे जाने पर उत्तरकालीन पूज्यपाद आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र पर वृत्ति लिखते हुए उसके प्रारम्भ में उक्त मंगल श्लोक की पुनः व्याख्या लिखने का उपक्रम नहीं किया । भट्ट अकलंक देव ने आप्तमीमांसा पर अष्टशती लिखी ही है, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र पर अपना तत्त्वार्थ भाष्य लिखते समय उन्होंने भी उक्त मंगल श्लोक की स्वतन्त्र व्याख्या नहीं लिखी। यद्यपि आचार्य विद्यानन्द ने उक्त मंगल श्लोक की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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